राजग ने महज एक साल में ही विज्ञापनों
पर कर दिया संप्रग के दस साल के बराबर खर्च।
मनमोहन सरकार ने सरकारी खजाने से अपने
पहले पाँच साल के शासन (2004–2009)
में 312 करोड़ रुपये विज्ञापनों पर खर्च किये थे वहीं दूसरे पाँच साल (2009–2014) में उसने दोगुने से ज्यादा 696
करोड़ रुपये खर्च किये थे। पिछली सरकार को काफी पीछे छोड़ते हुए मोदी सरकार ने सिर्फ
एक साल में ही 993 करोड़ रुपये विज्ञापनों पर फूँक दिये।
विज्ञापनों पर हो रहे इस बेतहाशा खर्चे को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने 24 अप्रैल
2014 को जनता के पैसों का दुरूपयोग रोकने के लिए सरकार को दिशा–निर्देश तय करने के लिए कहा। न्यायालय
का कहना है कि केन्द्र एवं राज्य सरकारों के विज्ञापनों केन्द्रीय मन्त्री, मुख्यमंत्रियों, राज्यों के मंत्रियों व राज्यपाल समेत
किसी भी नेता की तस्वीर व नाम नहीं होना चाहिए। साथ ही उनमें पार्टी का नाम, चुनाव चिन्ह, प्रतीक या किसी नेता का फोटो भी नहीं
होना चाहिए। हालाँकि राष्ट्रीय नेताओं, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश की
तस्वीरें और नाम हो सकते हैं, लेकिन
इनकी भी मंजूरी लेनी होगी कि विज्ञापन में उनकी तस्वीर और नाम इस्तेमाल किया जाये
या नहीं।”
सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश के खिलाफ
कई राज्यों जैसे–– तमिलनाडु, असम, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और केन्द्र सरकार ने
पुनर्विचार याचिका दाखिल कर दी है। 17 फरवरी 2015 को केन्द्र सरकार ने एक याचिका
में सरकारों के विज्ञापनों के नियमन के लिए दिशा–निर्देश का विरोध किया। सरकार की तरफ से कहा गया कि यह न्यायपालिका
के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। सरकार संसद के प्रति जवाबदेह हैं। यानी सरकार
नहीं चाहती कि सर्वोच्च न्यायालय सरकार के किसी भी काम में बाधा डाले। सरकार
सर्वोच्च न्यायालय के प्रति अपनी जवाबदेही नहीं मानती है।
अगर पिछले डेढ़ दशक में सरकारों द्वारा
विज्ञापनों के इस्तेमाल पर एक नजर डालें तो राजग के “शाइनिंग इंडिया” और “भारत उदय” को, “फील
गुड” को और फिर राजग के ही ‘सबका साथ सबका विकास’ और ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ जैसे
नारों की असलियत को समझा जा सकता है। ‘इण्डिया
शाईनिंग’ और ‘भारत उदय’ के विज्ञापनों पर पानी की तरह पैसा
बहाया गया। फिर भी जनता को चमकता हुआ भारत कहीं भी नजर नहीं आया और एनडीए सरकार का
उदय न होकर अस्त हो गया।
“विकास किया है विकास करेगें”
भी
संप्रग के कार्यकाल में हुए घोटालों पर पर्दा नहीं डाल सके। नतीजा देश की सब से
बड़ी पार्टी विपक्ष में बैठने लायक भी नहीं रही। यानी इन विज्ञापनों में जनता को
विकास की जगह अपना विनाश ही नजर आया।
सबका साथ सबका विकास, अच्छे दिन, हम महँगाई दूर करेंगे जैसे नारों को
विज्ञापनों के जरिये पूरे भारत के जनमानस में ठूँस दिया जिसके चलते भाजपा पूर्ण
बहुमत के साथ सत्ता में आयी। सत्ता में आये उसे 18 महीने हो गये हैं। लेकिन अभी तक
‘विकास जी’ पैदा नहीं हुए। ऐसा लगता है जैसे विकास
के पापा केवल मनमोदक खाते हैं और जनता को भी खिलाना चाहते हैं। सरकार भी
विज्ञापनों की नाव पर ही वैतरणी पार करना चाहती है। बल्कि विज्ञापनों ने एक देवदूत
तो पैदा कर दिया, लेकिन चमत्कार न होते हैं और न ही हो
पाया है उलटे इस देवदूत और विकास के मसीहा को दिल्ली और बिहार की जनता ने औंधे
मुँह गिरा दिया। कहावत है कि कुछ लोगों को काफी समय तक और काफी लोगों को कुछ समय
तक ही भ्रमित किया जा सकता हैं, लेकिन
सभी लोगों को हमेशा के लिए भ्रमित नहीं किया जा सकता। विज्ञापन विकास नहीं कर सकते, महँगाई दूर नहीं कर सकते, देश की स्वास्थ्य और शिक्षा प्रणाली को
ठीक नहीं कर सकते, विज्ञापन देश के अन्नदाता किसान की
आत्महत्याओं का सिलसिला नहीं रोक सकते, न ही
देश में रोजगार का सृजन कर बेरोजगारी को दूर कर सकते हैं। जब विज्ञापन इनमें से
कुछ भी नहीं कर सकते तो फिर जनता का धन जनता पर खर्च करने के बजाय विज्ञापनों पर
क्यों खर्च किया जा रहा है।
क्या जनता के सच्चे नेताओं और उनकी
पार्टी को अपनी पहचान बनाने के लिए, अपने
द्वारा किये गये काम का बखान करने के लिए विज्ञापनों की जरूरत पड़ती हैं अगर
विज्ञापनों की जरूरत होगी भी तो जनता को जागरूक करने के लिए होगी, जैसे–बच्चों को पढ़ने भेजने का महत्त्व क्या है, टीकाकरण क्यों जरूरी है, महिलाओं के क्या अधिकार है, पर्यावरण को अच्छा बनाये रखना हमारे
लिए क्यों जरूरी है, साम्प्रदायिकता फैलने से देश को क्या
हानि होती है, तर्कशीलता और वैज्ञानिक सोच हमें
अन्धविश्वासों से कैसे बचाती है और वैज्ञानिक सोच किसी भी समाज और देश को आगे कैसे
बढ़ाती है। क्या आज के नेता ऐसी जागरूकता फैलाने का काम करेंगे?
विज्ञापन है क्या? इसे कौन इस्तेमाल करता है और क्यों?
आम तौर पर विज्ञापन का मतलब होता है
प्रचार या मशहूरी। कम्पनियाँ अपना माल बेचने के लिए विज्ञापन का इस्तेमाल करती हैं।
यह बताने के लिए कि उसका सौदा सबसे खरा है। उसका सौदा ग्राहक के लिए बहुत जरूरी है।
उसके बिना काम नहीं चलने का। जैसे फेयर एण्ड लवली क्रीम अगर नहीं लगाओगे तो आप
काले ही रह जाओगे और काले रहे तो आपकी शादी नहीं होगी। फलाँ ब्राण्ड का कच्छा–बनियान पहनकर पहलवान बन जाओगे। फलाँ
ब्लेड से दाढ़ी बनाकर आप ‘हैण्डसम हंक’ बन जायेंगे, इत्यादि। हमारी सरकार और उसे चलानेवाले
नेता भी लगता है कि अपना नकली माल जनता के गले मढ़ना चाहते हैं। विज्ञापनों और मन
की बात का प्रसारण करके आज पर्यावरण संकट से लड़ा जा रहा है, बेटियों को पढ़ाया, बचाया और बढ़ाया जा रहा है, कौशल विकास (स्किल–डेवलपमेंट) किया जा रह हैय किसानों को
खुशहाल बनाया जा रहा है, मेड इन इण्डिया की जगह मेक इन इण्डिया
को जायज ठहराया जा रहा है,
विदेशी निवेशकों के जरिये ही आज भारत
तरक्की कर सकता है यह जोर देकर विज्ञापनों द्वारा देश की जनता को बताया और समझाया
जा रहा है। भारत को दुनिया की चोटी पर और विकास की नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाने में
विज्ञापन का गुब्बारा ही काम आ रहा रहा है। यहाँ तक कि चीन को भी आर्थिक वृद्धि दर
में पीछे छोड़नेवाली शक्ति भी विज्ञापन ही है। लेकिन जब विज्ञापन का गुब्बारा
पिचकता है और सच्चाई सामने आती है तो पता चलता है कि हमारा देश गरीबी, भुखमरी, कुपोषण और बेरोजगारी में अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका से भी निचले
पायदान पर है। यहाँ प्रसव के समय दुनिया–भर
में सबसे ज्यादा महिलाएँ मरती हैं, यहाँ
के बच्चों में कुपोषण अफ्रीकी देशों से भी ज्यादा है। यहाँ मानव विकास सूचकांक हर
साल बदतर होता जा रहा है। यानी विज्ञापनों से देश को गुमराह किया जा रहा है।
इन विज्ञापनों का जहर किस तरह आम
जनमानस के दिलो दिमाग में भर दिया गया है, इसे
हम एक ताजा उदाहरण से भी समझ सकते हैं, जिस
समय चेन्नई शहर बाढ़ के कहर में डूब रहा था ठीक उसी दौरान शहर में एक चमत्कारी विज्ञापन
लहरा रहा था उस सरकारी विज्ञापन में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता बाढ़ के पानी
में गले तक डूबी एक बच्ची को पानी से निकलकर हाथ में उठाये दिख रही हैं। इसे
चमत्कार कहा जाये या रजनीकान्त का एक स्टंट!
जमीनी हकीकत यह है कि अभी तक इस आपदा
ने कितने लोगों की जिन्दगी लील ली, कितने
घर बह गये, कितने परिवार बेघर हो गये, कितने लोग लापता हैं, कितनी फसल नष्ट हो गयी, कितनी जमीन बह गयी और जनधन का कितना
नुकसान हुआ इसका अनुमान लगाना मुश्किल है। जहाँ गटर का पानी और पीने का पानी एक हो
गया हो, जहाँ लोग भूख से मर रहे हों, पानी के लिए तरस रहे हों, वहाँ सबसे जरूरी है कि उनके खाने–पानी और जरूरी चीजों की व्यवस्था की
जाये, उनकी जिन्दगी को दोबारा पटरी पर लाया
जाये, यह सोचा जाय कि बाढ़ के बाद गन्दगी और
महामारी को किस तरह रोकें लेकिन ये कैसा क्रूर मजाक है कि मुख्यमंत्री अम्मा जी
जनता के धन से सरकारी विज्ञापनों में अपनी मसीहाई छवि परोस रही हैं।
विज्ञापनों का ही असर है कि जब अम्मा
जी को आय से अधिक सम्पत्ति के लिए जेल भेजा गया तो उसकी रिहाई के लिए वहाँ के लोग
आन्दोलन और आत्मदाह करने तक चले गये।
आज सभी पार्टियों के नेता और उनकी
सरकारें जनसम्पर्क के लिए जनता के बीच जाकर उनका दु:ख–दर्द सुनने की जगह जनसम्पर्क में लगी
देशी–विदेशी कम्पनियों के ऊपर निर्भर होती
जा रही हैं। वे कम्पनियों को ठेका देती हैं, कम्पनियाँ
उनके लिए झूठ गढ़ती हैं और उसे इतना विश्वसनीय बनाकर विज्ञापनों में पेश करती हैं
कि झूठ भी लोगों को सच लगने लगता है। वाद–विवाद
गायब, राजनीतिक बहस गायब, बचा है केवल झूठ को सच बनाने का माया
जाल। हमें इस मायाजाल को काटने, झूठ
का भण्डाफोड़ करने, सच्चाई को जानने का भरपूर प्रयास करना
होगा।
––अमरपाल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें