वीरेन डंगवाल भाषा–कवि हैं, भाषा–सघन नहीं। बेहतर होगा ये कहना कि वे
अनुभव की भाषा के कवि हैं। कभी भाषा के अनुभव से कविताएँ लिखते हैं, कभी अनुभव से प्राप्त भाषा में कविताएँ
लिखते हैं। मोटे तौर पर तीन तरह की भाषा उनके यहाँ मिलती है–
पहली, साधारण बोलचाल की भाषा, जिसका
उदाहरण ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’ कविता है।
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कूवत
सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ
दिया
ऐसा ही जिया जीवन तो क्या जिया?
दूसरे तरह की भाषा वहाँ मिलती है जहाँ
कविताएँ गीत के आकार में ढलती हैं। जैसे ‘आएँगे
उजले दिन जरूर आएँगे’ कविता। इसी क्रम में कई बार वे लोक
गीतों से सीधे उठायी गयी देशज भाषा, ‘उधो
मोहि ब्रज’ जैसी कविताओं में प्रयोग करते हैं––
गोड़ रही माई ओ मउसी उ देखौ
आपन–आपन बालू के खेत
कहाँ को बिलाए ओ बेटवा बताओ
सिगरो बस रेत ही रेत
तीसरे तरह की भाषा वह है जब उन पर
प्राध्यापकीय प्रभाव गाढ़ा होता हैै। तब वे संस्कृतनिष्ठ, तत्सम शब्दावलियों वाली आनुप्रासिक
भाषा चुनते हैं। ऐसा तब होता है जब वे आम जन के लिए नहीं, गम्भीर और कोरे–धराऊँ पाठकों तथा साहित्याचार्यों के
लिए लिखते हैं। उदाहरण के लिए कविता– ‘फैजाबाद–अयोध्या’ जिसमें निराला की ‘राम
की शक्ति पूजा’ की तर्ज पर वे राम की पीड़ा व्यक्त करते
हैं। भाषा की उर्वरता वीरेन को टिहरी गढ़वाल से चलकर सहारनपुर, कानपुर, इलाहबाद, बरेली तक के रहवास में अर्जित हुई है।
उन्होंने इन सभी शहरों से सम्बन्धित कविताएँ भी लिखी हैं। विचित्र लगेगा कि
रचनात्मक रूप से आम जन बल्कि शोषित–पीड़ित
जन से जुड़ा यह कवि सामाजिक–आर्थिक हैसियत में कभी साधारण नहीं रहा।
पिता प्रथम श्रेणी अधिकारी थे। शहर भेज के पढ़ाई का खर्च उठा सकने में समर्थ। 1971
में वे बरेली कॉलेज में हिन्दी के प्राध्यापक नियुक्त हुए। पत्नी भी शिक्षिका। अमर
उजाला में पत्रकारिता भी की। सलाहकार की भूमिका में रहे। यानी अच्छा खाते–पहनते, सम्मानित पेशा और प्रचार–प्रसार
के केन्द्र में बैठे वीरेन के लिए कविता–कर्म
और दूर–दूर तक उसकी सुगन्ध का अनुभव कभी
मोहताजी का हिस्सा नहीं रहा।
वीरेन डंगवाल के कुल चार संग्रह उपलब्ध
हैं। ‘इसी दुनिया में’ उनका पहला संग्रह है जिसके लिए उन्हें
1992 का रघुवीर सहाय स्मृति सम्मान मिला। दूसरा संग्रह ‘कवि ने कहा’ श्रृंखला के तहत आया और चैथा– ‘स्याही ताल’ यानी 48 वर्ष की उम्र में जब पहला
संकलन आया था, तब से 68 वर्ष की उम्र तक, मौलिक रूप से उनके कुल तीन संग्रह आये।
काव्य प्रकाशन संकोची यह कवि इन्हीं तीन संग्रहों के बूते हिन्दी की मुख्यधारा का
महत्त्वपूर्ण कवि रेखांकित हो चुका है।
वीरेन उन कवियों में हैं जिनके यहाँ
उनकी स्थानीयता सुरक्षित रहती है। वे जबरदस्ती ग्लोबल बनने की कवायद नहीं करते। इस
मामले में वे अपने महत्त्वपूर्ण समकालीन नामी कवि मित्रों से भी अलग दिखाई पड़ते
हैं। उनकी कविताओं में एक खास किस्म का पहाड़ी स्वाभिमान, संघर्षशीलता और अल्लहड़पन दिखाई पड़ता है।
पहाड़ों की जिन्दगी का संघर्ष, मैदान
में बस जाने के बाद भी उन्हें बिसरा नहीं। वरना वे ‘दस हजार फीट पर कविता’ तथा
‘राम सिंह’ जैसी अद्भुत कविताएँ न लिख पाये होते।
ठीक है अब जरा आँखें बन्द करो रामसिंह
और अपने पत्थर की छत से
ओस के टपकने की आवाज याद करो–––
–––आदमी का हर पल मौसम और पहाड़ों से लड़ना
कभी न भरनेवाले जख्म की तरह पेट–––
–––पहला वर्णाक्षर लिख लेने का रोमाँच
और तुम्हारी माँ का कलपना याद करो
याद करो कि वह किसका खून होता है
जो उतर आता है तुम्हारी आँखों में
गोली चलने से पहले हर बार? (राम सिंह)
वे पहाड़ के संघर्ष और त्रासदी को ही
नहीं पकड़ते हैं, उनकी निगाह से पहाड़ का रोमांस भी नहीं
छिप पाता। उनकी कविता ‘नैनीताल में दीवाली’ का वह रोमांचक क्षण याद करें जब सारा
घर–टोला दीपावली के पटाखे छोड़ रहा है और
घर आये परदेसी के मन में पटाखे फूट रहे हैं।
नवेली बहू को
माँ से छिपकर फूलझड़ी थमाता उसका पति
जो छुट्टी पर घर आया है बौडर से।
वीरेन के यहाँ एकदम अलग और प्रसंग को
छू लेनेवाली, बल्कि प्रसंग को विस्तार देनेवाली
उपमाएँ हैं। जीवन की भयावहता दिखाते हुए वीरेन हमारे डर को जीवन की विरासत समझने
का सूत्र थमाते हैं। दस हजार फीट की ऊँचाई पर दुर्गम पहाड़ों के बीच सड़क बनाते शहीद
हुए मजदूर के लिए झुका उनका माथा दरअसल प्रकृति की विराटता के आगे भी झुकता है।
कितनी विराट है यहाँ रात
घुल गये हैं जिसमें हिम–शिखर
नमक के ढेलों की तरह
सामने के पहाड़ अन्धकार में
दीखती है नीचे उतरते एक मोटरगाड़ी की
निरीह बत्तियाँ
विराट है जीवन। (दस हजार फीट पर कविता)
इस विराट अन्धकार में रास्ता दिखाती
बत्तियों की निरीहता और उनकी जिजीविषा वही समझ पायेगा जो इन परिस्थितियों से गुजरा
हो, जब आप अन्धेरे को चीर रहे होते हैं, कुछ–कुछ भगवान या भाग्य भरोसे, एक
पतली–सी आस–किरन के सहारे। परन्तु कहना चाहूँगा कि वीरेन वास्तव में जीवन की
विराटता के कवि नहीं हैं। वे जीवन–जगत
से निहायत छोटी–छोटी, अनदेखी–सी स्थितियाँ और संवेदनाएँ उठानेवाले
कवि हैं। वे पपीते की सुडौलता का धोखा पकड़ते है और उसके पिलपिलेपन को उजागर करते
हैं कि एक धचका भी उसे पिचका सकता है। वे पपीते के बीज में बन्द पपीते को देख पाते
हैं। डण्ठल के टूटने की आवाज उन्हें सुनायी पड़ती हैं। खेत का बोरी में, बोरी का गोदाम में, गोदाम का बैंक के कागजात में बदलना और
तिजोरी में बन्द होना उनकी निगाह से छिपता नहीं। यह भी नहीं छिपता कि सिरहाने रखी
तिजोरी की चाभियाँ फिर एक बार खेत बनेंगी जरूर। बढ़ियाई नदी को आतताई की तरह
चित्रित करती उनकी कविता नदी के प्रति आस्था और उसके माँ–स्वरूप को खण्डित करती है। वीरेन
सूक्ष्म अन्वेषणों और परिकल्पनाओं के कवि हैं। उनकी कविताएँ कहीं मुखर–राग नहीं अख्तियार करती। एक बहुत धीमा
और उदास स्वर उभरता है उनकी कविताओं में जो पाठक को गहरे कहीं कचोटता है। ‘हम औरतें’ कविता में वे स्त्री–पीड़ा–प्रताड़ना, वंचना और उसकी विद्रूपताओं से उबरने की
उनकी क्षमता का बयान करते हैं– ‘वंचित
सपनों की चारागाह में तो चैकड़ियाँ भर लेने दो हमें कमबख्तों,’ उन्हें पता है कि स्त्रियाँ अपने आँचल
में दुख–दर्द ही नहीं, सपने भी गठियाये रहती हैं।
वीरेन जितने भाषा के कवि हैं उससे कम
ध्वनियों के कवि नहीं। तमाम कविताओं में उन्हांेने क्रिया की ध्वनि पकड़ने और
शब्दों में हस्तान्तरित करने की काव्यात्मक कोशिश की है। चाहे ‘कटरी की रुक्मिनी’ में ‘खड़क–धड़–धड’़ की लचकदार आवाज के साथ पुकार करती
रेलगाड़ी हो या ‘हवा’ कविता में सुरंगों के भीतर बहती ‘खुफिया
संकेत भेजती/हू–हू–हू
करती/टेलीफोन के खम्भों के अन्दर सनसनाती’ हवा
हो या ‘गाय’ कविता में घास चरने की चर–चर
आवाज और मुँह से फूँक मारने की ध्वनि हो, या
नदी का हफ्–हफ् हाँफना हो या समोसे छानते समय
कड़ाही की बारी पर हलवाई के झन्ने की झन्न–फन्न
आवाज हो या ‘भूगोल रहित’ कविता में सड़क पर घोड़े के दौड़ने की ट्राप–ट्राप–ट्राप की आवाज हो, वीरेन
हर जगह अपने कानों पर भरोसा करके ध्वनि को नये सिरे से पकड़ते हैं, पुरानी प्रस्तावित ध्वनि खारिज करते
हैं। वरना तो घोड़े के दौडने के लिए टाप–टाप
की आवाज पंजीकृत है ही।
वीरेन की कविता दरअसल बहुत छोटी–छोटी क्रियाओं, वस्तुओं के व्यवहार और अद्भुद
कल्पनाशीलता के समन्वय से बनती है। उन्हें ‘अधपकी
निमौली जैसा सुन्दर वह हरा पीला चिपचिपा प्यार’ याद
आता है। उनके यहाँ पुराने वृक्षों की त्वचा पसीने से सीझती है। मल्लाह के लिए उनके
यहाँ खेत है, सड़क है, कार्यशाला भी,
पाठशाला भी। वे अक्टूबर की खासियत आप
तक पहुँचाने के लिए फिराक को याद करते हैं ‘‘धीमे–धीमे डग भरता हुआ अक्टूबर/गोया फिराक’। भाषा को वह सिर्फ चरित्र, देश–काल के अनुरूप की नहीं गढ़ते, बल्कि कविता में व्यक्त हो रहे भाव के
आधार पर भाषा गढ़ते हैं।
अनवरसीटी हेरानी हे भइया
हेराना सटेसन परयाग
जाने केधर गै ऊ सिविल लैनवा
किन बैरन लगाई इ आग। (उधो मोहि ब्रज)
‘धरती मिट्टी का ढेर नहीं अबे गधे’ कविता में उनका अटपटा सम्बोधन कितना
आत्मीय लगता है। निराला ने भी ‘अबे
ओ गुलाब’ लिखा था, जहाँ अबे हिकारत का भाव देता है। वीरेन के यहाँ यही अबे आत्मीयता का
भाव देता है।
तू तभी अकेला है जो बात न ये समझे
हैं लोग करोड़ों इसी देश में तुझ जैसे
धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे।
मर्मज्ञों के लिए वीरेन ने जो कविताएँ
लिखी हैं, उन्हे मर्मज्ञ ही समझें। मेरी समझ के
बाहर है कि वे कविताएँ क्यों लिखी गयी हैं। तमाम कविताएँ ऐसी हैं– समय, वरुण, हाथी–हाथी, समय–दो, छावनी, आदि–आदि। कुछ कविताएँ ऐसी भी हैं जिनमें
दरअसल दो कविताएँ जबरदस्ती घुसा दी गयी हैं, मसलन
‘प्रधानमंत्री’ (सन्दर्भ बंगलादेश)। इसमें प्रधानमंत्री
की चर्चा के बहाने बात करते हुए वे आधी कविता सिर्फ पानी पर लिख डालते हैं। यह
पानी अपने आप में एक मुकम्मल कविता है, प्रधानमंत्री
से स्वतंत्र। कहीं–कहीं ऐसा भी होता हैं कि वे कविता तो
नेवत देते हैं लेकिन खत्म कहाँ, कैसे
करें, यह निश्चित नहीं कर पाते और अन्तत:
अकबका कर कहीं भी कुछ कह के खत्म कर देते हैं। उदाहरण के लिए ‘ऊँट’ कविता में वे ऊँट का नख–शिख
वर्णन करते हैं पर उससे डर क्यों जाते हैं, स्पष्ट
नहीं होता।
बोझ अभी–अभी उतरा था
उदासीन था बैठा वह कर रहा जुगाली
लगा देखने मुझे बड़ी ही उम्मीदों से
जब मैं उसके पास गया
मैं इतने ही से डर गया
क्यों इतने ही से डर गया, पता नहीं। यह इतना ही क्या है? इसी तरह पपीता कविता का बखान वह यूँ
समाप्त करते हैं–– ‘बहुत मुश्किल है पपीते का समुचित बखान
करना/बगैर कुर्ता और पैन्ट पहने।’ अब
मर्मज्ञ ही समझें इसे। बखान तो वह कर ही चुका है ऊपर की लाइनों में। फिर क्या बखान
बाकी रह गया है जिसके लिए ड्रेस–कोड
जरूरी लगा कवि को। इसके बरक्स तमाम कविताएँ ऐसी हैं, छोटी या बड़ी जो पूरी अच्छी और अलग तरह की कविताएँ हैं जिन्हें शायद
वीरेन डंगवाल ही लिख पाते। उदाहरण के लिए– प्रेम
कविता, गाय, बच्चा और गौरैया, बस
में लम्बे सफर एक टुकड़ा, तोप, मक्खी, वन्या, नदी, मोटी कविता, हम औरतें मरे हुए दोस्त के लिए आदि–आदि।
वीरेन डंगवाल की कविताओें में एक अलग
प्रकार की गति और गतिविधि भी है। वे यदि ‘चाँद
की गाड़ी पर बैठ कर खिड़की से। अपनी प्यारी पृथ्वी को देखना चाहते हैं ’ तो नदी की रेती पर उतर कर कच्ची का
धन्धा करनेवालों की जिन्दगी में धँसकर उनकी चारित्रिक ईमानदारी की टोह भी लेते हैं।
हरे खीरे जैसी बढ़ती बेटी को भरपूर ताक
कर भी
जिस हया से वह निगाह फेर लेता है
उससे उसकी सच्चरित्रता पर
माँ का कृतज्ञ विश्वास और भी दृढ़ हो
जाता है।
(कटरी की रुक्मिनी)
कवि जब बचपन में उतरता है तो इमली के
पेड़ पर ढेला चलाना और नेकर में हुई टट्टी याद करता है। पन्द्रह अगस्त पर कागज के
झण्डों से असली झण्डे की दूरी नापता है।
छूने को नहीं मिला अभी तक
कभी असली झण्डा
कपड़े का बना हवा में फड़–फड़ करनेवाला
असल झण्डा
छूने तक को नहीं मिला
क्या इसे रूपक की तरह लेते हुए देश की
स्थिति से जोड़ के न देखें? यह
पंक्ति आम भारतीय के जीवन की त्रासदी का बयान कर जाती है। यह झण्डा सिर्फ झण्डा
नहीं, आजादी है। असली आजादी और नकली आजादी का
फर्क है कागज का झण्डा और कपड़े का झण्डा। आम आदमी के लिए कागज का झण्डा (नकली
आजादी) ही असली झण्डा (असली आजादी) है क्योंकि असली झण्डा उसकी पहुँच से बहुत दूर
है।
वे मोटा–मोटी नक्सलवाड़ी आन्दोलन के गर्भ से पैदा काव्य–धारा से जुड़े रहे और उसी के सहारे आम
जन–जीवन की अभिव्यक्ति से भी। पाश और गोरख
पाण्डे की तरह सीधे जन आन्दोलन का हिस्सा न रह के भी अग्रणी वामपंथी कवियों में
शुमार रहे। जन संस्कृति मंच के तो संस्थापक सदस्य ही थे। कुल मिला के यह कि बतौर
कवि उन्हें पारिवारिक, सामाजिक–आर्थिक विसंगतियों का सामना कभी नहीं करना पड़ा। यहाँ चूँकि पाश और
गोरख पाण्डे का सन्दर्भ आया है, इसलिए
स्पष्ट कर दूँ कि उस तरह के खतरे उनके जीवन में नहीं आये। इसे तुलनात्मक अध्ययन न
समझा जाये तो कहना चाहूँगा कि पाश कवि बाद में एक्टिविस्ट पहले थे। शहीद भी उसी
कारण हुए। जबकि गोरख मुख्यत: कवि–विचारक
थे, एक्टिविस्ट बाद में। उनकी रचनात्मक
संवेदना, सौन्दर्य चेतना और वैवाहिक जीवन उन्हें
लगातार प्रेमाकांक्षी बनाये रहा और अन्तत: वे आत्म को सम्भाल पाने में असमर्थ
साबित हुए। वीरेन न पाश की तरह एक्टिविस्ट–कवि
थे न गोरख की तरह वास्तव में आम जन के जीवन में घुस–घुस के रहने वाले कवि–एक्टिविस्ट
थे, बल्कि वे विशुद्ध कवि थे। कविताएँ
लिखीं, अच्छी कविताएँ। सिर्फ कवि होकर
जनसामान्य से जुड़ना कोई बुराई नहीं है। मगर देखने की चीज यह है कि साहित्य अकादमी
जैसे सरकारी मगर स्वायत्त संगठन को वे ही कवि क्यों पसन्द आते हैं जो सिर्फ
कविताएँ लिखते हैं, चाहे वे वाम–विचारों के हों या दक्षिणपंथी। मसलन
राजेश जोशी या मंगलेश डबराल या वीरेन डंगवाल।
वीरेन की कलात्मक क्षमता पर यदि इसे
टिप्पणी न समझा जाये और भक्ति–भाव
से अलग हटकर यदि विश्लेषण किया जाये तो सोचना होगा कि क्या वीरेन डंगवाल तब भी
उतने ही चर्चित कवि हुए होते, यदि
उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान न मिला होता। थोड़े कसैलेपन के साथ ही सही, याद करना चाहिए कि ‘दुष्चक्र में स्रष्टा’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिये जाने
का निर्णय उस समय विवादित रहा था और इसके पीछे पहाड़ के रचनाकारोें का संगठित
उपक्रम लक्षित किया गया था। ऐसा हमेशा से होता आया है कि पुरस्कार और चर्चा के बाद
रचनाकार का मूल्याँकन ‘प्रसिद्धि’ से कुछ न कुछ प्रभावित जरूर होता है।
देखना यह भी चाहिए कि पुरस्कार और चर्चा के इस उपक्रम के पीछे स्वयं कवि की
रचनात्मक गतिविधियाँ कितनी उत्सुक और उत्साहवर्धक रही हैं। ताजा उदाहरण उदय प्रकाश
हैं। एक कवि की भाषाई विविधता के पीछे क्या विषय और कथ्य की विविधता अथवा
अनिवार्यता ही होती है या ‘कुछ इसे भी’, ‘कुछ उसे भी’, को प्रभावित करने की इच्छा। उनकी एक
कविता है, ‘कटरी की रूक्मिनी’, जिसमें वे लिखते हैं–
यह जानकारी तो केवल मर्मज्ञों के लिए
है
साधारण जन तो इसे जानते ही हैं।
ये पंक्तियाँ क्या भाषाई विविधता के
पीछे के यथार्थ और ‘मर्मज्ञों’ तक भी पहुँच बनाने की छिपी इच्छा को
समझने का कोई सूत्र नहीं छोड़ती हैं। उनका अन्त भले ही कविता के मोर्चे पर न हुआ हो, परन्तु जीवन के लिए संघर्ष करनेवाला और
दुखद जरूर रहा। अब जबकि वे नहीं हैं, हमें
‘अहो–अहो’ से अलग, नये ढंग से उन्हें देखने–परखने
की कोशिश करनी चाहिए। वीरेन डंगवाल कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी से लड़ते हुए मौत के
हाथों परास्त हुए। उनकी कविताएँ समाज में फैली गरीबी, असमानता के कैंसर से आगे भी लड़ती
रहेंगी। मैं एक दूसरी बात की तरफ ध्यान खींचना चाहता हूँ। वे मदिरापान और पान के
शौकीन थे। पंकज चतुर्वेदी उनके संस्मरण लिख रहे हैं, बेहद आत्मीय,
जरूरी और कवि को समझने में मददगार
संस्मरणात्मक धारावाहिक। एक जगह वर्णन है कि बीमार वीरेन को देखने जब विश्वनाथ
त्रिपाठी गये तो उन्होंने उनसे मदिरापान करने का आग्रह किया। स्वयं नहीं पी, शायद परहेज और ताकीद के कारण। इस
संस्मरण को मैं उनकी कविता,
‘इतने भले नहीं
बन जाना साथी’ की इस पंक्ति के साथ पढ़ने की इजाजत
चाहता हूँ– ‘‘बगल दबी हो बोतल मुुँह में जनता का
अफसाना’’ व्यक्ति और कवि वीरेन को समझने में
शायद थोड़ी मशक्कत और साफगोई दरकार हो, वैसे
उनके संवेदनशील और बेहद विनम्र, आत्मीय
व्यक्तित्त्व का मैं भोक्ता रहा हूँ, प्रशंसक
भी।
वीरेन को नये सिरे से समझने की कवायद
क्यों न की जाये। हर प्रतिष्ठित कवि के लिए समय के साथ उसका पुनर्पाठ, एक जरूरी उपक्रम है। कोई कवि पूरा कवि नहीं
होता। कोई एक कवि पृथ्वी की सारी कविताएँ लिख के नहीं मरता। किसी कवि की सारी
कविताएँ महत्त्वपूर्ण नहीं होतीं। फिर? नये सिरे से मूल्याँकन जरूरी है कि नहीं। कवि का भी, उसकी प्रासंगिकता का भी। यह भी तय करना
होगा कि वीरेन की ही पंक्ति है–
गूदड़ कपड़ों का ढेर हूँ मैं
मुझे छाँटो
तुम्हे भी प्यारा लगने लगूँगा मैं एक
दिन
उस लालटेन की तरह
जिसकी रोशनी में
मन लगाकर पढ़ रहा है तुम्हारा बेटा (कवि–2)
यह 1983 की कविता है जब वे साहित्य
अकादमी पुरस्कार प्राप्त कवि नहीं हुए थे। वीरेन डंगवाल की इस रचनात्मक ईमानदारी, निजता, विनम्रता और उनकी स्मृति को सलाम!
-देवेन्द्र आर्य
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