देश की मौजूदा हालात और आम जनता की जिन्दगी पर नजर डालें तो विरोधाभास और विषमता की एक ऐसी तस्वीर दिखायी देती है जो स्तब्धकारी है। जिस समय आर्थिक विकास दर 9 प्रतिशत की ऊँचाई छू रही थी, तब रोजगार केवल 0.17 प्रतिशत की दर से ही बढ़ रहा था। रोजगार चाहने वालों की कतार में नये-नये शामिल देश के 1.8 करोड लोगों में से ज्यादातर लोगों को हर साल बेरोजगारी के नरक कुण्ड में धकेल दिया गया। जब आईटी सेक्टर में काम करने वालों और बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रबन्धकों की ऊँची वेतन की चर्चा हो रही थी, आईआईएम और आईआईटी डिग्री धारकों की लाखों-करोड़ों में बोली लग रही थी, उसी समय बीए-एमए, एमबीबीएस और बीटेक पास नौजवान 2000-4000 की नौकरी के लिए मारे-मारे फिर रहे थे, पुलिस-फौज की भर्ती के दौरान लाठी खा रहे थे, या ट्रेन की छतों से गिर कर मर रहे थे।
एक तरफ शहरों में मैक्डोनाल्ड, केन्टुकी फ्रायड चिकन और पिज्जा हट जैसे एक से एक विदेशी होटल खुल रहे थे, तो दूसरी ओर सरकार गरीबों के राशन में लगातार कटौती कर रही थी। नतीजा यह की हमारा देश दुनियाभर में भुखमरी के शिकार 84 देशों की सूची में निर्धनतम अफ्रीकी देशों के साथ शामिल था।
एक तरफ शहरों में मैक्डोनाल्ड, केन्टुकी फ्रायड चिकन और पिज्जा हट जैसे एक से एक विदेशी होटल खुल रहे थे, तो दूसरी ओर सरकार गरीबों के राशन में लगातार कटौती कर रही थी। नतीजा यह की हमारा देश दुनियाभर में भुखमरी के शिकार 84 देशों की सूची में निर्धनतम अफ्रीकी देशों के साथ शामिल था।
देशी-विदेशी मीडिया का कहना है कि भारतीय परिवारों में विदेशी रेस्तरां में खाना खाने का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। टीवी चैनलों पर खान-पान के लुभावने कार्यक्रम प्रसारित हो रहे हैं। स्थूलकाय औरत, मर्द और बच्चे मोटापा कम करने पर हजारों रुपये खर्च कर रहे हैं। दूसरी ओर प्रति व्यक्ति अनाज की खपत कम होती जा रही है और आदमी को जिन्दा रहने के लिए जरूरी मात्रा में भी कैलोरी नहीं मिल पा रही है। सरकारी आकड़ों के मुताबिक 2006 से 2008 के बीच प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन अनाज की औसत आपूर्ति 445 ग्राम से घट कर 436 ग्राम हो गयी। इस औसत आपूर्ति में से गरीब का हिस्सा जाहिर तौर पर काफी कम है जबकि उसकी थाली में पौष्टिक भोजन दुर्लभ है। आज दुनिया के आधे भूखे लोग और सबसे कुपोषित बच्चे भारत में हैं जबकि 90 प्रतिशत गर्भवती महिलाएँ कुपोषण और खून की कमी से ग्रसित हैं।
फैशन टीवी पर दिन-रात मनमोहक पोशाकों की नुमाइश और बड़े शहरों में फैशन सप्ताह के आयोजन हो रहे हैं जहाँ स्वप्निल पहनावे में सजे-धजे मॉडल मटकते दिखते हैं। भारत में प्रति व्यक्ति कपडे की औसत खपत ९ मीटर है जितना ऊपरी तबके के घरों में रूमाल, तौलिया और पोंछे के मद में ही खर्च हो जाता है। दूसरी ओर नंग-धड़ंग घूमते बच्चे और फटे चीथड़ों में तन ढाँपे करोड़ों लोग इस विकास की असलियत बयान करते दिखते हैं। शहरों-कस्बों में पुराने कपड़ों का बाजार लगता है जहाँ विदेशियों के उतारे हुए कपडे खरीदना भी सबके वश की बात नहीं है।
देश में करोड पतियों-अरबपतियों की जमात और उनकी दौलत हर साल बेहिसाब बढ रही है। विलासिता के सामान खरीदने के लिए अमीरों को आसान किस्तों और सस्ती दरों पर उपभोक्ता ऋण देने के लिए बैंकों में होड़ लगी हुई है। दूसरी ओर कृषि क्षेत्रा की सरकारी उपेक्षा और गहराते संकट के कारण सकल घरेलू उत्पाद में खेती का हिस्सा और विकास दर में लगातार कमी आयी है। बैंकों से कर्ज न मिलने के कारण ज्यादातर किसान निजी सूदखोरों के जाल में फँसते गये, फसल चौपट होने या बाजार के उतार-चढ़ाव के कारण वे बर्बादी के शिकार हुए। पिछले दस वर्षों में देश भर के डेढ लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली।
एक तरफ नोएडा, ग्रेटर नोएडा और नवी मुम्बई जैसे विलासितापूर्ण शहर बसाने, विशेष आर्थिक क्षेत्रा बनाने, यानी देश के अन्दर ही ऐसे 578 विदेशी इलाके आबाद करने तथा एक्सप्रेस हाइवे बनाने के लिए कौडियों के मोल किसानों से जमीन छीन कर देशी-विदेशी कम्पनियों को सौंपी जा रही है, प्राकृतिक संसाधनों और खनिज सम्पदा की नीलामी करने के लिए पर्यावरण और दूसरे कानूनों की धज्जी उड़ाते हुए आदिवासियों के सैकड़ों गाँव उजाडे जा रहे हैं, उनकी रोजी-रोटी और सामुदायिक जीवन को रौंदा जा रहा है। दूसरी ओर विस्थापन के खिलाफ या अपनी जमीन के लिए मुआवजा या पुनर्वास की माँग कर रहे आदिवासियों और किसानों के आन्दोलनों का बर्बर दमन किया जा रहा है। ये घटनाएँ उन दिनों की याद दिलाती हैं, जब कच्चे माल पर कब्जा करने के लिए यूरोप के उपनिवेशवादियों ने अमरीकी उपमहाद्वीप, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका और भारत सहित तमाम देशों के मूल निवासियों पर वहशियाना जुल्म ढाये थे। विडम्बना यह है कि इस बार उपनिवेशवादी कब्जे को अंजाम देने वाले अपने ही देश के सफेदपोश शासक हैं जो देशी-विदेशी पूँजी के एजेण्ट की भूमिका में उतर आये हैं।
इन आर्थिक सुधारों के चलते जिन गिने-चुने लोगों की आय में बेहिसाब बढोत्तरी हुई, उनके लिए शापिंग मॉल, मल्टीप्लेक्स, हेल्थ क्लब, मसाज पार्लर, विदेशी रेस्तराँ, अपोलो और एस्कोर्ट जैसे अस्पताल, राजसी ठाठ-बाट वाले 'इन्टरनेशनल' और 'ग्लोबल' स्कूल-कॉलेज, वाटर पार्क, गोल्फ क्लब, यानी विलासिता और शानो-शौकत से भरपूर एक स्वर्ग लोक का निर्माण किया गया है। दूसरी ओर असंगठित क्षेत्रा के 80 करोड़ लोग हर रोज 20 रुपये या उससे भी कम पर गुजारा कर रहे हैं। उनके लिए पहले जो नामचारे के सरकारी स्कूल, अस्पताल, सस्ता राशन, किरासन तेल और दूसरी सुविधाएँ थीं, उन्हें भी सरकार एक-एक कर समाप्त करती जा रही है। सामाजिक सेवाओं का निजीकरण कर के हमारे देश के शासक बदहाली के शिकार लोगों को मौत के मुँह में धकेल रहे हैं। कल्पना करना कठिन है कि 20 रूपये रोज की आमदनी वाले जिन लोगों के लिए बेलगाम मँहगाई के इस दौर में दो जून की रोटी जुटाना भी मुश्किल है, वे अपने बच्चों की पढ़ाई और दवा-इलाज के बारे में भला सोच भी कैसे सकते हैं।
गगनचुम्बी इमारतों और आलीशान कोठियों के इर्दगिर्द, उनसे गुजरने वाले गन्दे नालों या रेलवे लाइन के किनारे सहज ही नरक से भी बदतर बस्तियाँ आबाद होती और उजड ती रहती हैं। इन झोपड पट्टियों के वाशिंदे स्वर्ग के निवासियों की जिन्दगी का बेहद जरूरी हिस्सा हैं घरेलू नौकर-नौकरानी, धोबी, नाई, माली, बिजली मिस्त्री, दरबान, सफाईकर्मी, ड्राइवर, रिक्शा-टैम्पो चालक, दूध-अखबार-सब्जी विक्रेता और दिन-रात उनकी खिदमत में लगे लोग। दूसरों की जिन्दगी में चमक लाने वाले इन लोगों की अपनी जिन्दगी में अंधेरा ही अंधेरा है। औद्योगिक इलाकों के इर्द-गिर्द आबाद होने वाले श्रमिकों के उपनगर भी इन बस्तियों से थोड़ी ही बेहतर स्थिति में हैं, मसलन नोएडा के साथ निठारी, गाजियाबाद के साथ खोड़ा कालोनी और दिल्ली के साथ लोनी। राजधानी के पास बसी लाखों की आबादी वाली इन बस्तियों की नारकीय स्थिति को नजदीक से देखे बिना इस विकृत और विद्रूप विकास का पूरी तरह जायजा लेना सम्भव नहीं। सरकारी विज्ञापनों और मीडिया में दिखायी जाने वाली लकदक छवियों को देखकर धोखे में आ जाना लाजिमी है।
ये सभी विरोधभास जिन आर्थिक सुधारों का नतीजा हैं और जिनके नाम पर पिछले 20 वर्षों से हमारे देश के शासक वर्ग जिस बाजारवादी अर्थनीति का अनुसरण कर रहे हैं, वह उनकी मौलिक खोज नहीं है। यह हमारे देश की जरूरतों से पैदा नहीं हुई है। इसकी प्रस्तोता और प्रवर्तक अमरीकी चौधराहट वाली विश्व साम्राज्यवादी शक्तियाँ हैं। नवउदारवादी नीतियाँ विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी साम्राज्यवादपरस्त वित्तीय संस्थाओं द्वारा अमरीकी सरकार की मदद से गढ़ी गयी हैं। 'वाशिंगटन आमसहमति' के तहत इसे विश्वव्यापी बनाने की शुरुआत हुई। तथाकथित वाशिंगटन आमसहमति के पीछे बहुराष्ट्रीय निगमों की काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी, जिनका दुनियाभर की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव था और अपने अति लाभ को जारी रखने के लिए तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को साम्राज्यवादी विश्व आर्थिक व्यवस्था के अधीन लाना जरूरी था। विश्व साम्राज्यवाद का चौधरी अमरीका दूसरे महायुद्ध के बाद से ही इन नीतियों को पूरी दुनिया पर थोपना चाहता था। 1990 की अनुकूल विश्व परिस्थितियों ने उसकी मुराद पूरी कर दी।
इन साम्राज्यवादी नीतियों को 'ढाँचागत समायोजन कार्यक्रमों' के जरिये दुनियाभर में लागू करवाने का जिम्मा विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष को सौंपा गया। 1980 के दशक में लगभग 70 देशों में इसे लागू किया गया जो इन्हीं संस्थाओं के कर्ज जाल में फँसकर आर्थिक संकट के शिकार हो चुके थे। उनकी रणनीति यही थी पहले किसी देश को कर्ज के जाल में फँसाओ और फिर उसे उबारने के नाम पर नवउदारवादी नीतियों की विषाक्त कड वी दवा पिलाओ। भारत में भी ऐसा ही किया गया।
1990-1991 में कर्ज और व्यापार घाटा संकट में फँसने के बाद भारत के शासक वर्गों ने भी इस नये आर्थिक धर्मशास्त्रा को अंगीकार कर लिया। 1947 के बाद देश में चली आ रही आर्थिक नीतियों से यह एक सौ अस्सी डिग्री का घुमाव था। हमारे शासकों की भाषा रातों-रात बदल गयी। आत्मनिर्भर विकास की जगह निर्यातोन्मुख औद्योगीकरण, सार्वजनिक क्षेत्र की जगह निजी-पूँजी और निजी-मुनाफा, नेहरूवादी समाजवाद की जगह बाजारवाद, संक्षेप में साम्राज्यवादी देशों के आगे निर्लज्ज आत्मसमर्पण।
आगे इन आर्थिक नीतियों के अलग-अलग पक्षों और उनके दुष्परिणामों का जायजा लिया जायेगा।
देश में करोड पतियों-अरबपतियों की जमात और उनकी दौलत हर साल बेहिसाब बढ रही है। विलासिता के सामान खरीदने के लिए अमीरों को आसान किस्तों और सस्ती दरों पर उपभोक्ता ऋण देने के लिए बैंकों में होड़ लगी हुई है। दूसरी ओर कृषि क्षेत्रा की सरकारी उपेक्षा और गहराते संकट के कारण सकल घरेलू उत्पाद में खेती का हिस्सा और विकास दर में लगातार कमी आयी है। बैंकों से कर्ज न मिलने के कारण ज्यादातर किसान निजी सूदखोरों के जाल में फँसते गये, फसल चौपट होने या बाजार के उतार-चढ़ाव के कारण वे बर्बादी के शिकार हुए। पिछले दस वर्षों में देश भर के डेढ लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली।
एक तरफ नोएडा, ग्रेटर नोएडा और नवी मुम्बई जैसे विलासितापूर्ण शहर बसाने, विशेष आर्थिक क्षेत्रा बनाने, यानी देश के अन्दर ही ऐसे 578 विदेशी इलाके आबाद करने तथा एक्सप्रेस हाइवे बनाने के लिए कौडियों के मोल किसानों से जमीन छीन कर देशी-विदेशी कम्पनियों को सौंपी जा रही है, प्राकृतिक संसाधनों और खनिज सम्पदा की नीलामी करने के लिए पर्यावरण और दूसरे कानूनों की धज्जी उड़ाते हुए आदिवासियों के सैकड़ों गाँव उजाडे जा रहे हैं, उनकी रोजी-रोटी और सामुदायिक जीवन को रौंदा जा रहा है। दूसरी ओर विस्थापन के खिलाफ या अपनी जमीन के लिए मुआवजा या पुनर्वास की माँग कर रहे आदिवासियों और किसानों के आन्दोलनों का बर्बर दमन किया जा रहा है। ये घटनाएँ उन दिनों की याद दिलाती हैं, जब कच्चे माल पर कब्जा करने के लिए यूरोप के उपनिवेशवादियों ने अमरीकी उपमहाद्वीप, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका और भारत सहित तमाम देशों के मूल निवासियों पर वहशियाना जुल्म ढाये थे। विडम्बना यह है कि इस बार उपनिवेशवादी कब्जे को अंजाम देने वाले अपने ही देश के सफेदपोश शासक हैं जो देशी-विदेशी पूँजी के एजेण्ट की भूमिका में उतर आये हैं।
इन आर्थिक सुधारों के चलते जिन गिने-चुने लोगों की आय में बेहिसाब बढोत्तरी हुई, उनके लिए शापिंग मॉल, मल्टीप्लेक्स, हेल्थ क्लब, मसाज पार्लर, विदेशी रेस्तराँ, अपोलो और एस्कोर्ट जैसे अस्पताल, राजसी ठाठ-बाट वाले 'इन्टरनेशनल' और 'ग्लोबल' स्कूल-कॉलेज, वाटर पार्क, गोल्फ क्लब, यानी विलासिता और शानो-शौकत से भरपूर एक स्वर्ग लोक का निर्माण किया गया है। दूसरी ओर असंगठित क्षेत्रा के 80 करोड़ लोग हर रोज 20 रुपये या उससे भी कम पर गुजारा कर रहे हैं। उनके लिए पहले जो नामचारे के सरकारी स्कूल, अस्पताल, सस्ता राशन, किरासन तेल और दूसरी सुविधाएँ थीं, उन्हें भी सरकार एक-एक कर समाप्त करती जा रही है। सामाजिक सेवाओं का निजीकरण कर के हमारे देश के शासक बदहाली के शिकार लोगों को मौत के मुँह में धकेल रहे हैं। कल्पना करना कठिन है कि 20 रूपये रोज की आमदनी वाले जिन लोगों के लिए बेलगाम मँहगाई के इस दौर में दो जून की रोटी जुटाना भी मुश्किल है, वे अपने बच्चों की पढ़ाई और दवा-इलाज के बारे में भला सोच भी कैसे सकते हैं।
गगनचुम्बी इमारतों और आलीशान कोठियों के इर्दगिर्द, उनसे गुजरने वाले गन्दे नालों या रेलवे लाइन के किनारे सहज ही नरक से भी बदतर बस्तियाँ आबाद होती और उजड ती रहती हैं। इन झोपड पट्टियों के वाशिंदे स्वर्ग के निवासियों की जिन्दगी का बेहद जरूरी हिस्सा हैं घरेलू नौकर-नौकरानी, धोबी, नाई, माली, बिजली मिस्त्री, दरबान, सफाईकर्मी, ड्राइवर, रिक्शा-टैम्पो चालक, दूध-अखबार-सब्जी विक्रेता और दिन-रात उनकी खिदमत में लगे लोग। दूसरों की जिन्दगी में चमक लाने वाले इन लोगों की अपनी जिन्दगी में अंधेरा ही अंधेरा है। औद्योगिक इलाकों के इर्द-गिर्द आबाद होने वाले श्रमिकों के उपनगर भी इन बस्तियों से थोड़ी ही बेहतर स्थिति में हैं, मसलन नोएडा के साथ निठारी, गाजियाबाद के साथ खोड़ा कालोनी और दिल्ली के साथ लोनी। राजधानी के पास बसी लाखों की आबादी वाली इन बस्तियों की नारकीय स्थिति को नजदीक से देखे बिना इस विकृत और विद्रूप विकास का पूरी तरह जायजा लेना सम्भव नहीं। सरकारी विज्ञापनों और मीडिया में दिखायी जाने वाली लकदक छवियों को देखकर धोखे में आ जाना लाजिमी है।
ये सभी विरोधभास जिन आर्थिक सुधारों का नतीजा हैं और जिनके नाम पर पिछले 20 वर्षों से हमारे देश के शासक वर्ग जिस बाजारवादी अर्थनीति का अनुसरण कर रहे हैं, वह उनकी मौलिक खोज नहीं है। यह हमारे देश की जरूरतों से पैदा नहीं हुई है। इसकी प्रस्तोता और प्रवर्तक अमरीकी चौधराहट वाली विश्व साम्राज्यवादी शक्तियाँ हैं। नवउदारवादी नीतियाँ विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी साम्राज्यवादपरस्त वित्तीय संस्थाओं द्वारा अमरीकी सरकार की मदद से गढ़ी गयी हैं। 'वाशिंगटन आमसहमति' के तहत इसे विश्वव्यापी बनाने की शुरुआत हुई। तथाकथित वाशिंगटन आमसहमति के पीछे बहुराष्ट्रीय निगमों की काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी, जिनका दुनियाभर की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव था और अपने अति लाभ को जारी रखने के लिए तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को साम्राज्यवादी विश्व आर्थिक व्यवस्था के अधीन लाना जरूरी था। विश्व साम्राज्यवाद का चौधरी अमरीका दूसरे महायुद्ध के बाद से ही इन नीतियों को पूरी दुनिया पर थोपना चाहता था। 1990 की अनुकूल विश्व परिस्थितियों ने उसकी मुराद पूरी कर दी।
इन साम्राज्यवादी नीतियों को 'ढाँचागत समायोजन कार्यक्रमों' के जरिये दुनियाभर में लागू करवाने का जिम्मा विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष को सौंपा गया। 1980 के दशक में लगभग 70 देशों में इसे लागू किया गया जो इन्हीं संस्थाओं के कर्ज जाल में फँसकर आर्थिक संकट के शिकार हो चुके थे। उनकी रणनीति यही थी पहले किसी देश को कर्ज के जाल में फँसाओ और फिर उसे उबारने के नाम पर नवउदारवादी नीतियों की विषाक्त कड वी दवा पिलाओ। भारत में भी ऐसा ही किया गया।
1990-1991 में कर्ज और व्यापार घाटा संकट में फँसने के बाद भारत के शासक वर्गों ने भी इस नये आर्थिक धर्मशास्त्रा को अंगीकार कर लिया। 1947 के बाद देश में चली आ रही आर्थिक नीतियों से यह एक सौ अस्सी डिग्री का घुमाव था। हमारे शासकों की भाषा रातों-रात बदल गयी। आत्मनिर्भर विकास की जगह निर्यातोन्मुख औद्योगीकरण, सार्वजनिक क्षेत्र की जगह निजी-पूँजी और निजी-मुनाफा, नेहरूवादी समाजवाद की जगह बाजारवाद, संक्षेप में साम्राज्यवादी देशों के आगे निर्लज्ज आत्मसमर्पण।
आगे इन आर्थिक नीतियों के अलग-अलग पक्षों और उनके दुष्परिणामों का जायजा लिया जायेगा।
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