बुधवार, 24 अगस्त 2011

आर्थिक सुधारों की चरम परिणति : गरीबी और भुखमरी का फैलता साम्राज्य

      पिछले दिनों राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा जितनी भी रिपोर्ट जारी हुईं उन सब ने भारतीय समाज में कंगाली, बदहाली, भुखमरी और कुपोषण की दिल दहला देने वाली तस्वीर पेश की है। लेकिन हमारे देश के हृदयहीन शासक जिनकी नीतियों ने देश की बहुसंखय जनता को इस रोरव नरक की ओर धकेला, इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाने के बजाय गरीबों की गिनती करवाने और तीन तिकड़म करके उनकी संखया कम दिखाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। अब तक गरीबी के बारे में चार तरह के सरकारी आँकडे  सामने आये हैं योजना आयोग के अनुसार 28 प्रतिशत, अर्जुन सेन गुप्त कमेटी के अनुसार 77 प्रतिशत, एनसी सक्सेना के अनुसार 50 प्रतिशत और तेन्दुलकर कमेटी के अनुसार ४२ प्रतिशत। गरीबी के मानदण्ड को थोड ा कम-ज्यादा करके मनचाहा आंकड़ा हासिल किया जा सकता है 33 करोड  से 80 करोड  तक। आंकड़ों की इस बाजीगरी के पीछे शासकों का एक ही मकसद है, गरीबों को दी जाने वाली सुविधाओं को कम से कम लोगों तक सीमित रखना।
      गरीबों की गिनती करवाने वाले हमारे शासकों की अपनी माली हालत कैसी है?
      केन्द्रीय मंत्रीमंडल में शामिल नेताओं की कुल सम्पत्ति 500 करोड़ रुपये है यानी हर मंत्री के पास औसतन 7.5 करोड  रुपये की सम्पति है। इनमें चोटी के 5 करोड पति मंत्रियों के पास 200 करोड  रुपये की सम्पत्ति है। हमारे 60 प्रतिशत सांसद करोड पति हैं। इस देश की 80 प्रतिशत गरीब जनता की नुमाइन्दगी करने वाले सांसदों की औसत सम्पत्ति 5.1 करोड  रुपये है। यह ब्यौरा नेताओं द्वारा चुनाव आयोग को दिये गये हालिया बयानों पर आधारित है जिसमें वे करोड़ों की सम्पत्ति लाखों में दिखाते हैं। इन्हीं धनाढ्‌य नेताओं के हाथों में उन 80 करोड लोगों की किस्मत की डोर है जो 20 रुपये रोज से भी कम पर गुजर  बसर करते हैं।
      निस्संदेह, दिनों-दिन विकराल रूप धारण करती इस विपन्नता और कंगाली के पीछे कुदरत का करिश्मा नहीं बल्कि हमारे शासकों की करतूत है। 1991 में नयी आर्थिक नीति लागू होने के बाद से लाखों छोटे-बड़े कल-कारखाने बन्द हुए और करोड़ों लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। खेती की तबाही के चलते सरकारी आंकड़ों के मुताबिक लगभग 2 करोड  किसान खेती छोड ने को मजबूर हुए। गाँव से उजडें किसानों, दस्तकारों, पशुपालकों और खेत मजदूरों को सम्मानजनक वैकल्पिक रोजगार नहीं मिला। नये औद्योगिक इलाकों में वे बेहद कम मजदूरी और अमानवीय सेवा शर्तों पर खटने को मजबूर हुए। अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्रा का तेजी से विस्तार हुआ जहाँ हाड तोड  मेहनत के बावजूद दो जून की रोटी जूटाना मुश्किल है। शहर की गंदी बस्तियों में गुलामों से भी बदतर जिन्दगी जीने वालों की भीड  जमा होती गयी।
      शिक्षा, चिकित्सा, सस्ते गल्ले की दुकान और अन्य सरकारी सुविधाएँ खत्म करके सरकार ने इन वंचित लोगों को जहन्नुम में धकेल दिया। असंगठित क्षेत्रा के मजदूरों पर अर्जुन सेनगुप्त कमेटी की रिपोर्ट में इसका विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत किया गया है।
      गरीबी को पैदा करने के लिए सरकार ने इतने सारे उपाय किये हैं जिन्हें गिनवाना सम्भव नहीं। जहाँ-जहाँ से उदारीकरण और निजीकरण के बुलडोजर गुजरे हैं, जहाँ-जहाँ से सुधारों के ध्वजधारी नये नादिरशाहों की फौज गुजरी है, वहाँ-वहाँ अनगिनत संखया में गरीब और कंगाल पैदा हुए हैं। विशेष औद्योगिक और आर्थिक क्षेत्रा, विशेष वन क्षेत्रा, बाँध, खदान अत्याधुनिक शहर, एक्सप्रेस हाइवे और हवाई अड्‌डे, यानी विकास के नाम पर विनाश योजनाओं ने करोड़ों लोगों को उद्‌वासित और विस्थापित किया है। सर्वसमावेशी विकास का नारा लगाने वाले हमारे शासकों ने इस देश की बहुसंखय आबादी को हाशिए पर फेंक दिया है।
      आजादी के बाद से ही गरीबी के बारे में हमारे शासकों का रुख इसे खत्म करने के बजाय इसे बनाये रखना और कम से कम साधनों पर उन्हें किसी तरह जिन्दा रखना रहा है। अंत्योदय से लेकर काम के बदले अनाज, बच्चों के लिए दोपहर का भोजन, सस्ता अनाज, वृद्ध और विधवा पेंशन, इन्दिरा आवास योजना, स्वरोजगार योजना और रोजगार गारण्टी तक गरीबी दूर करने के नाम पर जितनी भी योजनाएँ शुरू की गयीं उन सबका यही उद्देश्य था गरीबी को बनाये रखो, गरीबों को किसी तरह जिन्दा रखो। जीवनयापन के लिए पर्याप्त मजदूरी का विकल्प नहीं है। लेकिन लोगों को अभाव और वंचना की ऐसी चरम स्थिति तक पहुँचा दिया गया है कि थोड ी सी राहत भी उनके लिए प्राणवायु का काम करती है। लोगों को इतना तंगहाल और लाचार बना दिया गया है, कि जिन्दा रहने के लिए छोटी से छोटी सहूलियत से भी वे संतुष्ट हो जाते हैं। रघुवीर सहाय की कविता इस स्थिति पर सही कटाक्ष करती है

मनुष्य के कल्याण के लिए
पहले उसे इतना भूखा रखो कि वह और कुछ सोच न पाये
फिर उसे कहो कि तुम्हारी पहली जरूरत रोटी है
जिसके लिए वह गुलाम होना भी मंजूर करेगा
फिर तो उसे यह बताना रह जायेगा कि
अपनों की गुलामी विदेशियों की गुलामी से बेहतर है
और विदेशियों की गुलामी वे अपने करते हों
जिनकी गुलामी तुम करते हो तो वह भी क्या बुरी
तुम्हें तो रोटी मिल रही है एक जून।



      मँहगाई को आसमान तक पँहुचाने में भी वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीतियों का ही हाथ रहा है। एक तरफ   इन नीतियों ने खाद्य सुरक्षा के तहत सरकारी खरीद, भण्डारण और सार्वजनिक वितरण के रहे-सहे ढाँचे को भी ध्वस्त कर दिया, वहीं दूसरी ओर विदेशी कम्पनियों को अनाज की खरीद, भण्डारण और व्यापार की छूट देकर जमाखोरी और कालाबाजारी को नये रूप में सामने ला दिया। साथ ही उन्हें फ्यूचर टे्रडिंग के द्वारा बेलगाम सट्टेबाजी करने की खुली इजाजत दी गयी। अनाज के आयात की कीमतें विश्व बाजार के उतार-चढ़ाव से तय होने लगी। जाहिर है कि इन्हीं नीतियों के चलते अनाज की कीमतों पर कोई लगाम नहीं रही यह मँहगाई किसी प्राकृतिक आपदा का नतीजा नहीं है। करोड़ों लोगों के मुँह से निवाला छीन कर, उन्हें कुपोषण और भुखमरी का शिकार बनाकर सरकार ने देशी-विदेशी कम्पनियों को मालामाल किया है। यह स्थिति एक आपराधिक षडयंत्रा का परिणाम है।

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