गुरुवार, 7 जनवरी 2016

कैग ने किया 1,00,000 करोड़ के राइस मिल घोटाले का खुलासा

धान की कुटाई करनेवाले राइस मिल के मालिक भूसी बेचकर खूब मुनाफा कूट रहे हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के धान की कुटाई से निकलनेवाली भूसी, चोकर, चावल की किन्नी और कोण का अच्छीखासी माँग और कीमत है। इस पर उन्हें एक पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ता, जबकि अच्छी कमाई का जरिया है।
नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट ने अनुमान लगाया है कि इसके चलते सार्वजनिक कोष को हर साल 10,000 करोड़ का चूना लग रहा है। राइस मिल के अधिकांश मालिक या तो राजनीतिक पार्टियों के नेता हैं या उनसे उनके गहरे रिश्ते हैं। यह सब दस सालों से चल रहा है, यानी कुल घाटा 1,00,000 करोड़ से भी ज्यादा है। इस तरह यह 2जी और कोलगेट जैसे महाघोटालोंे के सिलसिले की अगली कडी़ है। अपनी एक अन्य रिपोर्ट में कैग ने इस साल धान की खरीद पर केन्द्र और कुछ राज्य सरकारों द्वारा राइस मिलों को लगभग 50,000 करोड़ का नाजायज फायदा पहुँचाये जाने का भी खुलासा किया है। ये दोनों रिपोर्ट दिसम्बर में संसद के पटल पर रखी गयी।
केन्द्र और राज्य सरकार की खरीद करनेवाली संस्थाएँ किसानों से धान खरीदकर उसे राइस मिलों को देती हैं। 100 किलो धान के बदले में राइस मिलें सरकारी संस्थाओं को 68 किलो सेला (उसना) चावल या 67 किलो अरवा चावल देती हैं और उनसे कुटाई का 87 रुपये लेती हैं। बाकी बचे 3233 किलो उपउत्पादों को बाजार में बेचकर पैसा खुद रख लेती हैं। ओडिसा स्थित केन्द्रीय चावल शोध संस्थान के मुताबिक राइस मिलें 100 किलो धान के  उपउत्पाद से औसतन 22 किलो भूसी, 8 किलो चोकर और 2 किलो चावल की किन्नी निकालती हैं। पिछले कुछ वर्षों से इन चीजों की कीमते चावल से भी तेज रफ्तार से बढ़ी हैं।
धान से निकलनेवाली भूसी और चोकर बिजली, दवा, घोलक, ईट भट्ठा और शराब जैसे कई उद्योगांे में काम आते हैं। चोकर से तेल पशु चारा इत्यादि बनते हैं, जबकि भूसी से बिजली बनती है और उसकी राख से दवा उद्योग में काम आनेवाला सिलिका बनता है। इन सभी चीजों की औसत कीमत लगायी जाय तो राइस मिलों को 100 किलो धान की कुटाई पर औसतन 169 रुपये बच जाते हैं, जो कुटाई के 87 रुपये से अतिरिक्त हैंै। चूँकि हर साल लाखों टन धान की कुटाई होती है, इसलिए कुछ बड़ी राइस मिलों ने अलग से इन उपउत्पादों से जुड़े उद्योग लगाना भी शुरू कर दिया है।
सरकारी संस्थाएँ इन उपउत्पादों को फालतू मान कर इनके उपयोग या बिक्री से इनकार करती हैं, जबकि इनके बाजार, कीमत और उपयोग के लिखित प्रमाण मौजूद हैं। फिर भी आर्श्चय है कि सरकार इनके बाजार भाव का मूल्याँकन नहीं करती हैं और राइस मिलों को बिना शर्त इनका मालिकाना हक देती है।
कैग ने अपनी ऑडिट रिपोर्ट में सरकार द्वारा धान के उपउत्पाद राइस मिलों को मुफ्त में बेचने की नीति की आलोचना की है। कैग ने पूछा है कि जो भूसीचोकर सरकार की सम्पत्ति है, उसे बिना मोल लिए राइस मिलों को कैसे दिया जा सकता है? विशेष रूप से यह एक चिन्ता का विषय है कि एक के बाद एक आनेवाली अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी की सरकारों ने सच्चाई को जानते हुए भी इस नीति को जारी रखा और देश को भारी क्षति पहुँचने दिया। कैग के मुताबिक 2003 में वाजपेयी के शासन काल में बनी राइस मिल नीति से अब तक धान कुटाई के उपउत्पादों से हासिल 1,00,000 करोड़ रुपये से भी अधिक की सार्वजनिक सम्पत्ति राइस मिल मालिक की तिजोरी में पहुँचायी जा चुकी है। इसके अलावा चूँकि ज्यादातर राइस मिल मालिक इस आमदनी को आय में शामिल नहीं करते या बहुत कम करते हैं, इसलिए इस कमाई पर करोड़ का टैक्स भी वे सरकार को नहीं चुकाते।
इस पूरे मामले को सामने लाने के लिए लगातार पाँच सालों तक प्रयास करने और कैग तक पहुँचनेवाले ओडिसा के गौरीशंकर जैन के मुताबिक यह सारा घपला सरकारी अधिकारियों, नेताओं और मिल मालिकों की साँठगाँठ की वजह से हुआ है। सार्वजनिक धन को जनता की तिजारी  के बजाय मिल मालिकों की तिजोरी में पहुँचाने के लिए यही अपवित्र गठबन्धन जिम्मेवार है।

आश्चर्य की बात यह कि कांग्रेस राज में होनेवाले घोटालों को मुद्दा बनाकर जनता में आक्रोश पैदा करनेवाला मीडिया और भ्रष्टाचार के खिलाफ आग उगलनेवाली पार्टियाँ और नेता आज इतने बड़े घोटाले पर मुँह नहीं खोल रहे हैं। इन दोनों घोटालों को मिला दिया जाय तो यह 1,50,000 करोड़ रुपये का बैठेगा। उनमें केन्द्र और राज्य में इन्हीं पार्टियों के बीच इस मुद्दे पर नूरा कुश्ती हो रही है। दरअसल भ्रष्टाचार इस व्यवस्था के रगरग में व्याप्त है। हर कीमत पर सरमायादारों की तिजोरी भरना और बदले में अपनी सात पीढ़ियों के लिए धन जुटाना ही आज की राजनीति का अन्तिम लक्ष्य हो गया है।

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