शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

किसानों की आत्महत्याएँ- खेती के संकट से जुड़े कुछ अहम सवाल

किसानों की आत्महत्याएँ:
खेती के संकट से जुड़े कुछ अहम सवाल
-दिगम्बर
पिछले वर्ष कपूरथला (पंजाब) की नदाला मण्डी में धान बेचने आये ÿú वर्षीय गुरुदेव सिंह ने मण्डी परिसर में ही आत्महत्या कर ली क्योंकि एक हफ्रते तक इन्तजार करने के बाद भी अनाज नहीं बिका। उसी समय पंजाब के दो अन्य किसानों ने भी इसी वजह से आत्महत्या की थी। (द हिन्दू, üÿ अक्टूबर üúúÿ।)

महाराष्ट्र के वर्धा जिले में स्थित डोरली गाँव के कर्ज में डूबे किसानों ने एक साइन बोर्ड लगाया है जिस पर लिखा है- ‘‘यह पूरा गाँव बिकाऊ है।’’ पिछले एक वर्ष में वर्धा जिले के ýúú किसानों ने आत्महत्या की है। किसानों का कहना है कि आत्महत्या करने से अच्छा है कि हम अपनी सारी सम्पत्ति बेचकर कर्ज चुका दें और गाँव छोड़कर कहीं और चले जायें। इससे पहले पंजाब के भटिण्डा जिले के हरकिशनपुरा और चार अन्य गाँवों के किसानों ने भी गाँव के बाहर ऐसा ही बोर्ड लगा दिया था। (द हिन्दू, üù दिसम्बर üúúÿ।)

महाराष्ट्र के चिंगापुर, नाँदगाँव, खण्डेश्वर और पुसत तालुका (यवतमाल) के किसानों ने बैंकों का कर्ज चुकाने के लिए सामूहिक रूप से अपने पूरे परिवार की किडनी बेचने के लिए हाट लगाने और बाद में आत्महत्या करने का फैसला किया है। उन्होंने इस हाट के उद्घाटन के लिए राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री को निमन्त्रण भेजा है। चिंगापुर के पड़ोसी गाँव वालों ने बोर्ड लगाया है, ‘‘यह गाँव गिरवी रख लो। हमें सामूहिक आत्महत्या की अनुमति दो।’’ (सहारा समय, ûû फरवरी üúúö।)

पिछले 10 वर्षों में हमारे देश के 25 हजार से भी अधिक किसानों ने आत्महत्या की है। कृषि राज्यमन्त्री ने हाल ही में लोकसभा को बताया कि केवल दो वर्षों (2002-2004) के भीतर देश के सात राज्यों के 5,862 किसानों ने आत्महत्या की है। आत्महत्या की त्रासद घटनाएँ सबसे अधिक आन्ध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में हुईं, लेकिन देश के कुछ अन्य राज्यों से भी किसानों द्वारा आत्महत्या की खबरे आती रही हैं।
हमारे देश के किसान युगों-युगों से बाढ़, सूखा, अकाल जैसी प्राकृतिक आपदाओं और शासक वर्गों के अमानुषिक शोषण-उत्पीड़न को सहते आ रहे हैं। ऐसे भी वक्त गुजरे जब अकाल और महामारी के चलते लाखों किसान काल के गाल में समा गये, लेकिन जीवन और संघर्ष के प्रति उनकी अटूट आस्था पर कोई आँच नहीं आयी। फिर क्या वजह है कि आज आधुनिक खेती के जरिये अधिक फसल उगाने के बावजूद वे आत्महत्या करने के लिए विवश हैं।
क्षोभ की बात तो यह है कि हमारे देश के शासकों ने काफी समय तक इस सच्चाई को स्वीकार ही नहीं किया कि इन आत्महत्याओं का कृषि संकट या सरकारी नीतियों से कोई भी लेना-देना है। वे कानूनी और तकनीकी दाँव-पेंच करके इनकी वास्तविक संख्या को छुपाने और इन्हें सामान्य खुदकुशी साबित करने के प्रयास में लगे रहे। कुछ नेताओं ने तो यहाँ तक कहा कि किसान सरकारी मुआवजे के लालच में आत्महत्या कर रहे हैं।
आत्महत्याओं का यह अनवरत सिलसिला किसान समुदाय की दुर्दशा की चरम अभिव्यक्ति है। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि भारतीय कृषि क्षेत्र एक गम्भीर और चौतरफा संकट का शिकार है। इसके स्वरूप, कारण और समाधान को लेकर भले ही मतभेद हों, लेकिन इस संकट की मौजूदगी से आज कोई भी इन्कार नहीं कर सकता।
लागत के चढ़ते दाम और कर्ज का कसता शिकंजा
खेती के वर्तमान संकट ने छोटे और सीमान्त किसानों को सबसे अधिक प्रभावित किया। आत्महत्या की दर्दनाक घटनाएँ भी ऐसे ही परिवारों में सबसे अधिक हुईं, लेकिन मध्यम और खुशहाल मध्यम किसान भी इस त्रासदी के शिकार हुए हैं।
जिन इलाकों में नकदी फसल अधिक उगायी जाती है वहाँ खेती का संकट काफी तीखे रूप में सामने आया। बिहार, बंगाल, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ जैसे अपेक्षतया पिछड़ी खेती वाले इलाकों के किसान कहीं ज्यादा बदहाल और अमानवीय परिस्थितियों में जीवन यापन कर रहे हैं। वहाँ की समस्याएँ कहीं अधिक विकराल हैं लेकिन उनकी प्रकृति भिन्न है। नगदी फसल उगाने वाले किसानों की तरह लाखों रुपये कर्ज लेकर खेती में लगा देने, घाटा होने के चलते उसे न चुका पाने और पूरी तरह बर्बाद हो जाने की शर्मिंदगी और सदमे से उनका सामना नहीं होता।
हमारे देश में छोटी जोत वाले 80% किसानों के पास जमीन तो कम है ही, खेती के जरूरी संसाधनों और पूँजी का भी अभाव है जिसके बिना आज खेती करना सम्भव नहीं। ऐसी स्थिति में खाद, पानी, बीज, बिजली और खेती के औजारों के लिए कर्ज लेने के सिवा उनके सामने और कोई चारा नहीं।
सरकारी तन्त्र पहले इस बात से भी इन्कार करता रहा कि किसानों की आत्महत्या का कारण कर्ज के जाल में पफँसे होना है। लेकिन इस सम्बन्ध में जितनी भी जाँच रिपोर्टें आयीं उन सबमें अन्य कारणों के अलावा इसे एक प्रमुख कारण बताया गया है।
किसानों द्वारा लिये गये कुल कर्जों में बैंकों और सहकारी संस्थाओं का हिस्सा केवल 8 से 10% है। बाकी कर्जों के लिए वे सूदखोरों पर निर्भर हैं। कारण यह है कि 1990 के बाद नयी आर्थिक नीतियों के तहत बैंकों द्वारा कृषि क्षेत्र को दिये जा रहे कर्ज की राशि दिनो-दिन कम की जा रही है। ग्रामीण बैंक भी गाँव से जमा होने वाली कुल राशि का केवल 15% ही किसानों को कर्ज के रूप में देते हैं और वह भी पहले की तुलना में अधिक ब्याज दरों पर। जिन किसानों के पास अपने नाम से जमीन नहीं है, उन्हें गारण्टी के अभाव में बैंकों से कर्ज नहीं मिलता। ऐसे में अधिकाधिक किसान साहूकारों, आढ़तियों या खाद-बीज के व्यापारियों से कठोर शर्तों और भारी ब्याज पर कर्ज या उधार लेने को मजबूर हैं।
पिछले वर्ष बोआई के मौसम में विदर्भ के 100 से भी अधिक किसानों ने आत्महत्या की थी क्योंकि उस समय कृषि लागत की खरीद के लिए किसानों को तत्काल पैसे की जरूरत थी लेकिन पुराना कर्ज न चुका पाने के कारण साहूकारों ने उन्हें नये कर्ज नहीं दिये। ऐसी हालत में खेत की बोआई न हो पाने और जिन्दगी का अन्तिम सहारा भी छिन जाने के बाद वे इतने हताश हो गये कि उन्हें और कोई रास्ता नहीं सूझा।
कटाई के मौसम में एक बार फिर आत्महत्याओं का सिलसिला शुरू हुआ क्योंकि किसानों को फसल के उचित दाम नहीं मिले। नवम्बर-दिसम्बर 2005 में वहाँ के 100 से अधिक किसानों द्वारा आत्महत्या की खबर आयी। इस बार भी उनकी चरम हताशा का कारण कर्ज न चुकाने, नया कर्ज न मिलने और खेती की लागत नहीं जुटा पाने को लेकर ही था। किसानों का इस दुश्चक्र से निकल पाना आसान नहीं।
सरकारों की चरम उपेक्षा, लागतों की चढ़ती कीमतें और सिकुड़ती आमदनी
वर्तमान प्रधानमन्त्री और कृषिमन्त्री ने बार-बार इस बात को दोहराया है कि पिछले 10-15 सालों से खेती पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इस उपेक्षापूर्ण रवैये के कारण भारी संख्या में किसान कर्ज के जाल में पफँसते चले गये। पिछले 15 सालों के दौरान सरकार की आर्थिक नीतियों में बदलाव के चलते कृषि लागत और समर्थन मूल्य के मद में दी जाने वाली सब्सिडी एक-एक करके वापस ले ली गयी। नतीजा यह कि किसानों का लागत खर्च तेजी से बढ़ता गया। 1992 के बाद से खाद की लागत में 4 गुने की वृद्धि हुई क्योंकि यूरिया, डी.ए.पी. और पोटाश, तीनों तरह के खादों की कीमतें तेजी से बढ़ी हैं।
सिंचाई पर होने वाला खर्च भी काफी तेजी से बढ़ा है क्योंकि सरकार ने नलकूपों और नहरों पर पैसा खर्च करना लगभग बन्द कर दिया है और किसानों को सिंचाई के निजी साधनों पर निर्भर होना पड़ा है। पिछले 10 वर्षों में आन्ध्र प्रदेश के किसानों ने कर्ज लेकर लगभग 9 लाख नये पम्पिंग सेट लगाये। इस मद में किसानों ने करोड़ों रुपये खर्च किये जबकि इससे कम खर्च में वहाँ सामूहिक सिंचाई की व्यवस्था हो सकती थी। लगभग यही हाल देश के अन्य राज्यों का भी है। निजी नलकूपों में इस बेतहाशा वृद्धि के चलते पानी का स्तर नीचे चला गया और देश के कुछ इलाकों में तो भूगर्भ जल समाप्तप्राय हो गया। खेती की तो बात ही क्या वहाँ पीने का पानी भी दुर्लभ हो गया है।
सिंचाई के लिए निजी ट्यूबवैल पर निर्भर होने और कृषि यन्त्रों का प्रचलन बढ़ने के साथ ही किसानों की ऊर्जा खपत में भी वृद्धि हुई। पिछले 10-15 वर्षों में सरकार की नयी नीतियों के चलते बिजली और डीजल की कीमतें भी काफी तेजी से बढ़ी हैं।
इस बीच बीज की कीमतों में भी औसतन 4 गुने की वृद्धि हुई। खासतौर पर विदेशी बीज कम्पनियों ने इस दौरान घटिया और महँगे बीज बेचकर किसानों को बेतहाशा लूटा। महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में विदेशी कम्पनियों ने यह दावा किया था कि बी.टी. कॉटन बीज से उपज अधिक होगी और कीड़े भी नहीं लगेंगे। किसानों ने उन्नत किस्म के अन्य बीजों की तुलना में 4 गुना अधिक कीमत पर बहुराष्ट्रीय कम्पनी मोनसेण्टो के बीज खरीदे लेकिन कम्पनी के सारे दावे खोखले साबित हुए। भारी मात्रा में बीज उगे ही नहीं और जो उगे उन पर भी फसल अच्छी नहीं आयी। किसानों को खाद और कीटनाशाक का प्रयोग पहले से अधिक करना पड़ा। मोनसेण्टो कम्पनी की लूट और धोखाधड़ी का जाल अब कई अन्य राज्यों में भी फैल गया है।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि किसानों की मेहनत पर सूदखोर, बड़े व्यापारी, खाद, बीज, कीटनाशक व मशीनरी कम्पनियाँ, मिल मालिक और थोक विक्रेता मालामाल हो रहे हैं, जबकि किसानों की आमदनी में दिनो-दिन गिरावट हो रही है।
विश्वबाजार के दानवों के आगे बेबस किसान
कैसी विडम्बना है कि आज किसानों की मुसीबत का कारण फसल चौपट होना नहीं, बल्कि अच्छी पैदावार ही अक्सर उनकी तबाही का कारण बन जाती है।
आज लगभग हर छोटा-बड़ा किसान बाजार के लिए फसल उगाता है, यानी माल और बाजार अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है। बाजार में माल बिकेगा या नहीं और यदि बिक भी गया तो उसकी अच्छी कीमत मिलेगी या नहीं, इसकी आज कोई गारण्टी नहीं है। जो किसान मुख्यतः बाजार के लिए फसल नहीं पैदा करते, वे भी अपनी लागत खरीदने के लिए बाजार पर निर्भर हैं।
1990 से पहले समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद की व्यवस्था और विदेशों से आयात-निर्यात पर प्रतिबन्ध के चलते बाजार भाव के उतार-चढ़ाव पर काफी हद तक नियन्त्रण था। लेकिन अब नयी आर्थिक नीतियों ने किसानों को बाजार की निर्मम और दानवी शक्तियों के आगे असहाय छोड़ दिया है। अकेले-अकेले अपने स्थानीय बाजार के आढ़तियों और थोक विक्रेताओं से मुकाबला करने में असमर्थ किसान भला विश्वबाजार में जबड़े खोलकर घात लगाये बैठी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मगरमच्छों से कैसे बच सकते हैं।
सरकार ने वर्ष 2000 के बाद 1,400 से भी अधिक सामानों के आयात पर प्रतिबन्ध हटाकर भारतीय बाजारों को विदेशी सामानों से पाटने का रास्ता साफ कर दिया। व्यापारी भविष्य में भारी मात्रा में विदेशों से कृषि उत्पाद मँगाने लगेंगे। विश्वबाजार में मन्दी और साम्राज्यवादी देशों में किसानों को दी जा रही भारी सब्सिडी के चलते विदेशी सामानों की कीमतें कम होना लाजिमी हैं। जब बाजार सस्ते विदेशी मालों से पट जायेगा तो देशी कृषि उत्पादों के दामों में भी गिरावट आना लाजिमी है।
दूसरी ओर सरकार ने व्यापारियों को यह छूट दे दी कि वे जिस भी कीमत पर जितना भी चाहे कृषि उत्पाद विदेशों में बेच सकते हैं। इस काम के लिए सरकार उन्हें सब्सिडी और अन्य सुविधाएँ भी दे रही है। लेकिन विश्वबाजार में गरीब देशों से निर्यातकों की भरमार और धनी देशों में ग्राहकों की संख्या सीमित होने के चलते वहाँ इन चीजों की कीमतों में गिरावट आ रही है। फिर भी विदेशी मुद्रा के लोभ में कम से कम कीमत पर निर्यात जारी है, जिसका कुछ न कुछ प्रभाव अपने देश के बाजारों पर भी देखने को मिलता है। अभी देश के कृषि बाजार पर विश्वबाजार का असर काफी कम है क्योंकि कुल व्यापार में आयात-निर्यात का हिस्सा अधिक नहीं है। फिर भी कपास, सरसों, प्याज की कीमतों पर इसके असर को देखते हुए हम आने वाले दिनों में खेती पर विश्वबाजार की काली छाया का अनुमान लगा सकते हैं।
ऐसा भी नहीं कि निर्यात बढ़ने से किसानों को सही भाव मिल रहा हो। 2003-04 में प्याज का निर्यात 8.4 लाख टन था जो 2004-05 में बढ़कर 10 लाख टन हो गया। लेकिन फिर भी स्थानीय बाजार में प्याज का भाव फसल आते ही तेजी से गिरा और दिसम्बर महीने में महाराष्ट्र में प्रति क्विण्टल 460 रुपये से घटकर 275 रुपये और गुजरात में 450 रुपये से घटकर 175 रुपये तक आ गया। स्टोरेज की सुविधा न होने के कारण प्याज को रख पाने की भी समस्या खड़ी हो गयी।
आज की स्थिति में अपने परिश्रम के बल पर किसान जितना भी अधिक पैदावार बढ़ायें, विविधिकरण अपनाकर चाहे कोई भी फसल उगायें, बाजार की अन्धी ताकतों के सामने वे लाचार हैं। चाहे गुजरात और महाराष्ट्र के प्याज और कपास उत्पादक हों या कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के फल उत्पादक, सब्जी की खेती करने वाले हों या चाय, कॉफी, मसाला और अनाज पैदा करने वाले किसान, सब की हालत डाँवाडोल है, सबका भविष्य अनिश्चित है।
खेती से होने वाली आमदनी में गिरावट और उससे गुजारा न होने के चलते आज भारी संख्या में किसान खेती करना छोड़ रहे हैं। 1991 से 2001 के बीच के 10 वर्षों में 44 लाख तथा 2001 से 2005 के बीच 1 करोड़ 70 लाख परिवारों को खेती छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण, 2005।) देश के 40% किसान खेती छोड़कर कोई और रोजगार अपनाना चाहते हैं। लेकिन कोई वैकल्पिक उपाय न होने के कारण उनका खेत छोड़कर कहीं जाना भी सम्भव नहीं। 10 में से 8 किसानों के लिए खेती आज गले की हड्डी बन गयी है।
खेती का वर्तमान संकट: विकृत पूँजीवादी विकास का नतीजा
आजादी के बाद हमारे देश के शासकों ने सामन्तवाद विरोधी कार्यभारों को पूरा नहीं किया। उन्होंने अपने संकीर्ण, वर्गीय स्वार्थों को ध्यान में रखते हुए खेती में मन्थर, अवरुद्ध और सीमित पूँजीवादी विकास का रास्ता अपनाया। उन्होंने मुकम्मिल भूमि-सुधार के अपने वायदे को तिलांजलि दे दी और कुछ खास इलाकों में सीमित हद तक ही भूमि-सुधार लागू किया। भूमि पर मालिकाने का सवाल गरीब और भूमिहीन किसानों के पक्ष में हल न होने के कारण देश के बड़े इलाके में परजीवी वर्गों के पास जमीन बेकार पड़ी रही। साथ ही उत्पादक शक्तियाँ भी पूरी तरह मुक्त नहीं हुईं।
’60 के दशक में हरितक्रान्ति के नाम पर बड़े भू-स्वामियों, फार्मरों और धनी किसानों को केन्द्र में रखते हुए देश के कुछ चुने हुए इलाकों में उन्होंने खेती में पूँजी, तकनीक, उन्नत किस्म के बीज, खाद, ऊर्जा इत्यादि को बढ़ावा दिया और किसानों को कई तरह के संरक्षण और सहायता प्रदान की। इनमें विश्वबाजार से हिफाजत के लिए आयात-निर्यात पर प्रतिबन्ध और लाइसेंस-परमिट व्यवस्था, समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद, को-ऑपरेटिव को बढ़ावा, सस्ते दर पर खाद-बीज-पानी-बिजली-कृषि उपकरण उपलब्ध कराने के लिए सरकारी सहायता, कम ब्याज पर बैंको से कर्ज इत्यादि प्रमुख थे।
आम किसानों की व्यापक पहलकदमी और भागीदारी के बगैर नौकरशाही के जरिये ऊपर से थोपी गयी इन नीतियों और सहूलियतों का लाभ देश के कुछ खास इलाकों के मुट्ठी भर बड़े भूस्वामियों तक ही पहुँच पाया। सहकारी संस्थाओं, ग्रामीण बैंकों और विकास योजनाओं पर कब्जा करके ऊपरी तबके के किसान मालामाल हो गये। छोटे-मझोले मालिक किसानों को भी इन नीतियों ने शुरुआती दौर में एक हद तक राहत प्रदान की। लेकिन इनका सबसे अधिक लाभ उद्योगपतियों को मिला जिनके लिए ग्रामीण क्षेत्र में बाजार का विकास हुआ। हरितक्रान्ति ने अधिकाधिक किसानों को खेती के पूँजीवादी तौर-तरीकों और माल उत्पादन के लिए प्रेरित किया। पिछड़े से पिछड़े इलाके के छोटी से छोटी जोत वाले मालिक किसान भी कृषि लागत और उपज के लिए बाजार पर निर्भर होते गये तथा पूँजी के मालिकों द्वारा उनका निर्मम शोषण भी बढ़ता गया।
आजादी के बाद सामन्तवाद के प्रति नरम और समझौतापरस्त पूँजीवादी नीतियों ने किसानों के बीच ध्रुवीकरण को मन्थर, विलम्बित और पीड़ादायी बना दिया। फिर भी किसान आबादी के एक छोर पर बड़े फार्मर, बड़े भूस्वामी, कुलक और धनी किसान हैं जिनकी संख्या कुल किसान परिवारों के 5% से भी कम है। इनके पास पर्याप्त पूँजी, कृषि उपकरण और सिंचाई के साधन हैं, खेती के अलावा आय के दूसरे स्रोत हैं और ये खेती के लिए दूसरों के श्रम का शोषण करते हैं। यह तबका खेती के वर्तमान संकट से लगभग अछूता है और सुधारों का समर्थन करता है।
दूसरे छोर पर लगभग 80% गरीब और मध्यम किसान हैं, जिनके पास जमीन और संसाधन अपर्याप्त मात्रा में हैं, पूँजी का अभाव है। परिवार में बँटवारे के चलते जोत का आकार छोटे से छोटा होता चला गया है। पूँजीवाद के चौतरफा शोषण और कंगाली-बदहाली के बावजूद ये गुजारे की खेती करने को अभिशप्त हैं। अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में रोजगार के अभाव में खेत के छोटे-छोटे टुकड़ों से बँधे रहना इनकी मजबूरी है। सुधारों का बुलडोजर अभी पूरी रफ्रतार पर नहीं पहुँचा है फिर भी उसका सबसे भीषण प्रहार इन्हीं तबकों पर हुआ है। कृषि संकट को न झेल पाने के चलते भारी संख्या में गरीब किसानों ने खेती करना छोड़ दिया, बड़ी तादाद में आत्महत्या करने के लिए मजबूर हुए तथा कम उपभोग, बदहाल जिन्दगी और हाड़तोड़ मेहतन के बल पर जो लोग अभी तक अपने को टिकाये हुए हैं, उनमें भी भविष्य को लेकर बेचैनी और हताशा व्याप्त है।
आम किसानों की समस्याएँ, चाहे पूँजी और तकनीक का अभाव और कर्ज का बोझ हो या लागत मूल्य का बेलगाम बढ़ना और उपज की सही कीमत न मिल पाना, ये सभी समस्याएँ हमारे देश की विकृत-विकलांग पूँजीवादी व्यवस्था की देन है। लेकिन किसानों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाली और संकट को घनीभूत रूप से अभिव्यक्त करने वाली ये सारी समस्याएँ एक गहरे, जटिल और बहुआयामी संकट के अंश मात्रा हैं। आर्थिक संकट के अलावा पर्यावरण का विनाश, जमीन के नीचे के पानी का बेतहाशा दोहन और जल-स्तर में लगातार कमी, जमीन की उर्वरता का क्षरण, जहरीले रसायनों और जैव तकनीक का प्रकृति, मनुष्य, जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों पर विनाशकारी प्रभाव तथा सामाजिक-सांस्कृतिक संकट भी कृषि संकट के महत्वपूर्ण आयाम हैं जिनके ज्यादा दूरगामी और स्थायी दुष्परिणाम सामने आयेंगे। ये सभी समस्याएँ आजादी के बाद की जनविरोधी नीतियों की अनिवार्य परिणति हैं और आने वाले समय में इनके और भी विकट रूप धारण करने की सम्भावना है।
खेती को देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हवाले करने की नयी साजिशें
’80 के दशक तक हरितक्रान्ति का गुब्बारा पिचकने लगा था। खेती में ठहराव बढ़ता जा रहा था और संकट भी दिनो-दिन गहराता जा रहा था जिस पर यहाँ के शासकों ने उस दौरान बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। 1991 के बाद से विभिन्न पार्टियों की आपसी सहमति से इस दिशा में जो कदम उठाये गये हैं उन्होंने इस संकट को हल करने के बजाय उसे और भी अधिक गहराने का ही काम किया है।
किसानों की आत्महत्याओं के पीछे भी इन नीतियों की कहीं न कहीं भूमिका जरूर है। लेकिन हमारे देश के शासक जनता में आपसी एकता और उन्नत चेतना की कमी का लाभ उठाकर 25 हजार किसानों की मौत के बावजूद चैन की बंशी बजा सकते हैं। जनता को कीड़े-मकोड़े की तरह मारकर भी साम्राज्यवादियों को खुश रखने के लिए कृषि क्षेत्र को अनियन्त्रिात और असहाय छोड़ सकते हैं।
सरकार जिस तरह पूरे देश को साम्राज्यवादियों के हवाले करती जा रही है, उसी तरह कृषि क्षेत्र को भी उनके लिए खोल रही है। दुनिया भर के पूँजीपति और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ खेती को पूँजी-निवेश और भारी मुनापफे का नया सुरक्षित क्षेत्र मानती हैं। इसलिए कृषि को डंकल प्रस्ताव के जरिये विश्व व्यापार संगठन के अधीन लाया गया और अब हर तरह के सरकारी नियन्त्रण और संरक्षण हटाकर इसे पूँजी-निवेश और मुनापफे के लिए पूरी तरह खोला जा रहा है।
जहाँ तक खेती को संरक्षण और सहायता प्रदान करने का सवाल है, दुनिया भर में पूँजीवादी सरकारें अपनी खेती को संरक्षण न दें तो उसे टिकाये रखना सम्भव नहीं होगा। खेती में प्राकृतिक आपदाओं, मौसम की गड़बड़ी, फसलों के रोगों, बाजार की अनिश्चितता और उद्योग क्षेत्र द्वारा उनकी बेहिसाब लूट को देखते हुए यदि सरकार संरक्षण न दे तो उन देशों के किसान खेती करना छोड़ देंगे। इसके परिणामस्वरूप पूँजीवाद का संकट विकराल रूप धारण कर लेगा क्योंकि उद्योगों के लिए कच्चे मालों की आपूर्ति और उनके मालों की खपत के लिए कृषि क्षेत्र का टिके रहना जरूरी है।
विश्व व्यापार संगठन के जरिये आज साम्राज्यवादी देश तीसरी दुनिया की खेती को अपने हितों के अनुकूल ढालना चाहते हैं। भारतीय शासक उनकी साम्राज्यवादी नीतियों को ही लोकप्रिय और आकर्षक बनाकर जनता पर थोपते जा रहे हैं। लेकिन वे यहाँ की खेती को उस रूप में नियन्त्रिात और संचालित नहीं करेंगे जैसे कि अपने देश में करते हैं। अपने देश में वे किसानों को अरबों डालर की सब्सिडी देते हैं और उद्योगों द्वारा उन्हें निगल लिये जाने से बचाते हैं, जबकि हमारे देश में इसे समाप्त किया जा रहा है। उन्हें यहाँ की खेती-किसानी के तबाह होने की चिन्ता नहीं है। जब हमारे अपने देश के शासकों को नहीं है तो भला उन्हें क्यों होगी। साम्राज्यवादी चाहते हैं कि भारत के किसान अनाज पैदा करना छोड़ दें और हम पूरी तरह उनके मुहताज हो जायें। वे चाहते हैं कि यहाँ के खेत, पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधन, लाखों प्रजातियों के पेड़-पौधों के जीन, प्रयोगशालाएँ, यहाँ के वैज्ञानिक, किसानों और पैदावार पर उनका पूरी तरह कब्जा हो जाये। किसानों के लिए ठेका खेती, कृषि विविधीकरण, पानी का निजीकरण जैसे उपायों से मूलतः देशी-विदेशी थैलीशाहों का ही भला होगा। ऊपरी तबके के मुट्ठीभर सम्पन्न किसान भी कुछ हद तक इससे लाभ उठा सकते हैं, लेकिन गरीब और मध्यम किसानों के लिए तो यह और भी विनाशकारी साबित होगा।
किसानों की आत्महत्याओं ने आम किसानों के संकट के दो प्रमुख कारणों को तीखेपन से उजागर किया था। पहला, सरकार द्वारा लम्बे समय से खेती की घोर उपेक्षा तथा दूसरा, पूँजीवादी शक्तियों द्वारा किसानों की निर्मम लूट। अब तक का अनुभव बताता है कि सरकार द्वारा लागू की गयी नीतियाँ तथा विभिन्न संगठनों, व्यक्तियों और कमेटियों द्वारा दिये गये सुझाव संकट के इन्हीं दोनों कारणों को और गहराने में सहायक हैं। सुधारों की रामबाण दवा के नाम पर किसानों को जहर दिया जा रहा है। संकट से उबारने के बहाने उन्हें और भी भीषण संकट की ओर धकेलने की साजिश रची जा रही है।
यह संकट हल कैसे होगा?
खेती के संकट को हल करने के दो रास्ते हो सकते हैं। एक रास्ता है अपने देश के संसाधनों और जनता की सामूहिक क्षमता को समायोजित करके मेहनतकशों के हक में खेती का पुनर्गठन। दूसरा रास्ता है, देशी-विदेशी पूँजीपतियों और समाज के ऊपरी तबके के हित में नीति निर्माण। हमारे देश का शासक वर्ग इस दूसरे वाले रास्ते पर चलने को कटिबद्ध है। उसने आम जनता के हित में सोचना पूरी तरह बन्द कर दिया है और मान लिया है कि पूँजीवादी-साम्राज्यवादी शक्तियाँ ही अब खेती का उद्धार कर सकती हैं।
क्या हमारे देश के किसान विश्वबाजार की दानवी शक्तियों का मुकाबला कर सकते हैं? एक तरफ हजारों एकड़ जमीन के मालिक साम्राज्यवादी देशों के किसान हैं जिन्हें सरकार से अरबों डालर की सालाना सब्सिडी मिलती है। दूसरी ओर कर्जे और अभाव में डूबे हमारे देश के साढ़े छह करोड़ छोटी जोत वाले किसान हैं जिन्हें किसी भी तरह की सहायता देने से सरकार हाथ उठा चुकी है। गैरबराबर लोगों के बीच इस प्रतियोगिता का एक ही नतीजा होगा- देश के अधिकांश किसानों की तबाही। अपनी नीतियों के जरिए हमारे देशी शासकों और साम्राज्यवादी देशों की यही मंशा है। इलाकाई पैमाने पर अपनी तात्कालिक माँगों के लिए लड़कर कुछ हासिल करना भी अब बीते जमाने की बात होती जा रही है। और यदि सरकार दबाव में कुछ दे भी दे तो इससे संकट थोड़े समय के लिए टल जायेगा, स्थायी रूप से हल नहीं हो पायेगा।
खेती का संकट एक देशव्यापी संकट है। किसी खास इलाके या किसी खास किसान के ऊपर इसका असर कम या ज्यादा हो सकता है लेकिन थोड़े से लोगों को छोड़कर देश के किसानों की भारी तादाद इसकी चपेट में है। इसलिए इस संकट को सतही तौर पर और टुकड़े-टुकड़े में समझने और हल करने का कोई भी प्रयास किसानों की इस विपत्ति को समाप्त नहीं कर सकता। वर्तमान नीतियों के दायरे में किसानों के लिए राहत का हर सरकारी-गैरसरकारी झाँसा, दरअसल पूँजीवाद को ही मजबूत बनायेगा, जो खुद ही किसानों की सारी समस्याओं की जड़ है।
हमारे देश में उर्वर जमीन, पेड़-पौधों और फसलों की लाखों किस्में, जलस्रोत और विविधतापूर्ण जलवायु के रूप में प्रकृति का अनमोल खजाना मौजूद है। इनका सही ढंग से उपयोग करने पर हमारी धरती सोना उगल सकती है। लेकिन मुनाफाखोरी इस राह में सबसे बड़ी रुकावट है। इसी का नतीजा है कि आज हमारी जमीन की उर्वरा शक्ति क्षीण हो रही है, जलस्रोत सूख रहे हैं, उत्पादकता घट रही है और किसान खेती से बाहर धकेले जा रहे हैं। कोई एक किसान न तो इसके लिए जिम्मेदार है और न ही वह अकेले-अकेले इसे हल कर सकता है। यह काम सामूहिक प्रयास से ही सम्भव है।
पानी के प्रबन्धन को ही लें। कोई अकेला किसान इसके हल के बारे में सोच भी नहीं सकता। पूरे देश के पैमाने पर सिंचाई के बहुआयामी साधन और तरीके अपनाकर, नहरों का जाल बिछाकर, सामूहिक सिंचाई व्यवस्था और जलसंरक्षण को बढ़ावा देकर ही जलस्तर लगातार नीचे गिरने और स्थायी सूखे की समस्या से निपटा जा सकता है। जो सरकार अपनी भूखी जनता से राशन का 5 किलो अनाज छीन सकती है, उससे यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि वह लाखों करोड़ रुपये खर्च करके इस विराट योजना को लागू करेगी। उसने इस काम का ठेका साम्राज्यवादियों को देना शुरू कर दिया है। कई राज्यों में विश्वबैंक की जलपरियोजनाएँ चल रही हैं। सभी राज्य लालायित हैं कि विदेशी वहाँ आयें और पानी पर अपना कब्जा जमायें। 2006 में पानी का विदेशीकरण सरकार की प्राथमिकता सूची में शामिल है। ऐसा हुआ तो भारत के जल संसाधनों पर साम्राज्यवादियों का कब्जा निश्चित है।
क्या अपने दम पर किसानों के हित में पानी का प्रबन्धन असम्भव है? जनता की सामूहिक शक्ति, उनकी पहलकदमी और भागीदारी के बल पर कई देशों ने बिना विदेशी सहायता के इसे कर दिखाया है। हम भी ऐसा कर सकते हैं।
साम्राज्यवादी हमारे देश का विकास करने नहीं आ रहे हैं। वे हमारे संसाधनों का बेतहाशा दोहन करेंगे और किसानों को अंग्रेजी राज के दौरान नील की खेती करने वाले किसानों से भी बदतर हालत में पहुँचा देंगे। ठेके पर जमीन लेंगे, तो अधिकाधिक मुनापफे की हवस में जमीन का पानी सोख लेंगे और खेतों को ऐसा बंजर करके छोड़ जायेंगे कि उनमें घास का एक तिनका भी नहीं उगेगा।
खेती को संकट से उबारने के लिए सबसे जरूरी यह है कि विदेशी पूँजी और तकनीक पर भरोसा करने के बजाय अपनी जनता पर भरोसा किया जाये। अपने देश और जनता के व्यापक और दूरगामी हितों को केन्द्र में रखकर विचार करें तो सामूहिक और सहकारी खेती का विकल्प अपनाकर इस संकट का स्थायी समाधान सम्भव है। अपनी क्षमता और संसाधनों को सामूहिक रूप से समायोजित करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं। लेकिन यह तभी हो सकता है जब शासन और समाज के पूरे ढाँचे का रूपान्तरण किया जाये, शासन की बागडोर मेहनतकश जनता अपने हाथ में ले और हर छोटे-बड़े फैसले में उसकी प्रत्यक्ष भागीदारी हो। जनसंघर्षों का वेगवाही तूफान ही जनता में लोकतान्त्रिाक चेतना और देश के नवनिर्माण की असीम ऊर्जा उत्पन्न कर सकती है।

निश्चय ही यह आसान काम नहीं। लेकिन विचार-विमर्श और वाद-विवाद के जरिये इसके सभी पहलुओं को अच्छी तरह समझना और अधिकाधिक लोगों तक उसे पहुँचाना इस दिशा में उठाया गया पहला कदम होगा। हो सकता है कि एक साथ सभी लोग इसे समझ न पायें और इससे सहमत न हो पायें। हो सकता है कि कोई इसे पूरी तरह रद्द कर दे या कपोल कल्पना कहकर इसका मजाक उड़ाये। किसी भी नये विचार को एक साथ सभी लोगों द्वारा ग्रहण करना सम्भव नहीं होता। अंग्रेजों से आजादी की बात को लोग पहले कल्पना की उड़ान ही मानते थे। यह भी हो सकता है कि जनता के बीच लगातार बहस-मुबाहिसे के दौरान इससे बेहतर विकल्प उभर कर सामने आये। इस दिशा में पहल और प्रयास करना आज समय की माँग है, क्योंकि जो नीतियाँ चल रही हैं वे हमें एक गहरी खाई की ओर धकेलती जा रही हैं। यह हम पर निर्भर है कि आँख मूँदकर हम धारा के साथ बहते चले जायें, या आपस में मिलजुलकर सही विकल्प के तलाश की ओर बढ़ें।

आतंकवाद

आज दुनिया के तकरीबन सभी कोनों में आम आदमी आतंकवादी कार्रवाइयों से परेशान है। आतंकवाद वर्तमान विश्व की सबसे बड़ी सामाजिक समस्या बना हुआ है। अलग-अलग जगहों पर आतंकवाद से प्रभावित लोगों की संख्या कम या ज्यादा हो सकती है लेकिन टोकियो, शंघाई, सिंगापुर, दिल्ली, काबुल, बगदाद, कैरो, लन्दन, वाशिंगटन, लास ऐंजिलिस, सिडनी समेत दुनिया का कोई भी हिस्सा इस परेशानी से अछूता नहीं है। उत्तरी यूरोप के फिनलैण्ड, डेनमार्क, नार्वे इत्यादि देशों को छोड़कर जो इस समस्या से बहुत कम प्रभावित हैं, लगभग पूरा विश्व ही आज आतंकवाद की चपेट में है।
भारतीय उपमहाद्वीप के सारे ही देश बहुत बुरी तरह से इस समस्या में उलझे हुए हैं।
आज की दुनिया में आतंकवाद सबसे चर्चित विषय है। 11 सितम्बर 2001 में न्यूयार्क स्थित विश्व व्यापार केन्द्र पर आतंकवादी हमले के बाद से संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन, स्पेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली और यूरोप के सभी देश और वहाँ के नागरिक लगातार आतंक के साये में जी रहे हैं।
आतंकवाद है क्या?
इस विषय को लेकर दुनिया का समाज काफी बँटा हुआ है। अलग-अलग लोग अलग-अलग राय रखते हैं। पक्ष और विपक्ष दोनों ओर लोगों की अच्छी खासी संख्या है। दोनों पक्ष एक दूसरे पर तोहमतें लगाते रहते हैं लेकिन दोनों ही के विचारों में स्पष्टता नहीं है। इसलिए सही और गलत के बीच की विभाजक रेखा कभी स्पष्ट नहीं हो पाती। ऐसे में इस समस्या के बारे में वस्तुनिष्ठ हो पाना और कठिन हो जाता है।
साम्राज्यवादी और पूँजीवादी विश्व का प्रचारतन्त्र अपने वर्गीय हितों को ध्यान में रखकर प्रिण्ट और इलेक्ट्रानिक समाचार माध्यमों के जरिये अपने विरोधियों के खिलाफ लगातार एक पक्षपातपूर्ण प्रचार की आँधी चलाता रहता है।
तीसरी दुनिया की सरकारें और प्रचार माध्यम भी लगातार आतंकवाद के खिलाफ प्रचार करते रहते हैं, हालाँकि तीसरी दुनिया की सरकारों तथा विश्व के विभिन्न देशों और राष्ट्रों के बीच भी इस मुद्दे को लेकर गहरे विभाजन मौजूद हैं। अपने वर्गीय स्वार्थों को लेकर वे हर मसले पर ही बँटे हुए हैं।
आतंकवाद के मुद्दे पर जनता में भी एक राय नहीं है, वह बहुत बुरी तरह बँटी हुई है। जनता के बीच से दोनों ही पक्ष मासूम लोगों की हत्याओं से दुखी होते हैं और सोचते हैं कि ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन देश, राष्ट्र और राष्ट्रीयताओं तथा अलग-अलग क्षेत्र, र्ध्म और वर्गीय स्थिति के कारण उनमें एकता कायम नहीं हो पाती। जनता के बीच तीखे विभाजन के कारण कई देशों में तो आज गृहयुद्ध जैसी स्थिति बनती दिखायी दे रही है।
लेकिन इस समस्या का अहसास बहुत कम लोगों को है। बहुत थोड़े लोग हैं जो इसे ठीक से समझ पाते हैं। इसलिए कोई भी पक्ष आज की स्थिति का एक वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन और विश्लेषण नहीं कर पा रहा है- आम लोगों की तो बात ही क्या, जो सक्षम हैं वे भी नहीं।
आतंकवाद को लेकर लोगों की उलझनें तब और भी बढ़ जाती हैं जब एक ही तरह के लोगों, संगठनों या उनकी कार्रवाइयों को एक देश की सरकार कभी ठीक तो कभी गलत बताने लगती है। उदाहरण के लिए पश्चिम की ज्यादातर सरकारें दक्षिण अÚीकी कांग्रेस के सर्वमान्य नेता नेल्सन मण्डेला को एक जमाने में आतंकवादी मानती थीं। बाद में पश्चिम की इन्हीं सरकारों-अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, फ्रांस आदि के यहाँ वे सरकारी अतिथि बनने लगे और उन्हें नोबेल शान्ति पुरस्कार से नवाजा गया।
ओसामा बिन लादेन, उमर और तालिबान जब तक रूस के खिलाफ लड़ रहे थे तब तक अमरीका और पश्चिमी देशों की सरकारों की नजर में ये अपनी आजादी के लिए लड़ने वाले योद्धा थे। इन्हें सी.आई.ए. ने ही पैदा किया, उसी ने पाला-पोसा और उसी के पैसे से इन्होंने अफगानिस्तान में रूस के खिलाफ युद्ध का संचालन किया। सत्ता में आने के बाद भी हमेशा अमरीका और पश्चिम की प्रमुख सरकारें तालिबान का समर्थन करती रहीं क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि तालिबान और पाकिस्तान की मदद से वे मध्य एशिया में अपने हाथ-पाँव फैला सकेंगी और रूस से आजाद हुए देशों को अमरीका की झोली में डाल सकेंगी। इस तरह रूस को एक कोने में धकेलकर अमरीका इन देशों के तेल क्षेत्रों पर अपना पूरा अधिकार जमा लेने का मन्सूबा बाँध् रहा था।
लेकिन 11 सितम्बर की घटना के बाद तालिबान आतंकवादी हो गये। पिछले 200 सालों में अमरीका ने ऐसे बहुत सारे आतंकवादी लोगों और संगठनों को पैदा किया है और जनान्दोलनों का गला घोंटा है। निकारागुआ में सी.आई.ए. के पैसे पर लड़ने वाले कोण्ट्रा आतंकवादी इसके पहले सबूत हैं। चेचन्या के आतंकवादी अब तक रूस में अबोध् लोगों, औरतों और बच्चों की हत्याएँ करते रहे हैं, लेकिन अमरीका और पश्चिम की सरकारें उन्हें आतंकवादी मानने के बजाय आजादी के लिए लड़ने वाले बहादुरों के रूप में स्वीकार करती हैं, उन्हें अपने यहाँ शरण देती हैं और रूस के समक्ष मानवाध्किारों का प्रश्न उठाती हैं। परन्तु रूस की नजरों में ये आतंकवादी हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप में देखें तो पाकिस्तान की सरकार ने कश्मीर समस्या को अपने पक्ष में हल करने के लिए आतंकवादी संगठनों का निर्माण किया, तालिबान की मदद की और इन सबको इन्साफ, इन्सानियत और आजादी के लिए जंग करने वाले सूरमाओं की तरह प्रस्तुत किया। लेकिन 11 सितम्बर की घटना के बाद जब बुश ने मुशर्रफ से टेलीपफोन पर पूछा कि दोस्त या दुश्मन, तो मुशर्रफ का जवाब था- दोस्त! और तब से पाकिस्तान की जमीन और पाकिस्तान की सेना इस्तेमाल के लिए अमरीका के हवाले कर दी गयी। बाद में जब ये आतंकवादी पाकिस्तान में मुशर्रफ की जान के पीछे पड़ गये तो उसकी नजर में भी वे आतंकवादी हो गये और मुशर्रफ दुनिया से उनका नामोनिशान मिटा देने की बातें करने लगे।
हमारे अपने देश भारत में पंजाब के अकालियों से निपटने के लिए कांग्रेस सरकार ने सन्त भिण्डरावाला को खड़ा किया। बाद में यही भिण्डरावाला भारत सरकार की नजरों में आतंकवादी हो गया। इसी तरह श्रीलंका में भारत सरकार ने पहले तमिल टाइगर्स की मदद की लेकिन राजीव गाँधी की हत्या के बाद वही प्रभाकरन आतंकवादी हो गया।
अमरीका और पश्चिम की बहुतेरी सरकारें फिलिस्तीनी मुक्ति संगठनऔर यासिर अराफात को पहले आतंकवादी मानती थीं। बाद में जब वह सत्ता में आ गये तो उन्हें और उनकी सरकार को ओस्लो में हुए समझौतों के बाद कई देशों ने मान्यता दे दी। फिलिस्तीन के सवाल पर दुनिया की सरकारें पहले से ही बँटी हुई थीं और आज भी उनके बीच एक राय नहीं है।
हमारे अपने देश में और दुनिया भर में ऐसे 2-4 नहीं, हजारों उदाहरण दिये जा सकते हैं। कल के आतंकवादी सरकारों द्वारा बातचीत के लिए बुलाये जाते हैं, युद्ध विराम और समझौतों के बाद वही आतंकवादी सरकार बना लेते हैं और फिर वे तय करने लगते हैं कि कौन आतंकवादी है और कौन नहीं? ऐसे में लोगों के लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि दरअसल आतंकवादी कौन है और आतंकवाद का मतलब क्या है?
ज्यादातर जगहों पर जनता आतंकवाद के दमन में लगी सरकारों के आतंक से आतंकवादियों के आतंक की तुलना में ज्यादा नहीं तो कम तो कतई परेशान नहीं है।
ऐसे में आतंकवाद की समस्या पर एक सर्वमान्य राय बनाना या इसके कारणों की तह में जाना और इस समस्या के समाधन की ओर अग्रसर होना बहुत ही कठिन है।
किसी कार्य की सिद्धि के लिए या किसी उद्देश्य को हासिल करने के लिए जब अलग-थलग और छिटपुट हिंसा का सहारा लेकर आतंक की सृष्टि की जाये और इसे एक साध्न और कार्यदिशा के तौर पर इस्तेमाल किया जाये, तो इसे आतंकवाद कहा जाता है।
सामान्यतया आतंकवादी समूहों की प्रेरक शक्ति इन्साफ हासिल करना होती है। उनके सामने एक यूटोपिया (आदर्शलोक) होता है जिसे वे हासिल करना चाहते हैं।
जारशाही के जमाने में लम्बे समय तक रूस में आतंकवादी सक्रिय रहे। जारशाही के खिलाफ जनवाद और एक नये समाज के निर्माण के लिए संघर्ष उनकी प्रेरक शक्ति थी।
पहले आयरलैण्ड के लोग और बाद में उत्तरी आयरलैण्ड के लोग लम्बे समय तक ब्रिटेन के खिलाफ अपनी आजादी के लिए लड़ते रहे। इनमें से कुछ लोगों ने आतंकवाद का रास्ता भी अपनाया लेकिन उनकी भावनाएँ पवित्र थीं, उनकी आत्मा पाक-साफ थी।
हमारे देश में अनुशीलन से लेकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी तक आतंकवाद की एक लहर लगातार चलती रही। ये सभी संगठन ब्रिटिश उपनिवेशवाद से देश को आजाद कराना चाहते थे। बाद में इनके आदर्शों में समाजवाद भी शामिल हो गया।
आज भी भारत के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग उद्देश्यों को लेकर लड़ने वाले आतंकवादी संगठन और समूह मौजूद हैं। इनके अपने-अपने यूटोपिया हैं, जिनके लिए वे लड़ रहे हैं। किसी का यूटोपिया लोकतन्त्र और आजादी का निर्माण करना है, किसी का उद्देश्य समाजवाद का निर्माण करना है, तो कोई मध्ययुग के काल्पनिक और मनमोहक समाज की पुनर्स्थापना करना चाहता है।
दुनिया का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है।
आतंकवादी बहादुर और साहसी होते हैं, वे पवित्र आत्मा से अपने उद्देश्यों के लिए लड़ते हैं, इसलिए वे जनता के जिस हिस्से के सपनों के लिए लड़ते हैं उस जनता का बहुत थोड़ा सक्रिय समर्थन और ज्यादा निष्क्रिय समर्थन भी इन लोगों को मिलता है। बहादुरी के लिए वह इनकी पूजा करती है। आतंकवादी संगठनों ने हजारों महान आत्माओं को जन्म दिया है जिन्हें जनता आज भी श्रद्धा और आदर के साथ याद करती है।
हमारे देश में भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद आज भी नौजवानों के हीरो हैं। समूचा भारत आदर और श्रद्धा से उनका नाम लेता है और उनकी समाध्यिों पर मेले लगते हैं।
आतंकवाद जनता को संगठित करने, गोलबन्द करने और अपने पवित्र उद्देश्य के लिए उसे हर तरह के संघर्षों में उतारने में यकीन नहीं करता। इसके बजाय वह कुछ साहसी, बहादुर और अपने उद्देश्य के लिए जान हथेली पर लेकर काम करने वाले नौजवानों को अलग-अलग दस्तों के रूप में संगठित करता है, स्थापित व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश से भरा होता है और उतावलेपन का शिकार होता है।
सभी आतंकवादी संगठनों की प्रेरक शक्ति इन्साफ पर आधरित व्यवस्था और समाज की स्थापना करना होती है लेकिन इन्साफ के बारे में उनकी अवधरणा और यूटोपिया अलग-अलग विचारधरा और एक ही विचारधरा के अलग-अलग रंगों और आभाओं के हिसाब से अलग-अलग होते हैं। मूलतः और मुख्यतः वे अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए नहीं लड़ते, इसीलिए जनता उन्हें प्यार और सम्मान के साथ देखती है।
इतिहास में कभी भी आतंकवाद किसी उद्देश्य और सपने को पूरा करने का माध्यम नहीं बन सका और हमेशा व्यवस्था द्वारा पराजित हुआ है। वह जनता को जागृत, गोलबन्द और संगठित करने का काम नहीं कर सकता। जबकि यह एक सर्वविदित सच्चाई है कि चन्द वीरनायक नहीं बल्कि जनता ही इतिहास का निर्माण करती है। अगर जनता की चेतना ने उसे एक मुट्ठी में बाँध् दिया हो तो वह अपनी समवेत शक्ति से अपने यूटोपिया को जमीन पर उतार सकती है।
इस काम में जनता को नेताओं की हमेशा जरूरत होती है लेकिन वे तभी कामयाब हो सकते हैं जब वे जनसमुद्र में उठने वाली परिवर्तन की प्रबल लहरों के साथ पफेन की तरह मिले हों। जनता की चेतना से बहुत आगे बढ़कर कुछ-एक नेताओं या उत्साही और बहादुर लोगों का समूह अपने उद्देश्यों को पूरा नहीं कर सकता।
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जीवन और इतिहास निरन्तर गतिमान हैं। जीवन निरन्तर नयी-नयी चीजों को पैदा करता रहता है। इतिहास में जब कोई चीज या परिघटना पैदा होती है तो लोगों के बीच उसके बारे में अवधरणाएँ और विचार बनते हैं लेकिन वह नयी चीज या परिघटना भी स्थिर नहीं होती बल्कि निरन्तर विकासमान होती है। उसकी अवधरणा, उसके अर्थ, उसका तात्पर्य सब कुछ बदलता रहता है। ऐसे में पुरानी परिभाषाएँ सही बोध् नहीं दे पातीं। पुराने सिद्धान्तों के खाँचे से गतिमान जीवन का मेल नहीं बैठ पाता। इसलिए निरन्तर नयी-नयी परिभाषाओं और नये-नये सिद्धान्तों की आवश्यकता पड़ती है और उनका सृजन होता रहता है।
आतंकवाद के साथ भी कुछ ऐसा ही है। इस शब्द के गूढ़ अर्थ काफी बदल चुके हैं। एक-दो उदाहरणों के जरिए यहाँ अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया जायेगा।
सारे अरब देश लम्बे समय से इजराइल के आतंक के साये में जी रहे हैं। इजराइली राज्य आपादमस्तक आध्ुनिक हथियारों से सुसज्जित है, उसके पास नाभिकीय हथियार भी हैं। सभी जानते हैं कि उसे हथियारों से सुसज्जित करने वाला और नाभिकीय हथियार देने वाला कौन है। अमरीकी साम्राज्यवाद ने अपने फायदे के लिए उसे हथियारों से सुसज्जित किया है। अमरीका इजराइल को उस हलके में अपना दरोगा (बवच वद जीम इमंज) कहता है क्योंकि ऐन जरूरत के वक्त अरबों के तेल का अमरीका की ओर प्रवाह इजराइल के दम पर ही सुरक्षित है। एक उद्धत साँड़ की तरह वह कभी भी, कहीं भी आक्रमण कर देता है। इस सन्देह में कि इराक परमाणु हथियार बना सकता है, इजराइल ने 1981 में उसके नाभिकीय संयन्त्र पर हमला करके उसे तबाह कर दिया था और अब ईरान को भी लगातार ध्मकी दे रहा है कि वह उसके नाभिकीय संयन्त्रों को भी तबाह कर देगा। यह किसकी शह पर किसके फायदे के लिए हो रहा है, सारी दुनिया जानती है। क्या इजराइल और अमरीका आतंकवादी नहीं हैं?
आतंकवाद की परम्परागत अवधरणा के मुताबिक ये उसके नकारात्मक पक्ष या उसके नापाक पहलू का, यानी हिंसा के सहारे कार्यसिद्धि करने का, प्रतिनिध्त्वि करते हैं, उसके पाक और सही पक्ष का नहीं।
अमरीका 1648 में सम्पन्न वेस्टफालिया के समझौतों को अस्वीकार कर रहा है और कहता है कि वह राष्ट्र की सीमाओं को मान्यता नहीं देता। वह जब चाहे, जहाँ चाहे अपनी मर्जी और स्वार्थ के लिए हमला कर सकता है और हमेशा वही सही होगा। कूटनीतिक शब्दावली में जिसे वह आजादी (तिममकवउ) कहता है वास्तव में वे उसके स्वार्थ हैं। अमरीका के हिसाब से पिनोचे के चिली में सबसे ज्यादा आजादी थी और मानवाध्किारों का सम्मान होता था। इण्डोनेशिया के सुहार्तो और कांगो के मोबुतू जैसी तमाम निरंकुश सरकारें भी उसकी परिभाषा के मुताबिक आजादी की समर्थक थीं। अमरीका द्वारा गढ़ी जा रही इन परिभाषाओं के पीछे दुनिया पर वर्चस्व कायम करने और ध्रती, पानी और आसमान का पूरा मालिक बन जाने का उसका घृणित कुत्सित मन्सूबा छिपा हुआ है।
अफगानिस्तान और इराक में आध्ुनिकतम हथियारों का प्रदर्शन और इस्तेमाल करके क्या उसने आतंक की सृष्टि करने का प्रयास नहीं किया? बुश और उसका अपराधी गिरोह आज दुनिया भर में आतंक और हिंसा का सहारा लेकर अपने कुत्सित इरादों को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं। यह दीगर बात है कि इस नापाक इरादे को पूरा करने में वे सफल नहीं हो पा रहे हैं।
सच तो यह है कि आज बुश और उसका अपराधी गिरोह और उसके ‘‘कभी न डूबने वाले विमानवाही पोत’’ (छमअमत ैपदापदह ।पतबतंजि ब्ंततपमत) का अपमानित, लांछित और कलंकित कप्तान ब्लेयर दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी हैं। बुश और ब्लेयर के सन्दर्भ में आतंकवाद का वही अर्थ और तात्पर्य लिया जाना चाहिए जो वे अपने प्रचार माध्यमों द्वारा आतंकवादियों के खिलाफ घृणा पैदा करने के लिए इस्तेमाल करते हैं।
आज जरूरत इस बात की है कि आतंकवाद को नये सिरे से परिभाषित किया जाय, उसकी अवधरणा को आज के यथार्थ के अनुरूप बनाया जाय और उसके सही तात्पर्य को समझने का प्रयास किया जाय।
इस दिशा में हमारा यह छोटा सा प्रयास।
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अतीत से चली आ रही परम्परागत अवधरणा को आधर बनाकर दो शब्द।
जब कोई निरंकुश सामाजिक व्यवस्था बहुत मजबूत होती है, मुट्ठीभर लोगों या वर्गों के संकीर्ण स्वार्थ का ही प्रतिनिध्त्वि करने लगती है, जब सरकारें बिल्कुल बहरी और मोटी चमड़ी की होती हैं, जनता की रंचमात्र भी फिक्र नहीं करतीं, उसके सुख-दुख से उन्हें कोई लेना-देना नहीं होता, लोकतन्त्र या तो होता ही नहीं या नाम मात्र का, दिखावा और छलावा जैसा होता है, जब जनता के संगठित आन्दोलन नहीं होते, संघर्षरत संगठनों का अभाव होता है और जनक्रान्तियाँ दृश्यमान नहीं होतीं, ऐसे में उत्साही नौजवान और उनका समूह आक्रोश और उतावलेपन में आतंकवाद का सहारा लेते हैं। इससे जनता की समस्याओं का समाधन तो नहीं हो पाता लेकिन समाज में व्याप्त उमस के घने बादल थोड़े जरूर छँटते हैं और दमघोंटू वातावरण से जनता को थोड़ी राहत मिलती है।
हम आज एक ऐसे ही दौर में जी रहे हैं। सामयिक तौर पर समाजवादी यूटोपिया पराजित हुआ है, काफी हद तक देश आजाद हो चुके हैं और राष्ट्र मुक्ति हासिल कर चुके हैं, समाज ठहर सा गया है। अमरीका के नेतृत्व में साम्राज्यवाद का आतंक और प्रभुत्व बढ़ा है, जनता से उसके अध्किार छीने जा रहे हैं, आर्थिक-राजनीतिक- सामाजिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में एक पतनशील संस्कृति को प्रोत्साहित और प्रचारित किया जा रहा है और साम्राज्यवादी और मध्ययुगीन मूल्यों की प्रतिष्ठा की जा रही है। अमरीकी साम्राज्यवाद विश्व पर आध्पित्य जमाकर रोमनों की तरह अपना साम्राज्य कायम करना चाहता है। अमरीका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी समूह तीसरी दुनिया की जनता पर एक के बाद एक कहर बरपा कर रहा है, और उसका अबाध् शोषण कर रहा है।
एक ऐसी निरंकुश विश्वव्यवस्था में दुनिया को आतंकवाद से निजात नहीं मिल सकती। आतंकवाद इस व्यवस्था के खिलाफ सताए लोगों द्वारा किया गया प्रतिवाद है, छिटपुट ही सही, व्यवस्था से संघर्ष है। जहाँ जंगलराज कायम हो और जनता के संघर्षों का नेतृत्व करने वाले और उसे संगठित करने वाले रहनुमाओं का अभाव हो, सरकारें क्रूर से क्रूरतम होती जा रही हों और जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने का वादा करके जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही बार-बार उसे धेखा दे रहे हों, जहाँ जनता की समस्याओं के हल के लिए कोई संगठित आन्दोलन और संघर्ष दिखायी न देते हों और समाजवादी यूटोपिया के खिलाफ निरन्तर कुत्सा प्रचार करके उसके बारे में भ्रम फैलाने के प्रयास हो रहे हों, वहाँ आतंकवाद के अलावा और हो भी क्या सकता है। आतंकवाद की जड़ें इन समाजों में बहुत गहरे तक पैठी हुई हैं।
ऐसे कठिन समय में आतंकवाद के बहुत से रंग होना स्वाभाविक है। हर तरह का आतंकवाद, चाहे वह जहाँ कहीं भी चलन में है, किसी न किसी तरह का व्यवस्था विरोध् है। उसमें इन्साफ की पक्षध्रता है। भले ही उसके झण्डे पर कोई भी नारा क्यों न लिखा हो, भले ही उसका यूटोपिया भ्रमपूर्ण ही क्यों न हो।
यह व्यवस्था आतंकवाद को भी अपने घृणित मन्सूबों के लिए साध्न बना रही है और इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि इस उलझन भरे दौर में आतंकवादियों का उनके दुश्मन और प्रतिक्रियावादी इस्तेमाल कर लें।
आतंकवाद की समस्या का समाधन और सही विकल्प जनक्रान्तियाँ ही हो सकती हैं जिनकी कार्यसूची पर एक नये समाज का निर्माण करना और जनता का लोकतन्त्र कायम करना हो, एक ऐसा समाज जिसकी अपनी अन्तर्निहित गति में ही उसके निरन्तर आगे बढ़ने का गुणर्ध्म हो। जब जनता के संगठित संघर्ष और जनक्रान्तियाँ क्षितिज पर दिखायी देने लगेंगी तभी और केवल तभी आतंकवाद खत्म हो सकेगा।
वर्तमान विश्व में अमरीकी साम्राज्यवाद और साम्राज्यवादी समूहों की मौजूदगी और तीसरी दुनिया की बहुलांश सरकारों के प्रतिक्रियावादी चरित्र के कारण किसी मौलिक परिवर्तन की उम्मीद करना भ्रमपूर्ण होगा। इनसे भलमनसाहत की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। इसलिए किसी न किसी तरह के आतंकवाद का लगातार पैदा होते रहना स्वाभाविक है।

आतंकवाद के उन्मूलन के लिए जनता को जनक्रान्तियों का इन्तजार करना होगा।