साहित्य में
नोबेल पुरस्कार पाये त्रिनिदाद एण्ड टोबैगो के भारतीय मूल के साहित्यकार वी.एस.
नायपॉल के बारे में कवि डेरिक वालकॉट की एक कविता की ये दो प्रथम पंक्तियाँ हैं।
स्वदेशी, स्वावलम्बन और स्वाभिमानियों के महानायक
अटल बिहारी वाजपेयी जब एक बार रूस गये तो पुतिन की मेहरबानी से उन्हें जार्जबुश के
बगल में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और उन्हें ज्ञात हुआ कि बुश शराब नहीं पानी
पीता है।’’ इस जानकारी
से और बुश के बगल में बैठने के विशेषाध्किार से वे पफूले नहीं समाये और इस बात का
इस तरह बखान किया, मानो यह कोई
महान वैज्ञानिक खोज हो।
हमारे युवा
प्रधनमन्त्री राजीव गाँधी फ्रांसीसी क्रान्ति की 200वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष में फ्रांस गये
थे। इस अवसर पर दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्ष और नेता आमन्त्रिात थे। लेकिन फ्रांस के राष्ट्रपति के साथ सेरीमोनियल डिनर के लिए केवल सात विकसित पूँजीवादी
राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्षों को बुलाया गया। बाकी को बाहर ही दावत दे दी गयी।
लेकिन राजीव गाँधी को इसमें कोई शर्म नहीं आयी क्योंकि हम ‘ट्रिकिल डाउन थ्यौरी’ में विश्वास करते हैं और उच्छिष्ट पाकर
अपने को और भी ध्न्य समझते हैं।
हाल ही में
हैदराबाद में आयोजित आप्रवासी भारतीयों के सम्मेलन में अमरीका के एक गुजराती
आप्रवासी भारतीय को पुरस्कृत किया गया। नरेन्द्र मोदी की अमरीका जाने की
घोषणा के बाद वहाँ उसके स्वागत के लिए भीड़ जुटाने में वह अगुवा था। यह अलग बात है
कि अमरीकी वीजा नहीं मिलने से मोदी जा नहीं पाया। जब अन्य आप्रवासी भारतीयों ने उस
व्यक्ति को पुरस्कार दिये जाने का विरोध् किया तो पुलिस ने उन्हें गिरफ्रतार करके
एक कमरे में बन्द कर दिया। सरकार को उम्मीद है कि वह आदमी भारत के लिए पूँजी
जुटाने में सहायक होगा। एक जनसंहारक का समर्थक होना कोई बहुत बड़ा दुर्गुण नहीं, बशर्ते वह पूँजी निर्माण में मददगार हो।
सुष्मिता
सेन और ऐश्वर्य राय विश्व सुन्दरी बनने के बाद 10 घोड़ों की बग्घी पर बैठकर दिल्ली की
सड़कों से गुजरती हुईं राष्ट्रपति से मिलने गयीं और राष्ट्रपति भवन में उनका
जोरदार स्वागत हुआ। इनकी एकमात्र महत्वाकांक्षा फिल्मों में काम करके ध्न कमाना और
सस्ती शोहरत लूटना थी।
अमरीकी
नागरिक कल्पना चावला के मरने की खबर पूरे देश में इस तरह प्रचारित की गयी, मानो पूरा देश शोकाकुल हो। हम लक्ष्मी
मित्तलों और स्वराजपालों की प्रशंसा में दरबारी चारणों और भाटों की तरह गीत गाते
हैं।
हॉलीवुड की
तर्ज पर मुम्बई की फिल्मनगरी का नाम बॉलीवुड रख लिया गया। यहाँ के सिनेमा में काम
करने वाले हर कलाकार की एक ही तमन्ना है कि किसी तरह वह हालीवुड की किसी फिल्म में
काम कर ले तो उसका जीवन ध्न्य हो जाय।
कला के नाम
पर हाथ-पाँव और कूल्हे मटकाने वाले लोग भारत की नौजवान पीढ़ी के हीरो बने हुए हैं।
मल्लिका शेरावतों का निर्लज्ज नग्न प्रदर्शन लोगों के लिए आदर्श बनता जा रहा है जो
हरियाणा की औरतों के बारे में कहती है कि उन्हें घेर (जानवरों को बाँध्ने के लिए
बाड़ा) में रखा जाता है।
साध्ु-सन्यासी
और मठाधीश भी जब तक अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान आदि नहीं घूमते रहते, तब तक उन्हें बेवकूफ ही समझा जाता है, जब तक गोरे उनके आश्रमों की शोभा न
बढ़ायें, तब तक उनका
त्याग और तपस्या फलीभूत नहीं होती। यहाँ तक कि गाय के खुर के बराबर चोटी रखने वाले
भारतीय परम्परा के रक्षक भी किसी जर्मन विद्वान को उद्ध्ृत करते हैं कि उसने चोटी
रखने के कितने फायदे गिनाये हैं।
सलमान
रुश्दी, विक्रम सेठ, अमिताभ घोष, जुम्पा लाहिड़ी जैसे लोग अखबारों में
छाये रहते हैं और भारतीय शिक्षित वर्ग के पढ़े जाने लायक समझे जाते हैं जबकि
हिन्दी, बंग्ला, तमिल, मलयाली और अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने
वाले लेखक उपेक्षित और अस्पृश्य हैं। पढ़े-लिखे लोगों की भाषा हिन्दी से हिंगलिश
होती जा रही है। उन्हें हिन्दी नहीं जानने का कोई अफसोस नहीं, किसी भी तरह अंग्रेजी आनी चाहिए। शायद ही
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का नाम आज की पीढ़ियों को पता हो जिन्होंने कहा था, ‘‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।’’ आजादी की लड़ाई को अपनी कलम से लड़ने
वाले भारतीय भाषाओं के लेखक आज कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की कक्षाओं में कैद
होकर रह गये हैं।
अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी इत्यादि देशों में भारतीय बच्चों
को उनकी मातृभाष के हिसाब से पंजाबी, गुजराती, तमिल आदि में शिक्षा दी जाती है लेकिन
हमारे यहाँ पैदा होने के साथ ही उन्हें अंग्रेजी की घुट्टी पिलायी जाती है। हमारे
मध्यमवर्ग के शिक्षित नौजवान साइबर कुली’ बनकर अपना जीवन ध्न्य समझते हैं। विदेशी
थैलीशाहों और आप्रवासी भारतीय पूँजीपतियों को आये दिन पुरस्कारों से नवाजा जाता
है।
पिछले 30-35 सालों से देशी-विदेशी प्रचारतन्त्र
(प्रिण्ट और इलेक्ट्रानिक मीडिया) लगातार घृणास्पद, प्रतिक्रियावादी जीवन मूल्यों को स्थापित
करने में लगा है। जनता के किसी भी हिस्से और किसी भी तबके का आदमी मंच से बाहर
ध्केल दिया गया है, आज हाशिये
पर भी उसके लिए जगह नहीं है। डॉन, माफिया, स्मगलर, राजनीतिक अपराधी और न्यूयार्क तक के माफियाओं और गुण्डा
गिरोहों को हमारे देश में मंच पर प्रतिष्ठित किया जा चुका है। ये डॉन और माफिया ही
आज हीरो के तौर पर स्थापित हैं।
कल के
सम्मानित समाचारपत्र भी हॉलीवुड की हीरोइन की छोटी सी छोटी बातें अपने अखबार में
छापते रहते हैं, जैसे-किसको
बच्चा होने वाला है, किसकी टाँग
टूटी है, किसने वजन
बढ़ा लिया है और किसने घटा दिया है, मानो भारतीय जनता के लिए यह सब जानना
बहुत जरूरी हो। निश्चित तौर पर या तो ऐसी रुचियाँ पैदा की जा चुकी हैं या पैदा
करने के प्रयास हो रहे हैं। इस प्रयास में वे सफल भी होते दिखायी दे रहे हैं।
तर्कपरकता और इन्साफ की बहुत क्षीण सी आवाज भी कभी-कभार ही सुनायी देती है। लेकिन
उसका गला घोंटने के लिए भी पूँजीवादी-साम्राज्यवादी प्रचारतन्त्र निरन्तर विषवमन
करता रहता है। सच, इन्साफ, तर्कपरकता, वैज्ञानिकता और प्रगतिशील जीवन-मूल्यों
पर सुनियोजित और निरन्तर हमले जारी हैं।
भारत के
सांस्कृतिक परिदृश्य का यह एक हिस्सा भर है। इसके दूसरे हिस्से के रूप में भारतीय
सांस्कृतिक परम्परा के नाम पर सतीप्रथा, अन्ध्विश्वास, कुरीतियों, फलित ज्योतिष, वास्तुशास्त्रा और जितनी भी तरह का
प्राचीन और मध्ययुगीन कूड़ा-कचरा है, सबमें रंग-रोगन लगाकर लोगों के उपभोग के
लिए पेश किया जा रहा है। पुराने आश्रमों, मठों और डेरों के साथ-साथ हजारों की
संख्या में नये आश्रम, मठ और डेरे
पैदा हो रहे हैं। इनका एक मात्र काम दिशाहीन, निराश, जीवन में कलह और वंचना से परेशान लोगों
को एक झूठा यूटोपिया (आदर्शलोक), सपना या विकल्प दिखाकर लूटना और उनकी चेतना को कुण्ठित करना है। र्ध्म की
जगह धर्मिकता ले चुकी है और ठगों की चाँदी है।
आये दिन
समाचारों में आता रहता है कि शरीफ घरों की लड़कियाँ, मसलन एक जनरल की बेटी, एक बड़े व्यापारी की बहन या एक नौकरशाह
की भतीजी कॉलगर्ल या अश्लील वीडियो फिल्म बनाने के ध्न्ध्े में पकड़ी गयीऋ 65-70 साल के बूढ़े तीन और पाँच साल की बच्चियों
से बलात्कार करते पकड़े गयेऋ कोई लड़का अपनी दोस्त लड़की को बहला-पफुसला कर ले गया
और उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गयाऋ राजनीतिक पार्टियों के प्रतिष्ठित नेता, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज, बड़े नौकरशाह, व्यापारी और प्रबन्ध्क सामान्य आपराध्कि
मामलों में लिप्त पाये गये। आज ऐसे लोग भी अपराधें में लिप्त दिखायी दे रहे हैं
जिनके बारे में पहले कभी कल्पना करना भी मुश्किल था। खुदा उनका भला करे और उन्हें
शान्ति दे।
स्वर्गीय
पी.वी. नरसिम्हाराव जब भारत के प्रधनमन्त्री थे तो उन्होंने घूस देकर संसद में
बहुमत हासिल करने का प्रयास किया। वे एक लब्ध्प्रतिष्ठ विद्वान और प्रतिष्ठित नेता
थे। अभी हाल ही में क्वात्रोची को नये साल पर 24 करोड़ रुपये का तोहफा दिया गया। यह
बोपफोर्स काण्ड का कुख्यात अपराधी तथा सोनिया, राजीव और इन्दिरा परिवार का खासमखास रहा
है। उसके खाते से पाबन्दी हटा दी गयी। भारत के ईमानदार प्रधनमन्त्री मनमोहन सिंह
और मन्त्रिामण्डल के सभी सदस्य एक स्वर में झूठ बोलकर सच्चाई को छिपाने में लगे
हैं। इसमें कोई शक नहीं कि मनमोहन सिंह ईमानदार आदमी हैं और जहाँ तक व्यक्तिगत
ईमानदारी का प्रश्न है, उनका अतीत
बिल्कुल पाक-साफ है लेकिन क्वात्रोची, सोनिया और मन्त्रिामण्डल को बचाने के लिए
उन्हें अपने जमीर को ताक पर रखकर झूठ बोलना पड़ा है।
भारत की
ज्यादातर विधनसभाएँ और संसद अपराधियों से भरी पड़ी हैं। किसी जमाने में गृह सचिव
रहे बोहरा की रिपोर्ट में राजनीतिज्ञों, व्यापारी, नौकरशाह और अपराधियों के गठजोड़ का
खुलासा किया गया है लेकिन आज तक यह रिपोर्ट न तो संसद में पेश की गयी और न ही जनता
के सामने, हालाँकि
तबसे कई सरकारें आयीं और गयीं।
भारत के इस
सांस्कृतिक परिदृश्य के लक्षणों को गिनाने के लिए कई खण्डों की पुस्तक भी कम पड़
जायेगी।
यह सब कुछ
दुखद, क्षोभकारी
और अवसादपूर्ण है। सभी इससे दुखी हैं। कम से कम 99% लोग तो अवश्य ही बहुत परेशान हैं। कोई
नहीं चाहता कि ऐसा हो, वे लोग भी
नहीं जो झूठ बोलने और गलत काम करने के लिए बाध्य कर दिये जाते हैं। इनमें मनमोहन
सिंह, नरसिम्हाराव
और वेंकटरमण जैसे प्रतिष्ठित लोग और बहुत सारे अन्जान लोग भी आते हैं।
लाखों-करोड़ों साधरण जनता और वे लोग भी जो अपराधों में शामिल हैं- सभी इस स्थिति
से क्षुब्ध् और दुखी दिखायी देते हैं।
अगर बात महज
इतनी ही होती तो फिर भी कोई बात थी। सबसे दुखद बात तो यह है
कि सभी अपने को असहाय भी महसूस करते हैं। वे सोचते हैं कि इसका कोई निदान सम्भव
नहीं। चन्द-एक ऐसे लोग जो कुछ करने के बारे में सोचते हैं या तो उन्हें सत्येन्द्र
दुबे की तरह हमेशा के लिए रास्ते से हटा दिया जाता है या उनकी आवाज का गला घोंट
दिया जाता है, कुछ को
आतंकित करके चुप कर दिया जाता है। अन्ततः लोग असहाय और लाचार महसूस करते हैं।
यह जरूर है
कि थोड़े से लोग इसकी तह में काम कर रही आर्थिक और सामाजिक ताकतों को काफी हद तक
पहचानते हैं और इस स्थिति को बदलने का भी प्रयास कर रहे हैं लेकिन फिलहाल वे लघुसंख्यक हैं।
नीचे की
पंक्तियों में इस परिस्थिति की तह में काम कर रही आर्थिक और सामाजिक शक्तियों को
चिह्नित करने और उन्हें समझने का प्रयास किया जायेगा। कहते हैं कि किसी समस्या को
समझ लेना, उसका आध
समाधन भी होता है। लेकिन अगर आध समाधन न भी हो तो भी समस्या को समझकर उसके समाधन
की दिशा में अग्रसर तो हुआ ही जा सकता है।
लोग कहते
हैं कि कृष्ण को बहेलियों ने मारा था, जंगल के आदिवासी भीलों ने अर्जुन से उसका
गाण्डीव छीन लिया था। इस लोकमत में कितनी सच्चाई है पता नहीं, लेकिन इस तथ्य के जरिए लोग जो सन्देश
देना चाहते हैं, वह बिल्कुल
सच है। वे बताना चाहते हैं कि जमाना सबसे ताकतवर होता है, इससे बड़ी कोई ताकत नहीं।
महाभारत के
युद्ध को कृष्ण अपनी पूरी ताकत लगाकर भी नहीं रोक सके। इतिहासकारों का मानना है कि
महाभारत का युद्ध जमीन के लिए हुआ था। चरागाह युग खत्म हो गया था और खेती-बाड़ी की
व्यवस्था स्थापित होने लगी थी। लोगों की भाषा में कहें तो जमाना बदल गया था।
चरागाह युग की सामाजिक-आर्थिक शक्तियाँ तिरोहित हो रही थीं और भूमि के मालिकाने पर
आधारित सामाजिक-आर्थिक शक्तियाँ पल्लवित और पुष्पित होने लगी थीं, फलस्वरूप महाभारत का युद्ध।
भारत के एक
मशहूर चिन्तक ने लिखा है कि इस्लाम जब भारत की सीमाओं पर दस्तक दे रहा था, तो भारत औंधे मुँह पड़ा था। यही बात ईस्ट
इण्डिया कम्पनी के आने के पहले के भारत की स्थिति के बारे में भी कही जा सकती है।
पिछली सदी
के ’80 के दशक में
स्थिति हू-ब-हू ऐसी तो नहीं पर उससे काफी मिलती-जुलती जरूर थी। नेहरू का पूँजीवाद
जो उस समय की राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय परिस्थिति में भारत के पूँजीपति वर्ग की
क्षमता की उपज था, ’80 के दशक तक
आते-आते दम तोड़ रहा था। ठीक ऐसे ही समय में घटनाचक्र बहुत तेजी से आगे बढ़ा। रूस
में गोर्वाचोव के उदय, बर्लिन की
दीवार के गिरने, येल्तसिन के
प्रादुर्भाव और रूसी गणराज्य के विघटन के साथ पूँजीवादी-साम्राज्यवादी
सामाजिक-आर्थिक शक्तियों को अपनी पूरी ताकत के साथ दुनिया में काम करने का मौका
मिला। साम्राज्यवाद ने अपनी नीतियाँ बदलींऋ समाजवाद से लड़ते हुए और तीसरी दुनिया
के मुक्तियुद्धों को झेलते हुए तथा एक शक्तिशाली समाजवादी खेमे की मौजूदगी के दौर
में- संक्षेप में तत्कालीन विश्व में वर्ग-शक्तियों के सन्तुलन के हिसाब से
निर्धरित अपनी पुरानी रणनीति का उसने परित्याग कर दिया और बदली हुई परिस्थितियों
में अपने अनुकूल वर्ग-शक्ति सन्तुलन के अनुरूप एक नयी नीति का अनुसरण कियाऋ वह
नये-नये नारे और नयी परिभाषाएँ गढ़ने लगा। विश्व पूँजीवाद और साम्राज्यवाद, जो एक चिरन्तन संकट का शिकार हो गया था
और उसकी पूँजी के विस्तार की सम्भावनाएँ क्षीण होने लगी थीं, अब पूर्व समाजवादी देशों और तीसरी दुनिया
के देशों में अपने हाथ-पाँव पसारने का सुअवसर देख रहा था, जहाँ पूँजी और पूँजीवाद के विस्तार के
लिए अभी भी काफी गुंजाइश थी।
साम्राज्यवाद
ने अपने चेहरे पर पड़े मानवीयता और प्रगतिशीलता के नकाब को उतार पफेंका और विश्व
रंगमंच पर निर्लज्ज और क्रूर नर्तन करने लगा।
उसने प्रगति
पर, तर्कपरकता पर, मजदूर वर्ग पर, मेहनतकश जनता पर और दुनिया की जनता के
समूचे हिस्से पर नंगा आक्रमण शुरू कर दिया और उसके आर्थिक-राजनीतिक अध्किारों को
एक-एक कर छीनने लगा। सुनियोजित तरीके से पुरानी और नयी, मध्ययुगीन और आध्ुनिक, साम्राज्यवादी और सामन्ती जीवनमूल्यों और
संस्कृति का जहरीला कॉकटेल बनाकर प्रचारित करने लगा ताकि लोगों की चेतना को कुन्द
किया जा सके, अफीम पिलाकर
उनके मस्तिष्क को संवेदना शून्य किया जा सके और अपने लूट, मुनापफे, आध्पित्य और वर्चस्व के लिए दुनिया में
एक ऐसे समाज की स्थापना की जा सके जहाँ पर प्रतिरोध् जैसी कोई चीज न हो, संघर्ष न हों, विरोधी आवाजें न हों और जनक्रान्तियों का हौवा
उसे न डरा सके।
इसके लिए
उसने इतिहास के अन्त की भी घोषणा कर दी। इसका मतलब यही था कि अब जो भी है, उसी के सहारो जीने की कोशिश करो, अब नया कुछ भी होने वाला नहीं, यही तुम्हारी नियति है। इसके लिए उसने
देशी-विदेशी सभी याज्ञवल्कों को यज्ञों में आमन्त्रिात किया, गोष्ठियाँ रचायीं, वाद-विवाद करवाये और उसका भाष्य करके
रंग-बिरंगे रूपों में नाना प्रकार से अपने प्रिण्ट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के
जरिये जनता में परोसने लगा।
उसका नारा
था- सब कुछ पूँजी के लिए, सब कुछ
पूँजी संचय के लिए, सब कुछ
बाजार के लिए और सब कुछ मुट्ठीभर देशी-विदेशी थैलीशाहों के लिए। मेहनतकशों के लिए
बस उतना ही, जितने से वे
अपनी दिनभर की थकान मिटाकर दूसरे दिन फिर काम में लग सकें और उसकी पूँजी और मुनाफा
बढ़ा सकें।
औरत पहले ही
उपभोग की वस्तु बनायी जा चुकी थी, अब वह दुनिया के बाजार में खरीदी-बेची जाने भी लगी। पूँजीवाद-साम्राज्यवाद
को इतने से ही संतोष नहीं हुआ। वह अब औरत की आँख अलग, बाँह अलग, स्तन, नाभि और जाँघें अलग-अलग करके
खरीदने-बेचने लगा है।
हॉलीवुड में
एक फिल्म बनी थी जिसमें एक माफिया पैसे के लिए अपनी सगी बहन के पति को मरवा देता है। जब
उसकी बहन ने उस माफिया सगे भाई से पूछा कि ‘‘क्या यह सच है कि तुमने मेरे पति को
मरवाया है?’’ तो उसने कहा, ‘‘यह बिल्कुल सच है।’’ फिर उसकी बहन ने पूछा कि ‘‘तुमने ऐसा क्यों किया?’’ तो उसका उत्तर था, ‘‘ऐसा मेरे ध्न के विस्तार के लिए जरूरी
था।’’ फिर बहन ने जब पूछा, ‘‘क्या पूँजी के विस्तार के लिए तुम मुझे
भी मरवा दोगे?’’ तो उसने
बिना उत्तेजित हुए बिल्कुल शान्त और संयत स्वर में कहा, ‘‘बेशक!’’
पूँजीवाद की
इस सामाजिक-आर्थिक ताकत की तार्किक परिणति और उसके अन्तिम निष्कर्ष को यह फिल्म
बहुत सशक्त रूप में प्रस्तुत करती है। ऐसे में अगर हमारे सम्मानित नेता बाजार में
अपना जमीर बेचें तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? हमारी बेटियाँ और बहनें बाजार में अपना
शरीर बेचें तो इसमें शर्म की क्या बात है। जब हमने इन सामाजिक-आर्थिक शक्तियों का
वरण किया है तो इनके स्वाभाविक परिणामों से कैसे बच सकते हैं।
लोग कहते
हैं कि कलियुग में पाप सोने में निवास करता है। परीक्षित के राजमुकुट में सोना था, उसको पहनने के बाद उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो
गयी और उसने एक ट्टषि के गले में मरा हुआ साँप डाल दिया जो उसके विनाश का कारण
बना। अगर हम इन दुखों से छुटकारा पाना चाहते हैं, तो इन सामाजिक-आर्थिक शक्तियों की जड़
खोदकर उसमें खौलता हुआ पानी डालना होगा ताकि फिर इसके अंकुर न पफूट सकें।
सोने को सर
पर रखने के बजाय, उसे शौचालय
में इस्तेमाल करना होगा ताकि बुद्धि को भ्रष्ट होने से बचाया जा सके। तभी हम इस
पफूहड़पने से, इन दुखों, विद्रूपताओं, वंचनाओं और विडम्बनाओं से मुक्ति पा सकते
हैं। यह एक लम्बी और कठिन लड़ाई है और एक लम्बे अर्से के बाद ही इसे जीता जा सकता
है। इसका कोई तात्कालिक और सस्ता समाधान सम्भव नहीं है।
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