भारत में 13 लाख लोग दूसरों का पाखाना अपने सर पर
उठाकर पफेंकते हैं। हिन्दू जाति व्यवस्था में सबसे निचली पायदान पर आने वाली दलित
जातियों के ऊपर ब्राह्मणवादियों ने प्राचीनकाल में यह घृणित कार्य थोपा था। आजादी
के 58 साल बाद भी
इस पेशे में लगे लोगों की नारकीय जिन्दगी इस लोकतन्त्र के चेहरे पर बदबूदार धब्बा
है। 1993 में सिर पर
मैला ढुलाई के काम में किसी व्यक्ति को लगाने या उठाऊ पाखाना बनवाने के खिलाफ
कानून बन जाने के बाद भी हमारा समाज इस अमानुषिक और नीचतापूर्ण पेशे से लोगों को
मुक्त नहीं कर पाया। 2005 में
सर्वोच्च न्यायालय का ध्यान इस कानून के निकम्मेपन की ओर दिलाते हुए यह बताया गया
था कि 1992 में 5.88 लाख लोग इस काम में लगाये गये थे जो 10 सालों में बढ़कर 7.87 लाख हो गये। यही वह दौर है जब इटली से
टाइल्स मँगवाकर हमारे शासक अपने बाथरूमों की भव्यता में चार चाँद लगा रहे थे। अपने
लिए स्वर्ग के निर्माण में वे इतने लिप्त थे कि नरक में धकेली जा रही जनता की
उन्हें रत्तीभर परवाह नहीं थी।
आन्ध्र
प्रदेश में मैला ढोने के काम में लगे दलित समुदाय के बीच सक्रिय संगठन सफाई
कर्मचारी आन्दोलन के अनुसार आज देश भर में 13 लाख लोग इस पेशे में लगे हुए हैं। न केवल
घरों में बल्कि नगरपालिकाओं, सेना और रेलवे में भी दलितों को इस गुलामी से भी बदतर काम में लगाया गया
है। हमारे देश में यदि कानून की कीमत कागज के टुकड़े से अधिक होती तो आज लाखों लोग
जेल के सींखचों के पीछे होते। लेकिन आम नागरिक ही नहीं सरकारी महकमों के आला अफसर
भी इस अपराध में लिप्त हैं।
अपने अतीत
का गुणगान करने वालों, टी.वी.
कैमरा की आँख से 21वीं सदी की
सुनहरी छवि देखने वालों और इसे महाशक्ति बनाने का दम्भ पालने वालों को अपनी नाक के
नीचे इस घिनौने वंशागत पेशे की लगातार फैलती सड़ान्ध महसूस नहीं होती?
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