13 नवम्बर 2015, पेरिस के बेक्तेक्ला म्यूजिक कंसर्ट
हॉल में लोग संगीत का आनन्द उठा रहे थे। लोगों को दूर–दूर तक कोई अन्देशा नहीं था कि कुछ ही
देर में उनके ऊपर एक भयावह हमला होनेवाला है। उस कंसर्ट हॉल के अलावा पेरिस की कई
अन्य जगहों पर हमले किये गये। अब स्वर्ग भी सुरक्षित नहीं रहा। इस हमले में 129
लोगों की मौत हो गयी और हजारों लोग घायल हुए। इससे पूरा फ्रांस दहल उठा। द्वितीय
विश्व युद्ध के बाद फ्रांस पर यह अब तक का सबसे बड़ा हमला है। पश्चिमी मीडिया ने
इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) के लड़ाकों को इस हमले का जिम्मेदार बताया। लगभग सभी
देशों की सरकारों ने इस दुखद और दिल दहला देनेवाली घटना की निन्दा की और हमलावरों
को सबक सिखाने की कसमें खायी। बेगुनाह और निहत्थे लोगों की बर्बर हत्या की इस घटना
को किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता, इसकी जितनी भर्त्सना की जाय कम है।
लेकिन बेगुनाह लोगों की हत्या के लिए क्या सहानुभूति की यही लहर उस समय उठी थी जब
अमरीका बम बरसाकर इराक के लाखों निहत्थे लोगों को मौत के घाट उतार रहा था? उस समय क्या किसी ने हमलावर अमरीका को
सबक सिखाने की बात सोची थी? जब तक दुनिया में न्याय का दोहरा मानदण्ड रहेगा, क्या सही अर्थों में न्याय हो पायेगा? पेरिस हमले की जड़ और उसका असली गुनहगार
कौन है? मध्यपूर्व
एशिया में साम्राज्यवादी देशों की कौन–सी चीज दाँव पर लगी है? इन सब सवालों के जवाब तलाशने जरूरी हैं।
पेरिस हमले के बाद दुनिया एक नये तरह
की हलचल से रूबरू हो रही है। यूक्रेन ने रूसी विमानों के लिए अपना हवाई मार्ग बन्द
कर दिया है। इससे पहले रूस ने यूक्रेन को गैस की खेप बन्द करने की धमकी दी थी।
1990 के दशक के बाल्कन युद्ध के बाद इस इलाके में एक बार फिर संकट बहुत गहरा गया
है। इससे पहले भी यूक्रेन और रूस के रिश्ते बहुत तल्ख चल रहे थे। उधर रूस ने तय
किया है कि सीरिया की असद सरकार की मदद के लिए वह हमेमिम एयर बेस पर अपनी एस–400 एंटी एयर क्राफ्ट मिसाइल तैनात
करेगा। यह कदम रूस ने तुर्की के उस हमले के जवाब में उठाया, जिसमें तुर्की ने रूस के एसयू–24 लड़ाकू बमवर्षक विमान को मार गिराया
था। इसके चलते रूस और तुर्की की सीमा पर नागरिकों का आवागमन रुक गया है। इस इलाके
में रूसी विमान का मार गिराया जाना एक गहरे संकट का संकेत दे रहा है। वह भी ऐसे
समय जब पेरिस पर आतंकी हमले के बाद कई देशों ने आईएसआईएस के खिलाफ कार्रवाई की बात
कही हो, जबकि
रूस पहले से ही आईएसआईएस के विरुद्ध सीरिया की असद सरकार की मदद कर रहा है। तुर्की
का यह आरोप भी गले नहीं उतरता कि रूसी विमान उसके हवाई क्षेत्र का अतिक्रमण कर रहा
था, इसलिए
मार गिराया गया। हवाई क्षेत्र का अतिक्रमण कोई अपवाद नहीं है। तुर्की के विमान खुद
कई देशों के हवाई क्षेत्र में अवैध प्रवेश करते रहते हैं। आसमान में खेतों की तरह
मेड़बन्दी तो होती नहीं, विमान एक–दो किलोमीटर अन्दर भटक सकता है। तुर्की ने बिना चेतावनी दिये रूसी
विमान को मार गिराया, जाहिर है कि वह आईएसआईएस के खिलाफ नहीं बल्कि सीरिया की असद सरकार और
रूस के खिलाफ है। तुर्की वास्तव में अमरीका और ब्रिटेन के गठबन्धन में शामिल है जो
रूस और सीरिया के खिलाफ है। वह नाटो का भी सदस्य है। यही इस पूरे घटनाक्रम को
समझने का सूत्र है। अन्तरराष्ट्रीय दबाव के चलते तुर्की आईएसआईएस के खिलाफ
कार्रवाई के लिए राजी तो हो गया, लेकिन उसका असली निशाना सीरिया की सरकार है। पिछले साढ़े चार सालों से
सीरिया विद्रोहियों के लिए तुर्की एक सुरक्षा कवच जैसा है। वह सीरिया से लगनेवाली
अपनी सीमा को बन्द नहीं करता, जिसका फायदा उठाकर विद्रोही इस रास्ते का इस्तेमाल सीरियाई सैनिकों
से बचने के लिए करते हैं। तुर्की पर यह भी आरोप है कि वह आईएसआईएस को तेल की
आपूर्ति करता है और उसे धन जुटाने में मदद भी करता है। साथ ही, उसके विमानों ने विरोधियों के ऊपर बम
नहीं बरसाये बल्कि उन कुर्द लड़ाकों को निशाना बनाया जो सीरिया में आईएसआईएस के
खिलाफ लड़ रहे हैं।
पश्चिमी मीडिया की खबरों के अनुसार इस
साल आईएसआईएस ने मिस्र, लीबिया, यमन, ट्यूनीशिया, तुर्की, लेबनान और फ्रांस में कुल मिलाकर 16 हमले किये हैं, जिनमें 900 से अधिक लोगों की जानें जा
चुकी है। मीडिया ऐसी खबरें भी उछाल रहा है जिसमें रूस, फ्रांस, अमरीका और ब्रिटेन आईएसआईएस के ठिकानों
पर विमानों से बमबारी करके उसे नष्ट करने में जुट गये हैं। आईएसआईएस आतंकवादियों
को मिटाने के नाम पर सीरिया पर हवाई हमले करना एक कायराना कार्रवाई है। ये
साम्राज्यवादी देश बहुत ही शातिर हैं। वे चाहते हैं– चित भी मेरी, पट भी मेरी। आईएसआईएस पर कार्रवाई के
नाम पर सीरिया के नागरिकों को निशाना बनाया जा रहा है। ऊपर आसमान में हवाई जहाज या
हेलीकोप्टर में उड़ते हुए आप कैसे पहचानेंगे कि कौन आतंकी है और कौन आम नागरिक? क्या आतंकी खुलेआम अपने ऊपर नेमप्लेट
चिपकाकर घूमेंगे ताकि ब्रिटेन के लड़ाकू विमान उन्हें निशाना बनायें? यह बात भी हजम नहीं होती कि विमान
आतंकवादियों के ठिकानों को तबाह कर रहे हैं। दरअसल उनका मकसद यह है भी नहीं। इस
इलाके में अमरीका और ब्रिटेन के मंसूबे हम तभी समझ सकते हैं जब हमें उस इलाके में
भौगोलिक ध्रुवीकरण की सही जानकारी हो। आईएसआईएस सीरिया को तोड़ने का काम कर रहा है।
यह अमरीका का प्रोजेक्ट है। सीरिया एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है जहाँ सबको अपने मत, विचार, धर्म और संस्कृति मानने की आजादी है, राष्ट्र को बहुसंख्यक लोगों के धर्म के
हिसाब से चलाना, अल्पसंख्यकों
पर हमले करना और उपद्रवियों–आतंकवादियों के हाथों में हथियार देने से सीरिया टूटेगा ही और अमरीकी
सरकार यही चाहती है। इसके लिए वह लम्बे समय से प्रयास भी कर रही है। संविधान का
खुलेआम अपमान करना, आईएसआईएस की खास रणनीति है। फ्रांस में हमले के बाद इनकी असलियत
दुनिया के सामने आ गयी है। यह भी किसी से छुपा नहीं है कि आईएसआईएस को अमरीका और
ब्रिटेन ने ही खड़ा किया है और उसके ऊपर सउदी, कतर, बहरीन और तुर्की के हाथ हैं। वे समझते
हैं कि सीरिया के टुकड़े करने के बाद ये इरान को झुका सकेंगे। इसी रणनीति को लेकर
वे पूरे इलाके में काम कर रहे हैं।
साम्राज्यवादी देशों की मीडिया ने
मध्यपूर्व एशिया की स्थिति को नरक की तरह और साम्राज्यवादी देशों की स्थिति को
स्वर्ग जैसा चित्रित किया है। इसने दुनिया के शिक्षित वर्ग में एक ऐसी चेतना का
निर्माण किया है, जिसमें पाप और पुण्य की पौराणिक अवधारणा काम करती है। मध्यपूर्व के
निवासी जन्मजात आतंकवादी या पापी नजर आते हैं जो समय–समय पर स्वर्ग के ऊपर धावा बोलते रहते
हैं। स्वर्ग के देवताओं को यह ईश्वरीय अधिकार है कि वे अपने कुछ नागरिकों की हत्या
की सजा नरक के लाखों निवासियों को दें। यही है सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में
न्याय की अवधारणा जो कबीलाई युग के ‘खून के बदले खून’ की अवधारणा से कहीं अधिक जघन्य और
धूर्ततापूर्ण है। अफगानिस्तान और इराक में लाखों बेगुनाहों का खून बहानेवाले
साम्राज्यवादियों की रक्त पिपाशा शान्त नहीं हुई। वे यमन और लीबिया के बाद अब
सीरिया को तबाह करना चाहते हैं। इन देशों में आसमान से जितने अधिक बम बरसाये जाते
हैं, शेयर
बाजार उतना ही अधिक छलांग लगाता है। मानो शेयर बाजार में कारोबारी नहीं मौत के
सौदागर दाँव लगाते हैं।
मध्यपूर्व के संकट ने वहाँ के
निवासियों को पलायन के लिए विवश कर दिया है। दर–दर भटकते हुए लाखों शरणार्थी यूरोप
पहुँच रहे हैं। रोज पाँच हजार से अधिक लोगों के आने से यूरोप में एक नया संकट पैदा
हो गया है। केवल आस्ट्रिया में अब तक पाँच लाख लोग शरण ले चुके हैं। जिनमें से
केवल 70 हजार लोगों ने आवास और सहारे के लिए सरकार के पास आवेदन किया है। यूरोपीय
देशों के लिए समस्या खड़ी हो गयी है कि वे क्या करें? लोगों के रहने–खाने का कैसे प्रबन्ध करें? कुछ राजनेता शरणार्थियों को वापस भेज
देने पर आमादा हैं। ऐसे कई सवाल सत्ता के गलियारों में बहस का मुद्दा बन गये हैं।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के इस सबसे
बड़े शरणार्थी संकट के पीछे मध्यपूर्व एशिया में अमरीका द्वारा थोपा गया युद्ध
जिम्मेदार है। आज अमरीका एक ओर सीरिया में असद की सरकार के खिलाफ लड़ रहा है तो
दूसरी ओर इराक में असद विरोधी आईएसआईएस के खिलाफ लड़ने का नाटक कर रहा है। इस संकट
की शुरुआत 1991 में खाड़ी युद्ध से हुई थी। सद्दाम हुसैन इस इलाके में अमरीका का
लठैत था। उसने अमरीका की इच्छा के विरुद्ध जाते हुए कुवैत पर कब्जा कर लिया
क्योंकि अमरीकी तेल कम्पनियाँ कुवैत से इराकी तेल चुराया करती थी। जवाब में अमरीका
ने इराक पर हमला कर दिया। अमरीका बहुत पहले से मध्यपूर्व के तेल क्षेत्रों पर नजरे
गड़ाये बैठा था। उसे मनचाहा अवसर मिल गया। दूसरी ओर उसका सबसे बड़ा प्रतिद्वन्द्वी
सोवियत रूस टूटकर बिखर गया था। इससे अमरीका बेलगाम हो गया और विश्व की राजनीति में
अपना दबदबा कायम करने के लिए उसने खाड़ी युद्ध शुरू कर दिया। इस युद्ध के चलते इराक
में हजारों लोग मारे गये और उससे कहीं अधिक लोग आर्थिक नाकेबन्दी के चलते बीमार
हुए और मारे गये। इसके लिए अमरीका के ऊपर अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय में युद्ध
अपराधी का मुकदमा चलाया जाना चाहिए था।
एक ध्रुवीय विश्व और अपनी चैधराहट का
फायदा उठाते हुए अमरीका ने आणविक हथियारों की जाँच के लिए अपने विशेषज्ञों को बार–बार इराक भेजा और जब उसे विश्वास हो
गया कि इराक के पास आणविक हथियार नहीं हैं तो उस पर चैतरफा हमला कर दिया। इस तरह
उसने इराक को तबाह कर डाला। इसके बाद उसने अफगनिस्तान और लीबिया को भी रौंद दिया।
इस काम में अन्य साम्राजवादी देश भी अमरीका के साथ थे लेकिन तेल की लूट का उनका
मंसूबा पूरा नहीं हुआ। इराक और अफगानिस्तान की जनता ने अमरीकी घुसपैठ के खिलाफ
बहादुराना संघर्ष किया। इससे अमरीका की हिम्मत पस्त हो गयी और उसे हारकर वहाँ से
भागना पड़ा।
हार से सबक लेते हुए अमरीका ने सीरिया
पर सीधे हमला करने के बजाय सरकार के विरोधियों को हथियार उपलब्ध करवाये, क्योंकि सीरिया की असद सरकार
साम्राज्यवाद विरोधी और धर्मनिरपेक्ष है और इस इलाके में अमरीका की राह का सबसे
बड़ा रोड़ा है। सरकार विरोधियों में शामिल आईएसआईएस गुट ने अमरीकी मदद से अपनी सत्ता
का सुदृढ़ीकरण किया और सीरिया व इराक के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया। वह इन देशों
की स्थिरता के लिए खतरा बन गया है। लेकिन सीरियाई सरकार को झुकाने के लिए
साम्राज्यवादी देशों द्वारा लगायी गयी आर्थिक नाकेबन्दी सीरिया की जनता की दु:ख और
तकलीफें बढ़ायेगी। यह कदम कूटनीतिक चाल नहीं बल्कि इनसानियत के खिलाफ जघन्य अपराध
है। अमरीका ने सीरिया के ऊपर हवाई हमले तेज करने का संकल्प दुहराया है। उसका
निशाना आईएसआईएस नहीं है बल्कि सीरिया की सरकार और देश में शान्ति बहाल करनेवाली
सरकार समर्थक जनता है। वह जमीनी हमला करने से डरता है। उसे इराक और अफगानिस्तान
में मिली शर्मनाक हार का भूत सता रहा है। मध्यपूर्व में अमरीकी रणनीति पूरी तरह
असफल हो गयी है और उसे अपनी इज्जत बचाना भारी पड़ रहा है। बिडम्बना यह है कि उसने
जिस भस्मासुर को पैदा किया था वह अब खुद उसी को भस्म करने की ओर बढ़ने लगा है।
जब तक साम्राज्यवाद रहेगा और उसके मानवद्रोही मंसूबों
के चलते ऐसे भस्मासुर पैदा होते रहेंगे, तब तक
दुनिया की जनता शान्ति से नहीं रह सकती। जो आग मध्यपूर्व में धधक रही है, उसकी लपटों से साम्राज्यवादियों का नंदन–कानन भी सुरक्षित नहीं रह पायेगा।
–विक्रम प्रताप
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