यूनान की राजनीति
में उथल-पुथल जारी है. सबको अचरज में डालते हुए प्रधानमंत्री अलेक्सिस सिप्रास ने
अपने पद से इस्तीफा दे दिया है और मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर दी है. उनकी सात
महीने पुरानी सरकार का अन्त हो गया है. कुछ दिनों पहले उन्होंने यूरोपीय संघ द्वारा
लादी गयी कटौती की शर्तों को स्वीकार कर लिया. जिसके चलते यूरोपीय संघ ने 14.6 अरब
डॉलर के बचाव पैकेज को मंजूरी दे दी. इस बात से देशभर में एक नया राजनीतिक तूफ़ान
खडा हो गया है क्योंकि 20 जुलाई के जनमत संग्रह में 60 प्रतिशत के विशाल बहुमत ने
कटौती और बचाव पैकेज को सिरे से खारिज कर दिया था. इसलिए जब अलेक्सिस सिप्रास
यूरोपीय संघ के आगे झुक गये, तो लोगों के बीच विश्वासघात का संदेश गया. उनकी
पार्टी के सदस्यों और सरकार के मंत्रियों ने ही विरोध का बिगुल फूंक दिया. अपने
कदम को सही साबित करने के लिए उनहोंने फिर से चुनाव का सहारा लिया है.
यूनान लम्बे समय से
आर्थिक संकट से जूझ रहा है. देश विदेशी कर्ज के पहाड़ के नीचे कराह रहा है. खजाना
खाली हो चुका है. अर्थव्यवस्था के सभी सूचकों की सूइयां उल्टी दिशा में जा रही
हैं. बेरोजगारी अपने चरम पर है. मजदूरी गिर रही है. अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने
के लिए यूनान ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज लिया था. उस कर्ज की 1.8 अरब
डॉलर की किस्त को चुकाने की आखिरी तारीख 30 जून थी. जिसे न चुका पाने के चलते यूनान
का आर्थिक संकट सतह पर आ गया. निवेशकों का विश्वास डोल गया. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा
कोष, विश्व बैंक और यूरोपीय संघ ने जनता की सुविधाओं में कटौती के लिए यूनान की
सिप्रास सरकार पर दबाव बढा दिया. सिप्रास की सरकार इस वादे के साथ चुनाव जीतकर आयी
थी कि वह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबावों के आगे नहीं झुकेगी. जन कल्याणकारी
योजनाओं को न केवल जारी रखेगी बल्कि जनता को सस्ती चिकित्सा और शिक्षा उपलब्ध
करायेगी. लेकिन अर्थव्यवस्था की डावांडोल स्थिति और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के
दबाव के चलते सरकार में दरार पड़ने लगी. वित्तमंत्री यानिस वेरोफाकिस अंतरराष्ट्रीय
मुद्रा कोष के समर्थन में आ गये. प्रधानमंत्री अडिग खड़े थे. विपक्ष का हमला जारी
था. विपक्ष का पूँजीवादी धडा सरकार पर लगातार इस बात का दबाव बनाता रहा कि सरकार
को देश के सट्टेबाजों और पूंजीपतियों के हित में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आगे समर्पण
कर देना चाहिए. इस उहापोह से निपटने के लिए सिप्रास की सरकार ने 5 जुलाई को जनमत
संग्रह का सहारा लिया. जनता ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव को सिरे से खारिज
कर दिया. सरकार के साथ एकजुटता दिखाई. वित्तमंत्री को इस्तीफ़ा देना पडा. लेकिन
सरकार संकट का समाधान निकल नहीं पा रही थी. व्यवस्था थम सी गयी. दो महीने में ही
विपक्ष और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष सरकार पर दबाव बनाने में सफल हुए.
प्रधानमंत्री सिप्रास ने अपने कदम पीछे खींचते हुए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की
गोद में जा गिरे. फिर एक बार देश की राजनीति में खलबली मच गयी.
इन बातों से साफ़ जाहिर
है कि यूनान परिवर्तन की पीड़ा से गुजर रहा है. जनता एक नयी व्यवस्था के लिए संघर्ष
कर रही है. लेकिन वह चुनावी राजनीति के दायरे को तोड़ पाने में अक्षम है. सिप्रास
की समाजवादी सरकार की उहापोह और किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति को देखते हुए यह साफ़
पता चलता है कि चुनावी राजनीति का सबसे प्रगतिशील हिस्सा भी प्रेतछाया की तरह
दुनिया को अपनी आगोश में लेने वाले आर्थिक संकट से लड़ पाने में अक्षम है. इस
व्यवस्था का विकल्प देने में असमर्थ है. व्यवस्था को बदलने के लिए आर्थिक संकट को
गहराई से समझने और नवउदारवादी मॉडल के चक्रव्यूह को भेदने की जरूरत है.
-देश विदेश अंक 21 से साभार
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