अपनी साम्राज्यवादपरस्त नीतियों के तहत सरकार ने कृषि क्षेत्र को भी विश्व बाजार की लुटेरी ताकतों के लिए खोल दिया है। अपने देशों में मन्दी की मार झेल रहे विदेशी पूँजीपति और वहाँ की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हमारी खेती को पूँजीनिवेश और भारी मुनाफे का नया सुरक्षित क्षेत्र मानती हैं। वे चाहते हैं कि हमारे देश की जमीन, पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधन, लाखों प्रजातियों के पौधों के जीन, कृषि विज्ञान केन्द्र और प्रयोगशालाएँ, कृषि वैज्ञानिक, किसानों-मजदूरों की मेहनत और पैदावार पर पूरी तरह उनका कब्जा हो जाये। इसीलिए खेती को डंकल प्रस्ताव के जरिये विश्व व्यापार संगठन के समझौतों में शामिल किया गया। उन्हीं शर्तों को लागू करते हुए सरकार ने कृषि क्षेत्रा से सभी तरह के नियंत्राण और संरक्षण हटा लिए और इसे देशी-विदेशी पूँजीपतियों की लूट का चारागाह बना दिया।
वर्ष 2000 के बाद लगभग 1400 सामानों से आयात प्रतिबंध हटाकर सरकार ने भारतीय बाजारों को विदेशी माल से पाटने का रास्ता साफ कर दिया। इसमें अधिकांश खेती, पशुपालन और लघु उद्योग के उत्पाद हैं जिनके आयात से ग्रामीण आबादी की रोजी-रोटी सीधे प्रभावित हुई है। साथ ही, सरकार ने आयात-निर्यात के नियमों में ढील देकर कृषि उपज के विदेशी व्यापार को आसान बना दिया। नतीजा यह कि आयात-निर्यात में लगे थोड़े से पूँजीपतियों ने सरकारी सबसिडी और मुनाफे के रूप में भरपूर कमाई की, वहीं किसानों को विश्व बाजार के उतार-चढ़ाव के आगे असहाय छोड दिया गया।
कृषि लागत और समर्थन मूल्य के मद में किसानों को दी जाने वाली सरकारी सहायता में लगातार कटौती की गयी। इसके चलते 1992 के बाद खाद और बीज की कीमतों में चार गुने से भी अधिक की वृद्धि हुई। सिंचाई मद में सरकारी बजट में कमी तथा सरकारी नलकूपों और नहरों की उपेक्षा के कारण देश भर के किसान को सिंचाई के निजी नलकूपों पर अरबों रुपये खर्च करने पड़े जबकि इससे बहुत कम लागत में सामूहिक सिंचाई की व्यवस्था हो सकती थी। इस बीच सिंचाई के निजी साधनों और कृषि यंत्रों का प्रचलन बढ ने के कारण किसानों की ऊर्जा खपत काफी बढ गयी, जबकि इसी बीच सरकार ने बिजली और डीजल को भी निजी मुनाफे और लूट के हवाले कर दिया। इसके चलते खेती की लागत दिनों-दिन बढ ती जा रही है।
सुधारों के नाम पर सरकार ने खेती की कितनी अवहेलना की है इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1990-91 में केन्द्र सरकार खेती की मद में सकल घरेलू उत्पाद का 0.49 प्रतिशत खर्च करती थी। इस तुच्छ राशि को भी 2005-06 तक घटाते-घटाते 0.21 प्रतिशत कर दिया गया। इसी अवधि में सरकार ने सिंचाई और बाढ नियंत्राण पर खर्च की जाने वाली राशि को भी 0.06 प्रतिशत से घटाकर 0.02 प्रतिशत कर दी।
हमारे देश में 80 प्रतिशत किसान छोटी जोत वाले हैं जिनके पास जमीन तो कम ही है, खेती के संसाधन और पूँजी का भी अभाव है। खाद, बीज, पानी, बिजली और खेती के औजारों के लिए कर्ज के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं होता। जैसे-जैसे लागत बढ़ती गयी, किसानों के ऊपर कर्ज लेने का बोझ भी बढ ता गया। नयी आर्थिक नीतियों के तहत बैंकों द्वारा कृषि क्षेत्रा को दिये जाने वाले कर्ज की राशि में भी कटौती की गयी। साथ ही कृषि ऋण का भारी हिस्सा बड़े फार्मरों, कॉरपोरेट घरानों तथा कृषि उपकरणों, खाद्य प्रसंस्करण और ठेका खेती करने वाली कम्पनियों की ओर मोड दिया गया। ग्रामीण बैंक आज गाँवों में जमा होने वाली कुल राशि में से केवल १५ प्रतिशत ही किसानों को कर्ज के रूप में देते हैं और वह भी पहले से अधिक ब्याज दर पर। जिन किसानों के पास अपनी जमीन नहीं है उन्हें गारण्टी के आभाव में बैंक कोई कर्ज नहीं देते। इन्हीं कारणों से आज किसानों के कुल कर्ज में बैंकों और सहकारी संस्थाओं द्वारा दिये गये कर्ज का हिस्सा 8 से 10 प्रतिशत ही है। बाकी कर्जों के लिए वे निजी सूदखोरों पर निर्भर हैं या साहूकारों, आढतियों और खाद-बीज व्यापरियों से काठोर शर्तों और भारी ब्याज दर पर उधार लेने को मजबूर हैं।
किसानों को ठेका खेती का सब्जबाग दिखाया जा रहा है जबकि देश के कई इलाकों में किसानों को उसका कड वा स्वाद पहले ही मिल चुका है। आन्ध्र प्रदेश के चित्तूर जिले के किसानों ने कम्पनियों से करार करके 30-40 हजार रुपये प्रति एकड की लागत से खीरे की खेती की थी। दुनिया के बाजारों में खीरे की माँग कम होने का हवाला देकर कम्पनियों ने खीरा खरीदने से मना कर दिया। इसके चलते वहाँ के हजारों किसान कर्ज के जाल में फँसकर तबाह हो गये और कई किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए। आलू, टमाटर, बासमती धान और अन्य फसलें उगाने वाले देश के विभिन्न इलाकों के किसानों को भी ऐसे ही कटु अनुभवों से गुजरना पडा। और तो और, सरकार ने ठेका खेती और कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा देने के लिए कृषि उत्पाद विपणन (विकास एवं नियमन) कानून बनाया है जिसे कई राज्यों ने स्वीकार भी कर लिया है। इसके तहत मंडी समीतियों के समानान्तर प्राइवेट मंडी खोलने के लिए देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सरकार सस्ती जमीन देगी, कम्पनियाँ सीधे किसानों से खरीद-फरोखत करेंगी, यानी कृषि व्यापार, मूल्य निर्धारण और खरीद-बिक्री की शर्तों में सरकार कोई दखल नहीं देगी ताकि पूँजीपति खुलकर खेल सकें।
खेती से होने वाली आय में लगातार कमी और उससे गुजारा न हो पाने के कारण लाखों किसानों ने खेती करना छोड दिया है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2005 के मुताबिक 1991 से 2001 के बीच 44 लाख तथा 2001 और 2005 के बीच 1 करोड 70 लाख किसान परिवारों को खेती छोड ने पर विवश होना पड़ा। साथ ही देश के 40 प्रतिशत किसान खेती-बाड़ी छोड कर कोई अन्य रोजगार अपनाना चाहते हैं, लेकिन वैकल्पिक रोजगार का अवसर न होने के कारण उनके लिए खेती छोड ना सम्भव नहीं। सर्वेक्षण के मुताबिक 10 में से 8 किसानों के लिए आज खेती गले की हड्डी बन गयी है। लगातार घाटे और कर्ज के जाल में फँसने के चलते पिछले कुछ वर्षों में देशभर के लाखों किसानों ने आत्माहत्या की है। लेकिन इतने भारी पैमाने पर किसानों की तबाही और मौत की दिल दहना देने वाली घटनाओं का सरकार पर कोई असर नहीं हुआ। वह आज भी किसानों के खिलाफ नयी-नयी साम्राज्यवादपरस्त नीतियाँ लागू करती जा रही है।
भारतीय खेती को दैत्याकार अमरीकी कृषि व्यापार कम्पनियों की लूट का चारागाह बनाने के लिए हमारे शासक लम्बे समय से साम्राज्यवादियों के साथ साँठ-गाँठ कर रहे हैं। जार्ज बुश और मनमोहन सिंह के बीच हुई बातचीत के बाद जुलाई 2005 में 'कृषि ज्ञान पहल' योजना शुरू करने की घोषणा की थी। 8 नवम्बर 2010 को मनमोहन सिंह और बराक ओबामा ने एक संयुक्त वक्तव्य जारी किया जो खाद्य सुरक्षा और एवरग्रीन (सदाबहार) क्रान्ति के नाम पर भारतीय खेती को अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की लूट के लिए खोलने की एक मुकम्मिल योजना है।
प्रधानमंत्री ने भारत की हरित क्रान्ति में अमरीका की भूमिका की तारीफ करते हुए ''दूसरी हरित क्रान्ति'' को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें फिर से आगे आने का स्वागत किया। सच तो यह है कि हरित क्रान्ति भारतीय खेती के लिए कोई रामबाण दवा नहीं थी। सम्पूर्णता में देखें तो इससे कृषि क्षेत्रा की जितनी समस्याएँ हल नहीं हुईं, उससे कहीं ज्यादा नयी समस्याएँ उत्पन्न हुईं। चाहे वह मुट्ठी भर ऊपरी तबके के किसानों की खुशहाली की कीमत पर बहुसंखय किसानों की तबाही हो या जमीन की उर्वरता और भूजल का क्षरण। लेकिन सबके बावजूद हरित क्रन्ति की सीमित सफलताओं के पीछे सरकारी भूमिका थी। उस दौर में सरकारी खर्च पर उन्नत किस्म के बीज किसानों को मुहैया कराये गये थे जबकि आज हमारे शासकों ने सदाबहार क्रान्ति की बागडोर मोन्सेण्टो, डाउ और डूपोन्ट जैसी कुखयात अमरीकी कृषि व्यापार कम्पनियों के हाथ में थमा दी है जिनका जीन परिवर्तित बीजों के बौद्धिक सम्पदा अधिकार (पेटेन्ट) पर एकाधिकार कायम है। वे भारत के कृषि अनुसंधान संस्थानों भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अधीन काम करने वाले ढेर सारे उच्चस्तरीय संगठनों और कृषि विश्वविद्यालयों तथा उनसे जुड़े हुए प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों के दिल-दिमाग पर कब्जा करना चाहते हैं। बायो टेक्नोलॉजी और जेनेटिक इंजीनियरिंग को अपने अकूत मुनाफे का साधन बनाने के लिए वे काफी समय से यहाँ के कृषि अनुसंधान ढाँचे की ओर ललचाई नजरों से देख रहे हैं। साथ ही उनका मकसद यहाँ की जैवविविधता वाली हजारों तरह की प्रजातियों पर शोध करके उनका पेटेन्ट कराने और अपना एकाधिकार कायम करना भी है। सरकार ने उनकी मंशा पूरी कर दी।
कृषि ज्ञान पहल के सर्वोच्च निकाय में शामिल मोनसेण्टो, वालमार्ट और आर्चर डेनियल्स मिडलैण्ड जैसी अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ लगातार प्रयास कर रही थीं कि जीन परिवर्तित जीवों और बीजों, ठेका खेती और कृषि क्षेत्रा के बौद्धिक सम्पदा अधिकार से सम्बन्धित जितने भी नियम कानून हैं, उन्हें सरकार बदल दे ताकि उनके लूट के रास्ते में कोई अवरोध न रह जाये। जीन परिवर्तित बीजों की बिक्री की अनुमति देने के मामले में विदेशी कम्पनियों के साथ सरकार की साँठ-गाँठ के कितने ही उदाहरण पिछले दिनों सामने आये। बीटी बैंगन को सरकार ने गुपचुप तरीके से मान्यता दे दी। लेकिन जनता के आक्रोश को देखते हुए पर्यावरण मंत्री को अस्थायी रूप से उसकी अनुमति रद्द करनी पड़ी थी। अब सरकार ने बायोटेक्नोलॉजी नियमन प्राधिकरण कानून के तहत जैवपरिवर्तित बीजों और उससे तैयार मालों के विरोध का गला घोटने का रास्ता साफ कर दिया। यह कानून ऐसी संदिग्ध वस्तुओं से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण जानकारी जनता से छुपाने में विदेशी कम्पनियों के लिए मददगार है, जबकि खुद अपने देशों में उन्हें इस मामले में पारदर्शिता बरतनी पड ती है। यह कानून ठेका खेती, कॉरपोरेट खेती, खाद्य प्रसंस्करण, भण्डारण, खुदरा और थोक व्यापार, संकर और निर्वंशी बीज की बिक्री, उपज के अनुभव और खेती के अन्य आंकड़ों तक पहुँच जैसे हर पहलू को अपने आप में समाहित करने वाला है। सरकार इस पर तेजी से अमल करती जा रही है।
भारत सरकार विश्व व्यापार संगठन के दोहा चक्र की वार्ताओं में अमरीका का पक्ष लेने पर सहमत है। 2008 में वार्ता के दौरान भारत सरकार ने विकासशील देशों के साथ मिलकर अमरीका द्वारा अपनी खेती को भारी सबसिडी दिये जाने का विरोध किया था, लेकिन उसके बाद से ही अब हमारे शासक अपनी उस गलती को सुधारने और अमरीका को खुश करने में लगे हैं। ओबामा-मनमोहन द्विपक्षीय वार्ता में दोहा चक्र की वार्ताओं को सफल बनाने का वचन दिया गया। कई विकासशील देश इसके खिलाफ हैं जबकि अमरीकापरस्ती के चलते भारत के शासक कृषि क्षेत्रा को साम्राज्यवादियों के हवाले करने पर उतारू हैं।
वर्ष 2000 के बाद लगभग 1400 सामानों से आयात प्रतिबंध हटाकर सरकार ने भारतीय बाजारों को विदेशी माल से पाटने का रास्ता साफ कर दिया। इसमें अधिकांश खेती, पशुपालन और लघु उद्योग के उत्पाद हैं जिनके आयात से ग्रामीण आबादी की रोजी-रोटी सीधे प्रभावित हुई है। साथ ही, सरकार ने आयात-निर्यात के नियमों में ढील देकर कृषि उपज के विदेशी व्यापार को आसान बना दिया। नतीजा यह कि आयात-निर्यात में लगे थोड़े से पूँजीपतियों ने सरकारी सबसिडी और मुनाफे के रूप में भरपूर कमाई की, वहीं किसानों को विश्व बाजार के उतार-चढ़ाव के आगे असहाय छोड दिया गया।
कृषि लागत और समर्थन मूल्य के मद में किसानों को दी जाने वाली सरकारी सहायता में लगातार कटौती की गयी। इसके चलते 1992 के बाद खाद और बीज की कीमतों में चार गुने से भी अधिक की वृद्धि हुई। सिंचाई मद में सरकारी बजट में कमी तथा सरकारी नलकूपों और नहरों की उपेक्षा के कारण देश भर के किसान को सिंचाई के निजी नलकूपों पर अरबों रुपये खर्च करने पड़े जबकि इससे बहुत कम लागत में सामूहिक सिंचाई की व्यवस्था हो सकती थी। इस बीच सिंचाई के निजी साधनों और कृषि यंत्रों का प्रचलन बढ ने के कारण किसानों की ऊर्जा खपत काफी बढ गयी, जबकि इसी बीच सरकार ने बिजली और डीजल को भी निजी मुनाफे और लूट के हवाले कर दिया। इसके चलते खेती की लागत दिनों-दिन बढ ती जा रही है।
सुधारों के नाम पर सरकार ने खेती की कितनी अवहेलना की है इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1990-91 में केन्द्र सरकार खेती की मद में सकल घरेलू उत्पाद का 0.49 प्रतिशत खर्च करती थी। इस तुच्छ राशि को भी 2005-06 तक घटाते-घटाते 0.21 प्रतिशत कर दिया गया। इसी अवधि में सरकार ने सिंचाई और बाढ नियंत्राण पर खर्च की जाने वाली राशि को भी 0.06 प्रतिशत से घटाकर 0.02 प्रतिशत कर दी।
हमारे देश में 80 प्रतिशत किसान छोटी जोत वाले हैं जिनके पास जमीन तो कम ही है, खेती के संसाधन और पूँजी का भी अभाव है। खाद, बीज, पानी, बिजली और खेती के औजारों के लिए कर्ज के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं होता। जैसे-जैसे लागत बढ़ती गयी, किसानों के ऊपर कर्ज लेने का बोझ भी बढ ता गया। नयी आर्थिक नीतियों के तहत बैंकों द्वारा कृषि क्षेत्रा को दिये जाने वाले कर्ज की राशि में भी कटौती की गयी। साथ ही कृषि ऋण का भारी हिस्सा बड़े फार्मरों, कॉरपोरेट घरानों तथा कृषि उपकरणों, खाद्य प्रसंस्करण और ठेका खेती करने वाली कम्पनियों की ओर मोड दिया गया। ग्रामीण बैंक आज गाँवों में जमा होने वाली कुल राशि में से केवल १५ प्रतिशत ही किसानों को कर्ज के रूप में देते हैं और वह भी पहले से अधिक ब्याज दर पर। जिन किसानों के पास अपनी जमीन नहीं है उन्हें गारण्टी के आभाव में बैंक कोई कर्ज नहीं देते। इन्हीं कारणों से आज किसानों के कुल कर्ज में बैंकों और सहकारी संस्थाओं द्वारा दिये गये कर्ज का हिस्सा 8 से 10 प्रतिशत ही है। बाकी कर्जों के लिए वे निजी सूदखोरों पर निर्भर हैं या साहूकारों, आढतियों और खाद-बीज व्यापरियों से काठोर शर्तों और भारी ब्याज दर पर उधार लेने को मजबूर हैं।
किसानों को ठेका खेती का सब्जबाग दिखाया जा रहा है जबकि देश के कई इलाकों में किसानों को उसका कड वा स्वाद पहले ही मिल चुका है। आन्ध्र प्रदेश के चित्तूर जिले के किसानों ने कम्पनियों से करार करके 30-40 हजार रुपये प्रति एकड की लागत से खीरे की खेती की थी। दुनिया के बाजारों में खीरे की माँग कम होने का हवाला देकर कम्पनियों ने खीरा खरीदने से मना कर दिया। इसके चलते वहाँ के हजारों किसान कर्ज के जाल में फँसकर तबाह हो गये और कई किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए। आलू, टमाटर, बासमती धान और अन्य फसलें उगाने वाले देश के विभिन्न इलाकों के किसानों को भी ऐसे ही कटु अनुभवों से गुजरना पडा। और तो और, सरकार ने ठेका खेती और कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा देने के लिए कृषि उत्पाद विपणन (विकास एवं नियमन) कानून बनाया है जिसे कई राज्यों ने स्वीकार भी कर लिया है। इसके तहत मंडी समीतियों के समानान्तर प्राइवेट मंडी खोलने के लिए देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सरकार सस्ती जमीन देगी, कम्पनियाँ सीधे किसानों से खरीद-फरोखत करेंगी, यानी कृषि व्यापार, मूल्य निर्धारण और खरीद-बिक्री की शर्तों में सरकार कोई दखल नहीं देगी ताकि पूँजीपति खुलकर खेल सकें।
खेती से होने वाली आय में लगातार कमी और उससे गुजारा न हो पाने के कारण लाखों किसानों ने खेती करना छोड दिया है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2005 के मुताबिक 1991 से 2001 के बीच 44 लाख तथा 2001 और 2005 के बीच 1 करोड 70 लाख किसान परिवारों को खेती छोड ने पर विवश होना पड़ा। साथ ही देश के 40 प्रतिशत किसान खेती-बाड़ी छोड कर कोई अन्य रोजगार अपनाना चाहते हैं, लेकिन वैकल्पिक रोजगार का अवसर न होने के कारण उनके लिए खेती छोड ना सम्भव नहीं। सर्वेक्षण के मुताबिक 10 में से 8 किसानों के लिए आज खेती गले की हड्डी बन गयी है। लगातार घाटे और कर्ज के जाल में फँसने के चलते पिछले कुछ वर्षों में देशभर के लाखों किसानों ने आत्माहत्या की है। लेकिन इतने भारी पैमाने पर किसानों की तबाही और मौत की दिल दहना देने वाली घटनाओं का सरकार पर कोई असर नहीं हुआ। वह आज भी किसानों के खिलाफ नयी-नयी साम्राज्यवादपरस्त नीतियाँ लागू करती जा रही है।
भारतीय खेती को दैत्याकार अमरीकी कृषि व्यापार कम्पनियों की लूट का चारागाह बनाने के लिए हमारे शासक लम्बे समय से साम्राज्यवादियों के साथ साँठ-गाँठ कर रहे हैं। जार्ज बुश और मनमोहन सिंह के बीच हुई बातचीत के बाद जुलाई 2005 में 'कृषि ज्ञान पहल' योजना शुरू करने की घोषणा की थी। 8 नवम्बर 2010 को मनमोहन सिंह और बराक ओबामा ने एक संयुक्त वक्तव्य जारी किया जो खाद्य सुरक्षा और एवरग्रीन (सदाबहार) क्रान्ति के नाम पर भारतीय खेती को अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की लूट के लिए खोलने की एक मुकम्मिल योजना है।
प्रधानमंत्री ने भारत की हरित क्रान्ति में अमरीका की भूमिका की तारीफ करते हुए ''दूसरी हरित क्रान्ति'' को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें फिर से आगे आने का स्वागत किया। सच तो यह है कि हरित क्रान्ति भारतीय खेती के लिए कोई रामबाण दवा नहीं थी। सम्पूर्णता में देखें तो इससे कृषि क्षेत्रा की जितनी समस्याएँ हल नहीं हुईं, उससे कहीं ज्यादा नयी समस्याएँ उत्पन्न हुईं। चाहे वह मुट्ठी भर ऊपरी तबके के किसानों की खुशहाली की कीमत पर बहुसंखय किसानों की तबाही हो या जमीन की उर्वरता और भूजल का क्षरण। लेकिन सबके बावजूद हरित क्रन्ति की सीमित सफलताओं के पीछे सरकारी भूमिका थी। उस दौर में सरकारी खर्च पर उन्नत किस्म के बीज किसानों को मुहैया कराये गये थे जबकि आज हमारे शासकों ने सदाबहार क्रान्ति की बागडोर मोन्सेण्टो, डाउ और डूपोन्ट जैसी कुखयात अमरीकी कृषि व्यापार कम्पनियों के हाथ में थमा दी है जिनका जीन परिवर्तित बीजों के बौद्धिक सम्पदा अधिकार (पेटेन्ट) पर एकाधिकार कायम है। वे भारत के कृषि अनुसंधान संस्थानों भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अधीन काम करने वाले ढेर सारे उच्चस्तरीय संगठनों और कृषि विश्वविद्यालयों तथा उनसे जुड़े हुए प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों के दिल-दिमाग पर कब्जा करना चाहते हैं। बायो टेक्नोलॉजी और जेनेटिक इंजीनियरिंग को अपने अकूत मुनाफे का साधन बनाने के लिए वे काफी समय से यहाँ के कृषि अनुसंधान ढाँचे की ओर ललचाई नजरों से देख रहे हैं। साथ ही उनका मकसद यहाँ की जैवविविधता वाली हजारों तरह की प्रजातियों पर शोध करके उनका पेटेन्ट कराने और अपना एकाधिकार कायम करना भी है। सरकार ने उनकी मंशा पूरी कर दी।
कृषि ज्ञान पहल के सर्वोच्च निकाय में शामिल मोनसेण्टो, वालमार्ट और आर्चर डेनियल्स मिडलैण्ड जैसी अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ लगातार प्रयास कर रही थीं कि जीन परिवर्तित जीवों और बीजों, ठेका खेती और कृषि क्षेत्रा के बौद्धिक सम्पदा अधिकार से सम्बन्धित जितने भी नियम कानून हैं, उन्हें सरकार बदल दे ताकि उनके लूट के रास्ते में कोई अवरोध न रह जाये। जीन परिवर्तित बीजों की बिक्री की अनुमति देने के मामले में विदेशी कम्पनियों के साथ सरकार की साँठ-गाँठ के कितने ही उदाहरण पिछले दिनों सामने आये। बीटी बैंगन को सरकार ने गुपचुप तरीके से मान्यता दे दी। लेकिन जनता के आक्रोश को देखते हुए पर्यावरण मंत्री को अस्थायी रूप से उसकी अनुमति रद्द करनी पड़ी थी। अब सरकार ने बायोटेक्नोलॉजी नियमन प्राधिकरण कानून के तहत जैवपरिवर्तित बीजों और उससे तैयार मालों के विरोध का गला घोटने का रास्ता साफ कर दिया। यह कानून ऐसी संदिग्ध वस्तुओं से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण जानकारी जनता से छुपाने में विदेशी कम्पनियों के लिए मददगार है, जबकि खुद अपने देशों में उन्हें इस मामले में पारदर्शिता बरतनी पड ती है। यह कानून ठेका खेती, कॉरपोरेट खेती, खाद्य प्रसंस्करण, भण्डारण, खुदरा और थोक व्यापार, संकर और निर्वंशी बीज की बिक्री, उपज के अनुभव और खेती के अन्य आंकड़ों तक पहुँच जैसे हर पहलू को अपने आप में समाहित करने वाला है। सरकार इस पर तेजी से अमल करती जा रही है।
भारत सरकार विश्व व्यापार संगठन के दोहा चक्र की वार्ताओं में अमरीका का पक्ष लेने पर सहमत है। 2008 में वार्ता के दौरान भारत सरकार ने विकासशील देशों के साथ मिलकर अमरीका द्वारा अपनी खेती को भारी सबसिडी दिये जाने का विरोध किया था, लेकिन उसके बाद से ही अब हमारे शासक अपनी उस गलती को सुधारने और अमरीका को खुश करने में लगे हैं। ओबामा-मनमोहन द्विपक्षीय वार्ता में दोहा चक्र की वार्ताओं को सफल बनाने का वचन दिया गया। कई विकासशील देश इसके खिलाफ हैं जबकि अमरीकापरस्ती के चलते भारत के शासक कृषि क्षेत्रा को साम्राज्यवादियों के हवाले करने पर उतारू हैं।
bahoot marmik
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