1990 में भुगतान संतुलन के संकट ने देश को दिवालिया होने की कगार पर पहुँचा दिया था। इस संकट की पृष्ठभूमि 1980 के मध्य से ही तैयार हो रही थी, जब दुनिया के वर्गशक्ति संतुलन में बदलाव को देखते हुए हमारे देश के शासकों ने साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ मधुर सम्बन्ध बनाना शुरू किया था। 1984-85 में जब राजीव गाँधी प्रधानमंत्री थे। तभी उदारीकरण के नाम पर देश की अर्थव्यवस्था साम्राज्यवादी पूँजी और तकनीक के लिए एक हद तक खोलने की शुरुआत हुई। साथ ही विदेशों से ऊँची ब्याज दर पर छोटी अवधि के लिए कर्ज लेकर विलासिता की वस्तुओं के निर्माण और आयात को बढ़ावा दिया गया। साथ ही अमीरों की अय्याशी, विदेशभत्ता और बड़े-बड़े समारोहों के आयोजनों पर बेतहाशा विदेशी मुद्रा खर्च की गयी। सुजुकी और पेप्सी जैसी कई कम्पनियों को आमंत्रिात किया गया जो विदेशी मुद्रा भंडार बढाने के बजाय उसे लगातार खाली करने का माध्यम बन गयीं। विदेशी व्यापार घाटा लगातार बढ ता गया और चालू खाता घाटा 80 के दशक में ६ गुना बढ कर 1657 करोड रुपये से 11382 करोड रुपये हो गया। इसकी पूर्ति के लिए सरकार विदेशी कर्ज की राशि बढ़ाती गयी। नतीजा यह हुआ कि 1980 में देश के ऊपर कुल विदेशी कर्ज 20.58 अरब डॉलर था जो 1990 में बढ कर 83.7 अरब डॉलर हो गया। 1990 में भारत का मुद्रा भंडार 1.2 अरब डॉलर रह गया जो दो हफ्ते के जरूरी आयात का खर्च उठाने के लिए भी अपर्याप्त था। कर्ज की किस्त और ब्याज चुकाने के लिए नये-नये कर्ज लेना जरूरी हो गया और इस तरह देश पूरी तरह कर्ज के जाल में फँस गया। भारत की यह दुर्दशा अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के लिए काफी अनुकूल साबित हुई। उन्होंने अपनी साम्राज्यवादी नीतियाँ स्वीकारने और ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम लागू करने के लिए भारत पर दबाव बनाना शुरू किया। नये कर्जों की किस्तें रोक दी गयीं और यह शर्त रखी गयी कि सरकार पहले विश्व बैंक, मुद्राकोष द्वारा प्रस्तावित आर्थिक सुधारों को लागू करे। तत्कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने इस संकट से बचने के लिए 20 टन सोना बेचकर और 47 टन सोना गिरवी रखकर 60 अरब डॉलर जुटाये, ताकि देश को दिवालिया होने से बचाया जा सके। यह वैसा ही संकट था जो 80 के दशक में तीसरी दुनिया के 70 देशों को पहले ही अपनी चपेट में ले चुका था और संकट से उबारने के नाम पर साम्राज्यवादी देशों ने उन देशों की अर्थव्यवस्था अपनी गिरफ्त में ले ली थी।
गौर करने वाली बात यह है कि राजीव गाँधी की खुले दरवाजे की नीति और विदेशी कर्ज पर निर्भरता को विदेशी थैलीशाहों ने ही हवा दी थी, ताकि इससे पैदा होने वाले अर्थव्यवस्था के संकट का फायदा उठाकर वे इस देश पर फिर से अपना वर्चस्व कायम कर सकें। भारत के शासकों ने भी जानबूझ कर देश को कर्ज के जाल में फँसाया ताकि इससे बचने का बहाना बना कर साम्राज्यवादी पूँजी को खुला आमन्त्राण दे सकें और अपनी मनोकांक्षा पूरी कर सकें। इन दोनों का हित देश की अर्थव्यवस्था को देशी-विदेशी पूँजी के हितों के अनुरूप ढालने में था। विदेशी पूँजी के सामने अपनी संचित पूंजी के निवेश का संकट था जबकि भारतीय पूँजीपतियों के सामने टेक्नोलॉजी और पूँजी के अभाव की समस्या थी। इस तरह साम्राज्यवादी समूह और भारत के शासक वर्गों ने आर्थिक संकट का हौवा खड़ा किया और देश को नयी आर्थिक गुलामी में जकड ने का रास्ता साफ कर दिया।
संकट की ऐसी घड़ी में भारतीय राजनीति के मंच पर एक 'उद्धारक' का अवतरण हुआ जो पेशे से अर्थशास्त्री थे और जिन्होंने राजनीति में आने का कभी खयाब भी नहीं देखा होगा। सच तो यह है कि अपने बीस वर्षों के राजनीतिक जीवन में आज तक उन्होंने सीधे कोई चुनाव नहीं जीता है। यह शखिसयत अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की सेवा में रहे अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ही हैं, जिनकी देख-रेख में भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था का अंग बनने के लिए जरूरी ढाँचागत समायोजन की शुरुआत हुई। भारतीय संदर्भ में इसे ठेठ देशी नाम दिया गया नयी आर्थिक नीति और इस पर संसद की मुहर भी लग गयी। हाँलाकि इसके ठीक पहले जो आम चुनाव हुआ था, उसमें इन नीतियों की न तो कोई चर्चा थी, न जनता के बीच इन पर बहस चलायी गयी थी और न ही उस पर जनमत संग्रह कराया गया था। इन नीतियों के प्रमुख बिन्दु थे
गौर करने वाली बात यह है कि राजीव गाँधी की खुले दरवाजे की नीति और विदेशी कर्ज पर निर्भरता को विदेशी थैलीशाहों ने ही हवा दी थी, ताकि इससे पैदा होने वाले अर्थव्यवस्था के संकट का फायदा उठाकर वे इस देश पर फिर से अपना वर्चस्व कायम कर सकें। भारत के शासकों ने भी जानबूझ कर देश को कर्ज के जाल में फँसाया ताकि इससे बचने का बहाना बना कर साम्राज्यवादी पूँजी को खुला आमन्त्राण दे सकें और अपनी मनोकांक्षा पूरी कर सकें। इन दोनों का हित देश की अर्थव्यवस्था को देशी-विदेशी पूँजी के हितों के अनुरूप ढालने में था। विदेशी पूँजी के सामने अपनी संचित पूंजी के निवेश का संकट था जबकि भारतीय पूँजीपतियों के सामने टेक्नोलॉजी और पूँजी के अभाव की समस्या थी। इस तरह साम्राज्यवादी समूह और भारत के शासक वर्गों ने आर्थिक संकट का हौवा खड़ा किया और देश को नयी आर्थिक गुलामी में जकड ने का रास्ता साफ कर दिया।
संकट की ऐसी घड़ी में भारतीय राजनीति के मंच पर एक 'उद्धारक' का अवतरण हुआ जो पेशे से अर्थशास्त्री थे और जिन्होंने राजनीति में आने का कभी खयाब भी नहीं देखा होगा। सच तो यह है कि अपने बीस वर्षों के राजनीतिक जीवन में आज तक उन्होंने सीधे कोई चुनाव नहीं जीता है। यह शखिसयत अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की सेवा में रहे अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ही हैं, जिनकी देख-रेख में भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था का अंग बनने के लिए जरूरी ढाँचागत समायोजन की शुरुआत हुई। भारतीय संदर्भ में इसे ठेठ देशी नाम दिया गया नयी आर्थिक नीति और इस पर संसद की मुहर भी लग गयी। हाँलाकि इसके ठीक पहले जो आम चुनाव हुआ था, उसमें इन नीतियों की न तो कोई चर्चा थी, न जनता के बीच इन पर बहस चलायी गयी थी और न ही उस पर जनमत संग्रह कराया गया था। इन नीतियों के प्रमुख बिन्दु थे
1. उदारीकरण : अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में यहाँ तक कि रक्षा-सम्बन्धी उद्योगों में भी विदेशी पूँजी आयात की छूट, मुनाफा वापस ले जाने की पूरी छूट, विदेशी तकनीक मँगाने की छूट, पूँजी निवेश की कोई उच्चतम सीमा नहीं, उद्योग लगाने के लिए लाइसेन्स की जरूरत नहीं, शेयर बाजार में सटोरियों के लिए हर तरह की सहूलियत के साथ विदेशी पूँजी को निमंत्राण, अनाज के आयात-निर्यात और व्यापार को देशी-विदेशी पूँजी के लिए खोलना 1400 से भी अधिक वस्तुओं पर से आयात प्रतिबन्ध हटाना, कृषि क्षेत्रा में बहुराष्ट्रीय बीज निगमों और अन्य बहुराष्ट्रीय निगमों को निमंत्राण, ठेका खेती और कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा, कृषि शोध संस्थानों को विदेशी पूँजीपतियों के हवाले करना, इत्यादि। कुल मिलाकर उदारीकरण का सीधा अर्थ है विदेशी पूँजी को अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्रा में बेलगाम मुनाफा कमाने की खुली छूट देना और इसके लिए सभी पूराने कानूनों और नीतियों को बदलना।
2. निजीकरण : सावर्जनिक क्षेत्र के निगमों और प्राकृतिक संसाधनों को पूंजीपतियों के हवाले करना सरकारी विभागों -शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, बिजली, दूरसंचार, यातायात, बैंक, बीमा, सड क मार्ग, मीडिया और अन्य सेवाओं को निजी मुनाफे के लिए खोलना। निजी-सार्वजनिक साझेदारी के नाम पर सामाजिक सेवाओं को निजी पूँजीपतियों की लूट का जरिया बनाना। कुल मिलाकर पूरे देश को निजी मुनाफे और बाजार के आधीन ला देना।
३. शिक्षा, स्वास्थ्य आरै कल्याणकारी योजनाओं में बजट कटौती, खाद, बीज, पानी, डीजल, रसोई गैस, सरकारी राशन, कृषि यन्त्र इत्यादि पर दी जाने वाली सबसिडी को हटाना। बजट घाटा कम करने के नाम पर अपने देश की प्राथमिकताओं के अनुरूप बजट बनाने की आजादी का गला घोंटते हुए सरकार ने राजस्व दायित्व और बजट प्रबन्धन कानून (२००४) बनाया। इसका मकसद साम्राज्यवादी संस्थाओं की शर्तों का कड़ाई से पालन करना है।
4. साम्राज्वादी समूह, खासकर अमरीका के दबाव में प्रक्रिया पेटेन्ट की जगह उत्पाद पेटेन्ट को स्वीकारने, पेटेन्ट की अवधि को बढ़ने और बौद्धिक सम्पदा अधिकार की शर्तों को कठोर बनाने के लिए पेटेन्ट कानून में संशोधन किया गया। इसके चलते भारत में दवाओं, तकनीक और नये-नये क्षेत्रों में शोध और अनुसंधान करने पर काफी बंदिश लग गयी क्योंकि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने हजारों उत्पादों पर पेटेन्ट
हासिल करके पहले ही एकाधिकार कायम कर लिया है। हमारे देश के वैज्ञानिकों के आगे बहुराष्ट्रीय निगमों का चाकर बनने के सिवा कोई चारा नहीं।
हासिल करके पहले ही एकाधिकार कायम कर लिया है। हमारे देश के वैज्ञानिकों के आगे बहुराष्ट्रीय निगमों का चाकर बनने के सिवा कोई चारा नहीं।
5. रुपये का अवमूल्यन सहित ढेर सारी मौद्रिक नीतियों में बदलाव।
इन नितिगत बदलावों का मूल उद्देश्य साम्रज्यवादी पूँजी के हित में देश की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था का पुनर्गठन करना था, जिसे हमारे शासकों ने पिछले 20 वर्षों के अथक प्रयास से पूरा कर दिया और देश को आर्थिक नवउपनिवेश में बदल डाला।
देश की जनता पर साम्राज्यवादपरस्त नीतियों और नयी व्यवस्था थोपने के लिए कर्ज और भुगतान संतुलन के संकट को सिर्फ एक बहाने की तरह इस्तेमाल किया गया। पिछले 20 वर्षों का अनुभव इस सच्चाई को चीख-चीख कर बयान कर रहा है कि इन नीतियों ने किसी भी समस्या का समाधान करने के बजाय उसे और अधिक विकट बना दिया है। इन नीतियों के अनर्थकारी परिणामों के बारे में हमने पहले ही विस्तार से चर्चा की है। कर्ज और भुगतान संतुलन की वर्तमान स्थिति भी 1990-91 की तुलना में ज्यादा गम्भीर है। पहले ही चर्चा की गयी है कि इन वर्षों में निर्यात आय 10 गुना बढ़ी है जबकि आयात खर्च 12.5 गुना। इसके चलते विदेश व्यापार घाटा 1990-91 की तुलना में 20 गुना अधिक है। आज भी चालू खाता घाटा सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 3 प्रतिशत बना हुआ है। सरकार विदेशी मुद्रा भंडार बढ ने को लेकर अपनी पीठ थपथपाती है जो आज 292.9 अरब डॉलर हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इसमें से एक भी डॉलर कमाया हुआ नहीं है। इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेशी परिसम्पत्तियों की तुलना में देनदारियाँ 211.1 अरब डॉलर अधिक हैं।
आँकडे बताते हैं कि कर्ज और भुगतान संतुलन की स्थिति 20 वर्ष पहले की तुलना में आज कहीं ज्यादा गम्भीर है। लेकिन भारत के शासकों को इससे कोई परेशानी नहीं है। साम्राज्यवादी देश भी पूँजी निवेश करने और कर्ज देने में कोई कोताही नहीं करते, क्योंकि भारतीय शासकों के निर्लज्ज आत्मासमर्पण और उनकी लूट के लिए देश में अनुकूल माहौल बना देने के बाद वे अब पूरी तरह आश्वस्त हैं।
1990 में भारतीय अर्थव्यवस्था का सर्वग्राही, ढाँचागत संकट सतह पर आ जाने के बाद यह सवाल सामने आया था कि इस व्यवस्था का विकल्प क्या है? यदि कोई व्यवस्था देश के लिए कारगर नहीं, बहुसंख्या जनगण की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम नहीं और संकट इस मुकाम तक पहुँच गया हो कि व्यवस्था का चलना ही सम्भव न हो, तो ऐसी व्यवस्था को बनाये रखने का कोई औचित्य नहीं उसे जल्दी से जल्दी बदल देना लाजिमी है। लेकिन सवाल यह उठता है कि व्यवस्था में बदलाव की दिशा क्या हो, उसकी जगह कैसी व्यवस्था स्थापित की जाय। 1990 में विश्व बैंक का आकलन था कि भारत अवरचनागत ढाँचे और अन्य कई मामलों में 85 प्रतिशत आत्मनिर्भर है। कोई भी जनपक्षधर सरकार यदि अपने देश के ह्लोत संसाधनों और जनशक्ति के बल पर स्वावलम्बी, स्वतंत्रा और जनोन्मुखी विकास का रास्ता चुनना चाहती तो यह रास्ता कठिन भले ही हो, अलंघ्य नहीं था। लेकिन हमारे देश का शासक पूँजीपति वर्ग अपने संकीर्ण वर्गीय स्वार्थों के कारण यह रास्ता नहीं अपना सकता था। १९९० के संकट के बाद राव-मनमोहन की कांग्रेस सरकार ने विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के समर्थन से जिस नयी आर्थिक नीति को विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया, वह 1947 के बाद की नीतियों से पूरी तरह पलटा खाना था। लेकिन फिर भी उस पर देश के समूचे पूँजीपति वर्ग और परजीवी धनाढ्यों की सहमति थी। कल तक नेहरूवादी नीतियों के पैरोकार अचानक इन साम्राज्यवादपरस्त नीतियों का गुणगान करने लगे। सबने यह मान लिया कि अब साम्राज्यवादी समूह की कृपा के बिना, उनके आगे समर्पण किये बिना देश को बचाया नहीं जा सकता।
यहाँ एक बात का जिक्र करना जरूरी है कि नयी आर्थिक नीति के प्रवर्तक मनमोहन सिंह को अच्छी तरह पता था कि इन नीतियों के क्या परिणाम सामने आयेंगे। वे जिस साउथ कमीशन के महासचिव थे वह काफी अध्ययन के बाद इस नतीजे पर पहुँचा था कि जिन-जिन देशों में मुद्राकोष की नीतियाँ लागू की गयी, वहाँ प्रतिव्यक्ति आमदनी और जीवन स्तर में गिरावट आयी। सरकार जनता की जरूरतों को पूरा नहीं कर पायी तथा स्वास्थ्य, शिक्षा, जीवन-प्रत्याशा बदतर स्थिति में पहुँच गयी। इसके चलते उन देशों में सामाजिक तनाव और अस्थिरता पैदा हुई जिससे निपटने के लिए सरकारों को सेना-पुलिस का सहारा लेना पड़ा। अमरीकी राजनयिक हेनरी किसिंजर ने इन नीतियों के बारे में कहा था कि यह इलाज तो बीमारी से भी अधिक भयानक है।
नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री टिनबर्जेन के मुताबित ''सन् 1985 के बाद विकासशील देशों की तरफ कुल ले-देकर संसाधनों का बहुत ही कम प्रवाह होता रहा है। एक समूह के रूप में इन देशों ने किसी खास समय में अपने ऊपर बकाया धन से बहुत ज्यादा लौटाया है। लेकिन इसके बावजूद, उन पर उतना ही बकाया शेष रहता है। लगातार हो रहे अवमूल्यन और ब्याज दरों की प्रतिकूल गतियों ने विकासशील देशों को ऐसी स्थिति में डाल दिया है, जहाँ विदेशी ऋण को एक निश्चित और नीयत स्थान पर बनाये रखने के लिए उन्हें क्रमशः तीव्र से तीव्रतर दौड ना पड रहा है।''
टिनबर्जेन का यह कथन हमारे देश पर सटीक बैठता है। ढाँचागत समायोजन के दुष्परिणामों के बारे में ऐसे ही ढेर सारे अध्ययन उसी दौरान सामने आये थे, जिनसे एक अर्थशास्त्री होने के नाते मनमोहन सिंह अच्छी तरह वाकिफ थे। लेकिन फिर भी, कई देशों में तबाही लाने वाली इन नीतियों का स्थायी समाधान के रूप में गुणगान करने और देश पर थोपने का काम जारी रहा, क्योंकि देशहित में सोचने के बजाय उन्होंने साम्राज्यवादी समूह और भारतीय पूँजीपति वर्ग के नीहित स्वार्थों की पूर्ति की। यही कारण है कि नयी आर्थिक नीति को लागू करने के मामले में सरकार ने खुलेपन और पारदर्शिता का परिचय नहीं दिया। जनता से जरूरी जानकारियाँ छुपाने और उसे अंधेरे में रखने का कारण सरकार का यह अपराध-बोध था कि वे जो गलत कदम उठा रहे हैं, उसके चलते उन्हें जनता का कोपभाजन बनना पड़ेगा। अगर उनके ये कदम जनता के हित में होते, तो उन्हें डरने की कोई बात नहीं थी, जनता से छिपाने की कोई जरूरत नहीं थी। आज भी विदेशी ताकतों के साथ किये गये समझौतों और नीतिगत बदलावों के मामले में सरकार हमेशा गलतबयानी करती है और बार-बार बयान बदलती है। विकिलीक्स के खुलासों में इसके एक नहीं, सैकडों प्रमाण हैं। नाभिकीय समझौते पर 'नोट के बदले वोट' का मामला, ईरान के खिलाफ वोट देना, ईरान के साथ गैस पाइप लाइन सौदा रद्द करना और पेट्रोलियम मंत्राी को हटाने का मुद्दा। अमरीकी दबाव में लिये गये फैसलों को अपना फैसला और साम्राज्यवादी हितों को देश का हित बताना तो हमारे शासकों का रोज-रोज का काम है।
देश की जनता पर साम्राज्यवादपरस्त नीतियों और नयी व्यवस्था थोपने के लिए कर्ज और भुगतान संतुलन के संकट को सिर्फ एक बहाने की तरह इस्तेमाल किया गया। पिछले 20 वर्षों का अनुभव इस सच्चाई को चीख-चीख कर बयान कर रहा है कि इन नीतियों ने किसी भी समस्या का समाधान करने के बजाय उसे और अधिक विकट बना दिया है। इन नीतियों के अनर्थकारी परिणामों के बारे में हमने पहले ही विस्तार से चर्चा की है। कर्ज और भुगतान संतुलन की वर्तमान स्थिति भी 1990-91 की तुलना में ज्यादा गम्भीर है। पहले ही चर्चा की गयी है कि इन वर्षों में निर्यात आय 10 गुना बढ़ी है जबकि आयात खर्च 12.5 गुना। इसके चलते विदेश व्यापार घाटा 1990-91 की तुलना में 20 गुना अधिक है। आज भी चालू खाता घाटा सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 3 प्रतिशत बना हुआ है। सरकार विदेशी मुद्रा भंडार बढ ने को लेकर अपनी पीठ थपथपाती है जो आज 292.9 अरब डॉलर हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इसमें से एक भी डॉलर कमाया हुआ नहीं है। इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विदेशी परिसम्पत्तियों की तुलना में देनदारियाँ 211.1 अरब डॉलर अधिक हैं।
आँकडे बताते हैं कि कर्ज और भुगतान संतुलन की स्थिति 20 वर्ष पहले की तुलना में आज कहीं ज्यादा गम्भीर है। लेकिन भारत के शासकों को इससे कोई परेशानी नहीं है। साम्राज्यवादी देश भी पूँजी निवेश करने और कर्ज देने में कोई कोताही नहीं करते, क्योंकि भारतीय शासकों के निर्लज्ज आत्मासमर्पण और उनकी लूट के लिए देश में अनुकूल माहौल बना देने के बाद वे अब पूरी तरह आश्वस्त हैं।
1990 में भारतीय अर्थव्यवस्था का सर्वग्राही, ढाँचागत संकट सतह पर आ जाने के बाद यह सवाल सामने आया था कि इस व्यवस्था का विकल्प क्या है? यदि कोई व्यवस्था देश के लिए कारगर नहीं, बहुसंख्या जनगण की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम नहीं और संकट इस मुकाम तक पहुँच गया हो कि व्यवस्था का चलना ही सम्भव न हो, तो ऐसी व्यवस्था को बनाये रखने का कोई औचित्य नहीं उसे जल्दी से जल्दी बदल देना लाजिमी है। लेकिन सवाल यह उठता है कि व्यवस्था में बदलाव की दिशा क्या हो, उसकी जगह कैसी व्यवस्था स्थापित की जाय। 1990 में विश्व बैंक का आकलन था कि भारत अवरचनागत ढाँचे और अन्य कई मामलों में 85 प्रतिशत आत्मनिर्भर है। कोई भी जनपक्षधर सरकार यदि अपने देश के ह्लोत संसाधनों और जनशक्ति के बल पर स्वावलम्बी, स्वतंत्रा और जनोन्मुखी विकास का रास्ता चुनना चाहती तो यह रास्ता कठिन भले ही हो, अलंघ्य नहीं था। लेकिन हमारे देश का शासक पूँजीपति वर्ग अपने संकीर्ण वर्गीय स्वार्थों के कारण यह रास्ता नहीं अपना सकता था। १९९० के संकट के बाद राव-मनमोहन की कांग्रेस सरकार ने विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के समर्थन से जिस नयी आर्थिक नीति को विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया, वह 1947 के बाद की नीतियों से पूरी तरह पलटा खाना था। लेकिन फिर भी उस पर देश के समूचे पूँजीपति वर्ग और परजीवी धनाढ्यों की सहमति थी। कल तक नेहरूवादी नीतियों के पैरोकार अचानक इन साम्राज्यवादपरस्त नीतियों का गुणगान करने लगे। सबने यह मान लिया कि अब साम्राज्यवादी समूह की कृपा के बिना, उनके आगे समर्पण किये बिना देश को बचाया नहीं जा सकता।
यहाँ एक बात का जिक्र करना जरूरी है कि नयी आर्थिक नीति के प्रवर्तक मनमोहन सिंह को अच्छी तरह पता था कि इन नीतियों के क्या परिणाम सामने आयेंगे। वे जिस साउथ कमीशन के महासचिव थे वह काफी अध्ययन के बाद इस नतीजे पर पहुँचा था कि जिन-जिन देशों में मुद्राकोष की नीतियाँ लागू की गयी, वहाँ प्रतिव्यक्ति आमदनी और जीवन स्तर में गिरावट आयी। सरकार जनता की जरूरतों को पूरा नहीं कर पायी तथा स्वास्थ्य, शिक्षा, जीवन-प्रत्याशा बदतर स्थिति में पहुँच गयी। इसके चलते उन देशों में सामाजिक तनाव और अस्थिरता पैदा हुई जिससे निपटने के लिए सरकारों को सेना-पुलिस का सहारा लेना पड़ा। अमरीकी राजनयिक हेनरी किसिंजर ने इन नीतियों के बारे में कहा था कि यह इलाज तो बीमारी से भी अधिक भयानक है।
नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री टिनबर्जेन के मुताबित ''सन् 1985 के बाद विकासशील देशों की तरफ कुल ले-देकर संसाधनों का बहुत ही कम प्रवाह होता रहा है। एक समूह के रूप में इन देशों ने किसी खास समय में अपने ऊपर बकाया धन से बहुत ज्यादा लौटाया है। लेकिन इसके बावजूद, उन पर उतना ही बकाया शेष रहता है। लगातार हो रहे अवमूल्यन और ब्याज दरों की प्रतिकूल गतियों ने विकासशील देशों को ऐसी स्थिति में डाल दिया है, जहाँ विदेशी ऋण को एक निश्चित और नीयत स्थान पर बनाये रखने के लिए उन्हें क्रमशः तीव्र से तीव्रतर दौड ना पड रहा है।''
टिनबर्जेन का यह कथन हमारे देश पर सटीक बैठता है। ढाँचागत समायोजन के दुष्परिणामों के बारे में ऐसे ही ढेर सारे अध्ययन उसी दौरान सामने आये थे, जिनसे एक अर्थशास्त्री होने के नाते मनमोहन सिंह अच्छी तरह वाकिफ थे। लेकिन फिर भी, कई देशों में तबाही लाने वाली इन नीतियों का स्थायी समाधान के रूप में गुणगान करने और देश पर थोपने का काम जारी रहा, क्योंकि देशहित में सोचने के बजाय उन्होंने साम्राज्यवादी समूह और भारतीय पूँजीपति वर्ग के नीहित स्वार्थों की पूर्ति की। यही कारण है कि नयी आर्थिक नीति को लागू करने के मामले में सरकार ने खुलेपन और पारदर्शिता का परिचय नहीं दिया। जनता से जरूरी जानकारियाँ छुपाने और उसे अंधेरे में रखने का कारण सरकार का यह अपराध-बोध था कि वे जो गलत कदम उठा रहे हैं, उसके चलते उन्हें जनता का कोपभाजन बनना पड़ेगा। अगर उनके ये कदम जनता के हित में होते, तो उन्हें डरने की कोई बात नहीं थी, जनता से छिपाने की कोई जरूरत नहीं थी। आज भी विदेशी ताकतों के साथ किये गये समझौतों और नीतिगत बदलावों के मामले में सरकार हमेशा गलतबयानी करती है और बार-बार बयान बदलती है। विकिलीक्स के खुलासों में इसके एक नहीं, सैकडों प्रमाण हैं। नाभिकीय समझौते पर 'नोट के बदले वोट' का मामला, ईरान के खिलाफ वोट देना, ईरान के साथ गैस पाइप लाइन सौदा रद्द करना और पेट्रोलियम मंत्राी को हटाने का मुद्दा। अमरीकी दबाव में लिये गये फैसलों को अपना फैसला और साम्राज्यवादी हितों को देश का हित बताना तो हमारे शासकों का रोज-रोज का काम है।
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