अब तक हमने सुधार के नाम पर आर्थिक नीतियों में किये बदलावों और भारतीय जनजीवन पर उसके दुष्प्रभावों का एक लेखा-जोखा लिया। पिछले 20 वर्षों की घटनाओं को समग्रता में यहाँ प्रस्तुत करना सम्भव नहीं, लेकिन इन अनर्थकारी सच्चाईयों की एक झलक भी किसी संवेदनशील व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को झकझोर देने तथा क्षोभ और आक्रोश से भर देने वाली है।
सवाल यह है कि विकास के नाम पर हमारे देश में आज जो कुछ भी हो रहा है, वह किसके लिए है? यह देश किसका है? क्या यह केवल साम्राज्यवादी समूह के पूँजीपतियों और उनके सहयोगी भारतीय पूँजीपतियों का है? क्या यह केवल उन पूँजीपतियों की सेवा में लगे सैनिक-असैनिक अधिकारियों,नेताओं, बुद्धिजीवियों, पत्राकारों और अन्य परजीवी वर्गों का देश है जो मजदूरों, किसानों और मेहनतकाशों के खून-पसीने की कमाई को लूट-लूट कर मौज उड़ाते हैं और अपने लिए विलासिता के महल खड़े करते हैं।
आर्थिक सुधारों के प्रवर्तक, प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी अर्थशास्त्री दलील देते रहे कि जब देशी-विदेशी पूँजीपतियों की दौलत बढ़ेगी, उनकी खुशहाली बढ ेगी, तो वह खुद-ब-खुद रिस-रिस कर नीचे जायेगी। इसे ही वे ट्रिकल डाउन अर्थव्यवस्था कहते हैं। सही मायने में यह जूठन पूँजीवाद है। यानी भारत के ९० फीसदी लोग अब अमीरों की थाली में बचे जूठन पर पलेंगे। उन लोगों के लिए सम्मानजनक रोजगार की व्यवस्था करने और उनका जीवन-स्तर सुधारने के लिए अलग से कुछ करने की जरूरत नहीं है।
पिछले 20 वर्षों का अनुभव बताता है कि इन नीतियों से मुठ्ठीभर परजीवियों की दौलत और खुशहाली में बेहिसाब बढ़ोत्तरी हुई लेकिन उसका नीचे तक रिसाव होने और उससे आम आदमी की जिन्दगी में खुशहाली आने की बातें क्रूर मजाक साबित हुईं। नोबेल पुरस्कार विजेता अमरीकी अर्थशास्त्री स्टिग्लिट्ज जो कई साम्राज्यवादी संस्थाओं से जुड़े रहे हैं और वैश्वीकरण के समर्थक हैं, उनका कहना है कि ''यह एकदम साफ है कि ट्रिकिल डाउन अर्थव्यवस्था कारगर साबित नहीं हुई है। यह कहीं भी कारगर नहीं हुई अमरीका में भी नहीं। वहाँ सकल घरेलू उत्पाद बढ रहा है। इसके बावजूद अधिकांश अमरीकी जनता ६ साल पहले की तुलना में आज कहीं बदतर हालत में जी रही है।''
आज हमारे देश में क्या हो रहा है? भारतीय समाज में पहले से ही मौजूद अनेकानेक समस्याएँ आज दिनोंदिन विकट होती जा रही हैं। आर्थिक विनाश और विद्रूपताओं से भारतीय जीवन का कोई भी पहलू अछूता नहीं रहा है। इसने सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, हर तरह के संकटों को तीखा और गहरा कर दिया है।
किसी देश, समाज या परिवार में बच्चों की दशा कैसी है, यह उसकी असलियत का आइना होता है। अब से चार वर्ष पहले दिल्ली के पास नोएडा के एक आलीशान बंगले से एक औरत और कई बच्चों के कंकाल मिले थे। दो सालों के भीतर वहाँ 30 बच्चे गायब हुए थे, लेकिन पुलिस ने उन गरीबों की एफआईआर तक नहीं लिखी। बाद में जब मामला गर्माया तो कार्रवाई शुरू हुई, लेकिन आज भी इस मामले को अदालती भूल-भूलैया में उलझाया जा रहा है। और सही इन्साफ होने की उम्मीद बहुत कम है। तांत्रिक बच्चों को बलि देते है, उनसे भीख मँगवाई जाती है, वेश्यावृत्ति करवायी जाती है। ढेर सारी रिपोर्टें बताती हैं कि भारत बच्चों के लिए बेहद असुरक्षित और खतरनाक जगह है। दुनियाभर में सबसे अधिक भूखे, कुपोषित और रोगग्रस्त बच्चे भारत में हैं। बाल श्रम पर पाबन्दी के बावजूद 6 करोड़ बच्चे खेलने-खाने की उम्र में कठिन और जोखिम भरे काम करके पेट भरने को मजबूर हैं।
औरत आज भी गुलाम है। आजादी के बाद एक हद तक उनके जीवन में सुधार हुआ, उन्होंने सामाजिक जीवन में कुछ कदम बढ़ाये? लेकिन इन सुधारों ने उनकी जिन्दगी को एक बार फिर सीलन भरी अँधेरी कोठरियों में धकेल दिया। जो महिलाएँ पढ -लिखकर नौकरी कर रही हैं उनके लिए भी इज्जत और बराबरी की जिन्दगी मयस्सर नहीं। घरेलू हिंसा, बलात्कार, कार्यस्थल पर उत्पीड न, औरतों पर अत्याचार दिनोंदिन बढ ते ही जा रहे हैं। असंगठित क्षेत्रा में बहुत ही कम मजदूरी पर हाड तोड मेहनत करने वाली करोड़ों महिलाएँ दोहरे शोषण का शिकार हैं। उनकी दोयम दर्जे की हैसियत पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। जिस्मफरोशी का धंधा बडे पैमाने पर फलफूल रहा है। सती प्रथा के नाम पर औरतों को जिन्दा जलाने की पुरानी अमानुषिक परम्परा को पुनर्जीवित किया जा रहा है। प्रेम करने और अपनी मर्जी से शादी करने पर उन्हें कत्ल कर दिया जाता है। लाखों की संखया में अजन्मी बेटियों को गर्भ में ही मार दिया जाता है। आबादी में औरतों का अनुपात कम होता जा रहा है। आर्थिक विकास के नशे में चूर हमारे शासकों की कार्यसूची पर आज औरतों की दुर्दशा कोई मुद्दा नहीं है।
14 करोड़ मुसलमान आबादी लगातार अलगाव में पड ती जा रही है। एक पार्टी जो दिन-रात देश भक्ति का गीत-गाती है, साम्रज्यवादी देशों की खुशामद करने और उनके हित में आर्थिक सुधारों के नाम पर देश के संसाधनों की नीलामी में सबसे आगे रही है। देशभक्ति का महान कर्तव्य अब दंगे करवाना, हिन्दू धर्म के प्रतिगामी और सड़े-गले मूल्यों को पुनर्स्थापित करना तथा मुसलमानों और इसाईयों की हत्या करवाना ही रह गया है। सभी पार्टियाँ इन्हें बर्दाश्त करती हैं। इनका मौन समर्थन करती हैं। धर्मनिरपेक्षता केवल पवित्रा किताब और भाषणों-बयानों में ही बची हुई है।
दलितों पर पुराने जमाने से चला आ रहा दमन, उत्पीडन और अत्याचार आज भी जारी है। आर्थिक सुधरों की सबसे बुरी मार भी दलितों पर ही पड़ी है। असंगठित क्षेत्रा में किसी तरह दो जून की रोजी जुटाने के लिए हाड तोड मेहनत करने वालों में आदिवासियों के साथ-साथ दलितों की भी बहुत बड़ी तादाद है। आर्थिक विषमता और विपन्नता बढ ने के साथ ही उनकी सामाजिक स्थिति में भारी गिरावट आयी है, क्योंकि आर्थिक स्थिति में सुधार के बिना सामाजिक न्याय और बराबरी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। दलितों की इस प्रवंचना का इस्तेमाल करके जातिवादी नेता उन्हें असली माँगों और लड़ाइयों से विचलित करते हैं और उनकी जातिगत संवेदना को वोटबैंक में बदलने के लिए दिन-रात प्रयासरत रहते हैं। दलितों के मसीहा इस समस्या की जड तक पहुँचने और इसे निर्मूल करने के प्रति जरा भी गंभीर नहीं हैं।
कश्मीर और पुर्वोत्तर राज्यों में वर्षों से आग धधक रही है। वहाँ देश की लगभग आधी फौज तैनात है। वहाँ से फौज हटाने और उसका विशेषधिकार समाप्त करने के लिए इरोम शर्मिला वर्षों से आमरण अनशन कर रही हैं लेकिन शासकों पर इसका कोई असर नहीं हुआ। साम्राज्यवादपरस्त आर्थिक नीतियों के प्रर्वतकों को देशभर के इतने बड़े इलाके में स्थायी शान्ति बहाल करने की कोई चिन्ता नहीं है। हर समस्या का उनके पास एक ही इलाज है दमन चक्र को और तेज करना। वहाँ तैनात सेना के जवानों में विक्षिप्तता, पलायन और आत्माहत्या की प्रवृत्तियाँ लगातार बढ ती जा रही हैं। उनके द्वारा अपने अधिकारियों और सहकर्मियों की हत्या और आत्महत्या की घटनाएँ अक्सर सुनने में आती हैं। 6 हजार से भी अधिक फौजी ड्यूटी छोड कर भाग चुके हैं।
सवाल यह है कि विकास के नाम पर हमारे देश में आज जो कुछ भी हो रहा है, वह किसके लिए है? यह देश किसका है? क्या यह केवल साम्राज्यवादी समूह के पूँजीपतियों और उनके सहयोगी भारतीय पूँजीपतियों का है? क्या यह केवल उन पूँजीपतियों की सेवा में लगे सैनिक-असैनिक अधिकारियों,नेताओं, बुद्धिजीवियों, पत्राकारों और अन्य परजीवी वर्गों का देश है जो मजदूरों, किसानों और मेहनतकाशों के खून-पसीने की कमाई को लूट-लूट कर मौज उड़ाते हैं और अपने लिए विलासिता के महल खड़े करते हैं।
आर्थिक सुधारों के प्रवर्तक, प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी अर्थशास्त्री दलील देते रहे कि जब देशी-विदेशी पूँजीपतियों की दौलत बढ़ेगी, उनकी खुशहाली बढ ेगी, तो वह खुद-ब-खुद रिस-रिस कर नीचे जायेगी। इसे ही वे ट्रिकल डाउन अर्थव्यवस्था कहते हैं। सही मायने में यह जूठन पूँजीवाद है। यानी भारत के ९० फीसदी लोग अब अमीरों की थाली में बचे जूठन पर पलेंगे। उन लोगों के लिए सम्मानजनक रोजगार की व्यवस्था करने और उनका जीवन-स्तर सुधारने के लिए अलग से कुछ करने की जरूरत नहीं है।
पिछले 20 वर्षों का अनुभव बताता है कि इन नीतियों से मुठ्ठीभर परजीवियों की दौलत और खुशहाली में बेहिसाब बढ़ोत्तरी हुई लेकिन उसका नीचे तक रिसाव होने और उससे आम आदमी की जिन्दगी में खुशहाली आने की बातें क्रूर मजाक साबित हुईं। नोबेल पुरस्कार विजेता अमरीकी अर्थशास्त्री स्टिग्लिट्ज जो कई साम्राज्यवादी संस्थाओं से जुड़े रहे हैं और वैश्वीकरण के समर्थक हैं, उनका कहना है कि ''यह एकदम साफ है कि ट्रिकिल डाउन अर्थव्यवस्था कारगर साबित नहीं हुई है। यह कहीं भी कारगर नहीं हुई अमरीका में भी नहीं। वहाँ सकल घरेलू उत्पाद बढ रहा है। इसके बावजूद अधिकांश अमरीकी जनता ६ साल पहले की तुलना में आज कहीं बदतर हालत में जी रही है।''
आज हमारे देश में क्या हो रहा है? भारतीय समाज में पहले से ही मौजूद अनेकानेक समस्याएँ आज दिनोंदिन विकट होती जा रही हैं। आर्थिक विनाश और विद्रूपताओं से भारतीय जीवन का कोई भी पहलू अछूता नहीं रहा है। इसने सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, हर तरह के संकटों को तीखा और गहरा कर दिया है।
किसी देश, समाज या परिवार में बच्चों की दशा कैसी है, यह उसकी असलियत का आइना होता है। अब से चार वर्ष पहले दिल्ली के पास नोएडा के एक आलीशान बंगले से एक औरत और कई बच्चों के कंकाल मिले थे। दो सालों के भीतर वहाँ 30 बच्चे गायब हुए थे, लेकिन पुलिस ने उन गरीबों की एफआईआर तक नहीं लिखी। बाद में जब मामला गर्माया तो कार्रवाई शुरू हुई, लेकिन आज भी इस मामले को अदालती भूल-भूलैया में उलझाया जा रहा है। और सही इन्साफ होने की उम्मीद बहुत कम है। तांत्रिक बच्चों को बलि देते है, उनसे भीख मँगवाई जाती है, वेश्यावृत्ति करवायी जाती है। ढेर सारी रिपोर्टें बताती हैं कि भारत बच्चों के लिए बेहद असुरक्षित और खतरनाक जगह है। दुनियाभर में सबसे अधिक भूखे, कुपोषित और रोगग्रस्त बच्चे भारत में हैं। बाल श्रम पर पाबन्दी के बावजूद 6 करोड़ बच्चे खेलने-खाने की उम्र में कठिन और जोखिम भरे काम करके पेट भरने को मजबूर हैं।
औरत आज भी गुलाम है। आजादी के बाद एक हद तक उनके जीवन में सुधार हुआ, उन्होंने सामाजिक जीवन में कुछ कदम बढ़ाये? लेकिन इन सुधारों ने उनकी जिन्दगी को एक बार फिर सीलन भरी अँधेरी कोठरियों में धकेल दिया। जो महिलाएँ पढ -लिखकर नौकरी कर रही हैं उनके लिए भी इज्जत और बराबरी की जिन्दगी मयस्सर नहीं। घरेलू हिंसा, बलात्कार, कार्यस्थल पर उत्पीड न, औरतों पर अत्याचार दिनोंदिन बढ ते ही जा रहे हैं। असंगठित क्षेत्रा में बहुत ही कम मजदूरी पर हाड तोड मेहनत करने वाली करोड़ों महिलाएँ दोहरे शोषण का शिकार हैं। उनकी दोयम दर्जे की हैसियत पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। जिस्मफरोशी का धंधा बडे पैमाने पर फलफूल रहा है। सती प्रथा के नाम पर औरतों को जिन्दा जलाने की पुरानी अमानुषिक परम्परा को पुनर्जीवित किया जा रहा है। प्रेम करने और अपनी मर्जी से शादी करने पर उन्हें कत्ल कर दिया जाता है। लाखों की संखया में अजन्मी बेटियों को गर्भ में ही मार दिया जाता है। आबादी में औरतों का अनुपात कम होता जा रहा है। आर्थिक विकास के नशे में चूर हमारे शासकों की कार्यसूची पर आज औरतों की दुर्दशा कोई मुद्दा नहीं है।
14 करोड़ मुसलमान आबादी लगातार अलगाव में पड ती जा रही है। एक पार्टी जो दिन-रात देश भक्ति का गीत-गाती है, साम्रज्यवादी देशों की खुशामद करने और उनके हित में आर्थिक सुधारों के नाम पर देश के संसाधनों की नीलामी में सबसे आगे रही है। देशभक्ति का महान कर्तव्य अब दंगे करवाना, हिन्दू धर्म के प्रतिगामी और सड़े-गले मूल्यों को पुनर्स्थापित करना तथा मुसलमानों और इसाईयों की हत्या करवाना ही रह गया है। सभी पार्टियाँ इन्हें बर्दाश्त करती हैं। इनका मौन समर्थन करती हैं। धर्मनिरपेक्षता केवल पवित्रा किताब और भाषणों-बयानों में ही बची हुई है।
दलितों पर पुराने जमाने से चला आ रहा दमन, उत्पीडन और अत्याचार आज भी जारी है। आर्थिक सुधरों की सबसे बुरी मार भी दलितों पर ही पड़ी है। असंगठित क्षेत्रा में किसी तरह दो जून की रोजी जुटाने के लिए हाड तोड मेहनत करने वालों में आदिवासियों के साथ-साथ दलितों की भी बहुत बड़ी तादाद है। आर्थिक विषमता और विपन्नता बढ ने के साथ ही उनकी सामाजिक स्थिति में भारी गिरावट आयी है, क्योंकि आर्थिक स्थिति में सुधार के बिना सामाजिक न्याय और बराबरी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। दलितों की इस प्रवंचना का इस्तेमाल करके जातिवादी नेता उन्हें असली माँगों और लड़ाइयों से विचलित करते हैं और उनकी जातिगत संवेदना को वोटबैंक में बदलने के लिए दिन-रात प्रयासरत रहते हैं। दलितों के मसीहा इस समस्या की जड तक पहुँचने और इसे निर्मूल करने के प्रति जरा भी गंभीर नहीं हैं।
कश्मीर और पुर्वोत्तर राज्यों में वर्षों से आग धधक रही है। वहाँ देश की लगभग आधी फौज तैनात है। वहाँ से फौज हटाने और उसका विशेषधिकार समाप्त करने के लिए इरोम शर्मिला वर्षों से आमरण अनशन कर रही हैं लेकिन शासकों पर इसका कोई असर नहीं हुआ। साम्राज्यवादपरस्त आर्थिक नीतियों के प्रर्वतकों को देशभर के इतने बड़े इलाके में स्थायी शान्ति बहाल करने की कोई चिन्ता नहीं है। हर समस्या का उनके पास एक ही इलाज है दमन चक्र को और तेज करना। वहाँ तैनात सेना के जवानों में विक्षिप्तता, पलायन और आत्माहत्या की प्रवृत्तियाँ लगातार बढ ती जा रही हैं। उनके द्वारा अपने अधिकारियों और सहकर्मियों की हत्या और आत्महत्या की घटनाएँ अक्सर सुनने में आती हैं। 6 हजार से भी अधिक फौजी ड्यूटी छोड कर भाग चुके हैं।
विकास के नाम पर राज्य आतंक का विरोध करने और अपने जायज हकों के लिए आवाज उठाने वाले आदिवासियों के समुदाय को भी 'नक्सलवादी,' 'माओवादी' और आन्तरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताया जा रहा है। उग्रवाद पनपने के लिए जिम्मेदार कारकों आजादी के बाद से ही उन इलाकों की उपेक्षा, आदिवासियों के साथ विदेशी आक्रान्ताओं जैसा व्यवहार तथा सुधारों के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों की लूट और विस्थापन के ऊपर विचार करने और समस्या का स्थायी समाधान ढूँढने के बजाय बर्बर दमन का सहारा लिया जा रहा है। सरकारी आयोगों की जाँच रिपोर्ट में इस समस्या के लिए जिन आर्थिक कारकों को जिम्मेदार ठहराया गया है, आज उन्हें ही और आगे बढ़ाया जा रहा है। इस समस्या को सामने लाने वाले पत्राकारों, शोधार्थियों, बुद्धिजीवियों, विनायक सेन जैसे सामाजिक कार्यकताओं और अरुन्धती राय जैसे ख्यातिलब्ध साहित्यकार तक को देशद्रोही बताकर उन्हें बदनाम किया जा रहा है। दर्पण में अपना क्रूर और विद्रूप चेहरा देखने के बजाय हमारे शासक दर्पण को तोड डालने पर उतारू हैं। विरोध और आलोचना की आवाज को दबाने की हर सम्भव कोशिश की जा रही है।
दर्जनों हत्याएँ किये हुए अपराधी, जिन्हें जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए था, संसद, विधानसभाओं और मंत्रीमंडलों की शोभा बढ़ा रहे हैं। उनकी बगल में नेता पुत्र-पुत्रियाँ, कारपोरेट घरानों के नुमाइन्दे और खुद पूँजीपति भी विराजमान हैं। संसद का चुनाव करोड़ों-अरबों की लागत का व्यवसाय बन गया है और गरीब जनता के सच्चे प्रतिनिधियों के लिए वहाँ पहुँचने के सभी रास्ते बन्द हैं। इसीलिए वर्तमान संसद में 60 प्रतिशत करोड पति हैं। कुछ अपवादों को छोड कर लगभग सभी पार्टियों के नेता, नौकरशाह और पूँजीपति भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे हुए हैं। एक से बढ कर एक घोटाले सामने आ रहे हैं। 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने पूँजीपति-नेता-मीडिया गँठजोड का कच्चा चिट्ठा सामने ला दिया है।
ऐसी हजारों बातें है जिनकी चर्चा की जा सकती है और जो किसी भी देश और समाज के लिए शर्मनाक हैं। देश की जनता रोजमर्रे की जिन्दगी में इन्हें झेल रही है। मीडिया में आये दिन इनका खुलासा होता रहता है। सरकारी और गैर सरकारी सर्वेक्षण, अध्ययन और रिपोर्ट इनकी पुष्टि करते हैं। लेकिन सवाल यह है कि हमारा देश इस स्थिति में कैसे पहुँचा? इन समस्याओं का गम्भीरता से विश्लेषण करके ही हम इनके सही कारणों और स्थायी समाधान तक पहुँच सकते हैं।
देश की वर्तमान सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का एक लेखा-जोखा लेने के बाद यह बिल्कुल साफ है कि हमारे देश में साम्राज्यवादी समूह और उनके सहयोगी देशी पूँजीपतियों के बीच दुरभिसंधि के परिणामस्वरूप आज हमारे देश में एक ऐसी व्यवस्था कायम की गयी है जो हमारे देश और देश की 80 प्रतिशत जनता के लिए विनाशकारी है।
पिछले 20 वर्षों के दौरान भारतीय समाज पर एक नयी उत्पादन प्रणाली और उसी के अनुरूप एक नयी राजनीतिक सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था आरोपित की गयी है। यह व्यवस्था भारतीय समाज के स्वरूप और सकारात्मक विकास को रोकने और पीछे धकेलने वाली है। इसने हजारों विकृतियों को जन्म दिया है और आने वाले दिनों में इसके और भी भयावह दुष्परिणाम आने वाले है। यह पूरी तरह साम्राज्यवादी समूह की जरूरतों, स्वार्थों और इच्छाओं के अनुरूप है तथा इससे केवल थोडे़ से भारतीय शत्रु-सहयोगियों को ही लाभ पहुँचेगा।
निश्चय ही हमारे देश के लिए यह एक विकट परिस्थिति है। यह स्थिति रातोंरात पैदा नहीं हुई है। इसकी जडे हमारे इतिहास में है। इसके हर पहलू को गहराई से समझने के लिए इसके तात्कालिक और दूरगामी कारणों पर विचार करना जरूरी है।
ऐसी हजारों बातें है जिनकी चर्चा की जा सकती है और जो किसी भी देश और समाज के लिए शर्मनाक हैं। देश की जनता रोजमर्रे की जिन्दगी में इन्हें झेल रही है। मीडिया में आये दिन इनका खुलासा होता रहता है। सरकारी और गैर सरकारी सर्वेक्षण, अध्ययन और रिपोर्ट इनकी पुष्टि करते हैं। लेकिन सवाल यह है कि हमारा देश इस स्थिति में कैसे पहुँचा? इन समस्याओं का गम्भीरता से विश्लेषण करके ही हम इनके सही कारणों और स्थायी समाधान तक पहुँच सकते हैं।
देश की वर्तमान सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का एक लेखा-जोखा लेने के बाद यह बिल्कुल साफ है कि हमारे देश में साम्राज्यवादी समूह और उनके सहयोगी देशी पूँजीपतियों के बीच दुरभिसंधि के परिणामस्वरूप आज हमारे देश में एक ऐसी व्यवस्था कायम की गयी है जो हमारे देश और देश की 80 प्रतिशत जनता के लिए विनाशकारी है।
पिछले 20 वर्षों के दौरान भारतीय समाज पर एक नयी उत्पादन प्रणाली और उसी के अनुरूप एक नयी राजनीतिक सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था आरोपित की गयी है। यह व्यवस्था भारतीय समाज के स्वरूप और सकारात्मक विकास को रोकने और पीछे धकेलने वाली है। इसने हजारों विकृतियों को जन्म दिया है और आने वाले दिनों में इसके और भी भयावह दुष्परिणाम आने वाले है। यह पूरी तरह साम्राज्यवादी समूह की जरूरतों, स्वार्थों और इच्छाओं के अनुरूप है तथा इससे केवल थोडे़ से भारतीय शत्रु-सहयोगियों को ही लाभ पहुँचेगा।
निश्चय ही हमारे देश के लिए यह एक विकट परिस्थिति है। यह स्थिति रातोंरात पैदा नहीं हुई है। इसकी जडे हमारे इतिहास में है। इसके हर पहलू को गहराई से समझने के लिए इसके तात्कालिक और दूरगामी कारणों पर विचार करना जरूरी है।
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