वैसे तो आजादी के बाद से ही देश के विभिन्न इलाकों के लोगों को विकास के नाम पर उजाड़ा जाता रहा है। कभी खनन के लिए, कभी बाँध बनाने के लिए तो कभी औद्योगिक नगर बसाने के लिए। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से सरकार देशी-विदेशी पूँजीपतियों के लिए काफी बड़े पैमाने पर लोगों की जमीन छीन रही है, उन्हें उजाड कर दर-दर का भिखारी बना रही है। विकास के नाम पर इस बर्बर लूट और दमन चक्र का विरोध करने वालों को विकास विरोधी और देशद्रोही घोषित किया जा रहा है। सिंगूर, नन्दीग्राम, कलिंगनगर, नवलगढ , ग्रेटर नोएडा में दादरी, टप्पल और भट्ठा परसौल, रायगढ , लोहाडी गुंडा, काठीकुण्ड, नियामगिरी और जगतसिंहपुर सहित देश के सैकड़ों इलाकों में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ जनता के विरोध प्रदर्शनों को जिस बेरहमी से कुचला गया, जिस तरह प्रदर्शनकारियों पर लाठी-गोली चलायी गयी और मुकदमें लगाकर जेलों में डाला गया, उसने ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की बर्बरता को भी पीछे छोड दिया है।
विकास की अंधी दौड में देर से शामिल हुए, भारतीय पूँजीपतियों के लिए आदिम पूँजी संचय का कोई विदेशी इलाका नहीं है जहाँ वे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर सकें और जिसे अपना उपनिवेश बना सकें। लेकिन अपने ही देश के बड़े भूभाग और प्राकृतिक संसाधनों के विपुल भण्डार पर कब्जा जमाने का सुनहरा मौका उनके हाथ लग गया, क्योंकि सुधारों का झण्डा-डण्डा लिए लूटपाट की इस मुहिम में सरकार आँख मूंदकर उनके पक्ष में खड़ी है। खनन शुरू करने के लिए, विशेष आर्थिक क्षेत्रा बनाने के लिए या एक्सप्रेस हाइवे और अत्याधुनिक शहर बसाने के लिए आदिवासियों और किसानों से जबरन जमीन छीनकर केन्द्र और राज्य सरकारें पूँजीपतियों को सौंप रही हैं। साथ ही उनके लिए टैक्स माफी, मुफ्त पानी, सस्ती बिजली, कर्ज और दूसरे सभी साधन मुहैया करा रही है। सरकार की इन्हीं मेहरबानियों के चलते देश के पूँजीपतियों की दौलत दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ रही है और रातों-रात करोड पतियों-अरबपतियों की जमात में शामिल होने वालों की संखया में साल दर साल बढ़ोत्तरी हो रही है।
विकास की इस विनाशलीला ने प्राकृतिक सम्पदाओं से सम्पन्न, लेकिन सबसे गरीब और पिछडे़ राज्यों झारखण्ड, छत्तीसगढ , उड़ीसा और कई अन्य इलाकों की आदिवासी जनता को विस्थापन का शिकार बनाया है। उन लोगों की हालत अफ्रीका के मूल निवासियों जैसी बना दी गयी है। सरकार ने आजादी के बाद से अब तक उनकी दुर्दशा पर कभी ध्यान नहीं दिया और अब उनके साथ विदेशी हमलावरों की तरह बर्ताव कर रही है। जमीन और जंगल से उन्हें बेदखल करके, उनकी जीविका का एकमात्रा आधार छीनकर उसे टाटा, जिन्दल, अग्रवाल, सालेम और पॉस्को को भेंट कर रही है। लेकिन जब वे अपने रोजी-रोजगार, जमीन, जंगल और जिन्दा रहने जैसे बुनियादी हकों से वंचित किये जाने के खिलाफ जीवन-मरण की लड ाई में उतरते हैं, तो सरकार एक तरफ उनके विकास की लफ्फाजी करती है और दूसरी ओर 'आतंकवादी' और 'माओवादी' कह कर उन इलाकों में सशस्त्रा बल तैनात करती है। यह महज संयोग नहीं कि जब से इन इलाकों को देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हवाले करने का सिलसिला तेज हुआ है, तभी से वहाँ उग्रवाद भी तेज हुआ है। झारखण्ड की सरकार ने खनन के लिए बड़ी-बड़ी कम्पनियों के साथ लगभग 150 समझौते किये हैं जिनके बारे में सूचना अधिकार कानून के तहत भी जानकारी नहीं दी जाती। उड़ीसा और छत्तीसगढ सरकारों ने भी ऐसे कई समझौते किये हैं जिनमें वेदान्ता और पॉस्को के साथ किये गये समझौते सबसे कुखयात रहे हैं। विदेशी पूँजी के लोभ में अपने देश के अनमोल कुदरती खजानों को कौडियों के मोल लुटाने वाली सरकारें अपने ही बनाये पर्यावरण कानून, वन अधिनियम या किसी भी कायदे कानून की परवाह नहीं करतीं। जमीन अधिग्रहण के लिए पंचायत की सहमति लेना जरूरी होता है, लेकिन झारखण्ड के काठीकुण्ड पंचायत के लोगों ने जब जमीन देने से मना किया, तो पुलिस ने पंचायत कर रहे लोगों पर गोली चलायी जिसमें दो लोग मारे गये। दूसरी कई जगहों पर तो इससे भी ज्यादा वीभत्स कहानी दुहरायी गयी।
विशेष आर्थिक क्षेत्रा (सेज) के नाम से देश के भीतर विदेशी क्षेत्रा बसाये जा रहे हैं। इसके लिए 2009 तक सरकार ने 578 सेज स्थापित करने की स्वीकृति दे दी थी। इनका क्षेत्राफल 2500 से 3500 एकड़ होगा। विभिन्न राज्य सरकारें इसके लिए 5 लाख एकड जमीन का अधिग्रहण करेंगी। अब तक लाखों एकड जमीन बड़े बिल्डरों, कोलोनाइजरों और देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सौंपी जा चुकी है। जिन लोगों से जमीन छीनी गयी उनके मुआवजे और पुनर्वास की चिन्ता इन सरकारों को नहीं। जिस इलाके में जमीन अधिग्रहण किया जाता है, वहाँ की आधे से अधिक जनता भूमिहीन होती है। जमीन और गाँव की अर्थव्यवस्था पर ही उनकी जीविका निर्भर होती है। विकास के नाम पर उजाड़े जाने वाले इलाकों के ऐसे निर्धन लोगों की तो कहीं कोई चर्चा भी नहीं होती, जो दर-दर की ठोकर खाने पर मजबूर कर दिये जाते हैं।
वैश्वीकरण-उदारीकरण के नाम पर विकास का नग्न पूँजीवादी ढाँचा अपनाने वाली हमारी सरकारें आज पूरी तरह जनविरोधी हो चुकी हैं। इन नीतियों पर सभी पार्टियों की आम सहमति है। तात्कालिक स्वार्थों ने उन्हें इतना अंधा बना दिया है कि वे इस विनाशकारी खेल के दुखद और आत्मघाती परिणामों पर विचार करने को बिल्कुल तैयार नहीं हैं। उनका विवेक और उनकी आत्मा देशी-विदेशी पूँतिपतियों की तिजोरियों और स्विस बैंक के लॉकरों में बन्द हैं।
विकास की अंधी दौड में देर से शामिल हुए, भारतीय पूँजीपतियों के लिए आदिम पूँजी संचय का कोई विदेशी इलाका नहीं है जहाँ वे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर सकें और जिसे अपना उपनिवेश बना सकें। लेकिन अपने ही देश के बड़े भूभाग और प्राकृतिक संसाधनों के विपुल भण्डार पर कब्जा जमाने का सुनहरा मौका उनके हाथ लग गया, क्योंकि सुधारों का झण्डा-डण्डा लिए लूटपाट की इस मुहिम में सरकार आँख मूंदकर उनके पक्ष में खड़ी है। खनन शुरू करने के लिए, विशेष आर्थिक क्षेत्रा बनाने के लिए या एक्सप्रेस हाइवे और अत्याधुनिक शहर बसाने के लिए आदिवासियों और किसानों से जबरन जमीन छीनकर केन्द्र और राज्य सरकारें पूँजीपतियों को सौंप रही हैं। साथ ही उनके लिए टैक्स माफी, मुफ्त पानी, सस्ती बिजली, कर्ज और दूसरे सभी साधन मुहैया करा रही है। सरकार की इन्हीं मेहरबानियों के चलते देश के पूँजीपतियों की दौलत दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ रही है और रातों-रात करोड पतियों-अरबपतियों की जमात में शामिल होने वालों की संखया में साल दर साल बढ़ोत्तरी हो रही है।
विकास की इस विनाशलीला ने प्राकृतिक सम्पदाओं से सम्पन्न, लेकिन सबसे गरीब और पिछडे़ राज्यों झारखण्ड, छत्तीसगढ , उड़ीसा और कई अन्य इलाकों की आदिवासी जनता को विस्थापन का शिकार बनाया है। उन लोगों की हालत अफ्रीका के मूल निवासियों जैसी बना दी गयी है। सरकार ने आजादी के बाद से अब तक उनकी दुर्दशा पर कभी ध्यान नहीं दिया और अब उनके साथ विदेशी हमलावरों की तरह बर्ताव कर रही है। जमीन और जंगल से उन्हें बेदखल करके, उनकी जीविका का एकमात्रा आधार छीनकर उसे टाटा, जिन्दल, अग्रवाल, सालेम और पॉस्को को भेंट कर रही है। लेकिन जब वे अपने रोजी-रोजगार, जमीन, जंगल और जिन्दा रहने जैसे बुनियादी हकों से वंचित किये जाने के खिलाफ जीवन-मरण की लड ाई में उतरते हैं, तो सरकार एक तरफ उनके विकास की लफ्फाजी करती है और दूसरी ओर 'आतंकवादी' और 'माओवादी' कह कर उन इलाकों में सशस्त्रा बल तैनात करती है। यह महज संयोग नहीं कि जब से इन इलाकों को देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हवाले करने का सिलसिला तेज हुआ है, तभी से वहाँ उग्रवाद भी तेज हुआ है। झारखण्ड की सरकार ने खनन के लिए बड़ी-बड़ी कम्पनियों के साथ लगभग 150 समझौते किये हैं जिनके बारे में सूचना अधिकार कानून के तहत भी जानकारी नहीं दी जाती। उड़ीसा और छत्तीसगढ सरकारों ने भी ऐसे कई समझौते किये हैं जिनमें वेदान्ता और पॉस्को के साथ किये गये समझौते सबसे कुखयात रहे हैं। विदेशी पूँजी के लोभ में अपने देश के अनमोल कुदरती खजानों को कौडियों के मोल लुटाने वाली सरकारें अपने ही बनाये पर्यावरण कानून, वन अधिनियम या किसी भी कायदे कानून की परवाह नहीं करतीं। जमीन अधिग्रहण के लिए पंचायत की सहमति लेना जरूरी होता है, लेकिन झारखण्ड के काठीकुण्ड पंचायत के लोगों ने जब जमीन देने से मना किया, तो पुलिस ने पंचायत कर रहे लोगों पर गोली चलायी जिसमें दो लोग मारे गये। दूसरी कई जगहों पर तो इससे भी ज्यादा वीभत्स कहानी दुहरायी गयी।
विशेष आर्थिक क्षेत्रा (सेज) के नाम से देश के भीतर विदेशी क्षेत्रा बसाये जा रहे हैं। इसके लिए 2009 तक सरकार ने 578 सेज स्थापित करने की स्वीकृति दे दी थी। इनका क्षेत्राफल 2500 से 3500 एकड़ होगा। विभिन्न राज्य सरकारें इसके लिए 5 लाख एकड जमीन का अधिग्रहण करेंगी। अब तक लाखों एकड जमीन बड़े बिल्डरों, कोलोनाइजरों और देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सौंपी जा चुकी है। जिन लोगों से जमीन छीनी गयी उनके मुआवजे और पुनर्वास की चिन्ता इन सरकारों को नहीं। जिस इलाके में जमीन अधिग्रहण किया जाता है, वहाँ की आधे से अधिक जनता भूमिहीन होती है। जमीन और गाँव की अर्थव्यवस्था पर ही उनकी जीविका निर्भर होती है। विकास के नाम पर उजाड़े जाने वाले इलाकों के ऐसे निर्धन लोगों की तो कहीं कोई चर्चा भी नहीं होती, जो दर-दर की ठोकर खाने पर मजबूर कर दिये जाते हैं।
वैश्वीकरण-उदारीकरण के नाम पर विकास का नग्न पूँजीवादी ढाँचा अपनाने वाली हमारी सरकारें आज पूरी तरह जनविरोधी हो चुकी हैं। इन नीतियों पर सभी पार्टियों की आम सहमति है। तात्कालिक स्वार्थों ने उन्हें इतना अंधा बना दिया है कि वे इस विनाशकारी खेल के दुखद और आत्मघाती परिणामों पर विचार करने को बिल्कुल तैयार नहीं हैं। उनका विवेक और उनकी आत्मा देशी-विदेशी पूँतिपतियों की तिजोरियों और स्विस बैंक के लॉकरों में बन्द हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें