मेरे एक साथी पेशे से इंजिनियर हैं और उनकी शिक्षा
विज्ञान-टेक्नोलॉजी में हुई है। उन्होंने मुझसे एक दिन कहा कि हमें दक्षिण की तरफ
पैर करके नहीं सोना चाहिए। मैंने पूछा क्यों? क्या आप अन्धविश्वास
(सुपरस्टिशन) में यकीन करते हो। उन्होंने कहा कि बात अन्धविश्वास की नहीं है।
हमारी सभी मान्यताओं का कोई न कोई वैज्ञानिक आधार होता है, जैसे यह मान्यता कि मुर्दे का पैर दक्षिण दिशा में करके लिटाया जाता
है, इसलिए ज़िंदा इंसान को दक्षिण की ओर पैर करके नहीं सोना चाहिए। इसके
पीछे वैज्ञानिक तथ्य है। पृथ्वी एक चुम्बक की तरह व्यवहार करती है। जब हम दक्षिण
की तरफ पैर करके सोते हैं तो उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के बीच हमारे खून की गति के
चलते शरीर में विद्युत धारा पैदा होती है जो हमारे शरीर के लिए नुकसानदेह है।
उन्होंने आगे कहा कि आप लेन्ज का नियम तो जानते हैं ना, जब कोई चालक विद्युत क्षेत्र में गति करता है तो उसमें विद्युत धारा
पैदा होती है और हमारे खून में हिमोग्लोबिन है जो आयरन से बना है, इसलिए पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में खून की गति से धारा पैदा होना
कोई अचरज की बात नहीं। मैं अवाक और बेचैन हो उठा। मेरे मन में कई सवाल खड़े हो रहे
थे। जैसे- क्या हमारे पूर्वजों के पास इतना उन्नत ज्ञान-विज्ञान था, जिससे वे विज्ञान की इस प्रक्रिया को जान लेते थे? विज्ञान का छात्र होने के नाते मैं चैन से नहीं बैठ सकता था। मेरे मन
में सवालों के बवंडर उठ रहे थे। इतने उन्नत विज्ञान के बावजूद हम भारतीय इतने पिछड़े
क्यों हैं?
मैंने किताबों के पन्ने पलटे। फिजिक्स के प्रोफ़ेसर से बात की और खुले
दिमाग से समस्या पर विचार किया। मैं सच्चाई जानकर चौंक गया। मेरे साथी के तर्क
आधारहीन थें। बल्कि वह तर्क और विज्ञान के नाम पर कुतर्क और अन्धविश्वास परोस रहे
थे। दरअसल मामला यह है कि लेन्ज के नियम के अनुसार चुम्बकीय क्षेत्र में अगर कोई
चालक गति करता हो तो हमेशा विद्युत धारा नहीं पैदा होती है बल्कि एक ख़ास स्थिति
में ही ऐसा होता है। फ्लेमिंग के नियम के अनुसार जब चुम्बकीय क्षेत्र, चालक की लम्बाई और चालक की
गति की दिशा तीनों एक-दूसरे के लम्बवत हो, तभी धारा जन्म लेती है। ऊपर
की स्थिति में खून का बहाव चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा में होता है, इसलिए धारा पैदा होने का सवाल ही नहीं उठता। मैंने अगली मुलाक़ात में
उन्हें अपनी बात बतायी और उनसे कहा कि अगर आपको फिरभी विश्वास न हो, तो आप अपने समर्थन में विज्ञान का कोई नियम या कोई शोधपत्र दिखा सकते
हैं। अगर अब तक कोई शोधपत्र नहीं छपा तो उसे आप अपने तर्कों के हिसाब से लिखकर
किसी प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका में छपवा दो, आपको नयी खोज के लिए
पुरस्कार भी मिलेगा। वह बेहद शर्मिन्दा थे। उन्होंने कहा कि मुझे यकीन नहीं होता, हमारे सामने विज्ञान के नाम पर किस तरह छद्म विज्ञान परोसा जा रहा है
और हम इसपर कितने सहज ढंग से विश्वास कर लेते हैं। मैं उनकी ईमानदारी का कायल हो
गया। एक वैज्ञानिक अपनी गलती पता चलने पर उसे तुरंत दुरुस्त कर लेता है। लेकिन एक
अन्धविश्वासी ऐसा कभी नहीं करेगा।
गंडे, ताबीज और अंगूठी के बारे
में ऐसे ही कुतर्क सुनने के लिए मिलते हैं। एक अन्धविश्वासी विद्वान ने मुझे बताया
कि अन्तरिक्ष के ग्रहों और नक्षत्रों से आने वाली घातक किरणों को सोखकर विशेष
पत्थरों से बनी ये अंगूठियाँ हमारी रक्षा करती हैं। मैंने उनसे पूछा कि अन्तरिक्ष
से जितने विकिरण आते हैं, उनमें से कुछ सेहत के लिए
अच्छी हैं और कुछ घातक। अंगूठियों के ये पत्थर किस तरह से बनाये गए हैं जो केवल
घातक किरणों को ही सोखते हैं? इन घातक किरणों की आवृत्ति
कितनी है? कुल मिलाकर आपने जो बताया है, उसकी थ्योरी मुझे समझा दो।
अगर आपको पता नहीं तो कुछ दिन बाद पता करके बता देना। अगर ऐसी कोई थ्योरी लिखी
नहीं गयी है तो आप लिख दीजिये। विज्ञान की दुनिया में अमर हो जायेंगे। वह समझ गये
कि इस बार किसी कूढ़मगज या कूपमंडूक से पाला नहीं पड़ा है। उन्होंने कहा कि देखिये, विज्ञान-सिज्ञान कुछ नहीं है। बेकार की चीज है। असली चीज तो हमारी
परम्पराएँ और मान्यताएँ हैं। मैंने कहा, महोदय आप ने जो सुन्दर कोट
पहन रखा है, जिस कार से आये हैं और दिन-रात जिन सुविधाओं का इस्तेमाल करते हैं, वे सभी विज्ञान की देन हैं। खुद सुविधाभरी जिन्दगी जियो और सबको
उपदेश दो कि वे जंगल में जाकर तपस्या करें। यह कहाँ का न्याय है?
हाल की एक घटना से मैं बेहद विचलित हो गया। खबर इस तरह है, “रोहटा थाना क्षेत्र के गांव जटपुरा में तांत्रिक क्रियाओं के लिए ढाई
साल के बच्चे की बलि दे दी। बच्चे का हाथ और पैर कटा शव बृहस्पतिवार को ईख के खेत
में मिला। शक के आधार पर तांत्रिक क्रियाएँ करने वाली एक महिला को पुलिस ने हिरासत
में ले लिया है।” (अमर उजाला, 4 सितम्बर 2015) यह दिल दहला देने वाली घटना है। हम अपने मासूम बच्चों की रक्षा भी
नहीं कर पा रहे हैं। ज्ञान-विज्ञान की इतनी प्रगति के बाद क्या हमारे देशवासियों
के भाग्य में यही लिखा है?
रोजमर्रा की जिन्दगी में प्रचलित सामान्य किस्म के अन्धविश्वास नीचे
दिए जा रहे हैं। आप खुद ही तय कीजिये कि वे कहाँ तक तर्कसम्मत हैं? विज्ञान से इनका कुछ लेना-देना है भी या नहीं?
1. बिल्ली
का रास्ता काटना
2. सुबह घर
से निकलते कोई खाली बर्तन ले जाता दिखे
3. सोम-शनिचर
पुरुब न चालू,
मंगल बुध उत्तर दिश कालू, विफय के जो दक्षिण जाई, चार लात रस्ते में पाई
4. घर से
निकलते समय किसी के छींकने या टोकने पर अपशकुन मानना
5. कुत्ते
के रोने पर अपशकुन
6. शव
यात्रा या शव दाह के अपशकुन या अशुभ मानना
7. विधवा
औरत से सम्बन्धित अपशकुन
8. चारपाई
को उलटा खड़ा करना- ऐसा तब करते हैं, जब किसी की मौत हो गयी हो।
9. झाडू पर
पैर लगने से पैसे की तंगी बढ़ना
10. कौवे से
सम्बन्धित अपशकुन
11. विशिष्ट
जाति के व्यक्ति के दिखने पर अन्धविश्वास
12. किसी ख़ास
दिन बाल कटवाने या दाढी बनवाने पर प्रतिबन्ध
13. बांस
जलाने से वंश का नष्ट होना
14. रात में
झाडू न लगाना या झाड़ू खड़े करके न रखना
15. रात में
बैगन, दही और खट्टे पदार्थ न खाना
16. घर से
बाहर निकलते समय पहले दायाँ पैर ही आगे बढ़ाना
17. घर या
दुकान के बाहर नींबू-मिर्च लटकाना
हम कब तक धर्म के ठेकेदारों के हाथों ठगे जाते रहेंगे? जो न केवल अन्धविश्वास फैलाकर हमें भ्रमित करते हैं बल्कि हमें
आर्थिक नुकसान भी पहुंचाते हैं। हाथ में रक्षा सूत्र बाँधने से क्या हमारी रक्षा
हो जायेगी? अमरीका की संस्था सीआईए ने एक क्रांतिकारी के ऊपर 638 बार जानलेवा
हमले किये, फिरभी वह बच गये। दुनियाभर के पत्रकारों ने उनसे पूछा कि आप
बुलेट-प्रूफ पहनते होंगे? इसपर उन्होंने कहा कि कहाँ
है बुलेट-प्रूफ?
उन्होंने अपने शर्ट का बटन खोलते हुए दिखाया। बुलेट-प्रूफ बाहर नहीं, दिल के अन्दर है। अगर साहस न हो तो बड़े से बड़ा हथियार बेकार है।
अन्धविश्वास हमारे आत्म-विश्वास को तोड़कर हमें परनिर्भर बनाता है। यह
हमारी आत्मिक ताकत को कमजोर बना देता है। हमें याचक बना देता है। हम क्यों डरे? डर में सुरक्षा नहीं है। कायर सबसे पहले मारा जाता है। हमें निडर और
साहसी बनना चाहिए। कठिनाइयों को देखकर घबराना नहीं चाहिए। उससे भागना पलायनवाद है।
पलायनवादी कभी भी अपनी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता। साहस, त्याग, लगन और कठिन परिश्रम से ही
सफलता मिलती है। इसे समझना हो तो “माझी: द माउंटेनमैन’ फिल्म देखनी चाहिए। दशरथ माझी ने लगन और कठिन परिश्रम से छेनी-हथौड़ी
के द्वारा पहाड़ काटकर रास्ता बना दिया। पहाड़ को झुका दिया। मजबूत इरादें हो तो
सांसारिक बाधाएँ कुछ भी नहीं। हम कमजोर क्यों हैं? हमारा
राष्ट्र कमजोर क्यों है? हम खुद पर भरोसा नहीं करते।
हमारी सोच में कमजोरी है। हम कठिन परिश्रम करने से डरते हैं। हम पढ़ने से दूर भागते
हैं। हम समस्याओं से जूझने की कोशिश नहीं करते। हम अलग-अलग मुद्दों पर आपस में बहस
नहीं करते। ये बातें हमें कमजोर बनाती हैं। कमजोर लोगों से बना राष्ट्र भी कमजोर
होगा। एक-एक व्यक्ति को मजबूत करने से ही पूरा राष्ट्र मजबूत होगा। ये हमारे
कार्यभार हैं। हमें इसे पूरा करना ही होगा। यह समय की मांग है। देश करवट बदल रहा
है। इस मुद्दे को लेकर लोगों में बहस जारी है। हमें तय करना है कि हम सच और
विज्ञान के साथ हैं या झूठ और अन्धविश्वास के साथ। हम रोशनी के साथ हैं या अन्धकार
के साथ। दोस्तो,
आज यह तय करने का समय आ गया है। विज्ञान और अन्धविश्वास में कोई मेल
नहीं। अन्धविश्वास के खिलाफ हमारी लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक देश का हर नागरिक इस व्याधि से मुक्त नहीं हो जाता।
किसी ने सवाल किया कि क्या धार्मिक रहते हुए भी अन्धविश्वास से लड़ा
जा सकता है? इसका जवाब है- हाँ। धार्मिक होकर अन्धविश्वास से न केवल लड़ा जा सकता
है बल्कि सबसे बढ़िया तरीके से लड़ा जा सकता है। मार्टिन लूथर किंग ने ईसाई धर्म में
प्रचलित अन्धविश्वास और गलत परम्पराओं के खिलाफ संघर्ष किया। उस समय वह धार्मिक और
ईश्वरभक्त थे। उन्होंने चर्च में 95 कीलें ठोंकी जो उस धर्म में फ़ैली बुराई का
प्रतीक थीं। उनके शिष्य विरोधी (प्रोटेस्टेंट) कहलाये जो ईसाई धर्म की बुराइयों से
लड़ते थे। इंग्लैंड सबसे पहले प्रोटेस्टेंट बना। अन्धविश्वास से मुक्त हुआ। वहाँ
वैज्ञानिक ज्ञान का प्रकाश फैला। धीरे-धीरे पूरा यूरोप अन्धविश्वास से मुक्त होकर
अपने पैरों पर खड़ा हो गया। अन्धविश्वास और गलत रीति-रिवाजों से लड़ने का कभी यह
मतलब नहीं है कि हम धर्म और ईश्वर की सत्ता के खिलाफ लड़ रहे हैं। बल्कि यह लड़ाई
धर्म में फ़ैली बुराई और जड़ता के खिलाफ है। अन्धविश्वास और गलत रीति-रिवाज अज्ञानता
और जड़ता के चलते फैलते हैं। इससे इंसान कमजोर होता है। इससे धर्म कमजोर होता है।
इससे पूरा राष्ट्र पिछड़ जाता है।
अन्धविश्वासी व्यक्ति के अन्दर एक विचार गहराई से बैठा होता है कि
धर्म पर सवाल नहीं उठाना चाहिए। वह जानता है कि उसका विश्वास बहुत कमजोर है और
तर्क करते ही टूटकर बिखर जाएगा। वह अन्धविश्वास को धर्म से जोड़ता है और उसपर सवाल
करने से मना करता है। इस बात से वह अपने अन्धविश्वासपूर्ण विचारों की रक्षा करना
चाहता है। यह गलत है। आज यह प्रचलन में है कि सड़ी-गली चीजें लोगों में परोस दी जाय
और धर्म के नाम पर लोग बिना सवाल उठाये उसे स्वीकार कर लें। इसी आधार पर सैकड़ों
बाबाओं का धंधा फल-फूल रहा है। वे करोड़ों-अरबों की संपत्ति से अपनी तिजोरी भर रहे
हैं। वे नौजवान पीढ़ी को अन्धविश्वास और अन्धकार के दलदल में धकेल रहे हैं।
दोस्तो, यह सवाल आम जनता से नहीं है, बल्कि उन साथियों से है जो विज्ञान और टेक्नोलॉजी की शिक्षा लेकर
अपना भविष्य संवारना चाहते हैं। क्या आप गन्डा-ताबीज और रक्षा-रोरी के भरोसे अपना
भविष्य बनायेंगे? या ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा
ग्रहण करके आत्म उन्नति से सफलता के द्वार खोलेंगे। हमारी समाज व्यवस्था खराब है।
यह कहने भर से तो काम नहीं चलने का और न ही हम अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो
जाते हैं। आगे बढ़कर व्यवस्था परिवर्तन ही हमारा लक्ष्य होना चाहिये। इसकी शुरुआत
खुद से करें। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने कहा था कि हमें दोनों हाथों में नंगी
तलवारें लेकर अपनी दिमागी गुलामी की जंजीरें काटनी होगी। अन्धविश्वास के खिलाफ सतत
संघर्ष के लिए आगे आईये और एन्टी-सुपरस्टिशन फोरम (Anti-Superstition forum) बनाने में सहयोग कीजिये।
हमारे कार्यभार-
1. समान
विचारों के लोगों की एक टीम बनाइए जो इस दिशा में लगातार काम करें।
2. अन्धविश्वास
के खिलाफ संघर्ष में व्हाट्सअप और फेसबुक का इस्तेमाल कीजिये। इन माध्यमों का
भरपूर उपयोग कर वैज्ञानिक सोच को दूर-दूर तक फैलाइए।
3. लेखों, पर्चों और पुस्तकों के माध्यम से लोगों में जागरूकता फैलाइए। लोगों
को जागरूक करने के लिए पर्चे छपवाकर या फोटोस्टेट कराकर वितरित कीजिये।
4. अपने
दोस्तों के बीच अन्धविश्वास से सम्बन्धित बातों पर बहस चलाइए। उन्हें बताइए कि
कैसे ये चीजें हमें और हमारे देश को कमजोर बना रही हैं?
5. शिक्षक
अपनी कक्षाओं में छात्रों को अन्धविश्वास के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित करें।
6. इस
मुद्दे पर मीटिंग और सेमीनार आयोजित करना चाहिए।
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