ओएनजीसी ने 15 मई 2014 को दिल्ली उच्च
न्यायलय में रिलायंस इण्डस्ट्रीज लिमिटेड पर अपने ब्लॉक से 30 हजार करोड़ रुपये की
गैस चोरी का मुकदमा दर्ज कराया था।
पेट्रोलियम मंत्रालय के तहत आने वाले
डायरेक्टोरेट जनरल ऑफ हाइड्रोकार्बन्स (डीजीएच) ने इस आरोप की जाँच का ठेका दुनिया
की जानीमानी सलाहकार कम्पनी डिगॉलियर एण्ड मैकनॉटन (डीएण्डएम) को दिया था। उसने
इसी महीने, 1 दिसम्बर को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट के मुताबिक
ओएनजीसी के कृष्णा–गोदावरी (केजी बेसिन) में स्थित गैस
ब्लॉक से 11–12 अरब घन मीटर गैस रिसकर रिलायंस
इण्डस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) के ब्लॉक में चली गयी। इसकी कीमत आज के बाजार भाव के
हिसाब से 11,055 करोड़ रुपये बैठती है।
रिलायन्स और ओएनजीसी के बीच विवाद पर
अपनी रिपोर्ट में डीएण्डएम ने इस मामले को सुलझाने के बजाय और ज्यादा उलझा दिया।
इस रिपोर्ट के आधार पर रिलायंस के ऊपर 30,000 करोड़ रुपये की गैस चोरी का आरोप
लगानेवाली ओएनजीसी और चोरी के आरोप को पूरी तरह नकारनेवाली रिलायंस में से कौन सही
है और कौन गलत, यह तय कर पाना कठिन है। डीएण्डएम ने
अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा है कि अब ओएनजीसी का अपने ब्लॉकों से गैस निकालना
व्यावहारिक नहीं है, क्योंकि इन ब्लॉकों से आज तक गैस
निकालने का काम नहीं हुआ। इससे बेहतर यही है कि इन ब्लॉकों में बची गैस को रिलायंस से ही निकलवा लिया जाय
जो इस काम में माहिर है। (यह चोर को सरदारी सौंपने जैसी बात नहीं हो गयी!)
सरकार ने केजी बेसिन में गैस निकालने
के लिए निजी क्षेत्र की रिलायंस इण्डस्ट्रीज और सरकारी क्षेत्र की कम्पनी तेल एवं
प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) को ब्लॉक आवंटित किये थे। आरआईएल के प्रधान मुकेश
अम्बानी का पिछली सभी सरकारों पर कितना प्रबल प्रभाव था, यह बात जगजाहिर है। यह बात मीडिया की
सुर्खियों में आती रही है कि जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तो उस दौरान मुकेश
अम्बानी की मर्जी से पेट्रोलियम मंत्री हटाये और बहाल किये जाते थे। जाहिर है कि
पेट्रोलियम और गैस के क्षेत्र में रिलायंस का इजारा काफी पुराना है।
रिलायंस और ओएनजीसी के बीच गैस चोरी को
लेकर विवाद की थोड़ी–थोड़ी भनक तो 2013 में ही मिलने लगी थी, जो 15 मई, 2014 को सतह पर आ गयी। यह खुलासा एक
महत्त्वपूर्ण दिन और तारीख को हुआ क्योंकि तब 2014 का लोकसभा चुनाव पूरा हो गया था
और अगले दिन 16 मई को उसका परिणाम आनेवाला था।
बहरहाल, ओएनजीसी ने 15 मई, 2014
को दिल्ली उच्च न्यायालय में एक मुकदमा दायर किया जिसमें यह आरोप लगाया कि रिलायंस
इंडस्ट्रीज ने उसके गैस ब्लॉक से हजारों करोड़ रुपये की गैस चोरी की है। ओएनजीसी का
कहना था कि आरआईएल ने जानबूझकर दोनों ब्लॉकों की सीमा के बिलकुल करीब से गैस
निकाली, जिसके चलते ओएनजीसी के ब्लॉक की गैस
आरआईएल के ब्लॉक में आ गयी।
ओएनजीसी ने मुकदमा दायर करने के लिए यह
तारीख शायद इसीलिए तय की थी कि तब सरकार पर किसी भी पार्टी की पकड़ मजबूत नहीं थी
और इसके चलते उस पर राजनीतिक दबाव बनाये जाने की सम्भावना काम थी। ओएनजीसी ने
आरआईएल पर अपने जिस ब्लॉक से गैस चुराने का आरोप लगाया वह मुकेश अम्बानी की कम्पनी
के कृष्णा गोदावरी बेसिन स्थित केजी–डी6
ब्लॉक से सटा हुआ है। ओएनजीसी के चेयरमैन डी– के– सर्राफ ने 20 मई को अपने बयान में कहा
कि ओएनजीसी ने रिलायंस इंडस्ट्रीज के खिलाफ जो मुकदमा दायर किया है, उसका मकसद अपने व्यावसायिक हितों की
सुरक्षा करना है। क्योंकि रिलायंस की चोरी के चलते उसे लगभग 30,000 करोड़ रुपये का
नुकसान हुआ है।
16 मई को राजनीतिक हवा का रुख बदलते ही, रिलायंस का पलड़ा भारी हो गया। मुकदमा
दायर किये जाने के हफ्ते भर बाद, यानी
23 मई, 2014 को एक बयान में रिलायंस
इंडस्ट्रीज ने कहा कि ‘हम जी4 और केजी–डीडब्ल्यूएन–98–2
ब्लॉक से कथित तौर पर गैस की ‘चोरी’ के दावे का खण्डन करते हैं। सम्भवत: यह
इस वजह से हुआ कि ओएनजीसी के ही कुछ तत्त्वों ने नये चेयरमैन और प्रबन्ध निदेशक
सर्राफ को गुमराह किया जिससे वे इन ब्लॉकों का विकास न कर पाने की अपनी विफलता को
छुपा सकें।’ हालाँकि, रिलायंस इंडस्ट्रीज ने अपने बयान में यह नहीं बताया कि सर्राफ को गलत
जानकारी देने वाले कौन थे।
23 मई को रिलायंस, ओएनजीसी और पेट्रोलियम मंत्रालय के
अधिकारियों की एक बैठक हुई और सबने मिलकर इस मामले के अध्ययन के लिए एक समिति
बनाने का निर्णय लिया। मजेदार बात यह कि 15 मई को दायर किये गये मुकदमे में
ओएनजीसी ने रिलायंस पर तो चोरी का आरोप लगाया ही था, उसने सरकार को भी आड़े हाथों लिया था। ओएनजीसी का कहना था कि डीजीएच
और पेट्रोलियम मंत्रालय द्वारा निगरानी नहीं किये जाने के कारण ही रिलायंस ने यह
चोरी की। बिडम्बना यह कि ओएनजीसी ने जिन दो पक्षों पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से
चोरी का इल्जाम लगाया, उन्हें ही उस विवाद का निबटारा करने के
लिए बनी समिति में शामिल कर लिया गया, यानी
वादी–प्रतिवादी मिल–बैठकर आपस में सुलट लें, जैसा गाँव के झगड़ों में हम आये दिन
देखते हैं। उस समिति ने मामले की जाँच के लिए जिस विदेशी कम्पनी को ठेका दिया, उसने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि
ओएनजीसी के ब्लॉक से आरआईएल के ब्लॉक में सिर्फ 11,000 करोड़ रुपये की गैस गयी है।
दूसरे, उसने यह सलाह भी दे डाली कि इन ब्लॉकों
में बची गैस को रिलायंस से ही निकलवा लिया जाय जो इस काम को करने में माहिर है। इस
मामले का निबटारा कैसे होना है, इसका
अनुमान लगाने के लिए रिपोर्ट के ये मजमून काफी हैं।
मोदी की नयी सरकार ही नहीं, मनमोहन सरकार के पेट्रोलियम मंत्री
वीरप्पा मोइली भी रिलायंस पर मुकदमे के चलते ओएनजीसी से खफा थे। मोदी सरकार बनने से
ठीक चार दिन पहले 22 मई 2014 को, जब
उनके भाग्य का फैसला हो चुका था और उनका जाना तय हो गया था, मोइली ने पेट्रोलियम सचिव सौरभ चन्द्रा
को लिखे एक पत्र में अपने मनोभावों का इजहार किया, “यह एक बेहद गम्भीर मामला है जिसमें एक सरकारी कम्पनी अपने सबसे बड़े
हिस्सेदार यानी भारत सरकार और अपने नियंत्रक यानी डीजीएच के खिलाफ अदालत चली गयी
है।” मोइली ने अपने पत्र में इस बात की जाँच
पर बल दिया कि क्या ओएनजीसी ऐसे किसी मामले को अदालत में ले जाने के लिए स्वतंत्र
है। इसके अलावा उन्होंने उन अधिकारियों पर कार्रवाई की बात भी की जिनकी कथित
लापरवाही की वजह से यह मामला इस स्तर तक पहुँच गया।
सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी ओएनजीसी
से कहीं ज्यादा निजी क्षेत्र की कम्पनी रिलायंस की चिन्ता “इस” सरकार
को तो है ही, “उस” सरकार
को भी कम नहीं थी। जाहिर है कि सरकार चाहे किसी भी पार्टी या गठबन्धन की हो, उनके असली मालिक, सरमायादारों के मुनाफे पर कोई आँच नहीं
आनेवाली। चाहे वह मुनाफा चोरी से कमाया गया हो, या
सीना जोरी से। इसे ही कुछ अर्थशास्त्री याराना पूँजीवाद कहते हैं। वैसे इसे मौसेरे
भाई पूँजीवाद कहना भी गलत नहीं।
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