1990 से पहले भारत का शेयर बाजार बहुत ही मामूली था। सरकार द्वारा विदेशी पूँजी को आकर्षित करने के लिए किये गये उपायों के चलते शेयर बाजार का बेहिसाब विस्तार हुआ है। आज भारत के दो प्रमुख शेयर बाजारों - बीएसई और एनएसई की बाजार पूँजी क्रमशः 1590 अरब डॉलर और 1630 अरब डॉलर है। ये दुनिया के सबसे तेजी से विकास करने वाले शेयर बाजारों में हैं।
शेयर बाजार को अर्थव्यवस्था के विकास का सूचक बताते हुए हमारे देश के शासक, उनके चाटुकार बुद्धिजीवी और मीडिया इसका गुणगान करते हैं, जबकि 2007 में जब शेयर सूचकांक 20000 की ऊँचाई पार कर गया तो अचानक उनकी नींद हराम होने लगी। कहा जाने लगा की शेयर बाजार की तेजी का अर्थव्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं, यह तो सटोरियों की कारगुजारी है।
शेयरों की कागजी खरीद-फरोखत और कीमतें घटने-बढ़ने का किसी कम्पनी की वास्तविक क्षमता या कुशलता से कोई लेना-देना नहीं होता। यह सीमित मात्रा में उपलब्ध कुछ खास कम्पनियों के शेयरों की माँग बढ ाने या जानबूझकर बढाए जाने का नतीजा होता है, जिसका सबसे अधिक फायदा उसे जारी करने वाली कम्पनी (प्रोमोटर) को होता है, क्योंकि शेयर का दाम बढ ने से उसकी पूँजी रातोंरात बढ जाती है। इसमें उस कम्पनी के उत्पादन, निवेश, रोजगार सृजन, तकनीकी विकास या कार्यकुशलता का कोई योगदान नहीं होता। देश की अर्थव्यवस्था के बचत, निवेश या उत्पादन में भी इससे कोई बढ़ोत्तरी नहीं होती। इसे तो राष्ट्रीय आय में भी नहीं जोड़ा जाता। उल्टे जब बड़े पैमाने पर विदेशी पूंजी सट्टेबाजी में लगती है तो हमेशा इस बात का खतरा बना रहता है कि सटोरिये बाजार में तेजी आने पर अचानक सारा पैसा लेकर उड न छू हो सकते हैं और अर्थव्यवस्था को तबाह कर सकते हैं। 1990 के दशक में पूर्वी एशिया के कई देशों की अर्थव्यवस्था को सट्टेबाजों ने ही संकटग्रस्त किया था।
शेयर बाजार में ज्यादा पैसा लगना, यानी अर्थव्यवस्था का वित्तीयकरण उसके स्वास्थ्य को नहीं बल्कि वास्तविक उत्पादन के क्षेत्रा और रोजगार सृजन की खराब स्थिति को दर्शाता है। सोना-चाँदी, जमीन-जायदाद और रिहायशी मकानों की बढ ती कीमतें और शेयर बाजार में उछाल इसी बात का प्रमाण है कि हमारे देश में कालाधन, रिश्वतखोरी और विषमता बेलगाम बढ रही है तथा कुछ लोगों के पास इतना पैसा है कि वे उसे इन अनुत्पादक कामों में लगाकर अपनी दौलत बेतहाशा बढ़ा रहे हैं। बाजार में जरूरी चीजों की कीमतों को बढ़ाते जाने में भी चंद हरामखोरों की काली कमाई का बड़ा हाथ होता है क्योंकि उनकी क्रय-शक्ति आम आदमी की तुलना में कई-कई गुना अधिक होती है। हालाँकि भारत में अपनी बचत का पैसा लगाने के मामले में घरेलू निवेशकों की दिलचस्पी आज भी शेयर बाजार में बहुत कम है। वे जितना पैसा शेयर बाजार में लगा रहे हैं, उसका आठ गुना जमीन-जायदाद में लगा रहे हैं। 2007 में जमीन-जायदाद में 24,112 करोड और सोना-चाँदी में 47,000 करोड रुपये का निवेश किया गया था। शेयर बाजार की तुलना में लोग बैंकों के फिक्स डिपोजिट में अधिक पैसा लगाते हैं। यानी, सिर्फ गिने-चुने लोग और विदेशी निवेशक ही शेयर बाजार की सट्टेबाजी में हिस्सा लेते हैं, जो बिना उत्पादन किये, केवल तेजडियों की चालबाजी से करोंडो-अरबों रुपये कमाते हैं और इस कमाई पर कोई टैक्स भी नहीं देते। शेयर सूचकांक में उछाल का मतलब केवल छोटे से तबके का मालामाल होना है। जैसाकि हर तरह के जुए में होता है, यहाँ भी नुकसान उनका ही होता है जो छोटा दाँव लगाते हैं।
शेयर बाजार की परजीविता कितनी तेजी से बढ़ रही है इसका उदाहरण इस बात से लगाया जा सकता है कि हर साल उद्योगों में सालाना निवेश लगभग 10 हजार करोड है जो मुम्बई शेयर बाजार के तीन दिन के कारोबार के बराबर है। शेयर बाजार की कुल बाजार पूँजी हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग डेढ गुना है।
दुनिया भर के सटोरियों के लिए भारत आज सबसे आकर्षक जगह बना हुआ है। सरकार ने जानबूझ कर इस जुएबाजी के लिए माहौल तैयार किया है। 2005 में सरकार ने दीर्घकालिक पूँजीगत लाभ पर टैक्स समाप्त कर दिया था, यानी उत्पादक कामों में पूँजी लगाकर मुनाफा कमाने वालों को तो टैक्स देना पड़ेगा, लेकिन सट्टेबाजी की कमाई पर कोई टैक्स नहीं होगा। साथ ही उसने मॉरिशस में पंजीकरण करवाकर टैक्स चुराने वाली कम्पनियों को, बिना पंजीकृत कम्पनियों को, दलालों द्वारा जारी किये गये बेनामी रुक्कों के जरिये सट्टेबाजी करने वालों को और यहाँ तक कि घपलेबाज हेज फण्ड तक को भारत के शेयर बाजार में आने की इजाजत दे दी। ऑपसन्स और फ्यूचर्स के जरिये वायदा कारोबार पर से रोक हटा ली गयी और अब हर तरह की सम्पत्ति पर सट्टेबाजी के लिए रास्ता साफ किया जा रहा है।
आज पूरी पूँजीवादी व्यवस्था सटोरिया पूँजी के तर्क से संचालित हो रही है जो उत्पादक गतिविधियों की तबाही पर फल-फूल रही है। अमरीका और अन्य साम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्थाएँ इतनी पुरानी और विराट हैं, उनकी उत्पादक शक्तियाँ इतनी विकसित हैं और दुनियाभर में उनकी पूँजी इतने भारी पैमाने पर फैली हुई है, उसकी बदौलत वहाँ सट्टेबाजी का कारोबार फल-फूल सकता है और उसकी तबाही को भी वे एक हद तक झेल सकते हैं। लेकिन हमारे देश में पहले से ही जर्जर अर्थव्यवस्था और पिछड़ी उत्पादक शक्तियों के ऊपर थोपी गयी परजीवी सटोरिया पूँजी अर्थव्यवस्था का विनाश कर देगी और आबादी के बड़े हिस्से को तबाही की ओर धकेल देगी। इस बात का अहसास हमारे शासकों को भी है। दुनियाभर के शेयर बाजारों में समय-समय पर आने वाले भूचालों के दुष्परिणाम से वे अच्छी तरह वाकिफ हैं। तभी तो जब 2007 में शेयर बाजार उछाल मारने लगा तो वह उनके गले की हड्डी बन गया था। लेकिन फिर भी हमारे 'सुधारक' 'उद्धारक' शासक वर्ग इसे इतना प्रश्रय क्यों दे रहे हैं? क्यों वे शेयर बाजार के घोटालों पर पर्दा डालते हैं और सट्टेबाजी के भँवर में डूबने वालों को उबारते हैं? क्यों वे उनके लिए कर चोरी के रास्ते बनाते हैं और उन्हें बैंकों से कर्ज दिलाते हैं।
इसका एक प्रमुख कारण यह है कि हमारे देश में सुधारों के बाद विदेशी पूँजी पर निर्भरता बढ़ी है। मुक्त आयात-निर्यात नीति लागू होने के बाद से ही चालू खाता घाटा लगातार बढ ता जा रहा है। इस व्यापार घाटे को पूरा करने, विदेशी कर्ज की राशि का भुगतान करने और अमीरों की विदेश यात्रा का खर्च उठाने के लिए डॉलर का लगातार आते रहना जरूरी है चाहे जिस भी तरीके से आये और जितना भी जोखिम भरा
हो, भुगतान संतुलन के लिए डॉलर का भंडार भरा दिखना जरूरी है। यही कारण है कि हमारे शासक सब कुछ जानते हुए भी शेयर बाजार की उड नछू विदेशी पूँजी को रिझाने में लगे रहते हैं।
शेयर बाजार को अर्थव्यवस्था के विकास का सूचक बताते हुए हमारे देश के शासक, उनके चाटुकार बुद्धिजीवी और मीडिया इसका गुणगान करते हैं, जबकि 2007 में जब शेयर सूचकांक 20000 की ऊँचाई पार कर गया तो अचानक उनकी नींद हराम होने लगी। कहा जाने लगा की शेयर बाजार की तेजी का अर्थव्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं, यह तो सटोरियों की कारगुजारी है।
शेयरों की कागजी खरीद-फरोखत और कीमतें घटने-बढ़ने का किसी कम्पनी की वास्तविक क्षमता या कुशलता से कोई लेना-देना नहीं होता। यह सीमित मात्रा में उपलब्ध कुछ खास कम्पनियों के शेयरों की माँग बढ ाने या जानबूझकर बढाए जाने का नतीजा होता है, जिसका सबसे अधिक फायदा उसे जारी करने वाली कम्पनी (प्रोमोटर) को होता है, क्योंकि शेयर का दाम बढ ने से उसकी पूँजी रातोंरात बढ जाती है। इसमें उस कम्पनी के उत्पादन, निवेश, रोजगार सृजन, तकनीकी विकास या कार्यकुशलता का कोई योगदान नहीं होता। देश की अर्थव्यवस्था के बचत, निवेश या उत्पादन में भी इससे कोई बढ़ोत्तरी नहीं होती। इसे तो राष्ट्रीय आय में भी नहीं जोड़ा जाता। उल्टे जब बड़े पैमाने पर विदेशी पूंजी सट्टेबाजी में लगती है तो हमेशा इस बात का खतरा बना रहता है कि सटोरिये बाजार में तेजी आने पर अचानक सारा पैसा लेकर उड न छू हो सकते हैं और अर्थव्यवस्था को तबाह कर सकते हैं। 1990 के दशक में पूर्वी एशिया के कई देशों की अर्थव्यवस्था को सट्टेबाजों ने ही संकटग्रस्त किया था।
शेयर बाजार में ज्यादा पैसा लगना, यानी अर्थव्यवस्था का वित्तीयकरण उसके स्वास्थ्य को नहीं बल्कि वास्तविक उत्पादन के क्षेत्रा और रोजगार सृजन की खराब स्थिति को दर्शाता है। सोना-चाँदी, जमीन-जायदाद और रिहायशी मकानों की बढ ती कीमतें और शेयर बाजार में उछाल इसी बात का प्रमाण है कि हमारे देश में कालाधन, रिश्वतखोरी और विषमता बेलगाम बढ रही है तथा कुछ लोगों के पास इतना पैसा है कि वे उसे इन अनुत्पादक कामों में लगाकर अपनी दौलत बेतहाशा बढ़ा रहे हैं। बाजार में जरूरी चीजों की कीमतों को बढ़ाते जाने में भी चंद हरामखोरों की काली कमाई का बड़ा हाथ होता है क्योंकि उनकी क्रय-शक्ति आम आदमी की तुलना में कई-कई गुना अधिक होती है। हालाँकि भारत में अपनी बचत का पैसा लगाने के मामले में घरेलू निवेशकों की दिलचस्पी आज भी शेयर बाजार में बहुत कम है। वे जितना पैसा शेयर बाजार में लगा रहे हैं, उसका आठ गुना जमीन-जायदाद में लगा रहे हैं। 2007 में जमीन-जायदाद में 24,112 करोड और सोना-चाँदी में 47,000 करोड रुपये का निवेश किया गया था। शेयर बाजार की तुलना में लोग बैंकों के फिक्स डिपोजिट में अधिक पैसा लगाते हैं। यानी, सिर्फ गिने-चुने लोग और विदेशी निवेशक ही शेयर बाजार की सट्टेबाजी में हिस्सा लेते हैं, जो बिना उत्पादन किये, केवल तेजडियों की चालबाजी से करोंडो-अरबों रुपये कमाते हैं और इस कमाई पर कोई टैक्स भी नहीं देते। शेयर सूचकांक में उछाल का मतलब केवल छोटे से तबके का मालामाल होना है। जैसाकि हर तरह के जुए में होता है, यहाँ भी नुकसान उनका ही होता है जो छोटा दाँव लगाते हैं।
शेयर बाजार की परजीविता कितनी तेजी से बढ़ रही है इसका उदाहरण इस बात से लगाया जा सकता है कि हर साल उद्योगों में सालाना निवेश लगभग 10 हजार करोड है जो मुम्बई शेयर बाजार के तीन दिन के कारोबार के बराबर है। शेयर बाजार की कुल बाजार पूँजी हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग डेढ गुना है।
दुनिया भर के सटोरियों के लिए भारत आज सबसे आकर्षक जगह बना हुआ है। सरकार ने जानबूझ कर इस जुएबाजी के लिए माहौल तैयार किया है। 2005 में सरकार ने दीर्घकालिक पूँजीगत लाभ पर टैक्स समाप्त कर दिया था, यानी उत्पादक कामों में पूँजी लगाकर मुनाफा कमाने वालों को तो टैक्स देना पड़ेगा, लेकिन सट्टेबाजी की कमाई पर कोई टैक्स नहीं होगा। साथ ही उसने मॉरिशस में पंजीकरण करवाकर टैक्स चुराने वाली कम्पनियों को, बिना पंजीकृत कम्पनियों को, दलालों द्वारा जारी किये गये बेनामी रुक्कों के जरिये सट्टेबाजी करने वालों को और यहाँ तक कि घपलेबाज हेज फण्ड तक को भारत के शेयर बाजार में आने की इजाजत दे दी। ऑपसन्स और फ्यूचर्स के जरिये वायदा कारोबार पर से रोक हटा ली गयी और अब हर तरह की सम्पत्ति पर सट्टेबाजी के लिए रास्ता साफ किया जा रहा है।
आज पूरी पूँजीवादी व्यवस्था सटोरिया पूँजी के तर्क से संचालित हो रही है जो उत्पादक गतिविधियों की तबाही पर फल-फूल रही है। अमरीका और अन्य साम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्थाएँ इतनी पुरानी और विराट हैं, उनकी उत्पादक शक्तियाँ इतनी विकसित हैं और दुनियाभर में उनकी पूँजी इतने भारी पैमाने पर फैली हुई है, उसकी बदौलत वहाँ सट्टेबाजी का कारोबार फल-फूल सकता है और उसकी तबाही को भी वे एक हद तक झेल सकते हैं। लेकिन हमारे देश में पहले से ही जर्जर अर्थव्यवस्था और पिछड़ी उत्पादक शक्तियों के ऊपर थोपी गयी परजीवी सटोरिया पूँजी अर्थव्यवस्था का विनाश कर देगी और आबादी के बड़े हिस्से को तबाही की ओर धकेल देगी। इस बात का अहसास हमारे शासकों को भी है। दुनियाभर के शेयर बाजारों में समय-समय पर आने वाले भूचालों के दुष्परिणाम से वे अच्छी तरह वाकिफ हैं। तभी तो जब 2007 में शेयर बाजार उछाल मारने लगा तो वह उनके गले की हड्डी बन गया था। लेकिन फिर भी हमारे 'सुधारक' 'उद्धारक' शासक वर्ग इसे इतना प्रश्रय क्यों दे रहे हैं? क्यों वे शेयर बाजार के घोटालों पर पर्दा डालते हैं और सट्टेबाजी के भँवर में डूबने वालों को उबारते हैं? क्यों वे उनके लिए कर चोरी के रास्ते बनाते हैं और उन्हें बैंकों से कर्ज दिलाते हैं।
इसका एक प्रमुख कारण यह है कि हमारे देश में सुधारों के बाद विदेशी पूँजी पर निर्भरता बढ़ी है। मुक्त आयात-निर्यात नीति लागू होने के बाद से ही चालू खाता घाटा लगातार बढ ता जा रहा है। इस व्यापार घाटे को पूरा करने, विदेशी कर्ज की राशि का भुगतान करने और अमीरों की विदेश यात्रा का खर्च उठाने के लिए डॉलर का लगातार आते रहना जरूरी है चाहे जिस भी तरीके से आये और जितना भी जोखिम भरा
हो, भुगतान संतुलन के लिए डॉलर का भंडार भरा दिखना जरूरी है। यही कारण है कि हमारे शासक सब कुछ जानते हुए भी शेयर बाजार की उड नछू विदेशी पूँजी को रिझाने में लगे रहते हैं।
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