आज दुनिया
के तकरीबन सभी कोनों में आम आदमी आतंकवादी कार्रवाइयों से परेशान है। आतंकवाद
वर्तमान विश्व की सबसे बड़ी सामाजिक समस्या बना हुआ है। अलग-अलग जगहों पर आतंकवाद
से प्रभावित लोगों की संख्या कम या ज्यादा हो सकती है लेकिन टोकियो, शंघाई, सिंगापुर, दिल्ली, काबुल, बगदाद, कैरो, लन्दन, वाशिंगटन, लास ऐंजिलिस, सिडनी समेत दुनिया का कोई भी हिस्सा इस
परेशानी से अछूता नहीं है। उत्तरी यूरोप के फिनलैण्ड, डेनमार्क, नार्वे इत्यादि देशों को छोड़कर जो इस
समस्या से बहुत कम प्रभावित हैं, लगभग पूरा विश्व ही आज आतंकवाद की चपेट में है।
भारतीय
उपमहाद्वीप के सारे ही देश बहुत बुरी तरह से इस समस्या में उलझे हुए हैं।
आज की
दुनिया में आतंकवाद सबसे चर्चित विषय है। 11 सितम्बर 2001 में न्यूयार्क स्थित विश्व व्यापार
केन्द्र पर आतंकवादी हमले के बाद से संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन, स्पेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली और यूरोप के सभी देश और वहाँ के
नागरिक लगातार आतंक के साये में जी रहे हैं।
आतंकवाद है
क्या?
इस विषय को
लेकर दुनिया का समाज काफी बँटा हुआ है। अलग-अलग लोग अलग-अलग राय रखते हैं। पक्ष और
विपक्ष दोनों ओर लोगों की अच्छी खासी संख्या है। दोनों पक्ष एक दूसरे पर तोहमतें
लगाते रहते हैं लेकिन दोनों ही के विचारों में स्पष्टता नहीं है। इसलिए सही और गलत
के बीच की विभाजक रेखा कभी स्पष्ट नहीं हो पाती। ऐसे में इस समस्या के बारे में
वस्तुनिष्ठ हो पाना और कठिन हो जाता है।
साम्राज्यवादी
और पूँजीवादी विश्व का प्रचारतन्त्र अपने वर्गीय हितों को ध्यान में रखकर प्रिण्ट
और इलेक्ट्रानिक समाचार माध्यमों के जरिये अपने विरोधियों के खिलाफ लगातार एक
पक्षपातपूर्ण प्रचार की आँधी चलाता रहता है।
तीसरी
दुनिया की सरकारें और प्रचार माध्यम भी लगातार आतंकवाद के खिलाफ प्रचार करते रहते
हैं, हालाँकि
तीसरी दुनिया की सरकारों तथा विश्व के विभिन्न देशों और राष्ट्रों के बीच भी इस
मुद्दे को लेकर गहरे विभाजन मौजूद हैं। अपने वर्गीय स्वार्थों को लेकर वे हर मसले
पर ही बँटे हुए हैं।
आतंकवाद के
मुद्दे पर जनता में भी एक राय नहीं है, वह बहुत बुरी तरह बँटी हुई है। जनता के
बीच से दोनों ही पक्ष मासूम लोगों की हत्याओं से दुखी होते हैं और सोचते हैं कि
ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन देश, राष्ट्र और राष्ट्रीयताओं तथा अलग-अलग क्षेत्र, र्ध्म और वर्गीय स्थिति के कारण उनमें
एकता कायम नहीं हो पाती। जनता के बीच तीखे विभाजन के कारण कई देशों में तो आज
गृहयुद्ध जैसी स्थिति बनती दिखायी दे रही है।
लेकिन इस
समस्या का अहसास बहुत कम लोगों को है। बहुत थोड़े लोग हैं जो इसे ठीक से समझ पाते
हैं। इसलिए कोई भी पक्ष आज की स्थिति का एक वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन और विश्लेषण नहीं
कर पा रहा है- आम लोगों की तो बात ही क्या, जो सक्षम हैं वे भी नहीं।
आतंकवाद को
लेकर लोगों की उलझनें तब और भी बढ़ जाती हैं जब एक ही तरह के लोगों, संगठनों या उनकी कार्रवाइयों को एक देश
की सरकार कभी ठीक तो कभी गलत बताने लगती है। उदाहरण के लिए पश्चिम की ज्यादातर
सरकारें दक्षिण अÚीकी
कांग्रेस के सर्वमान्य नेता नेल्सन मण्डेला को एक जमाने में आतंकवादी मानती थीं।
बाद में पश्चिम की इन्हीं सरकारों-अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, फ्रांस आदि के यहाँ वे सरकारी अतिथि बनने
लगे और उन्हें नोबेल शान्ति पुरस्कार से नवाजा गया।
ओसामा बिन
लादेन, उमर और
तालिबान जब तक रूस के खिलाफ लड़ रहे थे तब तक अमरीका और पश्चिमी देशों की सरकारों
की नजर में ये अपनी आजादी के लिए लड़ने वाले योद्धा थे। इन्हें सी.आई.ए. ने ही
पैदा किया, उसी ने
पाला-पोसा और उसी के पैसे से इन्होंने अफगानिस्तान में रूस के खिलाफ युद्ध का
संचालन किया। सत्ता में आने के बाद भी हमेशा अमरीका और पश्चिम की प्रमुख सरकारें
तालिबान का समर्थन करती रहीं क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि तालिबान और पाकिस्तान की
मदद से वे मध्य एशिया में अपने हाथ-पाँव फैला सकेंगी और रूस से आजाद हुए देशों को
अमरीका की झोली में डाल सकेंगी। इस तरह रूस को एक कोने में धकेलकर अमरीका इन देशों
के तेल क्षेत्रों पर अपना पूरा अधिकार जमा लेने का मन्सूबा बाँध् रहा था।
लेकिन 11 सितम्बर की घटना के बाद तालिबान आतंकवादी
हो गये। पिछले 200 सालों में
अमरीका ने ऐसे बहुत सारे आतंकवादी लोगों और संगठनों को पैदा किया है और
जनान्दोलनों का गला घोंटा है। निकारागुआ में सी.आई.ए. के पैसे पर लड़ने वाले
कोण्ट्रा आतंकवादी इसके पहले सबूत हैं। चेचन्या के आतंकवादी अब तक रूस में अबोध्
लोगों, औरतों और
बच्चों की हत्याएँ करते रहे हैं, लेकिन अमरीका और पश्चिम की सरकारें उन्हें आतंकवादी मानने के बजाय आजादी के
लिए लड़ने वाले बहादुरों के रूप में स्वीकार करती हैं, उन्हें अपने यहाँ शरण देती हैं और रूस के
समक्ष मानवाध्किारों का प्रश्न उठाती हैं। परन्तु रूस की नजरों में ये आतंकवादी
हैं।
भारतीय
उपमहाद्वीप में देखें तो पाकिस्तान की सरकार ने कश्मीर समस्या को अपने पक्ष में हल
करने के लिए आतंकवादी संगठनों का निर्माण किया, तालिबान की मदद की और इन सबको इन्साफ, इन्सानियत और आजादी के लिए जंग करने वाले
सूरमाओं की तरह प्रस्तुत किया। लेकिन 11 सितम्बर की घटना के बाद जब बुश ने
मुशर्रफ से टेलीपफोन पर पूछा कि दोस्त या दुश्मन, तो मुशर्रफ का जवाब था- दोस्त! और तब से
पाकिस्तान की जमीन और पाकिस्तान की सेना इस्तेमाल के लिए अमरीका के हवाले कर दी
गयी। बाद में जब ये आतंकवादी पाकिस्तान में मुशर्रफ की जान के पीछे पड़ गये तो
उसकी नजर में भी वे आतंकवादी हो गये और मुशर्रफ दुनिया से उनका नामोनिशान मिटा
देने की बातें करने लगे।
हमारे अपने
देश भारत में पंजाब के अकालियों से निपटने के लिए कांग्रेस सरकार ने सन्त
भिण्डरावाला को खड़ा किया। बाद में यही भिण्डरावाला भारत सरकार की नजरों में
आतंकवादी हो गया। इसी तरह श्रीलंका में भारत सरकार ने पहले तमिल टाइगर्स की मदद की
लेकिन राजीव गाँधी की हत्या के बाद वही प्रभाकरन आतंकवादी हो गया।
अमरीका और
पश्चिम की बहुतेरी सरकारें ‘फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन’ और यासिर अराफात को पहले आतंकवादी मानती थीं। बाद में जब वह सत्ता में आ
गये तो उन्हें और उनकी सरकार को ओस्लो में हुए समझौतों के बाद कई देशों ने मान्यता
दे दी। फिलिस्तीन के सवाल पर दुनिया की सरकारें पहले से ही बँटी हुई थीं और आज भी
उनके बीच एक राय नहीं है।
हमारे अपने
देश में और दुनिया भर में ऐसे 2-4 नहीं, हजारों
उदाहरण दिये जा सकते हैं। कल के आतंकवादी सरकारों द्वारा बातचीत के लिए बुलाये
जाते हैं, युद्ध विराम
और समझौतों के बाद वही आतंकवादी सरकार बना लेते हैं और फिर वे तय करने लगते हैं कि कौन आतंकवादी है
और कौन नहीं? ऐसे में
लोगों के लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि दरअसल आतंकवादी कौन है और आतंकवाद का
मतलब क्या है?
ज्यादातर
जगहों पर जनता आतंकवाद के दमन में लगी सरकारों के आतंक से आतंकवादियों के आतंक की
तुलना में ज्यादा नहीं तो कम तो कतई परेशान नहीं है।
ऐसे में
आतंकवाद की समस्या पर एक सर्वमान्य राय बनाना या इसके कारणों की तह में जाना और इस
समस्या के समाधन की ओर अग्रसर होना बहुत ही कठिन है।
किसी कार्य
की सिद्धि के लिए या किसी उद्देश्य को हासिल करने के लिए जब अलग-थलग और छिटपुट
हिंसा का सहारा लेकर आतंक की सृष्टि की जाये और इसे एक साध्न और कार्यदिशा के तौर
पर इस्तेमाल किया जाये, तो इसे
आतंकवाद कहा जाता है।
सामान्यतया
आतंकवादी समूहों की प्रेरक शक्ति इन्साफ हासिल करना होती है। उनके सामने एक
यूटोपिया (आदर्शलोक) होता है जिसे वे हासिल करना चाहते हैं।
जारशाही के
जमाने में लम्बे समय तक रूस में आतंकवादी सक्रिय रहे। जारशाही के खिलाफ जनवाद और
एक नये समाज के निर्माण के लिए संघर्ष उनकी प्रेरक शक्ति थी।
पहले
आयरलैण्ड के लोग और बाद में उत्तरी आयरलैण्ड के लोग लम्बे समय तक ब्रिटेन के खिलाफ
अपनी आजादी के लिए लड़ते रहे। इनमें से कुछ लोगों ने आतंकवाद का रास्ता भी अपनाया
लेकिन उनकी भावनाएँ पवित्र थीं, उनकी आत्मा पाक-साफ थी।
हमारे देश
में अनुशीलन से लेकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी तक आतंकवाद की एक लहर
लगातार चलती रही। ये सभी संगठन ब्रिटिश उपनिवेशवाद से देश को आजाद कराना चाहते थे।
बाद में इनके आदर्शों में समाजवाद भी शामिल हो गया।
आज भी भारत
के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग उद्देश्यों को लेकर लड़ने वाले आतंकवादी संगठन और
समूह मौजूद हैं। इनके अपने-अपने यूटोपिया हैं, जिनके लिए वे लड़ रहे हैं। किसी का
यूटोपिया लोकतन्त्र और आजादी का निर्माण करना है, किसी का उद्देश्य समाजवाद का निर्माण करना
है, तो कोई
मध्ययुग के काल्पनिक और मनमोहक समाज की पुनर्स्थापना करना चाहता है।
दुनिया का
इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है।
आतंकवादी
बहादुर और साहसी होते हैं, वे पवित्र
आत्मा से अपने उद्देश्यों के लिए लड़ते हैं, इसलिए वे जनता के जिस हिस्से के सपनों के
लिए लड़ते हैं उस जनता का बहुत थोड़ा सक्रिय समर्थन और ज्यादा निष्क्रिय समर्थन भी
इन लोगों को मिलता है। बहादुरी के लिए वह इनकी पूजा करती है। आतंकवादी संगठनों ने
हजारों महान आत्माओं को जन्म दिया है जिन्हें जनता आज भी श्रद्धा और आदर के साथ
याद करती है।
हमारे देश
में भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद आज भी नौजवानों के हीरो हैं। समूचा भारत आदर और
श्रद्धा से उनका नाम लेता है और उनकी समाध्यिों पर मेले लगते हैं।
आतंकवाद
जनता को संगठित करने, गोलबन्द
करने और अपने पवित्र उद्देश्य के लिए उसे हर तरह के संघर्षों में उतारने में यकीन
नहीं करता। इसके बजाय वह कुछ साहसी, बहादुर और अपने उद्देश्य के लिए जान
हथेली पर लेकर काम करने वाले नौजवानों को अलग-अलग दस्तों के रूप में संगठित करता
है, स्थापित
व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश से भरा होता है और उतावलेपन का शिकार होता है।
सभी
आतंकवादी संगठनों की प्रेरक शक्ति इन्साफ पर आधरित व्यवस्था और समाज की स्थापना
करना होती है लेकिन इन्साफ के बारे में उनकी अवधरणा और यूटोपिया अलग-अलग विचारधरा
और एक ही विचारधरा के अलग-अलग रंगों और आभाओं के हिसाब से अलग-अलग होते हैं। मूलतः
और मुख्यतः वे अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए नहीं लड़ते, इसीलिए जनता उन्हें प्यार और सम्मान के
साथ देखती है।
इतिहास में
कभी भी आतंकवाद किसी उद्देश्य और सपने को पूरा करने का माध्यम नहीं बन सका और
हमेशा व्यवस्था द्वारा पराजित हुआ है। वह जनता को जागृत, गोलबन्द और संगठित करने का काम नहीं कर
सकता। जबकि यह एक सर्वविदित सच्चाई है कि चन्द वीरनायक नहीं बल्कि जनता ही इतिहास
का निर्माण करती है। अगर जनता की चेतना ने उसे एक मुट्ठी में बाँध् दिया हो तो वह
अपनी समवेत शक्ति से अपने यूटोपिया को जमीन पर उतार सकती है।
इस काम में
जनता को नेताओं की हमेशा जरूरत होती है लेकिन वे तभी कामयाब हो सकते हैं जब वे
जनसमुद्र में उठने वाली परिवर्तन की प्रबल लहरों के साथ पफेन की तरह मिले हों।
जनता की चेतना से बहुत आगे बढ़कर कुछ-एक नेताओं या उत्साही और बहादुर लोगों का
समूह अपने उद्देश्यों को पूरा नहीं कर सकता।
’ ’ ’
जीवन और इतिहास
निरन्तर गतिमान हैं। जीवन निरन्तर नयी-नयी चीजों को पैदा करता रहता है। इतिहास में
जब कोई चीज या परिघटना पैदा होती है तो लोगों के बीच उसके बारे में अवधरणाएँ और
विचार बनते हैं लेकिन वह नयी चीज या परिघटना भी स्थिर नहीं होती बल्कि निरन्तर
विकासमान होती है। उसकी अवधरणा, उसके अर्थ, उसका
तात्पर्य सब कुछ बदलता रहता है। ऐसे में पुरानी परिभाषाएँ सही बोध् नहीं दे पातीं।
पुराने सिद्धान्तों के खाँचे से गतिमान जीवन का मेल नहीं बैठ पाता। इसलिए निरन्तर
नयी-नयी परिभाषाओं और नये-नये सिद्धान्तों की आवश्यकता पड़ती है और उनका सृजन होता
रहता है।
आतंकवाद के
साथ भी कुछ ऐसा ही है। इस शब्द के गूढ़ अर्थ काफी बदल चुके हैं। एक-दो उदाहरणों के
जरिए यहाँ अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया जायेगा।
सारे अरब
देश लम्बे समय से इजराइल के आतंक के साये में जी रहे हैं। इजराइली राज्य आपादमस्तक
आध्ुनिक हथियारों से सुसज्जित है, उसके पास नाभिकीय हथियार भी हैं। सभी जानते हैं कि उसे हथियारों से
सुसज्जित करने वाला और नाभिकीय हथियार देने वाला कौन है। अमरीकी साम्राज्यवाद ने
अपने फायदे के लिए उसे हथियारों से सुसज्जित किया है। अमरीका इजराइल को उस हलके में
अपना दरोगा (बवच वद जीम इमंज) कहता है क्योंकि ऐन जरूरत के वक्त अरबों के तेल का
अमरीका की ओर प्रवाह इजराइल के दम पर ही सुरक्षित है। एक उद्धत साँड़ की तरह वह
कभी भी, कहीं भी
आक्रमण कर देता है। इस सन्देह में कि इराक परमाणु हथियार बना सकता है, इजराइल ने 1981 में उसके नाभिकीय संयन्त्र पर हमला करके
उसे तबाह कर दिया था और अब ईरान को भी लगातार ध्मकी दे रहा है कि वह उसके नाभिकीय
संयन्त्रों को भी तबाह कर देगा। यह किसकी शह पर किसके फायदे के लिए हो रहा है, सारी दुनिया जानती है। क्या इजराइल और
अमरीका आतंकवादी नहीं हैं?
आतंकवाद की
परम्परागत अवधरणा के मुताबिक ये उसके नकारात्मक पक्ष या उसके नापाक पहलू का, यानी हिंसा के सहारे कार्यसिद्धि करने का, प्रतिनिध्त्वि करते हैं, उसके पाक और सही पक्ष का नहीं।
अमरीका 1648 में सम्पन्न वेस्टफालिया के समझौतों को
अस्वीकार कर रहा है और कहता है कि वह राष्ट्र की सीमाओं को मान्यता नहीं देता। वह
जब चाहे, जहाँ चाहे
अपनी मर्जी और स्वार्थ के लिए हमला कर सकता है और हमेशा वही सही होगा। कूटनीतिक
शब्दावली में जिसे वह आजादी (तिममकवउ) कहता है वास्तव में वे उसके स्वार्थ हैं।
अमरीका के हिसाब से पिनोचे के चिली में सबसे ज्यादा आजादी थी और मानवाध्किारों का
सम्मान होता था। इण्डोनेशिया के सुहार्तो और कांगो के मोबुतू जैसी तमाम निरंकुश
सरकारें भी उसकी परिभाषा के मुताबिक आजादी की समर्थक थीं। अमरीका द्वारा गढ़ी जा
रही इन परिभाषाओं के पीछे दुनिया पर वर्चस्व कायम करने और ध्रती, पानी और आसमान का पूरा मालिक बन जाने का
उसका घृणित कुत्सित मन्सूबा छिपा हुआ है।
अफगानिस्तान
और इराक में आध्ुनिकतम हथियारों का प्रदर्शन और इस्तेमाल करके क्या उसने आतंक की
सृष्टि करने का प्रयास नहीं किया? बुश और उसका अपराधी गिरोह आज
दुनिया भर में आतंक और हिंसा का सहारा लेकर अपने कुत्सित इरादों को पूरा करने की
कोशिश कर रहे हैं। यह दीगर बात है कि इस नापाक इरादे को पूरा करने में वे सफल नहीं
हो पा रहे हैं।
सच तो यह है
कि आज बुश और उसका अपराधी गिरोह और
उसके ‘‘कभी न डूबने
वाले विमानवाही पोत’’ (छमअमत ैपदापदह
।पतबतंजि ब्ंततपमत) का अपमानित, लांछित और कलंकित कप्तान ब्लेयर दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी हैं। बुश और
ब्लेयर के सन्दर्भ में आतंकवाद का वही अर्थ और तात्पर्य लिया जाना चाहिए जो वे
अपने प्रचार माध्यमों द्वारा आतंकवादियों के खिलाफ घृणा पैदा करने के लिए इस्तेमाल
करते हैं।
आज जरूरत इस
बात की है कि आतंकवाद को नये सिरे से परिभाषित किया जाय, उसकी अवधरणा को आज के यथार्थ के अनुरूप
बनाया जाय और उसके सही तात्पर्य को समझने का प्रयास किया जाय।
इस दिशा में
हमारा यह छोटा सा प्रयास।
’ ’ ’
अतीत से चली
आ रही परम्परागत अवधरणा को आधर बनाकर दो शब्द।
जब कोई
निरंकुश सामाजिक व्यवस्था बहुत मजबूत होती है, मुट्ठीभर लोगों या वर्गों के संकीर्ण
स्वार्थ का ही प्रतिनिध्त्वि करने लगती है, जब सरकारें बिल्कुल बहरी और मोटी चमड़ी
की होती हैं, जनता की
रंचमात्र भी फिक्र नहीं करतीं, उसके सुख-दुख से उन्हें कोई लेना-देना नहीं होता, लोकतन्त्र या तो होता ही नहीं या नाम
मात्र का, दिखावा और
छलावा जैसा होता है, जब जनता के
संगठित आन्दोलन नहीं होते, संघर्षरत
संगठनों का अभाव होता है और जनक्रान्तियाँ दृश्यमान नहीं होतीं, ऐसे में उत्साही नौजवान और उनका समूह
आक्रोश और उतावलेपन में आतंकवाद का सहारा लेते हैं। इससे जनता की समस्याओं का
समाधन तो नहीं हो पाता लेकिन समाज में व्याप्त उमस के घने बादल थोड़े जरूर छँटते
हैं और दमघोंटू वातावरण से जनता को थोड़ी राहत मिलती है।
हम आज एक
ऐसे ही दौर में जी रहे हैं। सामयिक तौर पर समाजवादी यूटोपिया पराजित हुआ है, काफी हद तक देश आजाद हो चुके हैं और
राष्ट्र मुक्ति हासिल कर चुके हैं, समाज ठहर सा गया है। अमरीका के नेतृत्व
में साम्राज्यवाद का आतंक और प्रभुत्व बढ़ा है, जनता से उसके अध्किार छीने जा रहे हैं, आर्थिक-राजनीतिक- सामाजिक और सांस्कृतिक
सभी क्षेत्रों में एक पतनशील संस्कृति को प्रोत्साहित और प्रचारित किया जा रहा है
और साम्राज्यवादी और मध्ययुगीन मूल्यों की प्रतिष्ठा की जा रही है। अमरीकी
साम्राज्यवाद विश्व पर आध्पित्य जमाकर रोमनों की तरह अपना साम्राज्य कायम करना
चाहता है। अमरीका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी समूह तीसरी दुनिया की जनता पर एक
के बाद एक कहर बरपा कर रहा है, और उसका अबाध् शोषण कर रहा है।
एक ऐसी
निरंकुश विश्वव्यवस्था में दुनिया को आतंकवाद से निजात नहीं मिल सकती। आतंकवाद इस
व्यवस्था के खिलाफ सताए लोगों द्वारा किया गया प्रतिवाद है, छिटपुट ही सही, व्यवस्था से संघर्ष है। जहाँ जंगलराज
कायम हो और जनता के संघर्षों का नेतृत्व करने वाले और उसे संगठित करने वाले
रहनुमाओं का अभाव हो, सरकारें
क्रूर से क्रूरतम होती जा रही हों और जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने का वादा
करके जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही बार-बार उसे धेखा दे रहे हों, जहाँ जनता की समस्याओं के हल के लिए कोई
संगठित आन्दोलन और संघर्ष दिखायी न देते हों और समाजवादी यूटोपिया के खिलाफ
निरन्तर कुत्सा प्रचार करके उसके बारे में भ्रम फैलाने के प्रयास हो रहे हों, वहाँ आतंकवाद के अलावा और हो भी क्या
सकता है। आतंकवाद की जड़ें इन समाजों में बहुत गहरे तक पैठी हुई हैं।
ऐसे कठिन
समय में आतंकवाद के बहुत से रंग होना स्वाभाविक है। हर तरह का आतंकवाद, चाहे वह जहाँ कहीं भी चलन में है, किसी न किसी तरह का व्यवस्था विरोध् है।
उसमें इन्साफ की पक्षध्रता है। भले ही उसके झण्डे पर कोई भी नारा क्यों न लिखा हो, भले ही उसका यूटोपिया भ्रमपूर्ण ही क्यों
न हो।
यह व्यवस्था
आतंकवाद को भी अपने घृणित मन्सूबों के लिए साध्न बना रही है और इसमें कोई आश्चर्य
की बात नहीं कि इस उलझन भरे दौर में आतंकवादियों का उनके दुश्मन और
प्रतिक्रियावादी इस्तेमाल कर लें।
आतंकवाद की
समस्या का समाधन और सही विकल्प जनक्रान्तियाँ ही हो सकती हैं जिनकी कार्यसूची पर
एक नये समाज का निर्माण करना और जनता का लोकतन्त्र कायम करना हो, एक ऐसा समाज जिसकी अपनी अन्तर्निहित गति
में ही उसके निरन्तर आगे बढ़ने का गुणर्ध्म हो। जब जनता के संगठित संघर्ष और
जनक्रान्तियाँ क्षितिज पर दिखायी देने लगेंगी तभी और केवल तभी आतंकवाद खत्म हो
सकेगा।
वर्तमान
विश्व में अमरीकी साम्राज्यवाद और साम्राज्यवादी समूहों की मौजूदगी और तीसरी
दुनिया की बहुलांश सरकारों के प्रतिक्रियावादी चरित्र के कारण किसी मौलिक परिवर्तन
की उम्मीद करना भ्रमपूर्ण होगा। इनसे भलमनसाहत की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती।
इसलिए किसी न किसी तरह के आतंकवाद का लगातार पैदा होते रहना स्वाभाविक है।
आतंकवाद के
उन्मूलन के लिए जनता को जनक्रान्तियों का इन्तजार करना होगा।
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