तमाम उठापटक, उतार–चढ़ाव और बाहरी–भीतरी दबावों से गुजरते हुए आखिरकार 20
सितम्बर 2015 की शाम नेपाल को अपना नया संविधान मिल गया। पिछले 7 सालोंें से
लगातार बढ़ती उमस के बाद नेपाल की जनता ने ठंडी हवा के झोंके और तेजाब की बूँदा–बाँदी दोनों एक साथ महसूस की। इन दोनों
में से कौन–सी
चीज किसे कितनी मिली, यह उसकी सामाजिक स्थिति पर निर्भर है। 2008 के अन्तरिम संविधान के
बरक्स नये संविधान को देखकर स्पष्ट हो जाता है कि 7 साल पहले नारायणहिती का घेरा
डाले खड़ी क्रान्ति इस पश्च्यगामी संक्रमण काल में कितना पीछे जा चुकी है और नेपाल
के क्रान्तिकारी नेतृत्व के क्रान्ति से विमुख हो जाने का, खुद उस पर और नेपाल की जनता पर क्या
प्रभाव पड़ा है। शुक्र है कि पश्च्यगामी संक्रमण का यह दौर केवल 7 साल ही रहा। अगर
और थोड़ा बढ़ता तो यह भी सम्भव था, नारायणहिती में दिवाली और काठमाण्डू की गलियों में मातम मनते।
एक छोर पर राजशाही समर्थक धुर
दक्षिणपंथी पार्टी और दूसरे छोर पर भूतपूर्व क्रान्तिकारी, माओवादी पार्टी के बीच, रंगबिरंगी पार्टियों की मिली–जुली संविधान सभा से जैसा संविधान बनने
की उम्मीद थी नेपाल का नया संविधान वैसा ही है। एक तरफ यह विधायिका में महिलाओं के
लिए 33 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित करके अपना प्रगतिशील रूप दिखाता है तो दूसरी ओर
नेपाली महिला की कोख से नेपाल में पैदा हुए विदेशी पुरूष के बच्चे को नागरिकता का
अधिकार न देकर अपना मध्ययुगीन प्रतिगामी चेहरा भी दिखाता है। संविधान में
धर्मनिरपेक्षता को तो कायम रखा गया है लेकिन गाय को राष्ट्रीय पशु का दर्जा भी
दिया गया है। विधायिका में संख्यात्मक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था को भौगोलिक
क्षेत्रफल के आधार पर प्रतिनिधित्व से जोड़कर सीमित कर दिया गया है। संविधान सभी
नागरिकों के लिए समान अधिकारों की घोषणा करता है और किसी भी व्यक्ति को कोई
विशेषाधिकार नहीं देता लेकिन कई तरह की दूसरी शर्तों के चलते मधेशियों की नागरिकता
सीमित कर देता है। खुशी की बात यह है कि वर्तमान भारतीय शासकों के दबाव के बावजूद
नेपाल को हिन्दू राष्ट्र नहीं बनाया गया, लेकिन 2008 के अन्तरिम संविधान के
बरक्स जनता को बुरी तरह छला गया है जो दुखद है।
अपनी तमाम खूबियों–खामियों के बावजूद संविधान को अन्तिम
रूप दिया जाना और संक्रमणकाल का अन्त होना खुद में सकारात्मक है। 7 साल के लम्बे
संक्रमण काल में नेपाल की राजनीति के सकारात्मक तत्त्वों का तेजी से क्षरण हुआ है
और सम्भव था कि यह राजशाही की वापसी की दिशा में भी बढ़ सकती थी। इसके साथ ही भारत
में भाजपा के सत्ता मे आ जाने से नेपाल के संकट के गहराने की सम्भावनाएँ बढ़ गयी
थीं। प्रधानमंत्री मोदी ने नेपाल की संविधान सभा में अपने भाषण मंे ‘सर्वसहमति’ और ‘ऋषिमन’ से संविधान बनाने का उपदेश दिया था।
जिस संविधान सभा में माओवादी पार्टी के साथ राजशाही समर्थक पार्टी के प्रतिनिधि भी
शामिल हों, वहाँ
सर्वसहमति से कैसा संविधान बन सकता था। पिछले 7 साल में संक्रमण काल बढ़ने के साथ–साथ माओवादियों की स्थिति कमजोर होती
गयी है। जनपक्षधर और प्रगतिशील पार्टियों के कमजोर होने के साथ–साथ राजशाही की आंशिक या पूर्ण वापसी
की सम्भावना बढ़ती जा रही थी।
भारत में चाहे किसी भी पार्टी की सरकार
हो उसने नेपाल की सम्प्रभुता को चुनौती देते हुए वहाँ के आन्तरिक मामलों में
हस्तक्षेप और अपने हितों के अनुरूप वहाँ की नीतियों को प्रभावित करने की कोशिश की
है। संविधान की घोषणा के एक दिन पहले नरेन्द्र मोदी के विशेष दूत के रूप में विदेश
सचिव एस जयशंकर काठमाण्डू गये और तीनांे प्रमुख पार्टियों के नेताओं से मिले।
उन्हांेने मधेस समस्या के समाधान तक संविधान की घोषणा को टाल देने का ‘आदेशात्मक अनुरोध’ किया था। लेकिन उनका यह अनुरोध स्वीकार
नहीं किया गया। यह आज के अहमन्य भारतीय नेतृत्व के लिए असहनीय था। नेपाल की इसी
धृष्टता का दंड था कि मधेसी असन्तोष के बहाने भारत ने एकतरफा नाकेबन्दी की घोषणा
कर दी। बाद में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर फटकार के बाद आनन–फानन में घोषित नाकेबन्दी का आदेश तो
वापस ले लिया गया, लेकिन परोक्ष रूप से नाकेबन्दी जारी है। इसका परिणाम यह है कि आज
नेपाल के बच्चे बिना दवाओं के मर रहे हैं। पहाड़ के ऊपरी इलाकों में मिट्टी के तेल
की कमी से लोग ठंड से मर रहे हैं। रोजमर्रा की जरूरतों के सामानों की भारी कमी है।
नमक 100 रुपये किलो बिक रहा है। अमरीका हथियारों से जो कहर ढाता है उसे भारत के
शासक आपूर्ति रोककर आर्थिक हथियारों से अंजाम दे रहे हैं।
भारतीय शासकों के हस्तक्षेप सेे स्थिति
इतनी जटिल हो गयी है कि नेपाल का नेतृत्व यदि मधेसियों से बात करे भी तो उसके लिए
यह आसान नहीं होगा। मधेसी नेतृत्व में इतना दम नहीं है कि वह भारत को नाराज करके
बात करे। इसमें उसके राजनीतिक भविष्य के खत्म हो जाने का खतरा है। चीन से माल
आपूर्ति का कोई मुक्कमल जरिया नहीं है। नेपाल ऐसा करके भारत को एक नया बहाना भी
नहीं देना चाहता।
इसमें कोई शक नहीं कि नेपाल के नये
संविधान में मधेसियों के हितों की अनदेखी की गयी है। मधेसियों की अलग प्रदेश की
माँग भी जायज है। नेपाल के राजाओं ने भी पूरे तराई इलाके के साथ बाहरी जैसा
व्यवहार किया था। हाल तक मधेसियों की सेना मंे भर्ती पर रोक थी। पूरे तराई में
नेपाल की लगभग आधी आबादी रहती है। सामाजिक–सांस्कृतिक रूप से इस पूरे क्षेत्र का
जुड़ाव भारत के साथ अधिक है। इसीलिए नेपाली अन्धराष्ट्रवादी शासक यहाँ के निवासियों
के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करते रहे हैं। दूसरी ओर यह भी है कि नेपाल में थोड़ी
समृद्धि यहीं दिखायी देती है। देश की अधिकांश औद्योगिक इकाइयाँ यहीं हैं। स्कूल, कॉलेज, अस्पतालों की संख्या भी आनुपातिक रूप
से यहाँ बहुत ज्यादा है। नेपाल का दो तिहाई अनाज इसी क्षेत्र में पैदा होता है।
इसी आधार पर नेपाल के शासक गरीब पहाड़ी आबादी के बीच यह प्रचार करते हैं कि
तराईवाले नेपाल को लूट रहे हैं। दरअसल इस क्षेत्र की 80 फीसदी से भी ज्यादा जमीन
नेपाल के कुलीन लोगों के कब्जे में है। असली मधेसी अधिकांशत: इन्हीं जमीनों पर
बटाईदारी, मजदूरी
या दूसरे छोटे–मोटे
धन्धों में लगे हैं। बहुत कम लोगों के पास अपनी जमीन हैं। है भी तो छोटी जोत की
नेपाल का उच्च जातीय शासक वर्ग इस विशाल आबादी (नेपाल की कुल आबादी की एक तिहाई)
को विपन्न और उत्पीड़ित की स्थिति में बनाये रखना चाहता है। पूरे नेपाल में इनके
खिलाफ दुष्प्रचार करके और इनकी राष्ट्रभक्ति को सन्देह के घेरे मे लाकर वह नेपाल
की पहाड़ी आबादी के अहं और अन्धराष्ट्रवाद को तुष्ट करता रहता है और पहाड़ी–मैदानी जनता की एकता की हर सम्भावना को
खत्म करने के लिए काम करता है। उसे डर है कि स्थिति बदलने पर कहीं जमीन के सामन्ती
मालिकाने पर संकट न आ जाये। अतीत में माओवादियों ने इस समस्या को बहुत अच्छे ढंग
से समझा था। उन्हांेने नस्ल और जाति से उपर उठकर वर्गीय आधार पर गरीब मधेसी और
गरीब पहाड़ी के बीच एकता कायम की थी। उन्हें काफी सफलता भी मिली थी। आज भी मधेस में
उनका अच्छा आधार है। लेकिन जब माओवादी अपना रास्ता बदल चुके हैं तो समस्या अपनी
पुरानी जटिलता के साथ फिर सामने आ गयी है। प्रचण्ड ने मधेसियों की समस्याओं के लिए
एक संवैधानिक आयोग बनाने, पुन: सीमांकन करने और संविधान में संशोधन करने का वादा तो किया है, लेकिन इससे गतिरोध टूट पायेगा, कहा नहीं जा सकता।
संविधान पिता की सम्पत्ति पर पुत्र और
पुत्री के समान अधिकार की घोषणा करता है। नेपाली लड़के और विदेशी लड़की से जन्मी
सन्तान को भी नेपाली नागरिक मानता है। लेकिन नेपाली लड़की और विदेशी लड़के से नेपाल
में पैदा हुई सन्तान को भी नेपाली नागरिक के रूप में स्वीकार नहीं करता है। यह
संविधान का सबसे घटिया पहलू है। इस धारा के आधार पर तराई के लाखों लोगों की
नागरिकता खतरे में पड़ जाएगी। इस मकसद से भी तराई की मेहनतकश आबादी को दोयम दर्जे
और विपन्नता की स्थिति में बनाये रखना है। हालाँकी ऐसे मामलों में नागरिकता हासिल
करने के लिए कुछ जटिल प्रशासनिक प्रक्रियाएँ बनायी गयी हैं, लेकिन तराई के लोगों को हीन समझनेवाली
नेपाल की नौकरशाही के जरिये इन तरीकों से नागरिकता हासिल करने की सम्भावना बहुत कम
है। गजब की बात यह है कि पूरी दुनिया के लोग इसे लेकर संविधान की आलोचना कर रहें
हैं, लेकिन
भारत सरकार इस पर खामोश है। नेपाल के संविधान को आज की वैश्विक स्थिति और नेपाल की
अपनी जटिल परिस्थिति से अलग करके नहीं देखा जा सकता। आज साम्राज्यवाद पतित होकर
आर्थिक नव उपनीवेशवाद के दौर में पहुँच चुका है। वित्तीय पूँजी अपनी परजीविता के
नये सोपान पर पहुँचकर आवारा पूँजी के रूप में दुनिया को संचालित कर रही है। अमरीका
और उसके समूह 7 के गिरोह को चुनौती देनेवाली कोई प्रबल ताकत मौजूद नहीं है, पूरे विश्व को एक ऐसे सोपान–क्रम में बाँध दिया गया है कि हर
लुटेरे को अपनी हैसियत अनुसार उसमें हिस्सा मिल रहा है। इस वैश्विक सोपान–क्रम पर चोट करनेवाली मेहनतकशों की
लामबन्दी दूर–दूर
तक नजर नहीं आती। छोटा–सा नेपाल साम्राज्यवादी लूट में अपना–अपना हिस्सा बाँटने की जुगत में लगे
महाशक्ति बनने के नशे में चूर दो महादेशों के बीच के भूभाग में कैद हैं। उसके पास
कोई समुद्र तट नहीं है जिससे नेपाल को दुनिया के साथ प्रत्यक्ष व्यापार करने में
सहूलियत हो।
तीन तरफ से हिमालय की दुर्गम चोटियों
और एक तरफ भारत से घिरे, पिछड़े और छोटे मुल्क नेपाल के पास ज्यादातर जरूरतों के लिए भारत की
ओर रुख करने के अलावा और कोई चारा नहीं। आमतौर पर आजादी के बाद से ही और खास कर
2008 के बाद ऐसा शायद ही कोई दिन हो जब भारत ने नेपाल पर दबदबा बनाने कि कोशिश न
की हो। हिन्दुत्व के झंडाबरदार आये दिन नेपाल को हिन्दूराष्ट्र घोषित करने की
सलाहें दे रहे थे, भारत के गृहमंत्री भी नेपाल को हिन्दूराष्ट्र बनते देखने की अपनी
मंशा सार्वजनिक रूप से जाहिर कर चुके हैं। भाजपा सांसद महन्त आदित्यनाथ ने जुलाई
20 में नेपाल के प्रधानमंत्री सुशील कोइराला और संविधान सभा के अध्यक्ष नेमवांग को
पत्र लिखकर माँग की थी कि नेपाल को वैसी ही हिन्दूराष्ट्र की हैसियत दी जाये जैसी
राजशाही के समय थी। विश्व हिन्दू परिषद के दिवंगत नेता अशोक सिंहल– इस बारे में कई बार बयान दे चुके थे।
माओवादी पार्टी के कमजोर होने और भारत में नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आ जाने के
बाद नेपाल के हिन्दुत्ववादी भी ‘हिन्दूराष्ट्र’ की माँग करने लगे थे।
नेपाल के ‘हिन्दूराष्ट्र’ होने का मतलब शासन में आंशिक या पूर्ण
रूप से राजाशाही की वापसी ही है। नेपाल की राजाशाही के साथ भारतीय शासकों और छोटे–बड़े पूँजीपतियों के रिश्ते प्रगाढ़ रहे
हैं। भारत अपने इस पड़ोसी का केवल निचले स्तर का औद्योगिक–व्यापारिक शोषण ही कर सकता है। ऊपरी
स्तर के शोषण और वहाँ की प्राकृतिक सम्पदा के दोहन के लिए इफरात पूँजी और आधुनिक
तकनीक चाहिए जो भारत के पास नहीं है। इसलिए भारत का हित इसी में है कि नेपाल
मध्ययुगीन अवस्था में ही पड़ा रहे। अगर नेपाल में थोड़ा भी दूरदर्शी और स्वाभिमानी
नेतृत्व सत्ता में आता है तो स्वाभाविक रूप से उसके चीन के सम्पर्क में जाने की
सम्भावना है। चीन के पास तकनीक और पूँजी दोनों है। वह चाहे तो नेपाल के पहाड़ों में
रेल लाइन का जाल बिछा सकता है। कुछ हद तक नेपाल का औद्योगीकरण भी कर सकता है।
लेकिन उसके सामने ‘ब्रिक्स’ का सपना हैै। वह अभी भारत के साथ टकराव नहीं चाहेगा। नेपाल का शासक
वर्ग भी तरक्की के दौर का पूँजीपति वर्ग नहीं है, बल्कि एक ऐसा वर्ग है जो अभी 10 साल
पहले तक राजशाही के सामने सर नहीं उठाता था। 2008 के जन विप्लव के समय भी यह वर्ग
राजा से डरकर माओवादियों के पीछे छिपा बैठा था। अगर माओवादी और अन्य जनवादी ताकतें
बीच से हट जायें तो फिर राजा के सामने सजदा करने लगेगा।
इन तमाम परिस्थितियों से आँखे मूँदकर
यह कल्पना करना कि नेपाल वह क्रान्तिकारी संविधान बनायेगा या संविधान से
स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे के आदर्शों की खुशबू आयेगी, यह बबूल का पेड़ उगाकर आम पाने की इच्छा
जैसा है। जिस तरह का नेतृत्व नेपाल की सत्ता में है, उसके लिए यही बहुत है कि उसने भारत के
विशेष दूत को खाली हाथ लौटा दिया। नेपाल के इतिहास में यह पहली बार है कि उसने
भारत के दबाव को नकारते हुए एक धर्मनिरपेक्ष संविधान बनाया है। यही नहीं उसने हाल
ही में वहाँ अन्धविश्वास फैलाने वाले टी–वी– चैनलों और गण्डा–ताबीज बेचने वाले विज्ञापनों पर
प्रतिबन्ध लगा दिया है। नेपाल के संविधान सभा मे मधेसी मुद्दे पर संविधान संशोधन
होने की भी सम्भावना बन रही है।
आज नेपाल की मेहनतकश जनता के लिए महत्त्वपूर्ण प्रश्न
यह है कि अब तक भ्रष्ट होने से बचे, क्रान्ति
से पीछे हटकर संविधान सभा बनाने और 7 साल के संक्रमण काल के दौरान जनता की
राजनीतिक शक्ति, एकजुटता
और जुझारूपन का जो क्षरण हुआ है, उसका
क्या सार संकलन करती है। अपने लिए क्या चुनौतियाँ और कार्यभार निकालती है। कुल
मिलाकर नेपाल की क्रान्ति को किस तरह आगे बढ़ाया जा सकता है। दुनिया का मेहनतकश
उनकी ओर बहुत उम्मीद भरी निगाहों से देख रहा है।––प्रवीण
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