अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने अर्थव्यवस्था का स्वास्थ्य सुधारने के लिए जो नुस्खा दिया था, उसके साथ एक खास एहतियात भी सुझाया था बजट घाटा कम करने के लिए सरकारी खर्चों में कटौती। वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने जनता से अपनी बेल्ट कसने की अपील की थी, तो प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने लगभग धमकाते हुए कहा था कि सरकार कोई धर्मशाला नहीं है। यानी आम जनता मुफ्त में सरकार से कुछ भी पाने की उम्मीद न रखे। इस तरह भविष्य की दिशा तभी तय हो गयी थी कि इस किफायत की कीमत किसे चुकानी पड़ेगी। 2004 में राजस्व जिम्मेदारी और बजट प्रबन्धन अधिनियम लागू करके सरकार ने विदेशी पूँजीपतियों को आश्वस्त किया कि वह अपने राजस्व घाटे को 2010 तक शून्य तक लायेगी। इस कानून में यह भी दर्ज है कि सरकार प्राकृतिक आपदा को छोड कर अपनी जरूरतों के लिए रिजर्व बैंक से कर्ज भी नहीं लेगी।
बजट घाटा कम करने के लिए सरकार के सामने दो रास्ते थे पहला, पूँजीपतियों और अधिक आमदनी वालों से प्रत्यक्ष कर की वसूली बढ़ाये और सरकारी ढाँचे पर होने वाले खर्चे में कटौती करे। दूसरा रास्ता सार्वजनिक सम्पत्ति, कल कारखाने और प्राकृतिक संसाधन देशी-विदेशी पूँजीपति को बेंच दे। साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसी सामाजिक सेवाओं के मद में बजट की राशि कम करे, किसानों की सहायता, सस्ते दर पर कर्ज, ग्रामीण विकास कार्यक्रम और गरीबों, पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों के लिए राहत योजनाओं पर खर्च कम करे, आम जनता से वसूले जाने वाले अप्रत्यक्ष करों की दर ऊँची करे और आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोत्तरी करे। पहले उपाय का बोझ उन थोड़े से धनी लोगों पर पड़ता जो उसे उठाने में सक्षम हैं जबकि दूसरे उपायों की मार देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी को सहनी पडती जो पहले ही तंगहाल है। सरकार ने दूसरा रास्ता चुना। सरकार ने चंद अमीरों से प्रत्यक्षकर वसूलने के बजाय ढेर सारे लोगों पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ाया। सरकार के राजस्व सचिव के अनुसार भारत में कॉरपोरेट टैक्स लगभग 20 प्रतिशत है जबकि दूसरे देशों में 30 से 40 प्रतिशत वसूली होती है। वित्त मंत्रालय के एक सर्वे के मुताबिक बॉम्बे स्टॉक एक्स्चेंज की 1047 शीर्ष कम्पनियों ने एक वर्ष में 14,040 करोड का मुनाफा कमाया, लेकिन सरकार को एक भी पैसा टैक्स नहीं दिया। बाद में जब सरकार ने उनके लिए 13 प्रतिशत टैक्स तय किया तो उन कम्पनियों ने उससे भी बचने का रास्ता निकाल लिया। आरबीआई के एक अध्ययन के मुताबिक 1998-1999 में 1248 गैर-वित्तीय कम्पनियों में से एक तिहाई ने एक पैसा भी टैक्स न देने का उपाय खोज निकाला था। सरकारी खर्च में कटौती के नाम पर जहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं के मद में लगातार कमी की गयी, वहीं सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों और सांसदों-विधायकों के वेतन भत्तों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी की गयी। हवाई अड्डों, बंदरगाह, अवरचनागत ढाँचे और पुलिस-फौज पर लगातर बजट बढ़ाया गया। एक तरफ गरीबों के ऊपर मँहगाई और करों का बोझ बढ ता गया, तो दूसरी तरफ उनकी वास्तविक मजदूरी और आय में लगातार गिरावट आती गयी। इसी का नतीजा है कि आज देश की तीन चौथाई आबादी हाड तोड मेहनत के बावजूद कंगाली, भुखमरी, कुपोषण और प्रवंचना में जकड ती जा रही है। बजट में कटौती और मितव्ययिता का सीधा मतलब अमीरों को छूट और गरीबों की लूट है।
बजट घाटा कम करने के लिए सरकार के सामने दो रास्ते थे पहला, पूँजीपतियों और अधिक आमदनी वालों से प्रत्यक्ष कर की वसूली बढ़ाये और सरकारी ढाँचे पर होने वाले खर्चे में कटौती करे। दूसरा रास्ता सार्वजनिक सम्पत्ति, कल कारखाने और प्राकृतिक संसाधन देशी-विदेशी पूँजीपति को बेंच दे। साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसी सामाजिक सेवाओं के मद में बजट की राशि कम करे, किसानों की सहायता, सस्ते दर पर कर्ज, ग्रामीण विकास कार्यक्रम और गरीबों, पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों के लिए राहत योजनाओं पर खर्च कम करे, आम जनता से वसूले जाने वाले अप्रत्यक्ष करों की दर ऊँची करे और आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोत्तरी करे। पहले उपाय का बोझ उन थोड़े से धनी लोगों पर पड़ता जो उसे उठाने में सक्षम हैं जबकि दूसरे उपायों की मार देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी को सहनी पडती जो पहले ही तंगहाल है। सरकार ने दूसरा रास्ता चुना। सरकार ने चंद अमीरों से प्रत्यक्षकर वसूलने के बजाय ढेर सारे लोगों पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ाया। सरकार के राजस्व सचिव के अनुसार भारत में कॉरपोरेट टैक्स लगभग 20 प्रतिशत है जबकि दूसरे देशों में 30 से 40 प्रतिशत वसूली होती है। वित्त मंत्रालय के एक सर्वे के मुताबिक बॉम्बे स्टॉक एक्स्चेंज की 1047 शीर्ष कम्पनियों ने एक वर्ष में 14,040 करोड का मुनाफा कमाया, लेकिन सरकार को एक भी पैसा टैक्स नहीं दिया। बाद में जब सरकार ने उनके लिए 13 प्रतिशत टैक्स तय किया तो उन कम्पनियों ने उससे भी बचने का रास्ता निकाल लिया। आरबीआई के एक अध्ययन के मुताबिक 1998-1999 में 1248 गैर-वित्तीय कम्पनियों में से एक तिहाई ने एक पैसा भी टैक्स न देने का उपाय खोज निकाला था। सरकारी खर्च में कटौती के नाम पर जहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं के मद में लगातार कमी की गयी, वहीं सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों और सांसदों-विधायकों के वेतन भत्तों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी की गयी। हवाई अड्डों, बंदरगाह, अवरचनागत ढाँचे और पुलिस-फौज पर लगातर बजट बढ़ाया गया। एक तरफ गरीबों के ऊपर मँहगाई और करों का बोझ बढ ता गया, तो दूसरी तरफ उनकी वास्तविक मजदूरी और आय में लगातार गिरावट आती गयी। इसी का नतीजा है कि आज देश की तीन चौथाई आबादी हाड तोड मेहनत के बावजूद कंगाली, भुखमरी, कुपोषण और प्रवंचना में जकड ती जा रही है। बजट में कटौती और मितव्ययिता का सीधा मतलब अमीरों को छूट और गरीबों की लूट है।
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