वित्तमंत्री ने केन्द्रीय उच्च–अधिकारियों और कर्मचारियों के वेतन
बढ़ाने की सिफारिश की है। 2016 के जनवरी माह में सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें
लागू होनेवाली हैं। उन्होंने शुद्ध वेतन का 15 प्रतिशत वेतन बढ़ाने पर जोर दिया है
जिससे न्यूनतम प्रतिमाह वेतन 18,000 रुपये और अधिकतम 2,50,000 रुपये तक हो जायेगा, इससे केन्द्र सरकार की जेब से 1,00,000
करोड़ रुपये निकलेंगे। छठे वेतन आयोग की सिफारिश 2006 में लागू हुई थी।
पिछली कांग्रेस सरकार ने गरीबों का
मजाक उड़ाते हुए गरीबी रेखा का पैमाना घोषित किया था जिसमें शहरी और ग्रामीण क्षेत्र
में क्रमश: 32 रुपये और 28 रुपये प्रतिदिन
कमानेवाले को गरीबी रेखा से ऊपर माना था जिसपर मौजूदा भाजपा सरकार ने कोई बदलाव
नहीं किया है। उनका मतलब था कि महीनें का वेतन 32 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से 30
दिन का 960 रुपये बैठता है,
इतने वेतन में कोई भी व्यक्ति अच्छा
खाना, कपड़ा, अच्छी शिक्षा,
स्वास्थ्य सेवा और सर छुपाने के लिए छत
भी पा सकता है। बाकि जरूरतों को भी पूरा कर सकता है। क्या वास्तव में ऐसा सम्भव है? कॉलेजों की बढ़ती फीस, जमीनों के बढ़ते दाम, आसमान छूती महँगाई और बढ़ती बेरोजगारी
के चलते ऐसा नहीं हो सकता कि अपनी सभी जरूरतों को पूरा किया जा सके। जिन लोगों की
आमदनी 960 रुपये प्रति माह के आस–पास
है, उनको मिलने वाली सभी सरकारी सहायता
खत्म की जा रही है जबकि सरकारी अफसरोंें का वेतन बढ़ाया जा रहा है जिनका वेतन पहले
ही 960 रुपये प्रतिमाह से कई गुना ज्यादा है।
बढ़ती महँगाई को देखते हुए छोटे
कर्मचारियों का वेतन बढ़ाना बेहद जरूरी है, लेकिन
वरिष्ठ अधिकारियों के वेतन को क्यों बढ़ाया जा रहा है जबकि उनका वेतन अपनी मूलभूत
जरूरतों को पूरा करने के लिए भरपूर है। बड़े–बड़े
अर्थशास्त्री सातवें वेतन आयोग के पक्ष में तर्क दे रहे हैं कि इससे उपभोग बढ़ेगा, बाजार की रफ्तार में उभार आयेगा।
सातवें वेतन आयोग से मुख्य रूप से फायदा उनका होगा जिनके पास पहले ही अतिरिक्त बचत
है। वे लोग कार, जमीन, फ्लैट, आदि खरीदने के लिए कम्पनियों के पास
जायेंगे और जब कम्पनियाँ इन्हें अपने माल बेचेंगी, तो वाहन, उपभोक्ता सामान और रियल इस्टेट
कम्पनियों को सबसे ज्यादा फायदा होगा। ऐसा ही छठे वेतन आयोग के बाद भी हुआ था।
वर्ष 2008 में मारुति कार की बिक्री वृद्धि दर 4 फीसदी थी और वर्ष 2011 में 14
फीसदी हो गयी थी। अर्थशास्त्रियों के ऐसे तर्क उच्च वर्ग के पक्ष में किया गया प्रचार
हैं। क्या किसानों की फसलों का समय से भुगतान करने, बेरोजगारी से परेशान नौजवानों को रोजगार देने और मजदूरों की आमदनी
बढ़ाने से लोगों की क्रयशक्ति नहीं बढ़ेगी? क्या इससे अधिक माँग पैदा नहीं होगी और बाजार का ठहराव नहीं टूटेगा?
सवाल क्रयशक्ति बढ़ाने का है ही नहीं।
असली सवाल पक्षधरता का है। सरकारी मशीनरी में शामिल उच्च अधिकारी सत्ता के हाथ–पैर हैं। सरकार उन्हें और मजबूती से
अपने पक्ष में करने के लिए उनके वेतन में वृद्धि कर रही है। इस तरह जो लोग पहले से
चाँदी के चम्मच से खा रहे थे, अब
सोने और हीरे की प्लेटों में खायेंगे। सरकार सातवें वेतन आयोग के लिए आम सहमति
बनाने के उद्देश्य से सरकारी कर्मचारियों के वेतन में भी वृद्धि कर रही है। लेकिन
अधिकारियों की तुलना में यह वृद्धि बहुत मामूली है। इसके अलावा सरकारी परियोजनाओं
में ज्यादातर कर्मचारी ठेके पर रखे जाते हैं। जिनके लिए सातवें वेतन आयोग का कोई मतलब नहीं है। दूसरी तरफ
ट्रेड यूनियनों ने सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट का विरोध किया है। यूनियनों का
कहना है कि प्रस्तावित वेतनवृद्धि पिछले कई दशक में सबसे कम है और यह महँगाई को
देखते हुए पर्याप्त नहीं है। मजदूरों के काम के घण्टों को बढ़ाया जा रहा है और
उन्हें सिर्फ जिन्दा रहने भर के लिए न्यूनतम वेतन दिया जाता है। मजदूर अपनी
जरूरतों के लिए माँग न कर सकें इसके लिए यूनियन बनाने में बाधा डालने के लिए काले
कानूनों को पारित किया जा चुका है। 100
मजदूरों को कोई भी कम्पनी एक साथ बिना किसी नोटिस के बाहर का रास्ता दिखा सकती है।
पहले से ही श्रम सुधारों के जरिये मजदूरों के अधिकारों में कटौती की जा चुकी है।
सातवाँ वेतन आयोग किन लोगों को मजबूत करने के लिए लाया जा रहा है? यह समझना मुश्किल नहीं है।
अगर बड़े–बड़े अधिकारियों के वेतन न बढ़ाकर उनकी जगह कुछ नयी भर्तियाँ निकाली
जाती तो बेरोजगारी का दंश झेल रहे नौजवानों में से कुछ को जीवन चलाने के लिए नौकरी
मिल जाती और वे भी आत्मसम्मान की जिन्दगी जी सकते थे। स्कूल और कॉलेज की फीसें कम
कर दी जाती तो गरीब छात्र भी शिक्षा ले सकते थे। कुछ सरकारी अस्पतालों को खुलवा
दिया जाता तो इलाज करवाने में असमर्थ लोग अपना इलाज करा सकते थे।
–ललित कुमार
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