नाभिकीय
हथियारों से लैस देशों का क्लब और खास करके अमरीका आज नाभिकीय अप्रसार के बारे में
लम्बी-चौड़ी हाँक रहे हैं। कोई दूसरा देश अगर नाभिकीय ऊर्जा के शान्तिपूर्ण
इस्तेमाल के लिए भी शोध और परीक्षण करता है, तो वह अमरीका की आँख की किरकिरी बन जाता
है। तमाम अमरीका-परस्त प्रचार माध्यम उसे राक्षस और लोकतन्त्र के दुश्मन के रूप
में पेश करने लगते हैं। ईरान के साथ आज यही हो रहा है।
नाभिकीय
तबाही का जनक और मूल स्रोत अमरीकी साम्राज्यवाद
दुनिया में
सबसे पहले अगस्त 1945 में अमरीका
ने जापान के दो शहरों-हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराया था जिसमें 3,20,000 निहत्थे और निर्दोष जापानी नागरिक मारे
गये थे। विश्वयुद्ध लगभग समाप्ति पर था जब अमरीका ने इस जघन्य हत्याकाण्ड को
अन्जाम दिया। इसके पीछे उसका एक मकसद परमाणु बम की विनाशकारी शक्ति का परीक्षण
करना था। दूसरा मकसद पूरी दुनिया में अपनी परमाणविक शक्ति का आतंक कायम करके खुद
को साम्राज्यवादी दुनिया के सरगना के रूप में अपना लोहा मनवाना था।
अमरीकी
साम्राज्यवादी खेमे से अपनी रक्षा के लिए सोवियत संघ का नाभिकीय शक्ति सम्पन्न
होना उसकी मजबूरी हो गयी। उसने भी 1949 में नाभिकीय अस्त्रा विकसित कर लिया।
लेकिन 1956 के बाद जब
सोवियत संघ सामाजिक साम्राज्यवाद में बदल गया, तो अमरीका के साथ प्रतिद्वन्द्विता के
चलते वह खुद भी हथियारों की होड़ में शामिल हो गया।
बर्ट्रेंड
रसेल ने लिखा है कि ब्रिटेन को अमरीका ने ही 1952 में नाभिकीय अस्त्रा प्रदान किये थे और
उस पर अमरीका का ही नियन्त्रण था। दगाल के नेतृत्व में Úांस ने अमरीकी प्रभुत्व को चुनौती देते
हुए नाभिकीय शक्ति विकसित की। चीन ने अमरीका और रूस से नाभिकीय खतरे की आशंका को
देखते हुए आत्मरक्षा के लिए 1964 में नाभिकीय हथियार विकसित किया। इस तरह नाभिकीय अस्त्रों के प्रसार में
साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्द्विता और साम्राज्यवाद से बचाव, दोनों ही कारकों की भूमिका रही है जिसके
केन्द्र में अमरीकी साम्राज्यवाद रहा है।
परमाणु-अप्रसार
का अमरीकी पाखण्ड
नाभिकीय
हथियारों के खिलाफ अमरीकी अभियान पूरी तरह फर्जी और दोहरे मानदण्डों पर आधारित है।
उसका मकसद निरस्त्रीकरण नहीं बल्कि परमाणु हथियारों पर साम्राज्यवादी देशों का
एकछत्र अधिकार कायम रखना है, अन्यथा परमाणु अप्रसार सन्धि की शर्तों का पालन करते हुए सबसे पहले उन्हें
ही अपने हथियारों को नष्ट करना चाहिए था जो सिर से पाँव तक नाभिकीय हथियारों से
लदे हैं। अप्रसार की बात तो दूर, अपने घृणित साम्राज्यवादी मन्सूबों और रणनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के
लिए ये देश खुद ही नाभिकीय हथियारों का प्रसार करते रहे हैं। जानकार लोगों का
मानना है कि अमरीका ने अरब देशों पर अपना प्रभुत्व कायम रखने के लिए इजराइल को 100 से भी अधिक नाभिकीय हथियारों से सुसज्जित
किया है।
हेनरी
किसिंजर और देंग सियाओ-पिघ ने पाकिस्तान को नाभिकीय तकनीक देने का निर्णय किया था
क्योंकि 1974 में भारत ने
परमाणु परीक्षण कर लिया था। Úांस ने तो 1970 के दशक में
ही 90% प्लूटोनियम
सेपरेशन प्लाण्ट और उससे सम्बन्धित तकनीक पाकिस्तान को दे दी थी। 1980 के दशक में चीन ने उसे परमाणु बम की
तकनीक दी। इस पूरे मामले को अमरीका ने न सिर्फ नजरअन्दाज किया बल्कि उसने
पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को पूरा संरक्षण भी दिया। चीन, 1992 में परमाणु अप्रसार सन्धि पर दस्तखत करने
के बाद भी पाकिस्तान को तकनीक देता रहा।
पूर्व डच
प्रधानमन्त्री रूड ल्यूबर्स के मुताबिक जब उन्होंने सेण्ट्रीफ्रयूज संवर्धन से
सम्बन्धित कुछ ड्राइंग और दस्तावेज चुराने के आरोप में डॉ. अब्दुल कादिर खान पर
मुकद्दमा चलाना चाहा तो सी.आई.ए. ने उन्हें डॉ. खान को छोड़ देने की सलाह दी।
पाकिस्तान द्वारा परमाणु बम बना लिये जाने के बाद भी डॉ. खान के खिलाफ कोई
कार्रवाई नहीं हुई। कारण यह कि डॉ. खान पाकिस्तान की हथियार निर्माण की योजनाओं
में एक वैज्ञानिक की हैसियत से नहीं बल्कि यूरोप की विभिन्न कम्पनियों से तकनीक, संयन्त्र और सामग्री हासिल करने वाले
एजेण्ट की हैसियत से शामिल था। इन्हीं कम्पनियों के एजेण्ट के रूप में डॉ. खान ने 1987 में ईरान को, 1994 में उत्तर कोरिया को और 2000 के शुरू में लीबिया को यह तकनीक उपलब्ध
करवायी। यह सब कुछ सी.आई.ए. और अमरीका की करतूतों का ही नतीजा था और उनकी जानकारी
में हुआ था।
सद्दाम
हुसैन जब अमरीका का चहेता था तो उसने पश्चिमी देशों से ही नाभिकीय हथियार परियोजना
के लिए संयन्त्र और तकनीक हासिल की थी। यहाँ तक कि ईरान को भी सी.आई.ए. ने ही
परमाणु बम बनाने से सम्बन्धित नक्शे उपलब्ध करवाये। (सी.आई.ए. ने ईरान को गलत
नक्शे दिये थे जिन्हें सुधारकर अब वह नाभिकीय परीक्षण की तैयारी कर रहा है।) यह सब
कुछ एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया।
यूरोपीय
इण्टेलिजेंस की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया नाभिकीय हथियारों के लिए एक शॉपिंग
मॉल है और कम्पनियों के बोर्डरूम और यूरोप के विश्वविद्यालय बाण्ड स्ट्रीट हैं।
जाहिर है कि खुद साम्राज्यवादी देश और उनकी नाभिकीय संयन्त्र और हथियार बनाने वाली
कम्पनियाँ ही परमाणु हथियारों की सबसे बड़ी प्रसारक हैं।
ईरान में
परमाणु परीक्षण रोकने का अमरीका को क्या अधिकार है जबकि...
इजराइल को
परमाणु हथियारों के जखीरे खुद अमरीका ने मुहैया किये हैं क्योंकि मध्यपूर्व में
उसका सबसे बड़ा लठैत वही है। जब हेरात में नाटो की सेनाएँ और तमाम हथियार तैनात
हैं और फारस की खाड़ी में तमाम आधुनिक अस्त्रा-शस्त्रा से लैस अमरीका की नौसेना
गश्त कर रही है तो ईरान को परमाणु हथियार बनाने से रोकने का क्या औचित्य है?
दुनिया भर
में हथियारों की होड़ शुरू करने और अशान्ति फैलाने वालों को दूसरों को आत्मरक्षा
के अधिकार से भी वंचित करने का क्या हक है? वे दूसरों को निरस्त्रीकरण के उपदेश दे
रहे हैं और उन पर दबाव डाल रहे हैं कि वे हथियार न बनायें लेकिन खुद रोज-ब-रोज
आधुनिकतम हथियार बनाते जा रहे हैं। क्या अमरीका के मिसाइल डिपफेंस कार्यक्रम तथा
इंग्लैण्ड की आधुनिकतम नाभिकीय अड्डों और ट्राइडेण्ट मिसाइलों के निर्माण पर 25 अरब पाउण्ड (लगभग 1,950 अरब रुपये) खर्च करने की घोषणा का मकसद
दुनिया में शान्ति स्थापित करना है? उनका एकमात्र उद्देश्य है किसी भी कीमत
पर दुनिया में अपना वर्चस्व कायम रखना। यही वजह है कि परमाणु परीक्षण के लिए भारत
पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने वाला अमरीका भारत सरकार को अपना ‘‘रणनीतिक साझेदार’’ बनाने के लिए रातो-रात एक नयी भाषा बोलने
लगा।
सच्चाई यह
है कि ईरान के पास परमाणु हथियार हो जाने से इस क्षेत्र में युद्ध भड़कने के बजाय
इससे युद्ध को टालने में ही मदद मिलेग। परमाणु बम एक बहुत बड़ा युद्ध-निरोधक है। यदि ईरान के पास भी
परमाणु बम हो तो उस पर हमला करने से पहले अमरीका या इजराइल को हजार बार सोचना
पड़ेगा। आज भी यदि ईरान के शासक अमरीका के इशारे पर नाचने को तैयार हो जायें तो
परमाणु प्रसार-अप्रसार के अमरीकी स्वांग का पर्दा गिर जायेगा।
हथियारों की
होड़ की वजह साम्राज्यवाद
इन्सानियत
की तरक्की और खुशहाली चाहने वाला हर व्यक्ति स्वाभाविक रूप से नाभिकीय हथियारों और
दूसरे तमाम हथियारों के प्रसार के बिल्कुल खिलाफ, दुनिया के पूर्ण निरस्त्रीकरण का हिमायती
होता है। विश्व शान्ति का तकाजा है कि सभी तरह के विनाशकारी हथियारों का उन्मूलन होना
चाहिए और नाभिकीय हथियारों का तो तत्काल ही हो जाना चाहिए। लेकिन वर्गों और
अन्तरविरोधों की मौजूदा दुनिया में क्या ऐसा हो पाना सम्भव है? यह हमारी सदिच्छा तो हो सकती है, यथार्थ में उनका खात्मा सम्भव नहीं होगा।
इसलिए निरपेक्ष शान्ति की बात करना वस्तुगत रूप से साम्राज्यवाद का ही पक्ष-पोषण
होता है।
जब तक
दुनिया में साम्राज्यवाद मौजूद रहेगा, शक्तिशाली देशों द्वारा कमजोर देशों को
गुलाम बनाने और उन्हें लूटने की प्रवृत्ति मौजूद रहेगी, तब तक युद्ध भी होते रहेंगे और हथियारों
की होड़ भी जारी रहेगी। यह स्थापित तथ्य है कि अन्य देशों के पास भी परमाणु बम
मौजूद हो तो यह साम्राज्यवादी या विस्तारवादी प्रवृत्ति रखने वाले देशों और युद्ध
पर प्रभावी रोक (डिटरेंस) का काम करता है। इस आशंका के चलते कि हारने वाला देश
परमाणु बम का प्रयोग कर सकता है, ताकतवर देश उस पर हमला करने से बाज आते हैं।
परमाणु
हथियारों पर साम्राज्यवादी देशों का एकाधिकार टूटने से दुनिया में अपेक्षतया
शान्ति होगी। इसलिए अगर कोई देश आत्मरक्षा के उद्देश्य से परमाणु बम बनाता है, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। दुनिया से
हथियारों की होड़ और परमाणु विनाश का खतरा पूरी तरह तभी समाप्त होगा जब शहीद भगत
सिंह के शब्दों में ‘‘एक देश
द्वारा दूसरे देश का और एक आदमी द्वारा दूसरे आदमी का शोषण समाप्त हो जायेगा।’’
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