हाल ही में कुछ राष्ट्र भक्तों ने टीपू
सुल्तान को इतिहास के अभिलेखगार से वर्तमान की अदालत में आने के लिए मजबूर किया।
यह दरवेश अपनी आरामगाह में आधुनिक समाज के ख्वाब बुनने में मसरूफ था। जनता की
अदालत अपने ‘मैसूर के शेर’ के तेजमय, गर्वीले चहेरे को साफ–साफ न देख सके, इसके लिए ये आततायी जनता के बीच खास
किस्म का चश्मा बाँटते फिर रहे थे।
यह चश्मा इमरजेंसी लगाते समय,
सिखों
का कत्लेआम करते समय, परमाणु बम फोड़ते समय, गणेश जी को दूध पिलाते हुए, बाबरी मस्जिद को ढहाते हुए, डंकल प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करते समय, एनरॉन को मुनाफे की गारंटी देते समय, गुजरात नरसंहार के समय, कारगिल युद्ध के समय, मेक इन इंडिया के नारे की आड़ में देश
बेचते समय, बार–बार बाँटा जाता है और इसने बेशक की भारत की जनता की नजर को धँुधला भी
किया है। प्राचीन ब्रिटिश अपनिवेशवाद से उधार लिए गये लेंस और अमरीकी आर्थिक
नवउपनिवेशवाद के फ्रेम से निर्मित इस चश्में के शिल्पकार भारत के नव–नाजी हैं। भारत के अतीत और वर्तमान में
जो कुछ भी सकारात्मक है उसे विकृत करना चाहते हैं, उस पर स्याही पोतना चाहते हैं। देशभक्तों का दूसरा समूह टीपू को
जयन्ती की मालाओं में कैद करना चाहता है। प्रख्यात इतिहासकार रोमिला थापर का यह
कहना कि साम्राज्यवाद और साम्प्रदायिकता का चोली दामन का साथ है बिलकुल सही है।
हमें टीपू सुल्तान को उसके दौर में जाकर नंगी आँखों से देखना चाहिए।
टीपू सुल्तान (पूरा नाम–– फतेह अली) का जन्म 1751 में बंगलौर से
40 किलोमीटर दूर देवनहल्ली में हुआ। उनके पिता हैदर अली मैसूर राज्य की सेना में
एक साधारण अनपढ़ सिपाही थे। अपने हाथों अपना भविष्य बनाते हुए वे 1761 में मैसूर की
गद्दी पर बैठे। उस समय दिल्ली की मुगल सल्तनत छिन–भिन्न हो चुकी थी। पानीपत की लड़ाई में अहमद शाह अब्दाली से हारकर
मराठों की भी कमर टूट चुकी थी। पूरे देश में कोई बड़ा साम्राज्य नहीं बचा था और
छोटे–छोटे राजा आपस की लड़ाइयों में उलझे हुए
थे। दूसरी ओर ईस्ट इंडिया कम्पनी एक मजबूत ताकत के रूप में स्थापित हो चुकी थी।
लगभग पूरा भारतीय उपमहाद्वीप उनके प्रभाव में आ चुका था और उनके सामने कोई बड़ी
चुनौती नहीं थी। इसी दौर में हैदर अली ने मराठा शासक, कर्नाटक और हैदराबाद के निजाम के खतरे
के साये में अपनी ताकत बढ़ायी। अंग्रेजों के विजय अभियान को भारत में सबसे पहले
हैदर अली ने 1767 के आँग्ल–मैसूर युद्ध में रोक दिया। अंग्रेज
बुरी तरह हारे और घुटने टेककर सन्धि करने पर मजबूर हुए। 1780–84 में हुए दूसरे आँग्ल–मैसूर युद्ध में भी अंग्रेजों को पीछे
हटना पड़ा। इसी दौरान 1782 में हैदर अली की मृत्यु हो गयी और टीपू सुल्तान मैसूर की
गद्दी पर बैठे। अंग्रेजों के समूल नाश की तैयारी करते हुए टीपू ने तेजी से राज्य
का विस्तार किया। 1789–1792 में हुए तीसरे युद्ध में मराठा और
निजाम ने अंग्रेजों का साथ दिया और टीपू के कई संगी–सहयोगी विश्वासघात करके अंग्रेजों से जा मिले। 4 मई 1799 को चैथे
आंग्ल–मैसूर युद्ध में ही टीपू ने शहादत का
जाम पिया।
टीपू पर एक धर्मान्ध मुस्लिम शासक होने, गैर धर्म के लोगों का जबरन
धर्मपरिवर्तन कराने, हिन्दुओं और ईसाइयों के पूजा स्थलों को
गिराने और गैर–धर्म के लोगों का जनसंहार करने का
अभियोग राष्ट्रभक्तों ने लगाया है। इनका आधार हुसैन अली–खान–किरमाती की दो पुस्तकों निसान–ए–हैदरी का 1842 और 1864 में हुआ संदिग्ध
अनुवाद है। किरमानी ने जब मूल किताब लिखी थी तो वह कलकत्ता की जेल में अंग्रेजों
के कैदी थे। इसके अलावा ब्रिटेन की संसद में टीपू
के खिलाफ प्रस्ताव पास कराने के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा तथ्यों के
रूप में पेश किये गये अपने सिपाहियों और नागरिकों के बयान हैं। इन्हीं बयानों के
आधार पर लिखी गयी, कम्पनी से आर्थिक सहायता प्राप्त कुछ
अंग्रेज लेखकों की किताबें भी हैं।
किरमानी की किताब के अनुवाद में कहा
गया है कि टीपू ने कुर्ग,
कोडगू इलाके के 80 हजार लोगों को जबरन
मुसलमान बनाया। कमाल यह है कि इसके 50 साल बाद 1840 के अंग्रेजों के दस्तावेजों
में ही इस इलाके की कुल आबादी लगभग 80 हजार आँकी गयी थी। 100 साल बाद 1871 में हुई
पहली जनगणना में इस इलाके में हिन्दुओं की आबादी 1,54,476 पायी गयी। जबकि
मुसलमानों की 11,304 इन आँकडों की मौजूदगी और जानकारी के बावजूद टीपू पर जबरन धर्म
परिवर्तन का आरोप लगाना मूर्खता नहीं एक गहरी साजिश है।
टीपू पर अभियोग है कि उसने मालाबार के
नायर ब्राह्मणों का जबरन धर्म परिवर्तन कराया। इसका आधार है कि उसने नायर समाज में
गणिका और बहुपति प्रथा (एक सामाजिक वेश्यावृत्ति) को जबरन बन्द करा दिया। क्या आज, टीपू के 250 साल बाद हम लोग अपने समाज
में ऐसी प्रथा स्वीकार करेंगे? नहीं, बिलकुल नहीं। इसका अर्थ है कि टीपू
हमसे 250 साल पहले आधुनिकता के पक्ष में खड़ा था। दूसरे, किसी गलत प्रथा को बन्द कराने का अर्थ
जबरन मुसलमान बना देना नहीं होता बल्कि समाज सुधार होता है। इतिहासकार के– एम– पणिक्कर
ने अपनी पुस्तक ‘‘केरल का इतिहास 1498–1801’’ में कहा है कि ‘‘यह
धर्मान्धता नहीं थी जिसके चलते टीपू ने यह घोषणा जारी की। वह दृढ़तापूर्वक मानता था
कि वह नायरों से अश्लील आदतें छोड़ने के लिए कह रहा है, वह सभ्यता का अभियान चला रहा था।’’
डॉ– मिशेल
सोरास ने 2013 में मैरीलैण्ड विश्वविद्यालय में भारत के इतिहास से सम्बन्धित एक
शोध प्रबन्ध जमा कराया था। इस पर उन्हें ‘डॉक्टर’ की उपाधी भी मिल चुकी है। यह शोध
प्रबन्ध अभिलेखागार के उस दौर के रिकार्डों और अखबारों की खबरों पर आधारित है।
उन्होंने बताया है कि ‘‘टीपू की निन्दा का सम्बन्ध
साम्राज्यवादी संस्कृति के विकास से है। विस्तारवादी गवर्नर जनरलों ने अपने घरेलू
श्रोताओं की नजरों मंे अपनी आक्रामक कार्रवाइयों को ज्यादा स्वीकार्य बनाने के लिए
टीपू के चरित्र पर कीचड़ उछाली है।’’ क्या
आज के साम्राज्यावादियों के धर्मान्ध राष्ट्रभक्त भी ठीक यही काम नहीं कर रहे हैं।
देश की जनता को तालिबानी अन्धे कुएँ में धकेलने और अपनी धर्मान्ध आतंककारी
गतिविधियों जिसे वे देशभक्ति कहते हैं, को
जायज ठहराने के लिए साम्राज्यावादियों के अनुचर झूठ का गर्दो–गुबार फैलाते हैं। श्रीरंगपट्टन
जानेवाला कोई भी व्यक्ति (अन्धा भी) टीपू के महल से चन्द कदमों की दूरी पर
श्रीरंगनाथन स्वामी के मन्दिरों को देख सकता है। ये मन्दिर टीपू के दौर से काफी
पुराने हैं। अगर टीपू इनकी तरह धर्मान्ध होता तो क्या वह अपनी राजगद्दी के पास के
मन्दिरों को छोड़कर 200 मील दूर का छोटा–सा
मन्दिर गिराने जाता। कर्नाटक और केरल के मन्दिरों के दस्तावेज बताते हैं कि टीपू
ने 156 से ज्यादा मन्दिरों को धन, जमीनें
और कीमती उपहार दिये। वह मराठा सेनाओं द्वारा तबाह कर दिये गये मन्दिर मंे मूर्ति
की स्थापना कराने और मन्दिर का पुनर्निर्माण कराने खुद गया था। श्रिंगेरी के
स्वामीजी को लिखे टीपू के खत आज भी मौजूद हैं। इन खतों को पढ़कर कोई भी बता सकता है
कि बाबरी मस्जिद ढहानेवालों और टीपू के बीच उतना ही अन्तर है जितना मुल्ला उमर के
तालिबानों और शिवाजी में है।
आज तक दुनिया में कोई भी शासक ऐसा नहीं
हुआ जिसने अपनी सत्ता के लिए खतरा बने विरोधियों का सफाया न किया हो। राज्य की
मशीनरी का काम ही है अपने शासन की रक्षा और विरोधियों का खात्मा। इसमें जाति, धर्म देखने का कोई सवाल ही पैदा नहीं
होता। आज के शासक भी यही करते हैं। तेभागा, तेलंगाना, ग्वालियर, पन्तनगर, बेलाडीला, नन्दीग्राम, सिंगूर, भट्टा पारसोल,
गुडगाँव जैसे हजारों उदाहरण हैं।
लक्ष्मण भी लव–कुश से लड़ने और उन्हें मारने ही गये थे।
क्या महाराणा प्रताप के भाले पर हिन्दुओं के खून और अकबर की तलवार पर मुसलमानों के
खून के निशान नहीं थे। पाण्डवों ने भी
अपने 100 भाइयों का कत्ल किया था और निश्चय ही टीपू भी इसका अपवाद नहीं हो सकता।
उसने सवानूर, कोड्प्पा और कुरनूल के निजामों का भी
शासन छीना था और अंग्रेजों की मदद कर रहे मालावार और मालद्वीप के मुसमानों का भी
खून बहाया था।
क्या है जो टीपू को महान बनाता है?
टीपू सामाजिक समानता के पक्ष में था।
वह जाति प्रथा का कट्टर विरोधी था। उसने जमींदारी प्रथा को खत्म करके समाज में
जाति विशेष के वर्चस्व को तोड़ने की कोशिश की। यही काम केवल सीमित दायरे में करने
के प्रयास के चलते उत्तर प्रदेश के किसान चैधरी चरण सिंह को कितना मानते हैं। टीपू
ने उनसे 200 साल पहले यही काम ज्यादा शानदार तरीके से किया था और किसानों को सीधे
राजा को कर देने की व्यवस्था की थी। इससे खेती, व्यापार
और जनता के जीवन स्तर में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई। समाज में जातिगत असमानता कमजोर
हुई। केरल के कुछ हिस्सों में दलित जाति की औरतें, शरीर के ऊपरी भाग में कपड़ा नहीं पहन सकती थी। टीपू ने इस प्रथा पर
प्रतिबन्ध लगाया। फरमान से भी और तलवार से भी। इसीलिए आज के शासक टीपू से डरते हैं।
जिस वक्त सारे भारत के राजा सामन्ती
निन्द्रा में सोये पडे़ थे तब टीपू व्यापार और उद्योग को राज्य के नियंत्रण में
लानेवाला पहला शासक बना। उसने अपने राज्य में बहुत से व्यापार और विनिर्माण के
केन्द्र स्थापित किये। मस्कट, जेद्दा, बशरा, जैसे विदेशी शहरों में राज्य के खर्च से व्यापारिक केन्द्रों का
निर्माण करावाया। कर्नाटक की मशहूर मैसूर सिल्क का पहला कारखाना (मानवचालित)
लगानेवाला और इसके विदेशी व्यापार को बढ़ावा देनेवाला टीपू ही था। वास्तव में उसने
राजकीय पूँजीवादी व्यवस्था को स्थापित करने की शुरुआत की थी। उस दौर में यूरोप में
यह व्यवस्था स्थापित हो जाने का ही परिणाम है कि आज भारत और यूरोप में स्वर्ग और नरक
तथा मालिक और गुलाम का अन्तर है। यही वजह थी जो ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए टीपू के
खिलाफ दुष्प्रचार की हदें पार करना और उसे खत्म करना जरूरी हो गया था और हमारे आज
के शासक टीपू को देखकर कुंठित होते है।
पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को ‘‘मिसाइल मैन’’ का खिताब दिये जाने पर उन्होंने कहा था
कि इसका असली हकदार टीपू सुल्तान है। उन्होंने बिलकुल सच कहा था। टीपू ही दुनिया
का पहला शासक था जिसने अपने आयुधों को लोहे के रॉकेट की शक्ल दी थी। उस दौर के
तमाम दस्तावेज दिखाते हैं कि उसका युद्ध भंडार अंग्रेजों के मुकाबले ज्यादा आधुनिक
था। इन्हीं लोहे के रॉकेटों ने फ्रांस पर इंग्लैण्ड की जीत में भूमिका निभायी थी।
टीपू ने जलसेना का निर्माण किया और इसे व्यापारिक जहाजों की रक्षा का जिम्मा भी
सौंपा। आखिरी आँग्ल–मैसूर युद्ध में उसकी सेना अंग्रेजोें
और उनके समर्थकों की सेना से बहुत छोटी थी और उसकी आधुनिक सोच से चिढ़े बैठे
मंत्रियों और पड़ोसियों ने उससे गद्दारी की थी।
टीपू की महानता का सबसे प्रमुख आधार यह
है कि वह पहला भारतीय शासक था जिसने तेजी से बदल रही और एकाकार हो रही दुनिया की
गति को भाँप लिया था। उसने देश के हितों के अनुकूल विदेश नीति पर अमल करना शुरू कर
दिया था और अफगानिस्तान से लेकर इटली व फ्रंास तक से राजनीतिक और व्यापारिक रिश्ते
बनाये थे। वह यूरोप में उद्घाटित हो रही नयी दुनिया से परिचित और प्रभावित था।
उसके दस्तावेज बताते हैं कि वह इटली के पुनर्जागरण, जर्मनी के प्रबोधन और फ्रांस की क्रान्ति से गहराई तक प्रभावित था।
स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे के लोकतांत्रिक मूल्यों की उस पर छाप पड़ी थी। वह खुद को ‘‘नागरिक’’ टीपू कहलवाना पसन्द करता था। आदमी के सामने आदमी को झुकानेवाली सजदा, कोर्निस जैसी रस्मों को अपने दरबार में
खत्म करा दिया था। लोकतांत्रिक मूल्यों का व्यवहारिक आभास करने के लिए उसने
श्रीरंगपट्टन में एक क्लब की स्थापना की जिसके 59 सदस्य विदेशी (यूरोपीय) और टीपू
खुद थे। क्लब का नियम था कि सभी सदस्य एक–दूसरे
को नागरिक कहेंगे और आपस में पूर्ण समानता का व्यवहार करेंगे।
विडम्बना तो यह है कि ‘मैसूर के शेर’ को गवाहियों के लिए तलब करनेवाले वे
लोग हैं जिनका अपना इतिहास और वर्तमान साम्राज्यवादियों के सामने नाक रगड़ने की
घटनाओं से भरा पड़ा है। टीपू पर कीचड़ उछालने की कोशिश करने का कारण मात्र यह नहीं
है कि वह मुसलमान शासक था। इसके पीछे छिपा हुआ असली कारण यह है कि वही भारत का
पहला शासक था जिसने अंग्रेज साम्राज्यवादियों को जड़ से उखाड़ने की कोशिश की थी।
उसने स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर आधारित समाज के
निर्माण का सपना देखा था। वह शायद भारत का इकलौता शासक है जिसके शहादत दिवस पर
उर्स मनाया जाता है। वह केरल और कर्नाटक के लोक गीतों में आज भी जिन्दा है। यही
बातें साम्राज्यवादियों के धर्मान्ध अनुचरों को स्वीकार नहीं है। यह महज इत्तेफाक
नहीं है कि टीपू पर कीचड़ उछालने के लिए वह समय चुना गया जब राष्ट्र भक्तों का
झण्डाबरदार, इंग्लैड की महारानी के साथ उसके महल
में दावत उड़ाकर खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा था। ये वही महल है जिसके एक–एक पाये तले भारत के हजारों किसानों और
कारीगरों की लाशें दबी हैं। बंगाल के अकाल में मरे लाखों भारतीयों का लहू आज भी
इसकी छत से टपकता है।
भारतीय इतिहास कांग्रेस के पूर्व
अध्यक्ष, प्रख्यात वयोवृद्ध इतिहासकार प्रो– बी– शेख
अली टीपू के इतिहास का विश्लेषण करके इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं– ‘‘वह एक ऐसा व्यक्ति था जिसने अपना जीवन
एक स्वतंत्र भारत का इतिहास लिखने के लिए समर्पित कर दिया। उसका जीवनसूत्र यह था
कि एक गीदड़ की तरह सौ साल जीने के बजाय एक शेर की तरह एक दिन जीना ज्यादा अच्छा है।
उसके जीवन का उद्देश्य अंग्रेज साम्राज्यवादियों को तबाह करना था और इस उद्देश्य
को हासिल करने के लिए उसने वह सब किया जो वह कर सकता था। वह अपने उद्देश्य से कभी
नहीं भटका, उसने अपने सिद्धान्तों से कभी भी
समझौता नहीं किया और विदेशी प्रभुत्व के साथ खुद को कभी भी नहीं जोड़ा। उसने भारत
के यूरोपीय शोषण को रोकने की कोशिश की और यही कोशिश करते हुए शहीद हुआ। ऊपरी तौर
पर लगता है कि वह अपने उद्देश्यों को हासिल करने में असफल रहा लेकिन उसने इतिहास
के पन्नों पर एक गहरी छाप छोड़ दी।’’ टीपू
की तरह स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे का सपना देखनेवाले तमाम लोगों के लिए लाजिमी है कि वे टीपू
के जीवनसूत्र को अपनाकर अपने उद्देश्य में जुट जायें।
–प्रवीण कुमार
–प्रवीण कुमार
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