अरावली
पहाड़ पर नाजायज तरीके से कब्जा किया जा रहा है। उच्च न्यायालय के निर्देशानुसार 'वन’
घोषित जमीन का किसी प्रकार की खुदाई, खेती और बस्तियाँ बसाने के लिए इस्तेमाल करना
गैर कानूनी है। गुड़गाँव और फरीदाबाद के निकट पहाड़ों और वनों पर खतरा मंडरा रहा
है। क्योंकि उसे कृषि योग्य भूमि घोषित कर दिया गया है।
सरकार
चन्द ताकतवर लोगों के साथ मिलकर अपने निजी फायदे के लिए जनता का नुकसान कर रही है।
वनों को काटकर उसे बस्तियाँ बसाने के लिए ठेकेदारों को बेच दिया जाता है। इसी रणनीति
से पहाड़ों पर बसे आदिवासियों की जमीन छीन ली गयी। इसके साथ ही जिस जमीन पर किसान खेती
करके अपना भरण-पोषण करते हैं उसे प्रोपर्टी डीलर कम दामों पर खरीद लेते हैं और उसे
मँहगे दामों में बेचकर मुनाफा कमाते हैं।
दुनिया
आज पर्यावरण संकट से गुजर रही है। आज की स्थिति में हम और आगे विकास नहीं कर सकते।
यह कहना गलत नहीं होगा कि हम विनाश के कगार पर खड़े हैं। पूँजीपति इसी को
आगे बढ़ा रहे हैं। अरावली की पहाड़ियों के कारण ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, गुड़गाँव
तथा आस-पास के इलाकों में बारिश होती है। वन इसमें मदद करते हैं। इतना ही नहीं यहाँ
के निवासियों के लिए इन पहाड़ियों का महत्त्व बहुत अधिक है। पहाड़ों पर बसे गाँवों
की जरूरतें वनों से ही पूरी होती हैं। वन उनकी संस्कृति और इतिहास का अंग है।
इन प्रतिबंधित जगहों से पेड़ काटने पर जुर्माने की व्यवस्था है। लेकिन यह नियम केवल
आदिवासियों के खिलाफ ही इस्तेमाल होता है। जबकि ठेकेदारों ने पिछले एक साल में मात्र
500 से 2000 रुपये हर्जाना भरकर लाखों पेड़ कटवा दिये। गाँव के गाँव साफ कर दिये
गये। फिर से आबाद बस्तियों में गरीब लोगों का प्रवेश वर्जित होता है।
पंजाब
भूमि संरक्षण अधिनियम के खण्ड 4 और 5 के तहत अरावली की एक तिहाई घाटियाँ संरक्षित हैं।
लेकिन सरकार की नाक के नीचे नियमों का उलंघन होता है। इस तरह की गतिविधियों से न केवल
पर्यावरण बल्कि पशु, पक्षियों और इंसानों पर भी दुष्प्रभाव होता है।
मंगार
बानी विकास योजना-2031, सोहना योजना-2031 तथा गुड़गाँव मानेसर योजना-2031 गाँव तथा पर्यावरण
के विनाश के प्रतीक हैं।
इस
प्रक्रिया में रोजका गुज्जर गाँव किसानों से हथिया लिया गया। इसके पीछे सोहना विकास
योजना-2031 को बहाना बनाया गया। इससे सबसे ज्यादा फायदा ताकतवर और अमीर ठेकेदारों को
हुआ है। इस तरह विकास के झूठे वादे करके किसानों और गरीब आदिवासियों की जमीनों को छीन
लेना कहाँ तक उचित है?
-अतुल कुमार
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