मोदी सरकार ने अगस्त महीने की शुरुआत में 857 पोर्नोग्राफिक
वेबसाइटों पर प्रतिबन्ध लगा दिया. इससे देशभर के शिक्षित तबके में तीखी बहस छिड़
गयी. लोगों ने फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल साइट पर सरकार के इस फैसले के खिलाफ
जमकर गुस्सा निकाला. जहां कुछ समय पहले कुछ संगठन और कई बुद्धिजीवी इन साइटों पर
रोक लगाने की मांग कर रहे थे, वहीं अब अधिकाँश लोगों ने इस प्रतिबन्ध का विरोध
किया. उनहोंने खुलकर पोर्नोग्राफी का पक्ष-पोषण किया. इन लोगों में दक्षिणपंथी सोच
के वे लोग भी शामिल थे जो नारी को देवी तुल्य मानने का दावा करते हैं और वामपंथी
सोच के ऐसे लोग भी थे जो महिला स्वावलंबन और स्त्री-पुरुष समानता पर विशेष जोर देते
हैं. इस मुद्दे पर इन दोनों विरोधी सोच के लोगों में गजब की समानता दिखी. दोनों
पक्ष ही अपने महिला विरोधी सोच को आगे बढाते रहे. पोर्नोग्राफी का खुलकर समर्थन
किया और सरकार को कोसने में कोई कोर-कसर न उठा रखी. सबको सभ्यता का पाठ पढ़ाने वाले
गैर-सरकारी संगठन के अधिकाँश लोग भी पोर्नोग्राफी के समर्थन में उतर आये.
फिल्मकारों का धंधा ही अश्लीलता पर चलता है. वे जनता की पसंद का ढकोसला करते हुए
फिल्मों में खुलकर नग्नता परोसते हैं. भला वे इस मामले में किसी से पीछे क्यों
रहते?
पोर्नोग्राफी के समर्थकों ने अपने पक्ष में यह दलील
भी पेश की कि भारत में पोर्नोग्राफी के नशेबाजों में 25-30 प्रतिशत महिलायें भी
हैं. हालाँकि ऐसी बातें इससे पहले किसी सर्वे में सामने नहीं आयी थी. कुछ लोगों का
कहना था कि पोर्नोग्राफी को प्रतिबंधित करने से क्या फ़ायदा, जब भोजपुरी की नई
फ़िल्में उससे अधिक अश्लील है. समाज में प्रचलित मां-बहन की गालियाँ किसी
पोर्नोग्राफी से कम हैं क्या? समर्थकों ने पोर्नोग्राफी के प्रतिबन्ध को निजता का उलंघन बताया. उनका कहना
था कि सरकार उनके बेडरूम में ताक-झाँक करना चाहती है. यह बर्दाश्त से बाहर की चीज
है. एक समय ऐसा लगा कि लोग अपने बेडरूम में पोर्नोग्राफी ही देखते होंगे. चौतरफा
दबाव से सरकार के सिहांसन के पहिये हिल गये. आनन-फानन में उसने अपने कदम वापस लेते
हुए प्रतिबन्ध हटा लिया. अन्त में इतनी बड़ी बहस इस मुद्दे तक सिमट गयी कि चाइल्ड
पोर्नोग्राफी पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाना चाहिए. पोर्नोग्राफी बच्चों के कोमल
मन:स्थिति के प्रतिकूल होता है.
पोर्नोग्राफी के समर्थकों का कहना है कि जब हम
भारतीय संस्कृति के रूप में खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों की उन मूर्तियों की
प्रशंसा करते हैं, जिनमें काम-क्रीडा को विभिन्न मुद्राओं में दिखाया गया है, तो
हमें क्यों पोर्नोग्राफी को प्रतिबंधित करना चाहिए? विभिन्न मंदिरों की ये
मूर्तियाँ सैकड़ों साल पुराने सामन्ती समाज की देन हैं. उस समय किसान और मजदूर हाड
तोड़ मेहनत करने के बावजूद वंचनाभरी जिन्दगी जीते थे. इनकी मेहनत के दम पर महलों में
हमेशा रौनक रहती थी. वे नाच-गानों से गुलजार रहते थे. भोग-विलास और अश्लीलता सीमा
पार कर जाती थी. राजा कई सुन्दर लड़कियों को जबरन अपने हरम में रखते थे या कुछ अपनी
सुख-सुविधा की चाह में उनकी रानियाँ बन जाती थी. ऐसी थी वह सामन्ती व्यवस्था. इसके
बावजूद अगर राजाओं को बोरियत होती थी तो वे नग्न मूर्तियों और नंगे नाचों से अपना
जी बहलाते थे. यह हमारी परम्परा कैसे हो सकती है? यह उस 80 करोड़ मेहनतकाश वर्ग की
परम्परा कैसे हो सकती है, जो रात-दिन मेहनत-मशक्कत करके केवल अपनी रोजी रोटी जुटा
पाता है? क्या किसी महिला ने भी नग्न मूर्तियों को अपनी संस्कृति बताया है? बल्कि
महिलाओं के लिए इससे अपमानजनक चीज कोई हो ही नहीं सकती. इस मामले में एक महिला का
कहना है कि नग्न मूर्ति बनवाने वाला स्त्री-देह को खिलौना समझने की विकृत मानसिकता
से ग्रस्त रहा होगा.
ग्लेडिएटर में लड़ाने से पहले रोमन गुलामों के पास
सुन्दर महिलायें भेजी जाती थीं ताकि लड़ने से पहले गुलामों का चित्त प्रसन्न और
स्थिर रहे. इससे वे बेहद जुझारूपन के साथ एक-दूसरे से मरते दम तक लड़ते थे और लड़ाने
वाला शासक इस युद्ध का मजा लेता था. नये गुलामों के लिए पोर्नोग्राफी की आपूर्ति
करके पूँजीवाद यही काम करना चाहता है. वह गुलामों की एक ऐसी जमात खडी कर रहा है जो
उच्च-शिक्षित हो, दबाकर उदर-पूर्ति करे और प्राकृतिक तथा अप्राकृतिक यौन-क्रियाओं
के अश्लील फोटो और वीडियों देखकर लुत्फ़ उठाये. गुलामी करे एक ऐसी व्यवस्था की जो
सिर से पैर तक मानव-द्रोही है. कुल मिलाकर उसकी आत्मा या अन्त्श्चेतना चकाचौंध भरी
पूंजीवादी तिलिस्म में कैद हो और वह एक जानवर मात्र रह जाए.
पोर्नोग्राफी न केवल अनैतिक है बल्कि यह महिला
विरोधी भी है. पोर्नोग्राफी के नशेबाज महिलाओं को अपनी काम-वासना पूर्ति की
सामग्री (सेक्स-ऑब्जेक्ट) समझते हैं. पोर्नोग्राफी में न केवल प्राकृतिक यौन
क्रिया दिखाई जाती है बल्कि महिलाओं के शरीर से खिलौने की तरह खिलवाड़ किया जाता
है. रातभर पोर्नोग्राफी देखने के बाद पुरुष कामेच्छा से पगलाया हुआ हिंसक जानवर बन
जाता है. ऐसे लोग न केवल जवान महिलाओं को
अपनी काम-कुंठित वासना का शिकार बनाते हैं बल्कि छोटी बच्चियों और महिलाओं
तक को नहीं छोड़ते. काम-क्रीडा की विकृति के चलते छोटे बच्चों के शरीर से खेलना और
भेद खुल जाने के सामाजिक दर के चलते उनकी हत्या कर देने जैसे अपराध बढ़ते जा रहे
हैं. हालाँकि ऐसी यौन हिंसाओं के पीछे केवल पोर्नोग्राफी ही जिम्मेदार नहीं है.
हमारी समाज व्यवस्था का स्त्री-विरोधी चरित्र और स्त्री-पुरुष का घटता अनुपात भी
जिम्मेदार है.
अश्लील फोटो-साहित्य-वीडियों का निर्माण और
प्रचार-प्रसार तथा इनका इस्तेमाल इंसानी शरीर के निजता का उलंघन है. जो लोग
पोर्नोग्राफी पर प्रतिबन्ध को लेकर हाय तौबा मचा रहे हैं और इसे अपनी निजता का
उलंघन बता रहे हैं, दरअसल वे खुद निजता का उलंघन कर रहे हैं. दो इंसानों के निजी सम्बन्ध
यानी जिस्मानी ताल्लुकात को सार्वजनिक करना निजता का उलंघन है और ऐसा करने वालों
को किसी तरह की छूट नहीं दी जा सकती. यह बात सही है कि केवल पोर्नोग्राफी को
प्रतिबंधित करने से महिलाओं की सभी समस्यायें हल नहीं होगी और न ही यौन अपराध को
जड़ से मिटाया जा सकता है. बल्कि पोर्नोग्राफी पर प्रतिबन्ध के साथ-साथ समाज के
स्त्री-विरोधी चरित्र से लड़ने और औरतों को आर्थिक रूप से आजाद करने की जरूरत
पडेगी.
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