मंगलवार, 22 सितंबर 2015

दो कोरिया– भाग 1


अपने पड़ोसी चीनी और जापानी लोगों की संस्कृति से अलग कोरिया राष्ट्र अपनी विलक्षण संस्कृति के साथ 3000 सालों से अस्तित्व में है। ये विशेषताएँ चीन, वियतनाम और अन्य देशों सहित एशियाई क्षेत्र के समाजों में अनूठी हैं। पश्चिमी संस्कृतियों में कुछ 250 सालों से कम पुरानी है, उनमें भी इससे मिलतीजुलती चीज नहीं है। 
1894 के युद्ध में जापान ने कोरियाई राजवंश के ऊपर चीन के नियंत्रण को खत्म करके खुद हथिया लिया और उसके राज्य को जापानी उपनिवेश में बदल दिया। इस देश में प्रोटेस्टेंट मत को 1892 में स्थापित किया गया। इसके बाद अमरीका और कोरियाई अधिकारियों के बीच एक समझौता हुआ। दूसरी ओर इसी शताब्दी में धर्म प्रचारकों द्वारा कैथोलिक मत भी फैलाया गया। यह अनुमान है कि दक्षिण कोरिया में करीब 25 प्रतिशत जनसंख्या ईसाई है और उतनी ही जनसंख्या बुद्ध को मानती है। कन्फ्युसियस के दर्शन का लोगों पर बहुत गहरा प्रभाव है। जिसे धर्मान्धतापूर्ण व्यवहार के जरिये नहीं समझाया जा सकता। 

बीसवीं शताब्दी में राष्ट्र के राजनीतिक जिन्दगी में दो महत्त्वपूर्ण व्यक्ति उभरकर आये। पहला, सिंगमन री का जन्म मार्च 1875 में हुआ था और दूसरा, किम इल सुंग 37 साल बाद अप्रैल 1912 में पैदा हुए थे। अलगअलग सामाजिक पृष्ठभूमि से आये दोनों व्यक्तियों का एक दूसरे से सामना उन ऐतिहासिक परिस्थितियों में हुआ जिनका दोनों से कोई लेनादेना नहीं था। ईसाईयों ने जापान की इस उपनिवेशवादी व्यवस्था का विरोध किया था। उनमें से एक सिंगमन री एक सक्रिय प्रोटेस्टेंट थे। कोरिया की स्थिति तब बदल गयी, जब जापान ने 1910 में इसके राज्य क्षेत्र को अपने में मिला लिया। वर्षों बाद 1919 में री को निर्वासित अस्थायी सरकार का राष्ट्रपति नियुक्त किया गया, जिसका मुख्यालय चीन के संघाई में था। उन्होंेने हमलावरों के विरुद्व कभी भी हथियार का इस्तेमाल नहीं किया। जिनेवा के लीग ऑफ नेशन्स ने उन पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। 
            जापानी साम्राज्य कोरिया वासियों का बर्बरता से दमन करता था। राष्ट्रवादियों ने जापान की उपनिवेशवादी नीति के विरुद्ध हथियार उठा लिया और 1890 के दशक के अन्त तक राष्ट्रवादियों ने जापान की उपनिवेशवादी नीति के विरुद्ध हथियार उठा लिया और उत्तर के पर्वतीय इलाकें के एक छोटे से क्षेत्र को आजाद कराने में सफल हुए।
            किम इल सुंग, जिनका जन्म प्योन्गयांग के बगल में हुआ था, वह 18 साल की उम्र में जापानियों से लड़ने के लिए कोरियाई कम्युनिस्ट गुरिल्ला से जुड़ गये। उन्होंने अपने सक्रिय क्रान्तिकारी जीवन में मात्र 33 वर्ष की युवावस्था में ही उत्तरी कोरिया में जापान विरोधी लड़ाकू दस्ते का राजनीतिक और सैनिक नेतृत्त्व का पद सम्भाल लिया। 
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की अवधि में अमरीका ने कोरिया के भाग्य का फैसला किया। उसने संघर्ष में तब भाग लिया, जब उसी के द्वारा तैयार उगते हुए सूरज के साम्राज्य ने उस पर आक्रमण कर दिया। कम्मोडोर पेरीे ने उस मुल्क के मजबूत सामन्ती दरवाजे को उन्नीसवीं शताब्दी के पहले आधे दशकों में खोल दिया था। उसने अमरीका से व्यापार करने से मना करने वाले इस एशियाई विचित्र देश पर अपनी तोपें तान दी थी। 
जैसा कि अन्य मौके पर मैंने पहले ही समझाया था कि उम्दा शिष्य कुछ समय बाद एक शक्तिशाली प्रतिद्वन्द्वी बन जाता है। दशकों बाद क्रमश: चीन और रूस पर हमले करने के साथसाथ जापान ने कोरिया पर अधिपत्य स्थापित कर लिया। फिर भी वह चीन की कीमत पर प्रथम विश्व युद्ध में एक चतुर सहयोगी था। उसने शक्ति संचित किया और उसे एशिया की किस्म के फासीवादी नाजीवाद में बदल दिया और 1937 में चीनी राज्य क्षेत्र को हड़़़पने का प्रयास किया और दिसम्बर 1945 में अमरीका पर आक्रमण कर दिया, उसने युद्ध को दक्षिणपूर्व एशिया और ओसिनिया तक फैला दिया। 
ब्रिटेन, फ्रांस, हालैण्ड, पुर्तगाल के उपनिवेश के इलाके हाथ से निकल गये और अमरीका विश्व का सबसे शक्तिशाली देश उभर कर आया, जिसका प्रतिद्वन्द्वी केवल सोवियत संघ था, जिसने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजियों के आक्रमण के चलते बहुत अधिक इंसानों और संसाधनों की बर्बादी झेली थी। 1945 में जब विश्व में हत्याकाण्ड का ताण्डव खत्म हो गया, चीन की क्रान्ति सम्पन्न होने वाली थी, उस समय जापान विरोधी सामूहिक संघर्ष और तीखा हो गया था। इसके बाद माओ, हो ची मिन्ह, गाँधी, सुकरनों और दूसरे अन्य नेताओं ने उस विश्व व्यवस्था की पुनर्स्थापना के विरुद्ध संघर्ष किया जो पहले ही टिकाऊ नहीं रह गयी थी। 
ट्रूमैन ने जापान के दो नागरिक शहरों पर परमाणु बम गिरा दिया, यह एक भयावह विनाशकारी नया हथियार था जिसकी उपस्थिति के बारें में अमरीका ने अपने सहयोगी सोवियत संघ को भी कोई जानकारी नहीं दी थी जो फासीवाद के विनाश का सबसे बड़ा हिस्सेदार था। जापानियों के मजबूत प्रतिरोध ने जापानी द्वीप ओकिनावा में लगभग 15,000 अमरीकी सैनिकों की जिन्दगी ले ली। इस तथ्य के बावजूद नरसंहार के इस कार्य को कोई न्यायसंगत नहीं ठहरा सकता। जापान पहले से हार चुका था और वह हथियार जापान के सैन्य निशाने पर गिराया गया था, जिसने जल्द या देर में और अधिक अमरीकी सैनिकों के हताहत हुए बिना जापानी सैनिकों के बीच उसी तरह की निराशा की स्थिति पैदा कर दी होती। यह एक वर्णनातीत आतंकवादी कार्यवाही थी। 
जब यूरोप में लड़ाई बन्द हो गयी, उस समय अपने वादे के मुताबिक सोवियत सैनिक मन्चूरिया और कोरिया की ओर बढ़ रहे थे। मित्र राष्ट्रों ने पहले से यह तय कर लिया था कि प्रत्येक सेना कहाँ तक आगे बढ़ेगी। विभाजन रेखा कोरिया के मध्य होगी जो यालू नदी और प्रायद्वीप के दक्षिणी छोर के बीच बराबर दूरी पर है। अमरीकी सरकार ने जापान के साथ समझौते में ऐसे नियम थोपे जो आत्मसमर्पण करने वाले जापानी सैनिकों को अपने ही राज्यक्षेत्र में संचालित करते। तथाकथित तौर पर जापान अमरीका द्वारा कब्जे में ले लिया गया। शक्तिशाली जापानी सेना की बड़ी संख्या जापान से संलग्न कोरिया में रह गयी। स्थापित विभाजन रेखा 38 समानान्तर के दक्षिण में अमरीका का स्वार्थ हावी हो गया। सिंगमन री एक ऐसे नेता थे जिन्हें अमरीकियों का समर्थन था और साथ ही जापानियों का भी खुला सहयोग था। उन्हें अमरीकी सरकार द्वारा राज्य के उस क्षेत्र में भेजा गया। इस प्रकार उन्होंने 1948 का जद्दोजहद भरा चुनाव जीत लिया। इसी साल सोवियत संघ की सेना उत्तरी कोरिया से लौट गयी।
            25 जून 1950 को देश में युद्ध शुरु हो गया। यह अभी अस्पष्ट है कि किसने पहली गोली चलायी या तो वे उत्तर के लड़ाके थे या अमरीकी सिपाही जो उन सैनिकों के साथ थे जिनका चयन री ने किया था। उस टिप्पणी का कोई मतलब नहीं यदि कोई उसे केवल कोरियाई नजरिये से विश्लेषित करे। किम इल सुंग के सिपाही पूरे कोरिया की आजादी के लिए जापानियों से लड़े। उनके सैनिक अद्वितीय वीरता से सुदूर दक्षिण की ओर आगे बढ़े। जहाँ पर यांकी (अमरीकी) ताकतें अपने लड़ाकू वायुयानों के जबरदस्त सहयोग से अपना बचाव कर रही थीं। मैकआर्थर प्रशान्त महासागरीय क्षेत्र से अमरीका के सुरक्षा बलों का सेनानायक था, उसने आदेश देने का फैसला किया कि समुद्री जहाजों को उन उत्तरी ताकतों के पीछे इन्चियान में उतारा जाये जो उस समय जवाबी हमला करने की स्थिति में नहीं थे। 
हवाई आक्रमणों के भीषण सर्वनाश के बाद प्योंगयांग यांकी ताकतों के हत्थे चढ़ गया। इस घटना से प्रशान्त महासागरीय क्षेत्र में पूरे कोरिया को हड़पने का अमरीकी सैन्य कमाण्डर का विचार मजबूत हुआ, माओं त्से तुंग के नेतृत्व में चीन की जन मुक्ति सेना ने च्यांग काई शेेक की यांकी समर्थक उस सेना को बहुत बुरी तरह हराया जिसे अमरीका द्वारा भरपूर आपूर्ति और समर्थन प्राप्त था। ताई पेई और अन्य छोटेछोटे द्वीप जिसमें कुओमिन्तांग के सैनिकों ने शरण ली थी जिन्हें छठीं नौ सेना के जहाजों के जरिये वहाँ पहुँचाया गया था, इन द्वीपों को छोड़कर बाकी पूरे महाद्वीपीय और तटवर्ती क्षेत्र को आजाद करा लिया गया। 
इतिहास में उस समय क्या घटा, इसे आज हम अच्छी तरह जानते हैं। इस बात को भुलाना नहीं चाहिए कि बोरिस येल्तसीन ने अन्य चीजों के साथ सोवियत संघ की सारी उपलब्धियों को वाशिंगटन के हवाले कर दिया। 
जब असली अनिवार्य संघर्ष कोरियाई क्षेत्र में छिड़ गया, उस स्थिति में अमरीका ने क्या किया ? उसने उत्तरी भाग को एक आक्रामक देश के रुप में चिन्हित किया। द्वितीय विश्व युद्ध के विजेताओं द्वारा समर्थित हाल ही में बनायी गयी संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद ने एक मसौदा पारित किया कि पाँचों सदस्य में से कोई वीटों नहीें कर सकता। ठीक इन्हीं महिनों में सोवियत संघ ने सुरक्षा परिषद से चीन को अलग रखने का विरोध किया, जबकि अमरीका 0–3 प्रतिशत क्षेत्र और 2 प्रतिशत जनसंख्या पर शासन करने वाले चियांग काई शेेक को परिषद के सदस्य की मान्यता देता था और जो वीटो के अधिकार का इस्तेमाल कर सकता था। इस प्रकार के मनमानीपन के चलते रुसी प्र्रतिनिधि सुरक्षा परिषद में अनुपस्थित रहे। फलस्वरुप सुरक्षा परिषद इस बात पर सहमत हो गया कि आरोपित युद्धोन्मत कोरियाई जनवादी गणतंत्र के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र की सैन्य कार्यवाही ठीक है।
            चीन पूरी तरह से इस संघर्ष से बाहर था, इससे अपने देश की पूर्ण मुक्ति के लिए जारी उसकी लड़ाई प्रभावित हो रही थी। उसने देखा कि खतरा सीधे उसके अपने राज्य क्षेत्र के ऊपर मँडरा रहा है, अपनी सुरक्षा के लिहाज से यह उसे स्वीकार नहीं था। जनसूचना के अनुसार प्रधानमंत्री चाऊ एन लार्ई को स्तालिन के पास चीन के उस नजरिये की सूचना देने के लिए मास्को भेजा गया, जिसमें चीन ने अपनी और कोरिया की सीमा रेखा पर अमरीेकी कमाण्ड में संयुक्त राष्ट्र की सेना की मौजूदगी को पूरी तरह से अमान्य करार दिया था और उन्होंने सोवियत संघ से सहयोग माँगा। उस समय तक दो महान समाजवादी देशों के बीच कोई गहरा अन्तरविरोध पैदा नहीं हुआ था। यह स्वीेकृत था कि चीन की जवाबी कार्यवाई की योजना 13 अक्टूबर कीे थी लेकिन माओ ने सोवियत संघ के जवाब के इन्तजार में इसे बढ़ाकर 19 अक्टूबर कर दिया। यह अधिकतम समय था जब तक वे रुक सकते थे।
मैंने इस बातविमर्श को अगले शुक्रवार तक खत्म करने की सोच रखी है। यह एक जटिल और श्रमसाध्य विषय है जिसके लिए विशेष ध्यान और सूचना की जरूरत पड़ती है। वह जितना हो सके सटिक हो। ये ऐतिहासिक घटनाएँ है जिनको जानना और याद रखना चाहिए।
फिदेल कास्त्रो रुज 
(22 जुलाई 2008)
अनुवादक- अजय कुमार


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