रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने
हाल ही में कहा कि भारत के ज्यादातर कारखाने अपनी क्षमता का 70 फीसदी ही उत्पादन
कर पा रहे हैं, जबकि 2011–12 में वे अपनी क्षमता का 80 फीसदी
उत्पादन कर रहे थे। रघुराम राजन का यह वक्तव्य विनिर्माण क्षेत्र की वर्तमान
स्थिति की और इशारा करता है। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक विनिर्माण क्षेत्र में
विकास दर पिछले 22 महीनों के सबसे निचले स्तर पर है। क्रेडिट स्विस ने 12 अक्टूबर
को अपनी रिपोर्ट में कहा है कि संरचनागत ढाँचे से लेकर खनन क्षेत्र तक की दस बड़ी
कम्पनियों का समूहिक कर्ज उनके अनुमानित मुनाफे से 6 गुना ज्यादा हो गया है। अन्य
उद्योगो की भी यही स्थिति नजर आ रही है। पिछले दिनों सरकारी बैंको का बुढंत खाता
कर्ज 27 फीसदी तक बढ़ा है,
बुढंत खाता कर्ज वह होता है जिसके
डूबने की सम्भावना होती है। पिछले 12 महीनों में बैंको के 3–36 करोड़ रुपये गैर–निष्पादित परिसम्पत्तियों के चलते डूब
गये। कमोबेश इसी तरह की तस्वीर अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में भी देखने को
मिल रही है। इन सभी तथ्यों को वर्तमान वैश्विक मन्दी के परिप्रेक्ष्य में ही समझा
जा सकता है। 2008 में अमरीका में आयी आर्थिक मन्दी ने पूरी दुनिया के सामने कई
प्रश्न छोड़े थे, उन्हें हल करने की जगह पूँजीपतियों में
मुनाफे की हवस पहले से भी ज्यादा बढ़ी और आज वे अपनी बनायी दुनिया में फँसते नजर आ
रहे हैं।
बर्बाद होते लघु उद्योग
वैश्विक मन्दी और गिरती अर्थव्यवस्था
का सबसे बुरा प्रभाव लघु उद्योगों पर पड़ा है, जिसमें
चमड़ा उद्योग, पावरलूम, खादी उद्योग इत्यादी आज बन्द होने के कगार पर हैं। मेरठ स्थित गाँधी
आश्रम का खादी कारखाना कुछ यही तस्वीर पेश करता है, कभी पूरे इलाके में आकर्षण का केन्द्र रहा यह कारखाना आज खण्डहर
मालूम पड़ता है। वहाँ रंगाई विभाग में कार्यरत सतीश चन्द्र (50 वर्षीय) बताते हैं
कि पिछले वर्षों में माँग बहुत कम हुई है, जिससे
पूरे उत्तर भारत में खादी से जुड़े बहुत से कारखाने बन्द होने की कगार पर हैं।
आमदनी की बात करने पर वह बताते हैं कि एक चादर को रंगने पर 7–8 रुपये तक मिलते हैं। महीने में 150
चादर तक रंगने पर मुश्किल से 2000 तक की आमदनी हो पाती है जो न्यूनतम मजदूरी से भी
बहुत कम है, इसके चलते कभी 100 से ऊपर कर्मचारियों
वाले रंगाई विभाग में आज केवल एक ही बचा है। कारखाने में मौजूद प्लेन्डर मशीन, जो कभी कपड़ों को चिकना करने के काम आती
थी, आज धूल गर्द में दबी है। उन्होंने आगे
बताया की पहले गाँधी ग्राम उद्योग के अन्तर्गत आने से खादी की माँग इन्हीं
कारखानों द्वारा पूरी की जाती थी जिससे हजारों लोगों को रोजगार मिलता था परन्तु आज
यह काम मिलों में होने लगा है, जहाँ
कुछ ही लोगों से कई सौ लोगों का काम करवा लिया जाता है। हालाँकि वैश्विक मन्दी के
चलते उन मिलों की हालत भी बहुत खराब है।
यही स्थिति चमड़ा उद्योगों की है, मेरठ स्थित शोभापुर गाँव के एक चमड़ा
व्यापारी ने बताया कि पिछले वर्षों में इन उद्योगों में 20–25 फीसदी तक की गिरावट आयी है, जिससे बहुत से मजदूरों को अपनी नौकरी
से हाथ धोना पड़ा है। चमड़ा उद्योग में लगे मजदूरों को बहुत बुरी परिस्थितयों में
काम करना पड़ता है, एक सामान्य व्यक्ति के लिए यहाँ काम
करना नरक में जीना है। एक मजदूर ने बताया कि दिन में 14–16 घंटे काम करने के बाद मुश्किल से
महीने–भर में दस हजार तक की कमाई हो पाती है।
पिछले दिनों आयी वैश्विक माँग में कमी से केवल मवाना क्षेत्र के ही दो गाँवों, सटला और बैजाद में लगे चमड़ा कारखाने
बन्द हो गये, जिससे उनमें लगे मजदूर आज भुखमरी की
स्थिति में हैं। दो सालों के अन्तराल में ही मेरठ क्षेत्र के लगभग 5,000 मजदूर
मन्दी के चलते अपना रोजगार गवाँ चुके हैं। यह जमीनी हकीकत देश की आर्थिक प्रगति की
धुँधली तस्वीर पेश करती है। श्रम सांख्यिकी ब्यूरो इसी बात को पुष्ट करते हुए
बताता है कि इस वर्ष चमड़ा उद्योगों, रत्न
और आभूषण आदि क्षेत्रों में 16,000 रोजगार कम हुए हैं। जाहिर है कि मुट्ठीभर
पूँजीपतियों की हवस का शिकार हजारों मेहनतकशों को होना पड़ रहा है।
चीन और यूनान संकट का प्रभाव
आज पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था एक–दूसरे से जुड़ी हुई है। एक जगह संकट आने
का मतलब है हर जगह उसका प्रभाव पड़ना। 2008 की मन्दी के दौरान लेहमन ब्रदर बैंक के
डूबने का प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ा था। इसके चलते आईसीआईसीआई बैंक को भारत में
लगभग 150 करोड़ का नुकसान हुआ था। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया और पंजाब नेशनल बैंक का 50–50 लाख डॉलर निवेश के कारण डूब गया था।
लेहमन ब्रदर बैंक की भारतीय शाखा में काम कर रहे 2500 कर्मचारियों को अपनी
नौकरियों से हाथ धोना पड़ा था। भारत में रोजगार पर इसका बहुत बुरा असर पड़ा था।
संकटों से सबक लेने की जगह फौरी हल तलाशने के कारण ही आज स्थिति पहले से भी अधिक
गम्भीर दिखती है। आज संकट की उसी कड़ी में चीन और यूनान आगे जुड़ते लग रहे हैं। इन
देशों पर आये संकटों ने दुनिया को एक बार फिर ठहराव की स्थिति में ला दिया है।
यूनान का संकट वहाँ की सरकार के बॉण्ड
में अनाप–सनाप निवेश से उत्पन्न हुआ। आज वित्तीय
पूँजी की अर्थव्यवस्था में बॉण्ड ही सबसे मुख्य कारक है जो तय करता है कि कौन–कौन कम्पनियाँ और अर्थव्यवस्थाएँ मजबूत
होंगी और कौन–कौन ध्वस्त होंगी। बॉण्ड ऐसा कर्ज पत्र
है जिसको सरकार पैसे उधार लेने के लिए
जारी करती है। यह तय रहता है कि इस पैसे को कब लौटाना है और किस दर से सूद अदा
करना है। इन बॉण्ड की अनगिनत बार खरीद–बिक्री
हो सकती है। इसके लिए बैंकों ने तरह–तरह
की वित्तीय व्युत्पत्तियाँ ईजाद की हैं। यूनान सरकार द्वारा 10 नवम्बर 2009 को 10–5 अरब डॉलर के कर्ज के लिए जारी किये
गये बॉण्ड का मूल्य 2012 तक करीब आधा रह गया था। जब यूनान सरकार यूरोपीय यूनियन और
आईएमएफ से दूसरी बार राहत कोष की माँग कर रही थी तब तक इस बॉण्ड के धारक अपने
निवेश का पूरा मूल्य गवाँ चुके थे, और
अब इस दूसरे राहत कोष ने यूनानी नागरिकों के अरबों यूरो उन विदेशियों के हवाले कर
दिये, जो सट्टेबाजी में वहाँ के बॉण्ड पर
अनाप–सनाप दाँव लगा रहे थे,
जिसके
परिणामस्वरूप आज यूनान के हर नागरिक पर 31,000 यूरो तक का विदेशी कर्ज चढ़ चुका है।
यूनान संकट के कारण यूरोप के बाजारों में ब्याज दर बढ़ने और भारत से तेजी से पूँजी
बाहर जाने की आशंका खड़ी हो गयी है। इससे भारत की निर्यात माँग में भी कमी आयी है
और विदेशी मुद्रा भण्डार पर प्रतिकूल असर पड़ा है। इसका सबसे बुरा प्रभाव भारत के
हजारों कारीगरों पर पड़ेगा जो निर्यात किये जानेवाले मालों के उत्पादन में लगे हुए
है।
इसी कड़ी को चीन आगे बढ़ा रहा है। लेहमन
ब्रदर के डूबने के बाद चीन वैश्विक अर्थव्यस्था में लगभग एक तिहाई योगदान करता रहा
और उसने 2008 की मन्दी के बाद अमरीका और यूरोप में मौजूद सुस्ती के असर को काफी हद
तक कम किया था। परन्तु वैश्विक माँग के कम होने और तेल की कीमतों में भारी गिरावट
के चलते आज चीन खुद संकट का शिकार होता नजर आ रहा है। चीन के सामने 15 साल में
पहली बार पूरे सालभर के लिए अपनी वृद्धि के निर्धारित लक्ष्य को हासिल न कर पाने
का संकट पैदा हो गया है। यह संकट अमरीकी संकट से भी खतरनाक असर छोड़ सकता है। चीन
में माँग की कमी से टाटा स्टील, जेएसडब्ल्यू, स्टरलाइट जैसी भारतीय धातु कम्पनियों
पर खासा असर पड़ेगा। इसी वैश्विक माँग की कमी के चलते भारत का आईटी निर्यात भी कम
हो सकता है, ज्ञात रहे कि पिछले वित्त वर्ष के
दौरान आईटी उद्योगों की शुद्ध विदेशी मुद्रा आय ने मालांे के व्यापार में हुए कुल
घाटे के आधे भाग (48 फीसदी) की भरपाई कर दी थी, अगर
ये उद्योग सुस्ती का शिकार होते हैं तो भारत के लिए व्यापार घाटे से उबर पाना बहुत
मुश्किल हो जायेगा।
क्या कोई रास्ता नहीं है?
आज दुनिया–भर की अर्थव्यवस्थाएँ कुछ मुट्ठी–भर इजारेदार कम्पनियों के हाथों में
हैं। बाजार विस्तार की सम्भावना न होने और अर्थव्यवस्था के सटोरिया पूँजी की
गिरफ्त में होने के कारण विश्व अर्थव्यवस्था लगातार मन्दी की शिकार हो रही है।
चूँकि पूँजीवादी व्यवस्था एक तरफ मजदूरों का शोषण करके उनकी क्रयशक्ति घटाती जाती
है, दूसरी तरफ मुनाफे की हवस में पूँजीपति
उत्पादन बढ़ाते जाते हैं जिससे आपूर्ति तेजी से बढ़ती जाती है और पूँजीपति का माल
बिकना बन्द हो जाता है, जिससे अर्थव्यवस्था मन्दी में फंस जाती
है। पूँजीपति हमेशा मन्दी दूर करने के दो उपायों को अमल में लाते हैं, एक तो माल खपत को दुरुस्त करने के लिए
एक छोटी आबादी को सम्पन्न बनाना जिससे वह बाजार का हिस्सा बन सके, इसके लिए कुछ लोगों को मोटी तनख्वाहें
दी जाती है या फिर सरकार द्वारा खरीद नीतियाँ लागू करके किया जाता है, वेतन आयोग को हम इसी रूप में देख सकते
हैं। दूसरे उपाय में वे करोड़ों मेहनतकशों पर अपना संकट थोप देते हैं, अमरीकी मन्दी के दौरान लगभग लगभग
50,000 हजार कर्मचारियों को अपनी नौकरी गँवानी पड़ी थी। आज इस मार को किसान और
मजदूर सबसे अधिक सह रहे हैं। अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए समान
वितरण प्रणाली अपनाना एक कारगर उपाय है। जिससे विश्व में व्याप्त अमीर–गरीब की खाई कम होती है और उत्पादन
जरूरत के अनुसार होता है। आज हर जगह मेहनतकशों के विद्रोह के स्वर सुनाई दे रहे
हैं। मुनाफाखोरी की जगह समता और सामाजिक न्याय पर आधारित व्यवस्था की स्थापना करके
ही इस वैश्विक संकट का स्थायी समाधान सम्भव है।
––मोहित
पुण्डीर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें