भारत
सरकार और यूनिसेफ मिलकर अगस्त के पहले सप्ताह को स्तनपान सप्ताह के रूप में मनाते हैं।
वे बताते हैं कि जन्म के पहले घंटे
बाद ही शिशु को माँ का गाढ़ा-पीला दूध अवश्य पिलाना चाहिए। क्योंकि यही दूध प्रतिरोध
क्षमता बढाकर बच्चों को भविष्य में होने वाली अनेकों बिमारियों से बचाता है।
इसके
साथ ही माँ के दूध का भावनात्मक और सामाजिक पहलू भी बेहद सशक्त रहा है। कहानियों में कितने ही अवसरों पर अत्याचारी के विनाश के
लिए माँ अपने बेटों को दूध की सौगंध दिलाती है।
लेकिन आज पूंजीवादी मुनाफ़ाखोर समाज ने माँ के दूध को खरीदने- बेचने
की वस्तु में बदल दिया है।इसलिए माँ के दूध के बजाय इसे स्त्री का दूध बताया जा रहा
है। इतिहास में राजाओं के घर धाय रखने की परंपरा के प्रमाण
मिलते हैं। धाय उनके बच्चों को अपनी छाती से लगाकर दूध पिलाती थी। इस मामले में पन्ना
धाय की कहानी बहुत प्रसिद्ध है।
आधुनिक तकनीकों के चलते ब्लड बैंकों की तरह दूध बैंक बनाये जा रहे
हैं। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि हमारे देश में एक हज़ार में छियालीस नवजात
शिशु माँ का दूध ना मिलने के कारण मर जाते हैं। ये दूध बैंक भी गरीबों को दूध नहीं देते।
आम घरों की महिलाएं बच्चों को अपना दूध पिलाती हैं। परन्तु उच्च वर्ग की महिलाएं अपने शारीरिक सौन्दर्य को बरकरार रखने के लिए दूध नहीं पिलाती। वे मानती
है कि बच्चों को दूध पिलाने से उनके शरीर और चेहरे की आभा फीकी पड़ जायेगी। उनके पति
भी ऐसा मानते हैं। इन्ही के लिए माँ के दूध का व्यवसाय शुरू हुआ।
सबसे पहले 1889 में स्वीडेन और डेनमार्क में दूध रसोई के नाम से
इस काम की शुरुआत की गयी। यहाँ पहले तीन महीने का दूध माँ से इक्कीस डॉलर प्रति लीटर
की दर से खरीदा जाता था। अमरीका में आज ऐसे आठ मिल्कबैंक संचालित हैं। धीरे धीरे भारत
के भी कोलकाता, मुंबई , पुणे और सूरत में दूध बैंक बनाये गए हैं और अभी अभी उदयपुर
में एक बैंक शुरू किया गया है।
अजीब बात है कि विकास की सभी योजनाओं को गरीबों की कीमत
पर ही अमली जामा पहनाया जाता है। आर्थिक लाभ के लिए मानवीय संवेदनाओं को कुचल दिया
गया। जैसे देश के सभी ब्लड बैंक गरीबों और मजबूरों के खून से भरे हुए हैं। कुछ आपवादों
को छोड़ दें तो ये ब्लड बैंक धन्नासेठों, नेताओं और मध्यम वर्ग के लोगों की ही जान बचाने
के काम आता है। गरीबों के लिए इनके रास्ते बंद रहते हैं।
इस तरह हमें दूध बैंक की योजना के मानवीय पहलूओं पर भी
गौर करनी चाहिए। क्या किसी लावारिस बच्चे या जिस माँ के स्तनों में दूध नहीं आता। उन्हें
कभी इन बैंकों से दूध मिल पाता है? माँ जब बच्चे को छाती से चिपकाकर दूध पिलाती है, वह सिर्फ़
उसकी भूख ही नहीं मिटाती बल्कि संवेदनात्मक अनुभुतिओं का अहसास और आदान-प्रदान करती
है। यही ममता का सुख है। यह अहसास मरते दम तक बना रहता है और हमें प्रेरणा देता है।
बैंक के दूध को बोतल या चम्मच से पिलाकर कभी भी यह अहसास पैदा नहीं किया जा सकता।
विचारणीय प्रश्न है क्या इन दूध बैंकों में अमीर घरानों की माँओं
का दूध है। नहीं उन करोडो गरीब माँओं का जिनके अंदर इतना दूध ही नहीं बनता जिसे वे
बेच सकें लेकिन बेबस माएं पैसे के लिए अपने बच्चों को भूखाराखकर दूध बैंक को अपना दूध
बेचती है। कुपोषण के चलते ऐसे बच्चे असमय ही काल के गाल में समां जाते हैं या अपांग
हो जाते हैं।
इसलिए दूध बैंकों कि स्थापना बड़े शहरों में की गयी है, जहाँ झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली गरीबों की आबादी सबसे अधिक है। अमीरों के बच्चों को पिलाने
के साथ-साथ इस दूध से आइसक्रीम बनाकर अकूत मुनाफा कमाया जा रहा है। पूंजीवादी विकास
की इन योजनाओं के अंदर अमानवीय मुनाफ़े की घृणित नीतियाँ छिपी हुई हैं। इसलिए दूध बैंकों
के पैरोकार गरीबों के बच्चों की कीमत पर अमीरों के बच्चों को माँ का दूध पिलाने का
षड्यंत्र रच रहे हैं। गौरतलब है देश की सम्पदा लूटने के बाद भी इन मुनाफाखोरों की हवस
शांत नहीं हुई। अब माँओं का दूध लूटकर अपने हित व मुनाफे के लिए उसका इस्तेमाल कर
रहे हैं। जिस तरह समुद्र मंथन के समय देवताओं ने छल-प्रपंच से अमृत छक लिया और बाकी
को इससे वंचित कर दिया। आज उससे भी भयावह जाल में फंसाकर कथित सभ्य समाज के अमीर, माँ
के दूध भी हमसे छीनने की योजना बना ली है।
इस अमानवीय, घृणित, और निंदनीय व्यवसाय पर यदि शीघ्र रोक न लगाई
गयी तो आने वाले भविष्य में माँ की ममता और गरिमा नष्ट हो जाएगी।
-दिनेश कुमार कुशवाहा
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