कहते हैं जब–जब कोई देश आर्थिक मन्दी के दुश्चक्र
में फँसता है, तब–तब वहाँ के शासकों की राजनीति
दक्षिणपन्थ की ओर अधिक मुड़ती जाती है। यूरोपीय संघ में शामिल होने के लिए बेताब
तुर्की की हालिया राजनीति भी इस बात की पुष्टि कर रही है। इस राजनीति को आज तुर्की
में तीखे होते सामाजिक संघर्ष और मध्य–पूर्व क्षेत्र में चल रहे महाशक्तियों
की गलाकाटू होड़ मिलकर गति दे रही हैं।
तुर्की में पहली नवम्बर को सम्पन्न हुए
राष्ट्रपति चुनाव में सत्तारूढ़ सुन्नी इस्लामिक फ्रीडम एण्ड जस्टिस पार्टी (एकेपी)
के उम्मीदवार रिसेप तेईप एरडोगन ने फिर से बहुमत हासिल कर लिया। एरडोगन ने इसे ‘‘लोकतंत्र की जीत’’ बताया, जबकि जमीनी हकीकत यह बताती है कि चुनाव
नतीजे ने समाज में निरंकुशता के पंजे को और अधिक मजबूत किया। इस नतीजे ने इस रुझान
को भी रेखांकित किया कि कैसे संसद के माध्यम से निरंकुश और फासीवादी प्रवृत्तियाँ
आज पूरी दुनिया में एक बार फिर पैर जमाने लगी हैं।
एरडोगन की इस ‘‘लोकतंत्र की जीत’’ की प्रकिया गौर करने के काबिल है। 7
जून 2015 को तुर्की में आम चुनाव सम्पन्न हुआ। अपनी आथर््िाक नीतियों और तानाशाही
प्रवृत्तियों के कारण लगातार अप्रिय बनती एकेपी चुनाव के बाद अल्पमत में आ गयी।
लेकिन चुनाव नतीजे में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इसमें 2013 में बनी पीपुल्स
डेमोक्रेटिक पार्टी (एचडीपी) को 13–2 प्रतिशत मत हासिल हुआ, जिससे कि यह पार्टी 550 सीटोंवाली संसद
में अपने 80 सांसदों को भेज सकती थी। यहाँ ध्यान में रखनेवाली बात है कि तुर्की के
शासकों ने सत्ता पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए एक ऐसा संवैधानिक कानून बना रखा है
जिसके तहत चुनाव में 10 प्रतिशत से कम मत हासिल करनेवाली पार्टी को संसद में
प्रतिनिधित्व का मौका नहीं मिलेगा। कुर्दों और वामपन्थियों द्वारा समथर््िात
पार्टी एचडीपी के लिए 10 प्रतिशत की लक्ष्मणरेखा को पार कर जाना एरडोगन और तुर्की
के शासक तबके लिए सबसे चिन्ताजनक बात थी।
एरडोगन की चिन्ता को ठीक से समझने के
लिए तुर्की की ‘कुर्द
समस्या’ की
थोड़ी जानकारी जरूरी है। तुर्कों की तरह ही कुर्द एक भिन्न राष्ट्रीयता वाले लोग
हैं जो तुर्की, इराक, सीरिया और ईरान में बसे हुए हैं तथा
सैंकड़ों सालों से स्वतन्त्र कुर्दिस्तान के लिए संघर्षरत हैं। तुर्की में आबादी का
लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा कुर्द लोगों का है लेकिन देश में उनकी राष्ट्रीय अस्मिता को
स्वीकार नहीं किया जाता और इसी कारण वे भयानक दमन–उत्पीड़न के शिकार हैं। अब से कुछ ही
वर्षों पहले तक उन्हें अपनी भाषा लिखने या बोलने का भी हक नहीं था। कुर्द जनता
अपनी आजादी के लिए कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (पीकेके) के नेतृत्व में 1984 से
हथियारबन्द संघर्ष चला रही है जिसमें अब तक उनके 40 हजार लोग मारे जा चुके हैं।
वर्ष 2013 में कुर्द लोगों ने तुर्की के अन्य अल्पसंख्यक समूहों, उत्पीड़ितों और क्रान्तिकारियों के साथ
मिलकर एचडीपी का गठन किया और शासकों के सामने अपनी व्यापक माँगें पेश की।
पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (एचडीपी)
अपने बारे में कहती है कि ‘‘हम सब, तुर्की के लोकतांत्रिक व शान्तिप्रिय ताकतें, श्रमिक वर्ग के प्रतिनिधि, पर्यावरण एवं नारी अधिकारों के लिए
संघर्षरत संगठन, कलाकार, लेखक, बुद्धिजीवी, स्वतंत्र व्यक्ति एवं मजदूर जन, विभिन्न जनजातियों व धार्मिक समूहों के
प्रतिनिधिगण, बेरोजगार, रिटायर्ड, किसान, विकलांग, वैज्ञानिक और वे सब लोग जिनके शहरों को
बर्बाद कर दिया गया है, इस मंच में एकजुट हुए हैं।’’
बहरहाल, एरडोगन ने जून चुनाव के फैसले को मन से
नहीं स्वीकारा, क्योंकि
उसकी मंशा चुनाव में पूर्ण बहुमत लाकर संविधान संशोधन के जरिये देश में राष्ट्रपति
प्रणाली का शासन लागू करने की थी, ताकि उसकी निरंकुशता को कानूनी रूप मिल सके। देश की सेना, नौकरशाही, अमीर तबका, इस्लामिक संगठन, अमरीका व यूरोप आदि ताकतों का उसे
समर्थन और सहयोग मिला हुआ था। इसी नापाक गठजोड़ और बुरी नीयत के साथ एरडोगन ने 1
नवम्बर के दिन पुन:मतदान कराने का फैसला किया।
छद्म वामपन्थी हो या धुर दक्षिणपन्थी, दोनों का एक सामान्य चरित्र होता है, वे अपनी असली मंशा (हिडेन एजेन्डे) को
जनता के सामने एकबारगी प्रकट नहीं करते। 2001 में जब एकेपी का गठन हुआ था, तब उसने अपनी इस्लामवादी विचारधारा को
आधिकारिक तौर पर त्यागकर ‘‘तुर्की में लोकतंत्र को बढ़ावा देने’’ और कुर्द समस्या के शान्तिपूर्ण समाधान
के प्रयास की बात कही। एकेपी और उसके नेता एरडोगन की इन घोषणाओं को जनता ने
सकारात्मक रूप से लिया और उसे पूर्ण समर्थन दिया। लेकिन सत्ता सम्भालते ही उसने
डंडे के बल पर ताबड़तोड़ नवउदारवादी आथर््िाक नीतियाँ लागू करना शुरू कर दिया। उसकी
इन्हीं नीतियों के खिलाफ 2013 में ‘गेजी पार्क’ की घटना घटी, जिसमें राजधानी अंकारा के दसियों हजार
लोग विरोधस्वरूप उस समय सड़कों पर उतर आये, जब एरडोगन ने अपने ‘विकास के मॉडल’ को लागू करने के सिलसिले में ‘गेजी पार्क’ को ढहाने की कोशिश की और जनता ने पार्क
को कई दिनों तक अपने कब्जे में रखा। आखिरकार लोगों के आन्दोलन को पुलिस दमन के
सहारे कुचल दिया गया।
इसके बाद जून 2015 में देश में आम
चुनाव हुआ जिसमें एकेपी को मुँह की खानी पड़ी। सत्ता पर अपनी पकड़ हर हाल में बनाये
रखने के लिए एरडोगन ने लोकतन्त्र के झीने पर्दे को भी उतार फेंका और अपना फासीवादी
चेहरा खुलकर दिखा दिया। सबसे पहले उसने कुर्दों के साथ चल रही शान्ति वार्ता को
रोक दिया और उनके इलाके में बमबारी शुरू कर दी। इसके साथ–साथ, एचडीपी व वामपन्थियों पर भी उसने बड़े
पैमाने पर हमला बोल दिया। इस दौरान उनके कार्यकर्ताओं की धरपकड़ करना, हत्या करना, उनकी दो जनसभाओं में आतंकवादियों से
आत्मघाती हमले करवाना जिनमें करीब दो सौ लोग मारे गये और एचडीपी के 400 कार्यालयों
को जलाने जैसी कार्रवाइयाँ हुर्इं। इसका एकमात्र मकसद था एचडीपी के चुनाव प्रचार
में बाधा पहुँचाना और उसके वोटरों को डराना। इसके अलावा, जमीन से जुड़े जनता के नुमाइन्दों को बड़े पैमाने पर रिश्वत दी गयी तथा
मीडिया द्वारा तुर्की राष्ट्रवाद को खूब हवा दी गयी। इन सब हथकन्डों के चलते
एरडोगन अन्तत: अपने मकसद में कामयाब हुआ– चुनाव में एचडीपी का मत घटकर 10–8 प्रतिशत रह गया और एकेपी को बहुमत
मिला।
हालाँकि एरडोगन की तमाम बाधाओं के
बावजूद एचडीपी संसद में पहुँच तो गयी, लेकिन उसका आगे का रास्ता आसान नहीं है।
एचडीपी अपने घोषणा पत्र में शान्ति, आजादी और बराबरी की बात कहती है। वह
खुद को बेरोजगारी और पूँजीवादी–साम्राज्यवादी लूट और शोषण का विरोधी कहती है। एक ऐसे रैडिकल एजेन्डे
के साथ क्या कोई प्रगतिशील ताकत संसदीय रास्तों से सत्ता प्राप्त कर सकती है? या अगर किसी तरह सत्ता में पहुँच भी
जाये तो क्या उसे कायम रख सकती है? ऐसे वक्त पर जब प्रतिपक्षी वर्ग पँूजी
और हथियारों से पूरी तरह लैस है और अपनी सत्ता कायम रखने के लिए खून की नदियाँ बहा
रहा है, तब
उससे लड़ने का समुचित तौर–तरीका क्या हो? पिछली सदी के सत्तर के दशक में चिली में अलेन्दे के साथ जो कुछ घटा
और अभी हाल ही में यूनान में सिराजा का जो हश्र हुआ, वह दुनिया की जनता के लिए क्या सबक
देता है? ये
सब कुछ ऐसे जरूरी सवाल हैं जिस पर एचडीपी को समाज के सामने अभी एक स्पष्ट रुख रखना
पड़ेगा।
हालाँकि यह सवाल सिर्फ एचडीपी या
तुर्की की जनता के ही नहीं, बल्कि दुनिया के ज्यादातर देशों की जनता के सामने है, क्योंकि पँूजीवादी व्यवस्था अपने
आन्तरिक कारणों से आज भयानक संकट की गिरफ्त में है। अपने अस्तित्त्व की रक्षा के
लिए आज वह जनता को न्यूनतम लोकतांत्रिक अधिकार भी देना नहीं चाहती। इसलिए दुनिया
के ज्यादातर देशों की सरकारें जनता के हर जायज आन्दोलन को कुचलने के लिए चरम
फासीवादी तरीकों का सहारा लेने से भी गुरेज नहीं कर रही हैं।
समस्या सिर्फ जनता के सामने ही नहीं, बल्कि धर्म और पूँजीवाद के सहारे
सम्राट बनने का ख्वाब पालनेवाले एरडोगन जैसे शासकों के सामने भी है। तुर्की का
पूँजीपति वर्ग और उसका वर्तमान नेता एरडोगन अपनी नीतियों के कारण देश को किन खतरों
की ओर ले जा रहा है इसका पूरा अन्दाजा तभी लग सकता है जब हम उस क्षेत्र में चल रही
राजनीति और उसमें तुर्की की भूमिका को ध्यान में रखें।
तुर्की की भौगोलिक अवस्थिति भी उसकी
राजनीति को दिशा देने में भूमिका निभाती रही है। इसके उत्तर में काला सागर है
जिसके एक किनारे पर रूस बसा हुआ है। दक्षिण में भूमध्य सागर है जिसके तटों पर
मिस्र, लीबिया, अल्जीरिया, स्पेन, फ्रांस, इटली और यूनान आदि देश हैं, जबकि इसके पूर्व से दक्षिण–पूर्व सीमा में पूर्वी यूरोप के देश, ईरान, इराक और सीरिया हैं। तुर्की के सबसे
बड़ा शहर– इस्तामबुल, जिसे इतिहास में कुस्तुन्तुनिया के नाम
से जाना जाता था, उसका बड़ा हिस्सा यूरोपीय भूखण्ड में है, जबकि शेष तुर्की एशियाई भूखण्ड में।
1923 में तुर्की गणराज्य की स्थापना से
पहले यह ऑटोमन साम्राज्य था, जिसका एक जमाने में एशिया व यूरोप के बड़े भू–भाग में कब्जा हुआ करता था। इसका पहला
राष्ट्रपति, मुस्तफा
कमाल पाशा, एक
प्रखर राष्ट्रवादी था। इसलिए वह अपने जीवन काल में देश को एक आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने और व्यापक
पूँजीवादी विकास करने में लगा रहा तथा पश्चिमी देशों के खिलाफ तत्कालीन सोवियत संघ
के साथ उसने संश्रय कायम किया। 1938 में कमाल पाशा के निधन के बाद तुर्की ने अपना
रुख बदला। अब तक तुर्की पूँजीवाद के रास्ते काफी आगे बढ़ चुका था और उसकी विदेश
नीति भी पूँजी के तर्क के अनुसार बनने लगी थी। अमरीकी खेमे में शामिल होने का
फैसला उसके इसी तर्क की परिणति था।
द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत में
तुर्की ने तटस्थ रुख अपनाया पर अन्तिम चरण में उसने मित्र राष्ट्रों के पक्ष में
युद्ध में हिस्सा लिया। 1952 में उसे अमरीकी नेतृत्त्ववाले सैन्य गठबन्धन नाटो में
शामिल कर लिया गया। 1953 में अमरीका का पूरी तरह पिछलग्गू बनते हुए उसने कोरिया
युद्ध में भी शिरकत की। 1956 में अमरीका और सोवियत खेमे के बीच शीत युद्ध छिड़ जाने
के बाद अमरीका के एक विश्वस्त दास की तरह सोवियत संघ के पीछे पड़ा रहा। इतना ही
नहीं, मध्य–पूर्व के इलाके में फिलिस्तीन की आजादी
को रोकने के लिए और उस क्षेत्र में अमरीकी हितों को साधने के लिए उसने सऊदी अरब और
मिस्र की तरह एक अमरीकी चैकी की भूमिका निभायी।
तुर्की के शासक वर्ग के इस जनविरोधी
चरित्र के बावजूद वह अभी तक इस्लामिक ताकतों से कोई साँठगाँठ नहीं करता था, बल्कि उसका दमन भी करता था। वहाँ के
शासन का मुख्य स्तम्भ– वहाँ की सेना, जिसे कमाल पाशा ने नि:सन्देह एक धर्मनिरपेक्ष बल बनाया था, उसने इस मामले में कोई चूक नहीं की।
लेकिन 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद जब देश में आथर््िाक संकट गहराया और सेना
की निरंकुशता के खिलाफ लोगों में असन्तोष बढ़ा, तो राजनीतिक खालीपन को भरने के लिए
इस्लामिक ताकतें एकजुट होने लगीं। एरडोगन की एकेपी का जन्म इसी प्रक्रिया में होता
है।
एरडोगन ऑटोमन शासकों की तरह मजहबी
साम्राज्य कायम करने की मंशा रखता है। वैसे भी, किसी पूँजीवादी शासक में विस्तारवादी
और साम्राज्यवादी मंशा निहित होना आम बात है। लेकिन इस रास्ते में उसकी पहली बाधा
कमाल पाशा की बनायी धर्मनिरपेक्ष सेना थी। इसलिए सत्ता सम्भालने के अगले बारह साल
के अन्दर यानी 2012 तक उसने जन असन्तोष का फायदा उठाकर सेना को अपने काबू में कर
लिया। आज सेना के सैंकड़ों भूतपूर्व जनरल जेल के अन्दर हैं और मौजूदा सेना एकेपी की
हाँ में हाँ मिलाती है। उधर 2011 में अरब का जनान्दोलन फूट चुका था। इस सिलसिले
में जब मिस्र में राष्ट्रपति मुबारक के पतन के बाद मुहम्मद मुर्सी के नेतृत्त्व
में मुस्लिम ब्रदरहुड की सरकार बनी तो एरडोगन ने व्यापक इस्लामिक एकता कायम करने
के कुटिल इरादे से उसका समर्थन किया। हालाँकि एरडोगन का मंसूबा धरा रह गया क्योंकि
जल्दि ही मिस्र की सेना ने तीन–तिकड़म से मुस्लिम ब्रदरहुड का पत्ता साफ कर दिया।
लेकिन एरडोगन की वास्तविक चुनौती तब
पैदा होती है जब अरब जनान्दोलन की आँच उसके सीमापार सीरिया पहुँचती है। उस
जनान्दोलन की आँच उस इराक में भी पहुँची थी जिसे अमरीका ने पूरी तरह तबाह कर दिया
था। फिर भी इराक की सुन्नी आबादी हजारों की तादाद में खण्डहरों से निकलकर आयी और
लोकतान्त्रिक ढंग से सरकार के आगे अपनी माँगें पेश की। लेकिन वहाँ की शिया सरकार
ने उस आन्दोलन को बुरी तरह कुचल दिया। यह सुन्नी जन समुदाय के लिए हताशा की इन्तहा
थी। बर्बादी और नाउम्मीदी के इसी भयानक माहौल से इस्लामिक स्टेट का राक्षस पैदा
हुआ।
बहरहाल, सीरिया के राष्ट्रपति असद के खिलाफ
जनता के आन्दोलन ने अमरीका को जैसे मौका दे दिया। क्योंकि सीरिया सोवियत संघ के
जमाने से रूस का साथी है। अपने देश से बाहर रूस का एकमात्र सैनिक अड्डा सीरिया में
ही है। सीरिया की ईरान के साथ भी एकता बहुत घनिष्ट है। अमरीका ने एक तीर से दो
निशाना साधना चाहा। उसकी इस्लामिक स्टेट (आईएस) से लड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
‘आतंकवाद
के खिलाफ युद्ध’ के
नाम पर अमरीका ने असद के खिलाफ लड़नेवाले अलकायदा के आतंकवादियों समेत किसी भी ताकत
को हथियार और धन दिया। इस तरह सीरिया, अमरीका व रूस की परोक्ष लड़ाई का अखाड़ा
बन गया। हालाँकि इसमें अमरीका को अब तक कोई सफलता हाथ नहीं लगी।
इस गृहयुद्ध में असद की सरकार के कमजोर
हो जाने से सीरियाई कुर्दों को लाभ ही मिला। उन्होंने रोजोवा इलाके में अपनी
स्वतन्त्र सत्ता कायम कर ली और आईएस के हमलों के खिलाफ बहादुराना लड़ाई लड़कर उन्हें
खदेड़ दिया। सीरिया का टुकड़ा हासिल करने की होड़ में एरडोगन भी शामिल हो चुका था।
इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों से उसने गुप्त सम्बन्ध बना लिया। आतंकवादियों को
हथियार और धन देना, उनसे व्यापार करना और तुर्की के रास्ते से सीरिया में घुसने का
रास्ता देना आदि वह धड़ल्ले से चलाता रहा। उसका इरादा अमरीका की मदद से उत्तरी
सीरिया के एक बड़े भू–भाग पर अपने प्रभाववाला विशेष क्षेत्र बनाने का है। इसके जरिये
सीरियाई कुर्दों को भी स्वतन्त्र राज्य बनने से रोकने की उसकी योजना है। इसी मकसद
से उस क्षेत्र में बसी उस तुर्कमानी आबादी को हथियारों की भारी सप्लाई की जा रही
है, जिसका
पीढ़ियों से तुर्की के साथ सम्बन्ध है।
उधर रूस एरडोगन की चाल को समझ चुका था।
इसलिए उसने ‘आतंकवाद
के खिलाफ युद्ध’ के
नाम पर उसी इलाके में बमबारी जारी रखी। हाल ही में रूस के एक लड़ाकू विमान को मार
गिराकर एरडोगन ने पुतिन को ऐसा न करने के लिए परोक्ष रूप से चेताया। हालाँकि
एरडोगन का दाँव उलटा पड़ा। रूस ने और भी आक्रामक होकर उस क्षेत्र में अपना पाँव जमा
लिया। एरडोगन के दुस्साहस का रूस ने अपने दूरगामी हित को देखते हुए कोई सीधा जवाब
नहीं दिया पर उसने ईरान व इराक के साथ मिलकर तुर्की की आथर््िाक व रणनीतिक
घेरेबन्दी का काम शुरू कर दिया है।
नाटो के देश अपनी साम्राज्यवादी योजना
को लागू करने के लिए तुर्की का इस्तेमाल तो करते हैं पर उनमें से कोई भी एरडोगन की
विस्तारवादी या मजहबी महत्त्वांकाक्षा का समर्थन नहीं करता। इसके अलावा, दुनिया की आथर््िाक मन्दी गहराने के
साथ–साथ
रूस–चीन
के साथ उनके युद्ध की परिस्थितियाँ लगातार तैयार होती जा रही हैं, लेकिन मौजूदा समय में यूरोप का कोई भी
देश रूस के साथ युद्ध नहीं चाहता है। वैसे
भी दो–दो
विश्व युद्ध को झेलने के बाद यूरोप अपनी धरती पर तीसरा युद्ध नहीं चाहता है। इस
तरह हर हाल में तुर्की के अपने विस्तारवादी अभियान में अलगाव में पड़ने की सम्भावना
ज्यादा है।
इधर, घरेलू मोर्चे में भी एरडोगन ने विध्वंस
को न्योता दे रखा है। इस्लामिक आतंकवाद के नाम पर जिन–जिन देशों ने भी अब तक मुस्लिम जनता के
जीवन को नर्क बनाया या अपने फायदे के लिए आतंकवाद को बढ़ावा दिया और इस्तेमाल किया
उन सबके घर आज वह आग पहुँच चुकी है। इस भस्मासुर के खौफ से आज वे सभी सहमे हुए हैं
लेकिन विडम्बना यह कि इसे रोकने का उनके पास कोई चारा भी नहीं है।
तुर्की अब तक आतंकवाद की आग से महफूज
था। लेकिन सीरिया के संकट के बाद उसने जिस तरह आतंकवादियों से साँठगाँठ की। वह
आनेवाले दिनों में तुर्की की आम जनता के लिए एक महाविपदा का कारण बनेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
तुर्की का इतिहास बेहद समृद्धशाली रहा
है। यह बैजन्ती और ऑटोमन साम्राज्य के उत्थान और पतन का साक्षी रहा है। इस समृद्ध
अतीत की जमीन पर मुस्तफा कमाल पाशा ने तुर्की की जो आधुनिक इमारत खड़ी की थी उसके
आगे से इस देश में एक खुशहाल और गौरवशाली भविष्य की ओर बढ़ने की पूरी सम्भावनाएँ
मौजूद थी। लेकिन पूँजीपति वर्ग को ऐसी जिन्दगी और भविष्य की कहाँ जरूरत होती है? मुनाफे की हवस, विस्तारवाद, युद्ध और विनाश के बिना वह अब तक कहाँ
जी पाया? तभी
तो उसने तुर्की की कमान ऑटोमन की टोपी पहने एक बौने मजहबी तानाशाह के हाथों सौंप
रखी है।
–आनन्द किशोर
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