अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने 1991 में एक और सुझाव दिया था विदेश व्यापार का उदारीकरण यानी आयात से रोक हटाना और निर्यात को बढ़ावा देना। लेकिन यह शर्त भी जोड दी कि केवल प्राथमिक माल जैसे चाय, कपास, मछली, अनाज, चमड़ा, खनिज पदार्थ इत्यादि या हस्तशिल्प की वस्तुओ का ही निर्यात करना है, जिसमें भारत पहले से माहिर है।
आजादी के बाद यहाँ के शासकों ने आयात प्रतिस्थापन की नीति लागू की थी, जिसका मतलब था कि विदेशी मुद्रा बचाने, व्यापार घाटा रोकने और आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए कम से कम आयात किया जाये तथा ऐसी वस्तुओं का अपने ही देश में उत्पादन बढ़ाया जाये। लेकिन आयात-निर्यात की नयी शर्तों को स्वीकारने के बाद उन्होंने इस नीति को तिलांजलि देकर निर्यातोन्मुख अर्थव्यवस्था को अपना लिया।
इस नीति की सफलता पर शुरू में ही संदेह व्यक्त किया गया था। यह सवाल उठाया गया था कि निर्यात प्रोत्साहन के नाम पर जब सौ से भी अधिक देश एक साथ विकसित देशों की मंडी में पहुँचेंगे, जहाँ पहले से ही मन्दी छायी हुई है तो भला निर्यात केन्द्रित विकास कैसे सफल होगा। या तो विश्व बाजार में वस्तुओं की कीमतें तेजी से गिरेंगी या वहाँ निर्यात की माँग बहुत कम हो जायेगी। अस्सी के दशक में विकासशील देशों के निर्यात का कटु अनुभव इस तर्क को सही ठहराता है। एक आकलन के मुताबिक 1980 में 1991 के बीच तेल से इतर वस्तुओं के विदेशी व्यापार में विकासशील देशों को 290 अरब डॉलर का घाटा उठाना पड़ा। साथ ही अपनी निर्यात आय को पहले के स्तर पर बनाये रखने के लिए उन्हें कम कीमत पर अधिक मात्रा में सामान का निर्यात करना पड़ा। जिस निर्यात प्रोत्साहन के नाम पर सरकार ने आम जनता की सुविधाओं में कटौती करके निर्यातकों को हजारों करोड की सबसीडी दी, उसका असली लाभ धनी देशों के उपभोक्ताओं ने उठाया जिन्हें सस्ती कीमत पर अच्छी-अच्छी वस्तुएँ मिलती रही।
इस नीति का दूसरा पहलू आयात के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को खोलना था। सरकार ने विश्व व्यापार संगठन की शर्तों से भी आगे बढ कर सीमा शुल्क में भारी कमी कर दी और आयात पर लगे प्रतिबन्धों को हटा दिया। 1991 में सीमा शुल्क 355 प्रतिशत था जिसे घटाकर 2001 तक 35 प्रतिशत और 2010 में सिर्फ 10 प्रतिशत कर दिया गया। साथ ही इसने 1429 वस्तुओं पर से आयात प्रतिबन्ध हटा लिया जिनमें अधिकांश वस्तुएँ कृषि और लघु उद्योग के उत्पाद हैं।
सुधारों के 20 वर्ष : चालू खाता घाटा (अरब डॉलर में)
वर्ष आयात निर्यात चालूखाता शेष (घाटा) जी.डी.पी. का प्रतिशत
1991&92 24.1 18.3 5.8 3.0
2009&10 300.6 182.2 118.4 2.9
सुधारों के 20 वर्षों में आयात-निर्यात नीति में बदलाव से होने वाली तबाही को इन आँकड़ों साफ तौर पर देखा जा सकता है। तथ्य बताते है कि निर्यात की तुलना में आयात अधिक होने के चलते व्यापार घाटा साल दर साल बढ ता गया है। 1991 में व्यापार घाटा 5.8 अरब डॉलर था जो 2010 में 118.4 अरब डॉलर हो गया। इस तरह 1991 से 2010 के बीच निर्यात में 10 गुनी वृद्धि हुई जबकि व्यापार घाटे में लगभग 20 गुने की बढ़ोत्तरी हुई। दूसरी ओर आयात प्रतिबन्ध हटाने के कारण खेती और लघु उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुए और उन पर निर्भर लोगों को अपनी रोजी-रोटी से हाथ धोना पड़ा। निष्कर्ष यह कि आयात-निर्यात की इन नीतियों ने मंदी के शिकार साम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्था में प्राण वायु का संचार करने के लिए अपने देश की खेती और लघु उद्योग को तबाही की ओर धकेल दिया।
आजादी के बाद यहाँ के शासकों ने आयात प्रतिस्थापन की नीति लागू की थी, जिसका मतलब था कि विदेशी मुद्रा बचाने, व्यापार घाटा रोकने और आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए कम से कम आयात किया जाये तथा ऐसी वस्तुओं का अपने ही देश में उत्पादन बढ़ाया जाये। लेकिन आयात-निर्यात की नयी शर्तों को स्वीकारने के बाद उन्होंने इस नीति को तिलांजलि देकर निर्यातोन्मुख अर्थव्यवस्था को अपना लिया।
इस नीति की सफलता पर शुरू में ही संदेह व्यक्त किया गया था। यह सवाल उठाया गया था कि निर्यात प्रोत्साहन के नाम पर जब सौ से भी अधिक देश एक साथ विकसित देशों की मंडी में पहुँचेंगे, जहाँ पहले से ही मन्दी छायी हुई है तो भला निर्यात केन्द्रित विकास कैसे सफल होगा। या तो विश्व बाजार में वस्तुओं की कीमतें तेजी से गिरेंगी या वहाँ निर्यात की माँग बहुत कम हो जायेगी। अस्सी के दशक में विकासशील देशों के निर्यात का कटु अनुभव इस तर्क को सही ठहराता है। एक आकलन के मुताबिक 1980 में 1991 के बीच तेल से इतर वस्तुओं के विदेशी व्यापार में विकासशील देशों को 290 अरब डॉलर का घाटा उठाना पड़ा। साथ ही अपनी निर्यात आय को पहले के स्तर पर बनाये रखने के लिए उन्हें कम कीमत पर अधिक मात्रा में सामान का निर्यात करना पड़ा। जिस निर्यात प्रोत्साहन के नाम पर सरकार ने आम जनता की सुविधाओं में कटौती करके निर्यातकों को हजारों करोड की सबसीडी दी, उसका असली लाभ धनी देशों के उपभोक्ताओं ने उठाया जिन्हें सस्ती कीमत पर अच्छी-अच्छी वस्तुएँ मिलती रही।
इस नीति का दूसरा पहलू आयात के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को खोलना था। सरकार ने विश्व व्यापार संगठन की शर्तों से भी आगे बढ कर सीमा शुल्क में भारी कमी कर दी और आयात पर लगे प्रतिबन्धों को हटा दिया। 1991 में सीमा शुल्क 355 प्रतिशत था जिसे घटाकर 2001 तक 35 प्रतिशत और 2010 में सिर्फ 10 प्रतिशत कर दिया गया। साथ ही इसने 1429 वस्तुओं पर से आयात प्रतिबन्ध हटा लिया जिनमें अधिकांश वस्तुएँ कृषि और लघु उद्योग के उत्पाद हैं।
सुधारों के 20 वर्ष : चालू खाता घाटा (अरब डॉलर में)
वर्ष आयात निर्यात चालूखाता शेष (घाटा) जी.डी.पी. का प्रतिशत
1991&92 24.1 18.3 5.8 3.0
2009&10 300.6 182.2 118.4 2.9
सुधारों के 20 वर्षों में आयात-निर्यात नीति में बदलाव से होने वाली तबाही को इन आँकड़ों साफ तौर पर देखा जा सकता है। तथ्य बताते है कि निर्यात की तुलना में आयात अधिक होने के चलते व्यापार घाटा साल दर साल बढ ता गया है। 1991 में व्यापार घाटा 5.8 अरब डॉलर था जो 2010 में 118.4 अरब डॉलर हो गया। इस तरह 1991 से 2010 के बीच निर्यात में 10 गुनी वृद्धि हुई जबकि व्यापार घाटे में लगभग 20 गुने की बढ़ोत्तरी हुई। दूसरी ओर आयात प्रतिबन्ध हटाने के कारण खेती और लघु उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुए और उन पर निर्भर लोगों को अपनी रोजी-रोटी से हाथ धोना पड़ा। निष्कर्ष यह कि आयात-निर्यात की इन नीतियों ने मंदी के शिकार साम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्था में प्राण वायु का संचार करने के लिए अपने देश की खेती और लघु उद्योग को तबाही की ओर धकेल दिया।
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