शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

मजदूर वर्ग पर एक बड़े हमले की तैयारी


जनवरी माह में तमिलनाडु सिविल सप्लाईज निगम के एक कर्मचारी के मामले में सुनाये गये अपने एक नायाब फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने खुद अपने अधिकारों को सीमित करते हुए कहा कि अगर कोर्ट में कोई व्यक्ति निर्दोष भी साबित हो जाता है तो भी विभागीय जाँच और विभागीय अनुशासन समिति के फैसले को सुप्रीम कोर्ट बदल नहीं सकता। यानी कोर्ट में अपील सिर्फ यह तय करने के लिए होगी कि विभागीय जाँच सही तरीके से की गयी या नहीं, यह तय करने के लिए नहीं कि अनुशासन समिति का निर्णय सही था या गलत।

जाहिर है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट पूँजीपति वर्ग के हितों की खुलेआम वकालत कर रहे हैं जिनकी मेहरबानी से औद्योगिक विवाद अधिनियम में बदलाव के पहले ही पूँजीपतियों और मैनेजरों को मजदूरों से निपटने के औजार मिल गये हैं।

भारतीय शासक वर्ग देश के मजदूरों और मेहनतकश जनता के ऊपर एक बड़े हमले की तैयारी में हैं। देशी-विदेशी पूँजीपतियों से लेकर श्रम मंत्रालय और प्रधानमन्त्री तक सभी एक स्वर से मौजूदा श्रम कानूनों में बदलाव के लिए बेचैन हैं। ‘जब चाहो रखो, जब चाहो निकालो’ (हायर एण्ड फायर) से कम पर वे सन्तुष्ट होने वाले नहीं हैं।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये जा रहे ये तमाम निर्णय मजदूर वर्ग पर हो रहे एक बड़े हमले का अंग हैं। शासक वर्गों का हमलावर होना देश दुनिया के शक्ति-सन्तुलन के वक्ती तौर पर मजदूर वर्ग के खिलाफ होने का नतीजा है। शासक वर्ग की यह आक्रामकता उसकी भाषा में भी दिखायी दे रही है।

‘‘आर्थिक नीतियों में परिवर्तन’’ के अनुरूप गढ़ी गयी इस नयी भाषा के मुताबिक गैरबराबरी एक सदगुण है, कर्मचारियों का विरोध ‘‘अनुशासनहीनता’’ है और अधिकारियों की बर्बरतम तानाशाही भी ‘‘कानून का शासन’’। पूँजीपतियों और मालिकों की इस भाषा के मुताबिक वे कानून ‘‘कठोर’’ हैं जो उन्हें मजदूर को जब चाहे निकाल बाहर करने का अधिकार नहीं देते और उन्हें ठेके पर मजदूर रखने और निकालने के मामले में पूरी छूट देने वाले कानून ‘‘लचीले’’ हैं। इन ‘‘लचीले’’ कानूनों के दम पर मजदूरों से सख्ती से निपटा जायेगा जिसकी बानगियाँ गुड़गाँव से लेकर कलिंग नगर तक देखी जा सकती हैं।

इस दमन चक्र की दिशा मोड़ने के लिए मजदूरों और मेहनतकशों को दृढ़ता और साहस के साथ अपनी वैचारिक और सांगठनिक तैयारी में जुट जाना होगा।

सुप्रीम कोर्ट की इस स्वीकारोक्ति से इस सच्चाई से पर्दा पूरी तरह उठ जाता है कि देश में असली शासन पूँजीपतियों और कॉरपोरेट प्रबधन्कों का है, और न्याय-अन्याय का निर्णय करने वाली सर्वोच्च संस्था सुप्रीम कोर्ट नहीं बल्कि पूँजीपतियों और प्रबन्धकों द्वारा गठित अनुशासन समिति है।

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला पिछले दिनों में हुए बहुत सारे छिटपुट फैसलों की कड़ी से जोड़कर ही समझा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के इन फैसलों में दफ्रतर में काम के घण्टों के दौरान ‘‘सोने’’, ‘‘गाली-गलौज’’ करने, बॉस को ‘‘पीटने’’ या वरिष्ठ अधिकारी का घेराव करने या लम्बे समय तक बिना पूर्वसूचना दिये अनुपस्थित रहने पर कर्मचारी की बर्खास्तगी को सही ठहराया गया है।

देश के पूँजीपतियों के संगठन एशोचैम (एसोसिएटेड चैम्बर ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्रीज) ने सुप्रीम कोर्ट के इन फैसलों को ‘‘मील का पत्थर’’ और ‘‘महत्वपूर्ण’’ नजीर बताते हुए इनकी प्रशंसा की। इतना ही नहीं उसने दिल्ली में एक सेमीनार आयोजित करके उसमें ‘‘श्रमिक मुद्दों से सम्बन्ध रखने वाले प्रबन्धकों’’ को बुलाया और उनके साथ मजदूरों से निपटने के लिए न्यायपालिका द्वारा उपलब्ध करवाये गये औजारों पर चर्चा की गयी।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाये गये ये फैसले संक्षेप में इस प्रकार हैं:


  • अधिकारी से झगड़ा करने पर बर्खास्त किये गये बैनेट कोलमैन एण्ड कम्पनी लिमिटेड के दो मजदूरों के केस में सुप्रीम कोर्ट ने उन कर्मचारियों की बर्खास्तगी को सही ठहराया। साथ ही उसने यह भी फैसला दिया कि उन कर्मचारियों की ग्रेच्युटी भी जब्त की जा सकती है।
  • अधिकारी से लड़ने के कारण बर्खास्त किये गये मध्य प्रदेश बिजली बोर्ड के एक कर्मचारी की बर्खास्तगी का समर्थन करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘‘संस्था के दक्षतापूर्वक संचालन के लिए अनुशासन जरूरी है।’’ और ‘‘कार्य स्थल पर अधिकारी की आज्ञा मानना गुलामी नहीं है।’’
  • भारत पफोर्ज कम्पनी लिमिटेड के एक कर्मचारी को ड्यूटी पर सोने के कारण बर्खास्त करने के फैसले का समर्थन करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ड्यूटी पर सोने के आधार पर बर्खास्तगी उचित ठहरायी जा सकती है।
  • बॉस के खिलाफ ‘‘अपशब्द’’ बोलने के जुर्म में 11 साल पहले बर्खास्त किये गये महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा लिमिटेड के कर्मचारी के मामले में कोर्ट ने कहा कि वरिष्ठ अधिकारी को गाली देना बर्खास्तगी का पर्याप्त कारण है।
  • वरिष्ठ अधिकारी का घेराव करने पर बर्खास्त किये गये फरीदाबाद की एक कम्पनी के कर्मचारियों के मामले में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘‘एक बार जब घेराव में कर्मचारियों की भागीदारी अन्तिम तौर पर साबित हो गयी तो इस मामले में वे किसी राहत के अधिकारी नहीं रह जाते...।’’
  • राजस्थान सरकार के एक कर्मचारी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बिना पूर्व सूचना के लम्बे समय तक दफ्रतर से अनुपस्थित रहने पर बर्खास्तगी का समर्थन किया।

  • छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के शहीद ट्रेड यूनियन नेता शंकर गुहा नियोगी के मामले में आरोपियों को बरी करने के मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के फैसले की आलोचना करने पर सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल के अन्त में राजेन्द्र सायल को एक हफ्रते की कैद की सजा सुनायी और जजों और न्यायपालिका की आलोचना छापने पर मीडिया को चेतावनी दी। राजेन्द्र सायल ने फैसले की आलोचना करते हुए कहा था कि ऐसा लगता है कि ‘‘न्यायपालिका में धनी लोगों को सजा देने की पर्याप्त शक्ति नहीं’’ है। खण्डपीठ ने निर्णय सुनाते हुए कहा कि ऐसे आरोप न्यायपालिका को बदनाम करने और उसका माखौल उड़ाने का जरिया बनेंगे और ‘‘न्यायपालिका में विश्वास की कमी का मतलब होगा कानून के शासन का खात्मा।’’ ‘‘इस तरह की प्रवृत्तियों को सख्ती से कुचला जाना चाहिए।’’

सुप्रीम कोर्ट के ये फैसले एक व्यापक रुझान को दर्शाते हैं पिछले कुछ सालों में सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्टों ने मजदूरों से हड़ताल करने और विरोध करने के बुनियादी अधिकार ही छीन लेने की कोशिशें की हैं। सुप्रीम कोर्ट ने बन्द पर रोक लगाने के केरल हाईकोर्ट के निर्णय पर मोहर लगायी। कलकत्ता हाईकोर्ट ने भी काम के दिनों में रैली करने पर रोक लगाने का फैसला सुनाया। तमिलनाडु के 1 लाख 70 हजार कर्मचारियों की हड़ताल को गैरकानूनी घोषित करते हुए मद्रास हाईकोर्ट ने घोषित किया, ‘‘किन्हीं भी परिस्थितियों में कर्मचारियों को हड़ताल पर जाने का कोई कानूनी या नैतिक अधिकार नहीं है... यहाँ तक कि ट्रेड यूनियनें भी, जिन्हें सामूहिक सौदेबाजी का अधिकार है, हड़ताल पर जाने का अधिकार नहीं रखती।’’

नयी आर्थिक नीतियों और वैश्वीकरण के इस दौर में देश का शासक वर्ग सुप्रीम कोर्ट की पुरानी भूमिका से सन्तुष्ट नहीं है इसलिए सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों के लिए विशेष कोर्स चलाये जा रहे हैं कि वे ‘‘वैश्वीकरण के इस नये दौर में कैसे फैसला करें। सुप्रीम कोर्ट के जज नयी परिस्थिति को कितनी अच्छी तरह समझ गये हैं, इसका ताजा उदाहरण सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला है जिसमें उसने कर्नाटक कालेज के एक प्रवक्ता की बर्खास्तगी का समर्थन किया है क्योंकि उसने प्रिंसिपल को चप्पल से पीटा था।

फैसले में कहा गया है कि ‘‘आर्थिक नीतियों में परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए अब यह उचित नहीं होगा कि अनुशासन भंग करने पर कर्मचारियों को दण्डित न किया जाये।

‘‘...बहुत उकसाये जाने पर भी एक शिक्षक से उम्मीद नहीं की जाती कि वह संस्था के प्रमुख को गाली दे और उसे चप्पलों से पीटे।’’

जाहिर है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट पूँजीपति वर्ग के हितों की खुलेआम वकालत कर रहे हैं जिनकी मेहरबानी से औद्योगिक विवाद अधिनियम में बदलाव के पहले ही पूँजीपतियों और मैनेजरों को मजदूरों से निपटने के औजार मिल गये हैं।

भारतीय शासक वर्ग देश के मजदूरों और मेहनतकश जनता के ऊपर एक बड़े हमले की तैयारी में हैं। देशी-विदेशी पूँजीपतियों से लेकर श्रम मंत्रालय और प्रधानमन्त्री तक सभी एक स्वर से मौजूदा श्रम कानूनों में बदलाव के लिए बेचैन हैं। ‘जब चाहो रखो, जब चाहो निकालो’ (हायर एण्ड फायर) से कम पर वे सन्तुष्ट होने वाले नहीं हैं।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये जा रहे ये तमाम निर्णय मजदूर वर्ग पर हो रहे एक बड़े हमले का अंग हैं। शासक वर्गों का हमलावर होना देश दुनिया के शक्ति-सन्तुलन के वक्ती तौर पर मजदूर वर्ग के खिलाफ होने का नतीजा है। शासक वर्ग की यह आक्रामकता उसकी भाषा में भी दिखायी दे रही है।

‘‘आर्थिक नीतियों में परिवर्तन’’ के अनुरूप गढ़ी गयी इस नयी भाषा के मुताबिक गैरबराबरी एक सदगुण है, कर्मचारियों का विरोध ‘‘अनुशासनहीनता’’ है और अधिकारियों की बर्बरतम तानाशाही भी ‘‘कानून का शासन’’। पूँजीपतियों और मालिकों की इस भाषा के मुताबिक वे कानून ‘‘कठोर’’ हैं जो उन्हें मजदूर को जब चाहे निकाल बाहर करने का अधिकार नहीं देते और उन्हें ठेके पर मजदूर रखने और निकालने के मामले में पूरी छूट देने वाले कानून ‘‘लचीले’’ हैं। इन ‘‘लचीले’’ कानूनों के दम पर मजदूरों से सख्ती से निपटा जायेगा जिसकी बानगियाँ गुड़गाँव से लेकर कलिंग नगर तक देखी जा सकती हैं।

इस दमन चक्र की दिशा मोड़ने के लिए मजदूरों और मेहनतकशों को दृढ़ता और साहस के साथ अपनी वैचारिक और सांगठनिक तैयारी में जुट जाना होगा।

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