मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

गुजरात- गरीबी के पारावार में विकास की मीनार

झूठ के सिर-पैर नहीं 
2014 में लोकसभा चुनाव होना है। इसकी तैयारी जोरों पर है। ऐसा लग रहा है जैसे चुनावी दंगल में भाजपा के पहलवान के मुकाबले कांग्रेस का पिद्दी खड़ा है। धुँआधार प्रचार का कमाल है कि आज नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व नौजवानों को खूब लुभा रहा है। वे गुजराती और हिन्दी में अच्छा भाषण दे लेते हैं। 2011 में अपने ‘वाइब्रेंट गुजरात’ सम्मलेन में उन्होंने अपनी सरकार की उपलब्धियाँ गिनाते हुए कहा था कि विकास के मामले में गुजरात कितना आगे है, इसका प्रमाण यह है कि यूरोप में भिन्डी की आपूर्ति गुजरात से होती है, सिंगापुर में दूध गुजरात से जाता है, 6 लाख जल संचय के उपाय किये गये हैं, पूरे देश में जल स्तर नीचे जा रहा है जबकि अकेले गुजरात में ऊपर जा रहा है। लेकिन लगता है सच्चाई देवी उनसे खफा है क्योंकि देश में भिन्डी के उत्पादन और निर्यात के मामले में गुजरात नहीं, बल्कि आँध्रप्रदेश अग्रणी है। दूध के उत्पादन में उत्तर प्रदेश पहले स्थान पर है जबकि गुजरात चैथे स्थान पर है। पिछले साल गुजरात का “कपास का टोकरा” राजकोट जब भयंकर सूखे से जूझ रहा था, तो सिंचाई के वैकल्पिक साधन की व्यवस्था नहीं की गयी। लिज्जत पापड़ की शुरुआत कुछ महिलाओं ने 1959 में की थी और उनकी संस्था ‘सेवा’ मोदी की आँखों में चुभती रही है। लेकिन अब मोदी खुद ही उनकी उपलब्धियों का श्रेय लेकर अपनी पीठ थपथपाते फिर रहे हैं। बेरोजगारी का आलम यह है कि (एनएसएसओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार ‘पिछले 12 सालों में यहाँ रोजगार वृद्धि दर शून्य के करीब पहुँच चुकी है। एक सवाल सहज ही जेहन में आता है कि अगर वहाँ बेरोजगारी की समस्या हल कर ली गयी है, तो देश से बेरोजगारों का बहाव गुजरात की ओर क्यों नहीं हो रहा है?

पूँजीपतियों के चहेते
सच्चाई यह है कि गुजरात निजी कम्पनियों का अभयारण्य बना हुआ है। टाटा ने पश्चिम बंगाल के सिंगूर से खदेड़े जाने के बाद नैनो कार का अपना प्लांट गुजरात स्थानान्तरित कर लिया। टाटा ने वहाँ 2200 करोड़ का निवेश किया, जबकि 5970 करोड़ का कर्ज गुजरात सरकार ने 0.1 फीसदी ब्याज पर दिया। 10000 रुपये वर्ग मीटर की जमीन 900 रुपये के भाव में दी और वह भी कृषि विश्वविदयालय की जमीन हड़प कर। इसके अलावा बिजली, पानी, सड़क सब कुछ सस्ते दरों पर मुहैया किया गया। मोदी की कृपा बरसने के बाद अब टाटा कम्पनी बड़ी संख्या में कारों के उत्पादन में लगी हुई है। इसी तरह गौतम अदानी की कम्पनी, अमरीकी गैस कम्पनी, जियो और अन्य कम्पनियाँ भले ही गुजरात में फल–फूल रही हैं, लेकिन विकास की इस तेज आँधी का असर जनता की जिन्दगी पर दिखायी नहीं देता।

गरीब बच्चों की शिक्षा में फिसड्डी 
गुजरात सरकार ने गरीब छात्रों को शिक्षा देने से हाथ खड़े कर दिये हैं। उसने मई 2012 में उच्च न्यायालय को कहा कि सामाजिक–आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के छात्रों की प्राथमिक शिक्षा के लिए उसके पास पर्याप्त पैसा नहीं है। गुजरात सरकार का 2013–14 का बजट 1.14 लाख करोड़ का है, लेकिन उसके पास गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए पैसा नहीं है। दूसरी ओर 2011 के एक आदेश में सरकार ने निजी शिक्षा संस्थानों को प्रवेश प्रक्रिया और मनमानी फीस वसूलने की खुली छूट दे दी है। गुजरात के सरकारी स्कूलों की जर्जर हालत का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1999–2000 में सरकारी स्कूलों में 81.34 लाख बच्चे पढ़ते थे। 2011–12 में उनकी संख्या घटकर 60.32 लाख रह गयी। बाकी गरीब बच्चों को पढ़ाई छोड़ने या मध्यवर्ग के बच्चों को निजी स्कूलों में प्रवेश के लिए बाध्य कर दिया गया, जहाँ उनके अभिभावकों को ऊँची फीस भरनी पड़ती है। 2003 में 16.80 लाख बच्चों ने पहली कक्षा में प्रवेश लिया था जबकि 2013 तक दसवीं कक्षा में मात्र 10.30 लाख बच्चे रह गये। इस तरह बच्चों को स्कूल में रोके रखने की दर के मामले में देशभर में गुजरात का 18वाँ स्थान है। प्राथमिक विद्यालयों की उपेक्षा का आलम यह है कि जहाँ 2005–06 में अहमदाबाद नगर निगम के पास 541 प्राथमिक विद्यालय थे, वहाँ 2011–12 में घटकर 464 रह गये। शिक्षकों की कमी और खराब होता ढाँचा सरकारी विद्यालयों की पहचान बन गयी है । ये आँकड़े खुद गुजरात सरकार ने दिये हैं। निजी शिक्षा इतनी महँगी हो गयी है कि आम आदमी के बच्चे उसमें पढ़ नहीं सकते।
गुजरात के बच्चे सिर्फ शिक्षा से वंचित हैं, इतना ही नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि वे पोष्टिक भोजन पा रहे हैं और उनका स्वास्थ्य ठीक है। आँकड़े बताते है कि गुजरात में खून की कमी (अनीमिया) से पीड़ित बच्चों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है । 1998–99 में यह अनुपात 74.5 प्रतिशत था जो 2005–06 में 80.1 प्रतिशत हो गया। इसी अवधि में एनीमिया से पीड़ित गर्भवती महिलाओं की संख्या 47.4 प्रतिशत से बढ़कर 60.6 प्रतिशत हो गयी। बाल विकास सेवा योजना के बारे में कैग की रिपोर्ट में दी गयी जानकारी चैंकाने वाली है। जिन आठ राज्यों में एक लाख से अधिक बच्चे गम्भीर कुपोषण के शिकार हैं, उनमें गुजरात भी शामिल है। बच्चों में मृत्युदर के मामले में भी गुजरात अगली कतार में है। वहाँ 2005–06 में 51,300 लोगों पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र था, लेकिन 2011–12 में घटकर 56,100 लोगों पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र रह गये हैं।

महिलायें हाशिए पर 
हिन्दू संस्कृति में महिलाओं को देवी के समान माना गया है। भाजपा ने बार–बार महिलाओं की दशा सुधारने का आश्वासन भी दिया। लेकिन वहाँ की हकीकत उनके इरादों की चुगली कर ही देती है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक 2006–07 में दो लाख से अधिक महिलाओं को राष्ट्रीय मातृत्व लाभ योजना का फायदा मिलना था, लेकिन उनमें से केवल 42,373 महिलाओं को ही यह लाभ दिया गया जो केवल 20 प्रतिशत है। इस मामले में देश भर में गुजरात का 17वाँ स्थान है। ग्यारवीं पंचवर्षीय योजना में अनुसूचित जाति के बच्चों और छात्रों के विकास के लिए 29 परियोजनाओं को लागू किया जाना था, लेकिन 18 परियोजनाओं में अनुमान से बहुत कम खर्च किया गया। हमारे देश में बुजुर्गों की सेवा करना धर्म माना जाता है, लेकिन गुजरात इस मामले में भी फिसड्डी साबित हुआ। 2006–07 में 3.29 लाख लोगों को राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना का लाभ मिलना चाहिए था लेकिन गुजरात सरकार ने केवल 40,117 बुजुर्गों को ही पेंशन दी, जो कुल संख्या का सिर्फ 12.2 प्रतिशत है, यानी 87.8 प्रतिशत बुजुर्गों को इससे वंचित रखा गया।

किसानों की दुर्दशा 
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ 65 प्रतिशत से अधिक आबादी खेती पर निर्भर है। केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने अपनी नीतियों के जरिये देश भर के किसानों को बरबादी के कगार पर ला दिया है, लेकिन गुजरात भी इसमें पीछे नहीं है। सन 2000 – 06 के दौरान सिंचाई परियोजनाओं के लिए 10,158 हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण किया गया, जिसके चलते 15,731 किसान परिवार प्रभावित हुए और उन्हें प्रति एकड़ 22,611 रुपये मुआवजा दिया गया। इसी समय उद्योग के लिए किसानों की 3006 हेक्टयेर भूमि का अधिग्रहण किया गया, जिससे 424 परिवार प्रभावित हुए और उन्हें प्रति एकड़ 15,873 रुपये मुआवजा मिला। यह 1991–2000 के दौरान मिले मुआवजे से बहुत कम है क्योंकि उस समय उद्योग के लिए जिस 5,626 हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण करके 2888 परिवारों को विस्थापित किया गया था, लेकिन उन्हें साधे तीन गुना से भी अधिक प्रति एकड़ 59,294 रुपये मुआवजा दिया गया था। अपनी खेती से उजड़ चुके किसान बेरोजगार होकर इधर–उधर भटकने पर मजबूर हैं। आखिर मुआवजे में मिला 2 या 3 लाख रुपये से कितने दिन घर चलाते?
इतना ही नहीं, जूनागढ़ के जैतपुर–बेरवाल के बीच बन रहे हाइवे के लिए किसानों की 720 एकड़ जमीन छीन ली गयी। इसके खिलाफ जब किसानों ने आन्दोलन किया, तो पुलिस ने आन्दोलन का दमन करने के लिए किसानों पर बर्बरतापूर्वक लाठी चलायी। सरकार ने 289 किसानों को गिरफ्तार कर लिया, ताकि किसान आन्दोलन को तोड़ा जा सके। लेकिन फिर भी किसान आन्दोलन उग्र रूप लेता जा रहा है। अब किसान किसी भी कीमत पर जमीन देने के लिए तैयार नहीं है। एक नाटकीय घटना में किसानों की स्त्रियों ने मदद के लिए मोदी को खून से लिखा खत भेजा। क्योंकि मोदी ने प्रचार के दौरान अपने जोशीले अंदाज में कहा था कि “हे, मेरी गुजरात की बहनों, आपको कोई समस्या हो तो मुझे 50 पैसे के एक पोस्टकार्ड पर चिट्ठी लिख भेजना, मैं आपकी सभी समस्याओं को दूर कर दूँगा ।” लेकिन न तो किसी ने किसानों की बात सुनी और न ही उनकी स्त्रियों द्वारा खून से लिखी चिट्ठी ही काम आयी।

न्यूनतम मजदूरी 
एनएसएसओ (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान) के अनुसार, गुजरात के शहरी इलाकों में दिहाड़ी मजदूरी की दर 106 रुपये है, जबकि केरल में यह 218 रुपये है। गुजरात के ग्रामीण इलाकों में यह 83 रुपये है। दिहाड़ी मजदूरी के मामले में देश भर में गुजरात 12वें स्थान पर है। पहले स्थान पर पंजाब है जहाँ गावों में दिहाड़ी 152 रुपये है। मोदी ने ‘वाइब्रेंट गुजरात सम्मलेन’ में कहा कि “गुजरात में मजदूरी की कोई समस्या नहीं है।” सूरत में इसके एक हफ्ते बाद 30 हजार पावरलूम मजदूरों ने कम मजदूरी का विरोध करते हुए चक्का जाम कर दिया और पुलिस के हिंसक दमन के बाद उग्र होकर कई गाड़ियों में आग लगा दी। सन 2011 में मारूति–सुजुकी कम्पनी के दमन–उत्पीड़न के खिलाफ मजदूरों ने हड़ताल कर दी, तो सुजुकी कम्पनी को लुभाने के लिए मोदी जापान पहुँच गये और कम्पनी को हरियाणा में अपना प्लांट बंद करके गुजरात आने का निमंत्रण दे डाला। दरअसल गुजरात में निवेश का माहौल बनाने के लिए किसानों की जमीनों पर कब्जा करके उसे औने–पौने दामों में उद्योगपतियों को बेचा जा रहा है। उन्हें सस्ते दर पर कर्ज, बिजली और अन्य साधन मुहैया किया जा रहा है। दूसरी ओर, मजदूर यूनियनों का दमन करके उन्हें नख–दन्त विहीन बना दिया गया है। यही कारण है कि अम्बानी, अदानी, टाटा और दूसरे औद्योगिक घराने मोदी के नेतृत्व का गुणगान करते नहीं अघाते।
मोदी के विकास के दावे और हकीकत के बीच कितना अन्तर है, इसे भी देख लेते हैं। उन्होंने दावा किया कि गुजरात ने सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों के संचालन के लिए उच्चस्तरीय पेशेवर संस्कृति विकसित की है। इनकी कार्यक्षमता में गजब का सुधार आया है। लेकिन मार्च 2013 में सार्वजनिक कम्पनियों पर कैग ने एक रिपोर्ट बनायी है, जिसमें गुजरात सरकार के दावे की कलई खुल जाती है। यह रिपोर्ट बताती है कि कुछ ही सार्वजनिक कम्पनियाँ मुनाफा कमा रही हैं, लेकिन अधिकतर कम्पनियों के वित्तीय प्रबन्धन, योजना और उन्हें लागू करवाने में भारी कमियाँ हैं। इनका कुल घाटा 4052 करोड़ रुपये है। गुजरात में 2012 के विधानसभा चुनाव के समय मोदी ने प्रत्येक जिले में एक दिन उपवास रखकर अपना सद्भावना मिशन पूरा किया। उन्होंने प्रत्येक जिले में विकास कार्यों के लिए बड़ी वित्तीय राशि जारी करने का वचन दिया। सभी जिलों को मिलाकर यह राशि 39,769 करोड़ रुपये बैठती है। अमरेली और दाहोद के जिलाधिकारियों ने इस बात से इन्कार किया कि अब तक विकास कार्यों के लिए कोई बड़ी राशि प्रदेश सरकार की तरफ से उन्हें मिली है। गुजरात के राजकीय वित्त विभाग और प्रशासन विभाग ने इस बारे में कोई जानकारी देने से इन्कार किया है। जबकि सद्भावना मिशन में जनता के टैक्स का 160 करोड़ रुपया पानी में बहा दिया गया। क्या यह वादा खिलाफी की हद नहीं है?

विकास की हवा
दरअसल गुजरात सरकार इस मामले में भाजपा की पुरानी परम्परा को ही निभा रही है। 1997–98 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने अयोध्या में राम मन्दिर बनाने, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करके स्वदेशी अपनाने का वादा किया था। केन्द्र में सरकार बनाते ही वह सभी वादों को भूल गयी। राम मन्दिर का क्या हुआ, यह सभी जानते हैं। अब तक भाजपा के दो अध्यक्ष और कई बड़े नेता भ्रष्टाचार में लिप्त पाये गये। अपने शासनकाल में भाजपा ने सैकड़ों विदेशी वस्तुओं के आयात से प्रतिबंध हटाकर उनको मँगाये जाने का रास्ता साफ किया। नतीजा, उत्तरप्रदेश के सबसे बड़े गढ़ से भाजपा का बुरी तरह सफाया हो गया। उस सरकार के मुखिया, अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व के आगे नरेंद्र मोदी तो कहीं ठहरते भी नहीं।

छवि चमकाने पर विशेष ध्यान 
मोदी की छवि और गुजरात सरकार की उपलब्धियों को चमकाने का ठेका एक अमरीकी कम्पनी एप्को को दिया गया है। वे इस काम के लिए हर महीने 17 लाख रुपये देते हैं। मोदी की तरह नाइजीरिया के पूर्व तानाशाह सानी अबाचा, कजाखिस्तान के राष्ट्रपति नूर सुलतान नजरबायेव और माफिया मिखाइल खोदोरसकी से जुड़े रूसी नेता भी इस कम्पनी के ग्राहक हैं। युद्ध भड़काने के लिए जनता को तैयार करना, तानाशाहों का बचाव करना, नेताओं को चुनाव जीतने के तिकड़म सिखाना और बड़ी कम्पनियों को मुनाफे की तरकीब सिखाना इस कम्पनी का खास धंधा है। इसने ईराक पर युद्ध थोपने के लिए पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री टोनी ब्लेयर के पक्ष में हवा बनायी थी। मोदी के पक्ष में झूठ को सच और सच को झूठ बनाने की कला के पीछे एप्को का ही हाथ है। एप्को ही मोदी के भाषण लिखवाता है, उनके पक्ष में हवा बनाता और फेसबुक और ट्वीटर जैसी सोशल मीडीया को चलाता है। एप्को की कृपा से ही गुजरात सरकार की नैनो घोटाले की खबर अखबार के किसी कोने में नहीं छपती है। टाइम्स नाऊ और एनडीटीवी पर महाराष्ट्र के किसानों की दुर्दशा की खबरें तो आती हैं, लेकिन गुजरात के किसानों की आत्महत्या या उनके आन्दोलनों की कोई खबर नहीं दिखती। 2009 से पहले गुजरात सरकार सिर्फ 840, 1200 या 9000 अरब रुपये विकास पर खर्च करने के वादे करती थी। लेकिन एप्को की कृपा से उसका वादा अब 30,000 अरब रुपये के पार चला गया है, लेकिन इस कथनी को करनी में बदलने की दर गिरकर डेढ़ प्रतिशत तक पहुँच गयी है। हद तो तब हो गयी जब दो दिन के अन्दर 15,000 गुजरातियों को उत्तराखंड के आपदाग्रस्त दुर्गम इलाके से निकालकर उनके घर का धपोर शंख बजाया गया। इतनी ऊँची डींग हाँकने के कारण उनकी देशभर में बहुत किरकिरी हुई। आखिर झूठ बोलने की भी कोई सीमा होती है।
दो साल से एप्को द्वारा गुजरात सरकार की छवि सुधारने की कोशिश रंग ला रही है। मोदी के अंधभक्तों की संख्या बढ़ती जा रही है। ये लोग सच्चाई से कोसों दूर हैं और गुजरात के विकास की असलियत से मुँह चुराते हैं। इनका मानना है की कांग्रेस पार्टी गुजरात सरकार को बदनाम करने के लिए ऐसी खबरें उड़ा रही है। लेकिन कैग और एनएसएसओ जैसी संस्थाओं ने कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार का भी पर्दाफाश किया है। इन्होंने ही गुजरात सरकार की असलियत को भी उजागर किया है। जिन पाँच एजेंसियों और संस्थाओं के आँकड़े यहाँ दिये गये हैं, वे पूरी तरह संविधान के दायरे में काम करती हैं और सर्वेक्षण और जाँच के मामले में इनकी तकनीक सबसे बेहतर और विश्वसनीय मानी जाती है।

भ्रष्टाचार प्रेम
गुजरात सरकार के भ्रष्टाचार प्रेम के बारे में भी जान लेना रोचक होगा। सूचना अधिकार से मिली जानकारी के अनुसार गुजरात सरकार ने टाटा को नैनो कार की एक परियोजना के लिए 9570 करोड़ का कर्ज दिया, जबकि उस परियोजना की कुल लागत इससे बहुत कम 2900 करोड़ रुपये है। कमाल की बात यह है कि टाटा को यह कर्ज 20 साल बाद लौटाना है जिस पर ब्याज की दर 0.1 प्रतिशत है। टाटा और गुजरात सरकार के बीच लॉबिंग (दलाली) का काम नीरा राडिया ने किया, जो टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले में लॉबिंग के आरोप से घिरी थीं और टाटा के साथ फोन पर गैरकानूनी तरीके से काम कराने से सम्बन्धित उनकी बातचीत का पर्दाफाश हो चुका है। नैनो घोटाले में कुल एक लाख करोड़ की अनियमितता पायी गयी है। एक साल पहले इशाक मराडीया ने गुजरात के मत्स्य पालन मंत्री पुरुषोत्तम सोलंकी के खिलाफ 400 करोड़ के मत्स्य घोटाले की पुलिस जाँच की माँग की थी। इसे संज्ञान में लेते हुए गुजरात उच्च न्यायालय ने प्रदेश सरकार को नोटिस जारी किया। जून 2011 में 2 लाख करोड़ के कांडला बंदरगाह भूमि घोटाले का खुलासा हुआ। गुजरात सरकार ने कांडला बंदरगाह की लगभग 16 हजार एकड़ जमीन मात्र 144 रुपये प्रति एकड़ की दर से किराये पर नमक बनाने वाली कम्पनी को दे दी, जो बाजार भाव से बहुत ही कम है। गुजरात सरकार के आँकड़ों पर यकीन करें तो पता चलता है कि गौतम अदानी के पावर प्लांट, बंदरगाह और विशेष आर्थिक क्षेत्र सेज के लिए गुजरात सरकार ने 131 हजार करोड़ रुपये दिये, कई अन्य घोटालों में भी अदानी का नाम शामिल है। इतना ही नहीं अदानी की कम्पनियाँ मुन्द्रा बन्दरगाह और सेज के इलाकों में पानी के बहाव को रोककर सदाबहार वर्षा वनों का नाश कर रही हैं और मोदी पर्यावरण संरक्षण पर भाषण देते फिर रहे हैं। महुआ और भावनगर के 25 हजार किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, क्योंकि सरकार ने वहाँ 268 हेक्टेयर जमीन निरमा कम्पनी को सीमेंट का प्लांट बनाने के लिए दी है। इसमें से 222 हेक्टेयर जमीन पर एक खूबसूरत झील मौजूद है, जिसे भर कर कम्पनी उसका नामोनिशान मिटा देगी।
गुजरात हाईकोर्ट ने अप्रैल 2013 में एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए गुजरात स्टेट पेट्रोलियम कारपोरेशन (जीएसपीसी) को नोटिस भेजा और सीबीआई को के जी बेसिन गैस और तेल घोटाले की जाँच का आदेश दिया। आन्ध्र प्रदेश के कृष्णा–गोदावरी की घाटी में 64,000 अरब क्यूबिक फीट गैस मिली है। कच्चे अनुमान के हिसाब से इसकी कुल कीमत लगभग 50 लाख करोड़ है। यह गैस का इतना बड़ा भण्डार है कि अगर देशवासियों को मुफ्त में गैस सिलेंडर दिया जाये तो वह 60 साल के लिए पर्याप्त होगी। गैस के इस पूरे भण्डार पर रिलायन्स कम्पनी, विदेशी गैस और तेल कम्पनी जीओ, गुजरात स्टेट पेट्रोलियम कारपोरेशन और ओएनजीसी का कब्जा है। सैकड़ों निजी कम्पनियों के मालिकों और मैनेजरों, सरकारी अफसरों और भाजपा–कांग्रेस के नेताओं ने मिल–बाँटकर यह खिचड़ी पकायी और भर–भर पेट खा गये। बेहयाई का आलम यह है कि गैस के मुफ्त भण्डार पर कब्जा करने के बावजूद भी उन्हें संतोष नहीं हुआ तो उन्होंने गैस सिलेंडर का न केवल दाम बढ़ा दिया, बल्कि एक परिवार को सालाना मिलने वाले सिलेंडरों की संख्या भी सीमित कर दी और लोगों को गुमराह करने के लिए इस पर तरह–तरह की राजनीति करने लगे। यहाँ गुजरात सरकार से सम्बन्धित कुछ एक घोटालों की झलक दी गयी, लेकिन घोटालों की यह सूची बहुत लम्बी है।

“फूट डालो और राज करो”
मोदी के अन्धभक्तों का कहना है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में हार–जीत का फैसला मोदी के विकास मॉडल पर ही होगा। इसीलिए भाजपा के भीतर काफी उठापटक के बाद मोदी को प्रधानमंत्री पद का भावी उम्मीदवार भी घोषित कर दिया गया। लेकिन देश के लोकतंत्र और चुनाव के बारे में मामूली ज्ञान रखने वाला इंसान भी जानता है कि यहाँ चुनाव जीतने के लिए धर्म और जाति के आधार पर उम्मीदवार खड़े करना, चुनाव के समय झूठे वादे करना, साम्प्रदायिक दंगे भड़काकर हिन्दू–मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण करना, वोट खरीदना, शराब पिलाना, बूथ कब्जाना और तरह–तरह के आपराधिक हथकंडे ही जीत–हार का फैसला करते हैं। यह भी तर्क दिया जाता है कि उम्मीदवार यदि ईमानदार है तो गलत तरीके से चुनाव जीत कर भी काम करेगा। लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि गलत उपाय भी तो गलत उम्मीदवार ही अपनाता है। दूसरे ताजा और अच्छा सेब भी सड़े सेब की टोकरी में रखने पर सड़ जाता है। फिर राजनीतिक पार्टियों में ईमानदार उम्मीदवार गुलर के फूल हो गये हैं। चुनावी बारिश आते ही नेता मेढक की तरह टर्राकर अपने विकास का राग अलापने लगते हैं जबकि देश में कुकरमुत्ते की तरह उग आये उनके एजेन्ट जनता को लगातार गुमराह करने की कोशिश करते रहते हैं। “फूट डालो और राज करो” नारे से रोम के गुलाम मालिकों से लेकर अंग्रेज हुक्मरानों तक ने सैकड़ों सालों तक लोगों को गुलाम बनाकर राज किया। लेकिन इतिहास में कई मिसालें हैं जब गुलामों ने आपसी भेद भुलाकर शासक वर्ग को कड़ी चुनौती दी। 1857 का स्वतंत्रता संग्राम हमारी आजादी की लड़ाई में एक ऐसी ही शानदार मिसाल है। उस दौरान हिन्दू–मुस्लिम की एकजुट ताकत ने यूनियन जैक का झण्डा झुका दिया था। इंग्लैण्ड की सरकार भय से काँप उठी थी। इससे सबक लेते हुए अंग्रेजों ने हिन्दू–मुस्लिम के बीच दंगे भड़काये और भारत–पाक का बँटवारा करके न केवल देश को लूटा और कमजोर बना दिया, बल्कि राष्ट्र की आत्मा को भी रौंद दिया। आजादी के बाद कांग्रेस और भाजपा समेत सभी राजनीतिक दलों ने ‘फूट डालो और राज करो’ के इस नारे को हाथों–हाथ लिया। उन्होंने जिन्दगी के हर क्षेत्र में इसे लागू करके मेहनतकश जनता की एकता को छिन्न–भिन्न कर दिया। सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने के लिए वे आज भी जातिवाद, साम्प्रदायिकता और क्षेत्रवाद के आधार पर जनता में नफरत फैला रहे हैं। समय–समय पर वे इसमें विकास का तड़का भी लगा देते हैं। इसी रास्ते पर चलते हुए नरेन्द्र मोदी ने अपने शासन के दौरान 2002 में मुसलमानों का नरसंहार करवाया और बहुसंख्य हिंदुओं की सहानुभूति हासिल करके गुजरात की सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत की। आज वे गुजरात के बहुसंख्य लोगों, किसानों, मजदूरों और बेरोजगार नौजवानों की छाती पर मूँग दलते हुए “गरीबों की लूट और अमीरों को छूट” की कांग्रेसी नीति का अनुसरण ही कर रहे हैं। वे गुजरात में पूँजीपतियों को हर तरह की सुविधा देते हुए गरीबी के पारावार में पूँजीवादी विकास की मीनार खड़ी कर रहे हैं।

कांग्रेस की नीतियों के उत्तराधिकारी 
दरअसल 1991 में देश में लागू हुई वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों पर सभी राजनीतिक दलों में आम सहमति है। गरीबों को लूटकर अमीरों की तिजोरी भरने का ही नतीजा है कि जहाँ एक ओर दुनिया के कुल भुखमरी के शिकार बच्चों में से आधे भारत में है और 80 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं तो दूसरी ओर देश में अरबपतियों की संख्या 6000 से ऊपर पहुँच गयी है, जबकि अमरीका और पूरे यूरोप को मिलाकर यह संख्या 3000 है। यही वजह है कि देश में 8200 धनी परिवारों के पास देश की 70 प्रतिशत से अधिक सम्पत्ति है और बाकी 120 करोड़ के पास 30 प्रतिशत। इन्होंने देश को लूटकर कंगाल बना दिया है। इस लूट में पूँजीपति, नेता, अफसर, माफिया और ठेकेदार अपने धार्मिक और जातिवादी भेदभाव भुलाकर लिप्त हो गये हैं। एक ही परिवार के कुछ लोग भाजपा में हैं तो कुछ कांग्रेस में। ये दोनों हाथों से मलाई मार रहे हैं। एक–दूसरे के खिलाफ बयानबाजी तो हमारी आँखों में धूल झोंकने के लिए है। लेकिन अब वह दिन दूर नहीं जब लोग इनके षड्यंत्रों को समझेंगे और जनता के बीच एक सच्ची एकता स्थापित होगी।

 शौचालय बनाना जरूरी 
गुजरात का एक विकास मॉडल यह भी दिल्ली में एक सभा को सम्बोधित करते हुए नरेन्द्र मोदी ने कहा कि मंदिर से पहले शौचालय बनाना जरूरी है। मजेदार बात यह कि कुछ समय पहले जब यही बात जयराम रमेश ने कही थी, तो संघ परिवार के लोगों ने उसे भारतीय संस्कृति का अपमान बताते हुए जयराम रमेश के आवास के सामने सामूहिक रूप से पेशाब करके विरोध जताया था। जाहिर है कि प्रधानमन्त्री पद के दावेदार मोदी के इस बयान के पीछे विवाद में बने रहकर लोकप्रियता हासिल करना ही है।
लेकिन इसी बहाने हम देखें कि गुजरात में शौचालयों की दशा कैसी है। गुजरात के सबसे समृद्ध शहर अहमदाबाद में शौचालयों की हालत पर हाल ही में मानव गरिमा संस्था ने एक सर्वे रिपोर्ट प्रकाशित की है। रिपोर्ट के मुताबिक अहमदाबाद शहर में हाथ से पाखाना उठाने की घिनौनी प्रथा आज भी जारी है, जिससे वहाँ का शासन–प्रशासन बार–बार इन्कार करता है। सर्वे के दौरान वहाँ 188 उठाऊ पाखाने पाये गये, जबकि अहमदाबाद नगरपालिका क्षेत्र में 126 जगहों पर हाथ से पाखाना साफ करने का चलन देखा गया। 1993 में हाथ से मैला साफ करने वाले लोगों को काम पर रखने और उठाऊ शौचालय बनाने के खिलाफ कानून बना था। इस कानून में यह प्रावधान है कि जो भी ऐसा करेगा, उसे एक साल तक की सजा और 2000 रुपये तक का जुर्माना देना होगा। इस कानून का सही ढंग से पालन न होने की कई शिकायतें सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित हैं। कानून बने 10 साल हो गये, लेकिन यह प्रथा अभी तक जारी है। 1993 में कानून बनाकर हाथ से मैला साफ करने पर रोक लगाये जाने के बावजूद अहमदाबाद नगरपालिका ने सफाई कर्मचारियों को कोई उपकरण मुहैया नहीं किया। अधिकांश कर्मचारी केवल झाडू और लोहे की पट्टी से पाखाना साफ करते हैं। इन कर्मचारियों में भारी संख्या में अस्थायी कर्मचारी हैं जो वहाँ पिछले 10 सालों से काम कर रहे हैं। वे ठेकेदारी प्रथा के अधीन काम पर रखे गये हैं जिन्हें 90 रुपये रोज की दिहाड़ी मिलती है। उनकी न तो कोई सेवा शर्त है और न ही जीवन बीमा या स्वास्थ्य बीमा। झुग्गी–झोपडी के आसपास जो सार्वजनिक शौचालय हैं, उनकी हालत खस्ता है, वहाँ न दरवाजे हैं, न पानी की टोंटी और न ही रोशनी इन्तजाम। आबादी के हिसाब से इन शौचालयों की संख्या भी बहुत कम है। गरीब माँ–बाप बच्चों के शौचालय जाने का खर्चा नहीं उठा पाते, इसीलिए ज्यादातर बच्चे खुले में ही शौच करते हैं। गुजरात सरकार ने गत 21 जून से 26 जून के बीच सभी बड़े शहरों और 195 नगरों में हाथ से मैला सफाई पर सर्वेक्षण करने की अधिसूचना जारी की थी लेकिन ऐसा कोई सर्वेक्षण नहीं किया गया। निजी ठेकेदारों और नगरपालिका अधिकारियों के डर से कि कहीं वे नौकरी से निकाल दिये जायें, कोई भी सफाईकर्मी हाथ से मैला साफ करने से मना नहीं कर पाता। इस अमानुषिक और घृणित प्रथा के बारे में नरेन्द्र मोदी के विचार को देखते हुए गुजरात में इस प्रथा के बने रहना कोई अजूबा नहीं है।
अपनी पुस्तक ‘कर्मयोगी’ में उन्होंने लिखा था– “मैं नहीं समझता कि वे यह काम (हाथ से मैला उठाना) केवल अपनी आजीविका कमाने के लिए कर रहे हैं । अगर ऐसा होता, तो वे पीढ़ी–दर–पीढ़ी इस तरह के काम को लगातार न करते ।–किसी विशेष समय पर, किसी को ज्ञानोदय प्राप्त हुआ होगा कि यह उनका (वाल्मीकि समुदाय का) कर्तव्य है कि वे पूरे समाज और प्रभुओं की खुशी के लिए यह काम करें कि उन्हें यह काम (हाथ से मैला उठाने का काम) इसलिए करना है कि भगवान ने उन्हें यह काम एक आंतरिक आध्यात्मिक साधना की तरह सदियों तक चलाते रहने के लिए सौंपा है ।” क्या नरेन्द्र मोदी यही विकास मॉडल और ऐसे ही विचार पूरे देश पर थोपने का ख्वाब देख और दिखा रहे हैं ?

--विक्रम प्रताप

बुधवार, 18 सितंबर 2013

अमीरों के लिए धन दौलत और गरीबों के लिए भजन कीर्तन

अन्तरराष्ट्रीय संस्था ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सौ सबसे अधिक अमीरों की सम्पत्ति को यदि गरीबी दूर करने में लगाया जाये तो इस धरती से चार बार गरीबी दूर की जा सकती है। दुनिया में बढ़ती असमानता पर विचार करने के लिए विश्व आर्थिक मंच (डब्लू ई एफ) की सालाना बैठक बुलाई गयी थी यह संस्था दुनिया की सबसे बड़ी कम्पनियों, संस्थाओं और सरकारों का साझा मंच है। इस बैठक में दुनिया के पूँजीपतियों के साथ भारत के मुकेश अंबानी, सुनील मित्तल, अजीम प्रेमजी जैसे 100 पूँजीपतियों सहित भारत के वणिज्यमंत्री आनंद शर्मा और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने भी भाग लिया। मंच ने ऑक्सफेम रिपोर्ट के मुद्दे पर चर्चा की और इस बात पर सहमति जतायी कि दुनिया में अमीरों और गरीबों के बीच असमानता तेजी से बढ़ रही है। लेकिन इस असमानता को दूर करने में सहयोग करने के मुद्दे पर मंच के लगभग सभी सदस्यों ने अपनी असहमति जतायी। भारत की ओर से बोलते हुए विप्रो अध्यक्ष अजीम प्रेम जी ने कहा “हमें अपनी सम्पत्ति का पुनर्वितरण मंजूर नहीं है गरीबों के बारे में सोचकर हम अपने मंच का समय बर्बाद कर रहे हैं। स्पष्ट है कि उद्योग जगत गरीबी दूर करने के लिए एक पाई भी खर्च नहीं करना चाहता है। 
प्रेमजी का समर्थन करते हुए मोंटेक सिंह आहलुवालिया ने कहा कि "आप लोग चिन्ता न करें, गरीबी दूर करने का काम सरकार का होता है। हम अपने देश की गरीबी दूर करने का संकल्प लेते हैं।" वायदे के मुताबिक शीध्र ही उन्होंने योजना बनायी और उस पर सरकारी मोहर लगाते हुए कहा कि आज से शहरों में 28 रूपये 65 पैसे और गांव में 22 रूपये 42 पैसे खर्च करने वाले परिवार गरीब नहीं हैं। आँकड़ों की इस बाजीगरी में जैसे चमत्कार कर दिखाया। लगभग तीस-बत्तीस करोड़ गरीब रातों रात अमीर हो गये। कारपोरेट जगत खुद को खुश होने से रोक नहीं पाया। भारत सरकार को विश्व महाशक्तियों के बधाई संदेश आने लगे। जिसमें उन्होंने लिखा कि धन्य हैं आप लोग और धन्य है वह देश जिसे मोंटेक जैसा योजनाओं का चतुर खिलाड़ी मिला। मोंटेक की बांछे खिल गयी और खुशी के मारे कहा कि अगर देश की जनता इसी तरह चुपचाप हमारी योजनाओं को बर्दाशत करती रही तो जल्दी ही हम भारत से गरीबी मिटा देंगे। यह दीगर बात है कि केवल आँकड़ों में।
लेकिन अफसोस प्रगतिशील बुद्विजीवियों को देश की यह कागजी उन्नति भी रास नहीं आयी। उन्होंने कहा कि मँहगाई आसमान छू रही है, ऐसे में कोई गरीब कैसे 28 और 22 रूपये में तीनों पहर भरपेट खाना खा सकता है? 5 रूपये में अब तो एक चाय भी नहीं मिलती। यह कहकर उन्होंने सरकार को कोसना शुरू कर दिया।
मँहगाई का नाम सुनते ही रिजर्व बैंक के गर्वनर ने सरकार के विरोधियों को नसीहत देते हुए कहा कि शर्म करो, पहले गाँव में जाकर देखो वहाँ किसान और मजदूर अब प्रोटीन युक्त खाना खाने लगे हैं। उनके खाने में दूध, दही, पनीर, दाल, सब्जी, फल, अण्डा, मीट, ड्राई फूड और फास्ट फूड की मात्रा बढ़ती जा रही है। क्या आप लोग नहीं चाहते गरीब लोग अच्छा खाना खाये?
          अभिनेता से नेता बने बंबई के एक छुटभैये ने पेट भरने के सवाल पर कहा कि देश की तरक्की से चिढ़ने वालों मुबई में 12 रूपये में भर पेट खाना मिलता है। इस बहती गंगा में हाथ धोने से सत्ता पार्टियों के नेता भी पीछे नहीं रहे उन्होंने दावा किया कि दिल्ली में पाँच रूपये में भोजन की थाली मिलती है जिससे बड़ी खुराक वाले आदमी का भी पेट भर जाता है। इसे खाकर पूरे दिन दिल्ली में घूमा जा सकता है।
ऐसे माहौल में नौजवान कश्मीरी नेता खुद को रोक नहीं पाया और बोला कि जो लोग हमारे बुजुर्गों की तकरीर में जुर्रत करने की हिमाकत कर रहे हैं वे कश्मीर आयें और देखें कि यहाँ दो रूपये में अमन-चैन के साथ इतना भोजन मिलता है जिसे खाने के बाद आदमी डकार भी न ले।
पक्ष-विपक्ष के इस वाद-विवाद ने गरीबों को उलझन में डाल दिया कि वे कहां जाएँ? मुंबई, दिल्ली या कश्मीर। तभी विदेशों से पढ़कर आये देश की गद्दी के उत्तराधिकारी ने कहा कि गरीबों के खाने की समस्या का पैसे या भौतिक चीजों की कमी से कोई लेना-देना नहीं होता क्योंकि भौतिक संसार तो नश्वर है हमें उसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। गरीबी सिर्फ एक मानसिक अवस्था है। उन्होंने बताया कि गरीबों को अन्तरमन से यह सोचना चाहिए कि वे गरीब नहीं हैं और उन्हें ईश्वर का भजन करना चाहिए। इससे उनका पेट भर जायेगा और उनकी गरीबी दूर हो जायेगी। इससे अलग कुछ करने की जरूरत नहीं है। यह एक ऐसा नुस्खा है जिससे गरीबी भी खत्म हो जायेगी और दुनिया के 100 अमीरों की सम्पत्ति भी गरीबों में बाँटने की जरूरत नहीं पड़ेगी। 
-महेश त्यागी

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज

(1919 के जालियाँ वाला बाग हत्याकाण्ड के बाद ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों का खूब प्रचार शुरु किया। इसके असर से 1924 में कोहाट में बहुत ही अमानवीय ढंग से हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। इसके बाद राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना में साम्प्रदायिक दंगों पर लम्बी बहस चली। इन्हें समाप्त करने की जरूरत तो सबने महसूस की, लेकिन कांग्रेसी नेताओं ने हिन्दू-मुस्लिम नेताओं में सुलहनामा लिखाकर दंगों को रोकने के यत्न किये।
इस समस्या के निश्चित हल के लिए क्रान्तिकारी आन्दोलन ने अपने विचार प्रस्तुत किये। प्रस्तुत लेख जून, 1928 के ‘किरती’ में छपा। यह लेख इस समस्या पर शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के विचारों का सार है।)
भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।
ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है।
यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।
दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।
अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्राता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्रा बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।
यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्राकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है।
बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होेना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती। इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए।
लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों मंे लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्राता मिलेगी।
जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे। लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ है, वहाँ नक्शा ही बदल गया है। अब वहाँ कभी दंगे नहीं हुए। अब वहाँ सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं। जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी। इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे। लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमें वर्ग-चेतना आ गयी है इसलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आयी।
इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों में एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।
यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं। उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से-हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी। भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है। भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए। उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं।
1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।
इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं।
यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते है। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।

हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमे बचा लेंगे।

गुरुवार, 12 सितंबर 2013

चीनी मिलों पर बकाया: किसान शरीर का अंग बेचने पर मजबूर

खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मन्त्री श्री के वी थॉमस ने लोकसभा में एक सवाल के लिखित जबाब में बताया कि सितम्बर में समाप्त हो रहे कारोबारी वर्ष 2012-2013 में गन्ना किसानों का 5821 करोड रुपये से भी ज्यादा चीनी मिलों पर बकाया है। उन्होंने कहा कि यह बताना सम्भंव नहीं है कि किसानों को कब तक भुगतान किया जायेगा?  
विडम्बना देखिए गन्ना मूल्य निर्धारण भी मिल मालिक और सरकार मिलकर करते हैं। खेतों से मिलों तक गन्ना ढुलाई भाड़ा भी गन्ने के मूल्य से काटा जाता है। सड़क निर्माण के नाम पर उनके भुगतान से कटौती की जाती है। इसके बावजूद भी किसानों को भुगतान के लिए आन्दोलन का सहारा लेना पडता है और मिल मालिक फिरभी सालों-साल भुगतान नही करतें। हाल ही में बागपत जिले के मोदी गन्ना मिल में एक राजनेता के हिस्सेदारी की खबर सुर्खियों में थी। मिल के गेट पर भुगतान की मॉग को लेकर किसान लगभग 70-75 दिनों तक धरना और प्रर्दशन करते रहे। आन्दोलन के तीखे तेवर को भॉपते हुए शासन ने मिल मैनेजर को निर्देश दिया कि किसानों के साथ बातचीत करके कुछ भुगतान के चेक देकर आन्दोलन समाप्त करा दो। लेकिन आन्दोलन समाप्त होने के बाद भी बैंक खाते में पैसा नहीं पहुँचा। चेक बाउंस हो गये। आन्दोलन फिर शुरू हो गया लेकिन किसानों के संघर्ष की धार कुंद करने के लिए शासन ने चीनी को नीलाम करके भुगतान करने का वादा किया या कहा कि मिल मालिकों के खिलाफ एफ आई आर दर्ज किया जायेगा। लेकिन प्रशासन आज तक कोई स्थाई समाधान न दे सका।
गौरतलब है कि मिल प्रबंधन और प्रशासन की मिलीभगत से न मिल की आरसी जारी हुई। न मोदी को गिरफ्तार किया गया और न ही कोई राजनीतिक पार्टी का कोई नेता किसानों के पक्ष में आया। आज भी आन्दोलन जारी है। राजनीतिक पार्टियों के कुछ नेता कभी-कभी आकर भाषणबाजी करते हैं कि जब तक किसानों की पाई-पाई का भुगतान नहीं होता हम चैन से नहीं बैठेंगे। लेकिन उन्हें बेचैन नहीं देखा गया। स्पष्ट है पक्ष-विपक्ष की पार्टियां जनता का साथ छोड़कर देशी-विदेशी सरमायदारों के पक्ष में चली गयी हैं।
सरकार बिजली बिल बकाया होने पर किसानों के कनेक्सन काट देती है। बैंकों की बकाया बसूली के लिए उनकी जमीने नीलाम कर देती है लेकिन किसानों का बकाया बसूली के लिए मिल मालिकों के खिलाफ कोई कार्यवाही क्यों नहीं करती?
काबिले गौर है किसान पूरे साल भोजन, बच्चों की शिक्षा, चिकित्सा और अन्य खर्चों के लिए बैंकों और साहूकारों से कर्ज लेता रहता है। इस उम्मीद पर कि गन्ना भुगतान आने पर लौटा दूंगा लेकिन सारा गन्ना मिलों में पहुँचने के बाद भी उसको एक मुश्त भुगतान नहीं मिल पाता इसी के चलते किसान लगातार कर्ज के बोझ से दबता जाता है।
कई संस्थाओं के आँकड़ों से पता चलाता है कि देश के 80 फीसदी किसान कर्ज में डूबे हुए हैं और 40 फीसदी को वैकल्पिक रोजगार मिले तो वे खेती छोड़ने को तैयार हैं। नेशनल क्राइम ब्यूरो के अनुसार हर 37 मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है। 1995 से 2011 तक 290740 किसान कर्ज और गरीबी से तंग आकर आत्महत्याएं कर चुके हैं। पिछले दिनों पंजाब के किसानों ने गाँव के बाहर 'गाँव बिकाउ है' का बोर्ड लगाकर सरकार से खरीददार भेजने की माँग की थी। यहाँ किसानों ने एक मेला लगाकर राष्ट्रपति से गुहार लगायी थी कि हम अपनी किडनी बेचना चाहते हैं।
हाल ही में झारखंड के दूर के गाँव में एक किसान हल्दी की खेती में बर्वाद हो गया। उसने नुकसान की भरपाई के लिए कम्पनी और सरकार का दरवाजा खटकाया। अन्त में कही सुनवाई न होने के चलते आत्महत्या कर ली। गोंडा, चतरा और पलामू जिलों में नियमित सूखा पड़ता है। यहाँ आन्दोलन करके किसानों ने कहा कि पानी नही देती सरकार तो इच्छा मृत्यु ही दे दे।
छोटा प्रदेश होने के चलते जिस हरियाणा को खुशहाली का तमगा मिला है। वहां किसान हर संभव उपाय आजमाने के बाद भी बैंकों से लिया गया कर्ज नहीं चुका पाये चारों ओर से मायूस होकर किसानों ने कुरूक्षेत्र में एक जनसभा करके प्रधानमंत्री से अपने शरीर के महत्वपूर्ण अंग बेचने की अनुमति मांगी है। शायद ये किसान अंग बेचकर कर्ज चुकाने के बाद कुछ और साल जी सकें और अपने परिवार का भरणपोषण कर पायें। गुजरात में किसानों सें जमीनें छीन कर देशी-विदेशी कम्पनियों को दी जा रही हैं। 40 गाँव के किसान संगठित होकर अपनी जमीनों को बचाने का आंदोलन चला रहे हैं।
देश का अन्नदाता अब किस बात पर गर्व करे, जब पूरे देश में अपनी जमीनें बचाने, फसलों का उचित दाम और भुगतान के साथ-साथ अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। दैत्याकार विदेशी कम्पनियों और देशी पूँजीपतियों के साथ मिलीभगत करके सरकार किसानों के भयावह शोषण और अमानवीय दमन के नये-नये कानून और हथकंडे अपना रही है। ये लोग किसानों को नरकीय जीवन जीने, आत्महत्या करने के साथ ही शरीर के अंग बेचने को विवश कर रहे हैं। मेहनतकश जनता का एक देशव्यापी संगठन बनाकर इन अमानवीय अत्याचारों को रोका जा सकता है।

-महेश त्यागी 


http://www.hindustantimes.com/India-news/Haryana/Debt-ridden-farmers-seek-permission-to-sell-organs/Article1-1103701.aspx

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

माँ के दूध का व्यवसाय

भारत सरकार और यूनिसेफ मिलकर अगस्त के पहले सप्ताह को स्तनपान सप्ताह के रूप में मनाते हैं। वे बताते हैं कि जन्म के पहले घंटे बाद ही शिशु को माँ का गाढ़ा-पीला दूध अवश्य पिलाना चाहिए। क्योंकि यही दूध प्रतिरोध क्षमता बढाकर बच्चों को भविष्य में होने वाली अनेकों बिमारियों से बचाता है।
इसके साथ ही माँ के दूध का भावनात्मक और सामाजिक पहलू भी बेहद सशक्त रहा है। कहानियों में कितने ही अवसरों पर अत्याचारी के विनाश के लिए माँ अपने बेटों को दूध की सौगंध दिलाती है।
लेकिन आज पूंजीवादी मुनाफ़ाखोर समाज ने माँ के दूध को खरीदने- बेचने की वस्तु में बदल दिया है।इसलिए माँ के दूध के बजाय इसे स्त्री का दूध बताया जा रहा है। इतिहास में राजाओं के घर धाय रखने की परंपरा के प्रमाण मिलते हैं। धाय उनके बच्चों को अपनी छाती से लगाकर दूध पिलाती थी। इस मामले में पन्ना धाय की कहानी बहुत प्रसिद्ध है।
आधुनिक तकनीकों के चलते ब्लड बैंकों की तरह दूध बैंक बनाये जा रहे हैं। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि हमारे देश में एक हज़ार में छियालीस नवजात शिशु माँ का दूध ना मिलने के कारण मर जाते हैं। ये दूध बैंक भी गरीबों को दूध नहीं देते।
आम घरों की महिलाएं बच्चों को अपना दूध पिलाती हैं। परन्तु उच्च वर्ग की महिलाएं अपने शारीरिक सौन्दर्य को बरकरार रखने के लिए दूध नहीं पिलाती। वे मानती है कि बच्चों को दूध पिलाने से उनके शरीर और चेहरे की आभा फीकी पड़ जायेगी। उनके पति भी ऐसा मानते हैं। इन्ही के लिए माँ के दूध का व्यवसाय शुरू हुआ।
सबसे पहले 1889 में स्वीडेन और डेनमार्क में दूध रसोई के नाम से इस काम की शुरुआत की गयी। यहाँ पहले तीन महीने का दूध माँ से इक्कीस डॉलर प्रति लीटर की दर से खरीदा जाता था। अमरीका में आज ऐसे आठ मिल्कबैंक संचालित हैं। धीरे धीरे भारत के भी कोलकाता, मुंबई , पुणे और सूरत में दूध बैंक बनाये गए हैं और अभी अभी उदयपुर में एक बैंक शुरू किया गया है। 
अजीब बात है कि विकास की सभी योजनाओं को गरीबों की कीमत पर ही अमली जामा पहनाया जाता है। आर्थिक लाभ के लिए मानवीय संवेदनाओं को कुचल दिया गया। जैसे देश के सभी ब्लड बैंक गरीबों और मजबूरों के खून से भरे हुए हैं। कुछ आपवादों को छोड़ दें तो ये ब्लड बैंक धन्नासेठों, नेताओं और मध्यम वर्ग के लोगों की ही जान बचाने के काम आता है। गरीबों के लिए इनके रास्ते बंद रहते हैं।
इस तरह हमें दूध बैंक की योजना के मानवीय पहलूओं पर भी गौर करनी चाहिए। क्या किसी लावारिस बच्चे या जिस माँ के स्तनों में दूध नहीं आता। उन्हें कभी इन बैंकों से दूध मिल पाता है? माँ जब बच्चे को छाती से चिपकाकर दूध पिलाती है, वह सिर्फ़ उसकी भूख ही नहीं मिटाती बल्कि संवेदनात्मक अनुभुतिओं का अहसास और आदान-प्रदान करती है। यही ममता का सुख है। यह अहसास मरते दम तक बना रहता है और हमें प्रेरणा देता है। बैंक के दूध को बोतल या चम्मच से पिलाकर कभी भी यह अहसास पैदा नहीं किया जा सकता।
विचारणीय प्रश्न है क्या इन दूध बैंकों में अमीर घरानों की माँओं का दूध है। नहीं उन करोडो गरीब माँओं का जिनके अंदर इतना दूध ही नहीं बनता जिसे वे बेच सकें लेकिन बेबस माएं पैसे के लिए अपने बच्चों को भूखाराखकर दूध बैंक को अपना दूध बेचती है। कुपोषण के चलते ऐसे बच्चे असमय ही काल के गाल में समां जाते हैं या अपांग हो जाते हैं।
इसलिए दूध बैंकों कि स्थापना बड़े शहरों में की गयी है, जहाँ झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली गरीबों की आबादी सबसे अधिक है। अमीरों के बच्चों को पिलाने के साथ-साथ इस दूध से आइसक्रीम बनाकर अकूत मुनाफा कमाया जा रहा है। पूंजीवादी विकास की इन योजनाओं के अंदर अमानवीय मुनाफ़े की घृणित नीतियाँ छिपी हुई हैं। इसलिए दूध बैंकों के पैरोकार गरीबों के बच्चों की कीमत पर अमीरों के बच्चों को माँ का दूध पिलाने का षड्यंत्र रच रहे हैं। गौरतलब है देश की सम्पदा लूटने के बाद भी इन मुनाफाखोरों की हवस शांत नहीं हुई। अब माँओं का दूध लूटकर अपने हित व मुनाफे के लिए उसका इस्तेमाल कर रहे हैं। जिस तरह समुद्र मंथन के समय देवताओं ने छल-प्रपंच से अमृत छक लिया और बाकी को इससे वंचित कर दिया। आज उससे भी भयावह जाल में फंसाकर कथित सभ्य समाज के अमीर, माँ के दूध भी हमसे छीनने की योजना बना ली है।

इस अमानवीय, घृणित, और निंदनीय व्यवसाय पर यदि शीघ्र रोक न लगाई गयी तो आने वाले भविष्य में माँ की ममता और गरिमा नष्ट हो जाएगी।

-दिनेश कुमार कुशवाहा

अब न बटे मज़लूम मेरे मुजफ्फरनगर में!

उगेगा चाँद फिर से मेरे मुजफ्फरनगर में 
रोयेगा देख कर हालात मेरे मुजफ्फरनगर में!

गोद हुई बाँझ, सिंदूर मिट गया मज़लूमो का
बिक रहा पैसो में इंसान मेरे मुजफ्फरनगर में!

भूख, बेरोजगारी, हक़ का न अब कोई मसला रहा 
कर दिया हिंदू-मुसलमां मेरे मुजफ्फरनगर में!

लाशों पर अल्लाह-राम चिल्लाने वालों 
तुम पर थूकेगा इतिहास मेरे मुजफ्फरनगर में!

वक़्त है आज फिरकापरस्तो को जवाब देने का
अब न बटे मज़लूम मेरे मुजफ्फरनगर में!

राम-अल्लाह को हम आज इंसां कर दे
जिंदगी झूमे फिर से मेरे मुजफ्फरनगर में!

-अमित

सोमवार, 9 सितंबर 2013

अरावली की लूट

अरावली पहाड़ पर नाजायज तरीके से कब्जा किया जा रहा है। उच्च न्यायालय के निर्देशानुसार 'वन’ घोषित जमीन का किसी प्रकार की खुदाई, खेती और बस्तियाँ बसाने के लिए इस्तेमाल करना गैर कानूनी है। गुड़गाँव और फरीदाबाद के निकट पहाड़ों और वनों पर खतरा मंडरा रहा है। क्योंकि उसे कृषि योग्य भूमि घोषित कर दिया गया है।
सरकार चन्द ताकतवर लोगों के साथ मिलकर अपने निजी फायदे के लिए जनता का नुकसान कर रही है। वनों को काटकर उसे बस्तियाँ बसाने के लिए ठेकेदारों को बेच दिया जाता है। इसी रणनीति से पहाड़ों पर बसे आदिवासियों की जमीन छीन ली गयी। इसके साथ ही जिस जमीन पर किसान खेती करके अपना भरण-पोषण करते हैं उसे प्रोपर्टी डीलर कम दामों पर खरीद लेते हैं और उसे मँहगे दामों में बेचकर मुनाफा कमाते हैं।
दुनिया आज पर्यावरण संकट से गुजर रही है। आज की स्थिति में हम और आगे विकास नहीं कर सकते। यह कहना गलत नहीं होगा कि हम विनाश के कगार पर खड़े हैं। पूँजीपति इसी को आगे बढ़ा रहे हैं। अरावली की पहाड़ियों के कारण ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, गुड़गाँव तथा आस-पास के इलाकों में बारिश होती है। वन इसमें मदद करते हैं। इतना ही नहीं यहाँ के निवासियों के लिए इन पहाड़ियों का महत्त्व बहुत अधिक है। पहाड़ों पर बसे गाँवों की जरूरतें वनों से ही पूरी होती हैं। वन उनकी संस्कृति और इतिहास का अंग है। इन प्रतिबंधित जगहों से पेड़ काटने पर जुर्माने की व्यवस्था है। लेकिन यह नियम केवल आदिवासियों के खिलाफ ही इस्तेमाल होता है। जबकि ठेकेदारों ने पिछले एक साल में मात्र 500 से 2000 रुपये  हर्जाना भरकर लाखों पेड़ कटवा दिये। गाँव के गाँव साफ कर दिये गये। फिर से आबाद बस्तियों में गरीब लोगों का प्रवेश वर्जित होता  है।
पंजाब भूमि संरक्षण अधिनियम के खण्ड 4 और 5 के तहत अरावली की एक तिहाई घाटियाँ संरक्षित हैं। लेकिन सरकार की नाक के नीचे नियमों का उलंघन होता है। इस तरह की गतिविधियों से न केवल पर्यावरण बल्कि पशु, पक्षियों और इंसानों पर भी दुष्प्रभाव होता है।
मंगार बानी विकास योजना-2031, सोहना योजना-2031 तथा गुड़गाँव मानेसर योजना-2031 गाँव तथा पर्यावरण के विनाश के प्रतीक हैं। 
इस प्रक्रिया में रोजका गुज्जर गाँव किसानों से हथिया लिया गया। इसके पीछे सोहना विकास योजना-2031 को बहाना बनाया गया। इससे सबसे ज्यादा फायदा ताकतवर और अमीर ठेकेदारों को हुआ है। इस तरह विकास के झूठे वादे करके किसानों और गरीब आदिवासियों की जमीनों को छीन लेना कहाँ तक उचित है?

-अतुल कुमार 

रविवार, 8 सितंबर 2013

मुजफ्फरनगर से आया एक संदेश- जाति धर्म में नहीं बँटेंगे– मिलजुल कर संघर्ष करेंगे!

जाति धर्म में नहीं बँटेंगे – मिलजुल कर संघर्ष करेंगे!
संघर्षों का एक निशाना – पूँजीवादी ताना–बाना!!

साथियो,

हाल ही में मुजफ्फरनगर के एक गाँव में मोटरसाईकिल की टक्कर को लेकर दो पक्षों में झगड़ा हो गया, जिसमें तीन लड़कों की मौत हो गयी। यह घटना बहुत ही दुखद है। हमारे इलाके की हालत यह है कि आये–दिन डोल–गूल की राड़ या बुग्गी अड़ाने की मामूली बातों को लेकर भी गोलियाँ चल जाती हैं। यहाँ तक की दिल्ली में रोज ही रोड़–रेज (गाड़ी टकराने को लेकर मारपीट और हत्या) की घटनाएँ होती हैं। नौजवानों की असीम ऊर्जा का नाश होना, छोटी–छोटी बातों के लिये जान की बाजी लगा देना हमारे मौजूदा दौर की एक बड़ी चिन्ता और विकट समस्या है। हद तो यह है कि इस मामले को लेकर दोनों पक्षों के बीच शान्ति का माहौल बनाने के बजाय इस घटना से पैदा हुये गुस्से को हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मों के नेताओं ने हवा देना शुरू किया। उन्होंने पूरे इलाके का माहौल जहरीला बना दिया। देखते–देखते हमारे जिले के माहौल में फिरकापरस्ती का धुआँ भर दिया गया। इस घटना का इस्तेमाल करके शान्तिप्रिय हिन्दु–मुस्लिम आबादी के बीच फूट डालना और अपने वोट की फसल लहलहाना किनकी साजिश है ? नफरत और अफवाहें फैलाकर अवाम के दिलों में दहशत पैदा करने और समाज को तोड़ने वाले ये लोग कौन हैं ? इनका असली मकसद क्या है ? इसे समझना जरूरी है।


सभी जानते हैं कि अगले साल (2014) देश में संसदीय चुनाव हैं। इन्हीं चुनावों की तैयारी के सिलसिले में पिछले दो साल में देश की 1150 से भी ज्यादा जगहों पर दंगे कराये जा चुके हैं। सबसे ज्यादा, लगभग 200 जगहों पर दंगे उत्तर प्रदेश में हुये हैं। हम पिछले कई चुनावों से देख रहे हैं कि हर चुनाव से पहले कभी धर्म के नाम पर तो कभी जाति के नाम पर जनता के बीच फूट के बीज बो दिये जाते हैं। आज किसी भी पार्टी के नेता के पास आम जनता के हित की कोई योजना नहीं है।


असल में महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, किसानों की तबाही, गरीबी, भुखमरी, जनता की सम्पत्ति का निजीकरण और इन जैसी तमाम समस्याओं पर सभी पार्टियों की एक राय है। खुद को मुसलमानों के या हिन्दुओं के रहनुमा बताने वाले नेता जनता के खिलाफ योजनाएँ लागू करने में एक–दूसरे से पीछे नहीं हैं। हर चुनाव से पहले दंगे करवाकर ये लागों के दिलों में फासले और भय पैदा कर देते हैं। ऐसे माहौल में चुनाव के मुद्दे की बात तो कहीं पीछे छूट जाती है और जाति–धर्म के नाम पर अपने–अपने रहनुमाओं को जिताकर हम संसद और विधान सभाओं में भेज देते हैं। इसके बाद उन्हें 5 साल तक आराम से हमारे ऊपर सवारी करने का मौका मिल जाता है। हमें समझने की जरूरत है कि सैकड़ों दंगों और हजारों लोगों की मौत के बाद भी आखिर हमें क्या मिला है। पिछले दो सालों में हमारे प्रदेश में जो लगभग 200 जगहों पर दंगे हो चुके हैं, क्या उनसे हमारी समस्याएँ हल हुयीं ? आज रुपये की कीमत चवन्नी भर भी नहीं रह गयी है, विकास दर घट कर आधी रह गयी है। देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है। कर्ज के बोझ से लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं व करोड़ों खेती छोड़ना चाहते हैं। बेरोजगारी के चलते नौजवानों की शादियाँ नहीं हो रही हैं। वे अपराध और नशाखोरी करने को मजबूर हैं, आत्महत्या कर रहे हैं। अगर फैक्ट्रियों में काम मिल भी जाय तो 14 घण्टे काम करके भी एक मजदूर अपना पेट नहीं भर सकता। भ्रष्टाचार सभी सीमाएँ लाँघ चुका है। देश में हर रोज हत्याएँ व औरतों के साथ बलात्कार हो रहे हैं। क्या इन सब के लिये हिन्दू या मुसलमान होना जिम्मेदार हैं या ये निकम्मे नेता और इनके चहेते धन्ना सेठ जिम्मेदार हैं।


1857 की आजादी की पहली लड़ाई में हिन्दू–मुसलमान–सिक्ख–इसाई कंधे से कंधा मिलाकर लड़े थे और अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिये थे। अंग्रेजो को उसी समय से जनता की एकता खटकने लगी थी। उसके बाद उन्होंने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनायी और जानबूझ कर हिन्दू–मुस्लिम दंगे भड़काये। फिरकापरस्त नेता अंग्रेजों की कठपुतली बने हुये थे। इसके बाद भी रोशन सिंह, बिस्मिल, अशफाक उल्ला, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह जैसे रणबांकुरों ने कौमी एकता की मिशाल कायम रखी और अंग्रेजों की र्इंट से र्इंट बजा दी। आज ये काले अंग्रेज भी अपने पूर्वज गोरे अंग्रेजों की उसी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को अमल में ला रहे हैं। अपने लिये तो उन्होंने महलों का निर्माण किया है और जनता के पैसों से अय्याशी कर रहे हैं। दूसरी ओर जनता को कंगाल बदहाल करके नर्क में ढकेल दिया है। ये जनता के खिलाफ ऐसे जघन्य अपराध कर रहे हैं कि अंग्रेज भी शर्मा जायें। इनकी लूट बराबर चलती रहे इसलिये वे चाहते हैं कि जनता आपस में जाति–धर्म के नाम पर लड़ती रहे और असली दुश्मन की तरफ उसका ध्यान भी न जाये। हमारे 1857 के बाबा शाहमल और मंगल पाण्डे और उनके बाद के आजादी के संघर्ष के बिस्मिल, अशफाक, आजाद और भगत सिंह जैसे देशभक्त कभी भी अंग्रेजों के फूट डालो राज करो के षडयंत्र में नहीं फँसे। उन्हीं से प्रेरणा लेते हुये हमें अपनी एकता को बरकरार रखने के लिये फूटपरस्ती के खिलाफ संघर्ष करना होगा। इसी तरह के हालात के बारे में शहीद भगत सिंह ने कहा था ‘‘गरीब मेहनतकशों और किसानों…तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिये तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वह किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं।’’


नौजवान भारत सभा तमाम मेहनतकश जनता से अपील करता है कि संकट और अविश्वास की इस घड़ी में धैर्य से सोच–विचार करें। धर्म और जति के नाम पर देश की जनता को बाँटने वाले नेताओं और उनके पिछलग्गुओं की चालों में न फँसकर देश की असली समस्या के बारे में सोचें और इनका समाधान करने के लिये एकजुट हों।

सम्पर्क सूत्र : शहीद भगत सिंह पुस्तकालय, एलम (मुजफ्फरनगर)

महेश– 09917527134, मा. जितेन्द्र– 09760892549, प्रवेन्द्र– 09897862718

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

दुर्गाशक्ति नागपाल का निलंबन: सही पहलू की तलाश

हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रशिक्षु  आईएएस दुर्गाशक्ति नागपाल को निलंबित कर दिया यह लोगों के बीच गहरे विवाद का विषय बन गया है। इस  मामले में लोगों की राय बँटी हुई है। इसके पीछे दो कारण सामने आये हैं पहला खनन माफिया के खिलाफ की गयी कार्यवाही और दूसरा कादलपुर गाँव में मस्जिद की दीवार गिराने का आरोप। अगर हम सीधे तौर पर पहले मामले को देखें तो हमें यही समझ में आता है कि उत्तर प्रदेश सरकार का फैसला खनन माफिया के पक्ष में है और इन्हें बचने के लिए सरकार ने  दुर्गाशक्ति नागपाल  को निलंबित कर दिया क्योंकि दुर्गा ने खनन माफिया के खिलाफ संवैधानिक दायरे में कारवाही की थी जबकि दूसरे मामले पर ध्यान दें तो उत्तर प्रदेश सरकार का कहना है कि मस्जिद की  दीवार गिराने से साम्प्रदायिक दंगें हो सकते थे जिसके चलते दुर्गा को निलंबित किया गया। इसलिए दुर्गा ने मस्जिद की दीवार गिराकर दंगे भड़काने का काम किया है
इन दोनों मामलों  पर तथ्यों के साथ विशलेषण करें तो पता चलता है कि खनन  या बालू माफियाओं का अरबों रुपये का काला कारोबार ऐसे ही बेधड़क नहीं चल रहा है। सफेदपोश, नेता, नौकरशाह और पुलिस सभी इस कारोबार में  लिप्त  हैं। इस काले कारोबार से होने वाली अवैध कमाई ठेकेदारों, खनन विभाग से जुड़े सरकारी अफसरों, चौकियों पर तैनात पुलिस अफसरों, बड़े पुलिस अफसरों और इस धंधे को संरक्षण देने वाले नेताओं तक पहुँचती है। जबकि काली कमाई का एक बड़ा हिस्सा अघौषित तौर पर इन  धंधों में लिप्त मंत्रियों तक जाता  है । उत्तर प्रदेश सरकार  के कैबिनेट मंत्री आजम खान ने व्यंग्य किया कि  "प्राक्रतिक संसाधनों पर सबका हक़ है"। "राम नाम की लूट है लूट सकें तो लूट"।  इसका आशय क्या है? यह समझना मुश्किल नहीं।
एक खबर के अनुसार एक ट्रक में 25 घनमीटर बालू आता है जिस पर 32 रुपए प्रति घंटा के हिसाब से 800 रुपये रौअल्टी कटती है। कुल रायल्टी का 30 प्रतिशत यानि 225 रुपये वैट लगता है। ट्रक में दुलाई और लदाई का खर्च 1000 रुपये आता है। एक ट्रक बालू की कीमत सिर्फ 2025 रुपये होती है । लेकिन सच यह है कि प्रत्येक ट्रक पर 75 घनमीटर बालू लादा जाता है । 2025 रुपये के ट्रक का बालू बाजार में 30 से 35 हजार रुपये में बिकता है। खनन माफिया एक ट्रक से करीब 30 हजार रुपये की काली  कमाई करते हैं।
कानूनी तौर पर एक एकड़ में 12 हजार घन मीटर खुदाई की जा सकती है। लेकिन सरकरी रिपोर्ट के मुताबिक हमीरपुर के बैड़ा दरिया घाट, भौड़ी जलालपुर, चित्रकूट के ओरा, बाँदा के भुरेड़ा सहित कई हजारों घाटों में एक एकड़ में 1.5 लाख घनमीटर से भी ज्यादा मौरम बालू निकाली गयी। सरकारी आकड़ो के मुताबिक उत्तरप्रदेश  में हर साल 954 करोड़ रुपये का खनन कारोबार होता है। जबकि करीब 2797 करोड़ रुपये के अवैध कारोबार की कोई हिसाब नही।
इस तथाकथित लोकतान्त्रिक देश में प्राकृतिक संसाधनों की बेलगाम लूट में  उत्तरप्रदेश प्रशासन और नेता किसी से पीछे नही हैं। क्योंकि यदि इस लूट में निर्धारित हिस्सा मिलता रहे तो कानून के रखवालों  (आईएएस) को कोई आपत्ति नही होती है। लूट का कारोबार बढ़ने के साथ-साथ इन माफियायों की काली कमाई बढ़ती जाती है। जाहिर है कि प्रशासन को भी बड़ा हिस्सा चाहिए। चोरी से किये गये अरबों रुपयों की कमाई की बंदरबांट में नेता, अफसर और पुलिस सभी शामिल होते हैं। संभावना यह भी है कि दुर्गा का इन माफियाओं से सौदा नही पट पाया हो 
एक खबर के अनुसार २ जुलाई को कादलपुर गाँव के एक धार्मिक स्थल की दीवार को दुर्गा ने गिरवा दिया था। सरकर ने माहौल बिगड़ने की आशंका  से दुर्गा को निलम्बित कर दिया। जबकि इस गाँव के लोगों में 70 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है, धार्मिक सदभावना बिगड़ने  के दावे को सिरे से ख़ारिज किया। गाँव के लोगों का कहना है कि धार्मिक स्थल का निर्माण गाँव के सभी धर्मों के लोगों की सहमति से ही हो रहा था, इसलिए दंगा भड़कने की सम्भावना का सवाल ही नहीं उठता है। कुछ लोगों का मानना है कि उत्तरप्रदेश सरकार दंगों की आड़ में अपराधियों को बचाने में लगी हुई है। विवाद का विषय यही है। 
दोनों ख़बरों में सच कौन सी है हम लोगों में से कोई भी नहीं जानता लेकिन हम इस बात के लिए मजबूर हैं कि मीडिया द्वारा उड़ाई गयी इन दोनों ख़बरों में से इस या उस बात पर विश्वास करके अपनी राय बनाये और शासक वर्ग के एक खेमें में खड़े हो जाए  
दरअसल दुर्गानागपाल जैसे सभी आईएएस अधिकारीयों की जिंदगी सुख-सुविधाओं और वैभव-विलास से भरपूर है। व्यवस्था से मिली शानो-शौकत और अय्यासी भरी जिंदगी और समाज में देवता जैसी स्थिति किसी आईएएस अधिकारी को जनता की जिंदगी से काट देने के लिए पर्याप्त है। यही हाल नेता का भी है लेकिन नेता दिखावे के लिए ही सही पाँच साल में हाथ जोड़कर जनता के सामने वोट माँगने के लिए उपस्थित होते हैं। लेकिन ईमानदार आईएएस अधिकारी जनता को जाहिल और उन्मादी भीड़ समझता है।
वह मजदूर किसानों के आन्दोलनों पर गोली चलाने से हिचकता नहीं है। हमारा इतिहास इस बात का गवाह है। ये जनता को अपनी जूती की नौक पर रखते हैं। लोग निजी जिंदगियों से जुडी समस्याओं को लेकर महीनों सरकारी दफ्तर के चक्कर लगाते हैं। सरकारी बाबू  बदनाम होते हैं और सब खेल खेलें गोसाई अपुना रहैं दास की नाई की तर्ज पर ये अधिकारी जनसेवक बने रहते हैं। यही अधिकारी उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण की नीतियाँ बनाकर जनता का खून चूसते हैं। नेताओं के भाषण और उनकी कार्यवाहियों के मार्गदर्शक यही हैं। यही लोग देश की शासन व्यवस्था चला रहे हैं। नेता, पूँजीपति और अधिकारियों का गठजोड़ देश को लूट रहा है।
लेकिन जब इनके बीच का समीकरण बिगड़ जाता है तो ये लोग अपनी लड़ाई जनता के अखाड़े में लड़ते हैं। कोई धर्मनिरपेक्ष होने की डींग भरता है तो कोई ईमानदार बनने की। सीधे-सादे लोग नेताओं  और अफसरों  के आपसी विवाद निपटारे के मोहरे बन जाते हैं। दरअसल इन दोनों में किसी को भी मेहनतकश जनता की जिंदगी और संघर्ष से कोई लेना-देना नहीं है। इनमें से कोई भी इस सड़ी व्यवस्था, जनता के ऊपर होने वाले अन्याय और शोषण के खिलाफ जन-आन्दोलनों में लोगों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ता दिखाई नहीं देता है। ये लोग किस तरह हमारे खिलाफ साजिश रच रहे हैं इस बात को समझाना होगा।

-सुनील कुमार 

खाद्य सुरक्षा बिल-अलग नजरिये से

खाद्य सुरक्षा बिल संसद में पास हो गया है। सरकार ने दावा किया कि इससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये देश की 67%  गरीब आबादी के प्रत्येक व्यक्ति को प्रति माह 5 किलो अनाज सस्ते दामों पर मिलेगा। खाद्य सुरक्षा बिल गरीबों के लिए लाभकारी सिद्ध होगा और आधार कार्ड से भ्रष्टाचार का खतरा नहीं रहेगा क्योंकि हमारे देश की ज्यादातर आबादी भुखमरी और गरीबी की शिकार है और ज्यादातर बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। 
सरकार इन  नीतियों के जरिये आधार कार्ड से भ्रष्टाचार ख़त्म करने का दावा कर रहे हैं। इस बिल के बारे में सरकारी मंसूबे को जानने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को किस तरह तहस-नहस किया गया इस पर नजर डालनी चाहिए। इसका दुस्प्रभाव जनता पर साफ दिखाई देता है। 
वर्ष 2006 में सरकार ने किसानों से गेहूँ  कम खरीदा और सस्ते दामों में गोदामों में पहले से पड़ा अनाज बेच दिया। इससे सरकारी गोदामों में अनाज की कमी हो गयी और उसका बुरा असर वितरण प्रणाली पर पड़ा। गरीबों को सस्ता अनाज देने में कटौती की गयी। इससे सरकार की जनविरोधी चेहरा उजागर होता है। इसका फायदा निजी व्यापारियों को मिला। इन्होंने अनाजों  के दाम बढ़ाकर लोगों  को जमकर लूटा। कांग्रेस ने इस बिल को चुनावी हथकंड़ा बना लिया है। इन्हें किसानों  की गरीबी तभी नजर आयी जब चुनाव शुरू होने वाला है। 
 सन 2009 में इन्होंने  किसानों की ऋण माफी का चुनावी ढकोसला किया। जिससे इन्होंने वर्ष 2009 के चुनाव में बाजी मार ली। कितनी बड़ी विडम्बना है कि सरकार लोगों  को रोजगार, शिक्षा और चिकित्सा की सुविधा देने के बजाये खैरात बाँटने का ढोंग कर रही है और जनता को परमुखापेक्षी बनने की सीख दे रही है। जबकि देश की स्थिति यह है कि विश्व के आधे भूख़े  लोगों  यानि 38 करोड़ भूखी जनता भारत में रहती है । 
क्या इस बिल से गरीबों के जीवन की मूलभूत आवश्यकतायों  को पूरा किया जा सकेगा। इससे प्रत्येक व्यक्ति को 5 किलो अनाज प्रति माह मिलेगा। एक आदमी एक महीने में 13 से 14 किलो भोजन ग्रहण करता है और क्या उसे खाने में दाल, चीनी, दूध, सब्जी और फल नहीं चाहिए। इससे स्पष्ट है कि सरकार  की यह योजना आम आदमी की आवश्यकता से कम ही है। वह गरीबों को जिन्दा रखो और उन्हें गरीब बनाये रखो की नीति का पालन कर रही है। अगर खाद्य पदार्थों  की शुद्धता और पौष्टिकता की बात करें तो महाराष्ट्र के मानवाधिकार आयोग ने राशन की दुकानों पर बँटवाने वाले गेहूँ के 265 नमूनों की जाँच करवायी। जिसमें  229 नमूने इंसानों के खाने के लायक नहीं थे। आयोग का कहना है कि जो गेहूँ जानवरों के खाने के लायक नहीं है, उन्हें  देश की जनता को खिलाया जा रहा है ।
कुछ सालों पहले जब अमरीका से आयातित आनाज गुणवक्ता के मानक पर खरा नहीं उतरा। तो सरकार ने अमरीकी व्यापारियों  से सांठ -गांठ करके गेहूँ  को श्रीलंका से पीसकर भारत आयात किया। जिससे सच्चाई का पता न चले। इसमें हम अंदाजा लगा सकते हैं कि सरकार हमारे लिए कितना शुद्ध खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराती है। राजनीतिक कुचक्र के द्वारा चुनावी हथियार के रूप में खाद्य सुरक्षा  बिल का इस्तेमाल सरकार की नीयत को जग जाहिर करती है।

-अजय कुमार 

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

अमरीकी जासूसी का स्नोडन ने किया पर्दाफाश

अमरीका द्वारा की जा रही पिछले 6 वर्षों से पूरे विश्व की निरंतर जासूसी का पर्दाफाश हुआ है। "ग्लोबल हीट मैप संस्था" के अनुसार "राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी" (एनएसए) ने केवल मार्च 2013 में कंप्यूटर नेटवर्क (माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, फेसबुक, याहू आदि कार्यक्रमों) के माध्यम से पूरे विश्व की 97 अरब जानकारी गुप्त रूप से हासिल की। जिसमें ईरान और भारत की जानकारी क्रमशः प्रथम और पाँचवे स्थान पर है।
हाल ही में हुए विभिन्न खुलासे अमरीका की इन साजिशों को अत्यधिक प्रमाणित और जग-जाहिर करते हैं। इन खुलासों में डेनियल अल्स्बर्ग ने पेंटागन दस्तावेज़ों को सार्वजनिक किया और उसके बाद ब्रॅड्ली मॅनिंग ने विकिलीक्स को अमरीका के राजनयिक  दस्तावेज़ों की जानकारी हासिल करवाया। इस कड़ी में एड्वर्ड स्नोडन द्वारा किये गये खुलासे सर्वाधिक चर्चित है। केन्द्रीय ख़ुफ़िया संस्था (सी.आई.ए)के पूर्व कंप्यूटर अभियंता, 29 वर्षीय एड्वर्ड स्नोडन, पिछले कुछ समय से अमरीका की राष्ट्रीय सुरक्षा संस्था (एन.एस.ए) की एक ठेकेदार संस्था "बूज़ एलेन हॅमिल्टन" मे कार्यस्थ थे। जून 2013 में हॉन्गकॉन्ग स्थित एक होटल में स्नोडन ने लन्दन के एक समाचार पत्र गार्जियन को एन.एस.ए से सम्बंधित अत्यधिक गोपनीय दस्तावेज उपलब्ध कराये। गार्जियन ने इन सूचनाओं को एक श्रृंखला के रूप में सार्वजनिक किया। जिसमें अमरीका और यूरोप के जासूसी कार्यक्रम इंटर्सेप्ट, प्रिज़म और टेम्पोरा से जुड़ी जानकारियां शामिल थी। इससे साफ़ पता चलता है कि अमरीकी संस्था एन.एस.ए ने कुछ वर्षों में गूगल, एपल, फेसबुक, याहू जैसी शीर्ष इंटरनेट कम्पनियों पर अपना नियंत्रण कायम किया है और इन कम्पनियों का इस्तेमाल करके प्रिज़म जैसे कार्यक्रमों के द्वारा दुनिया भर के उपभोक्ताओं की गुप्त जानकारीयाँ हासिल की।
अपने साक्षात्कर के दौरान स्नोडन ने बताया कि उसकी नौकरी ने उसे अमरीकी गुप्तचरों और "सी.आई.ए" के विदेशी मुख्यालयों जैसी अत्याधिक गोपनीय जानकारियों से अवगत कराया। लेकिन जब उसे यह एहसास हुआ कि वह एक ऐसी संस्था का हिस्सा है जो मानव-हित की जगह मानवता के विनाश को बढ़ावा दे रहा है, तो उसने अमरीकी संस्थाओं के खुफिया दस्तावेजों को सार्वजनिक करने का फैसला लिया और इसी के अंतर्गत वह हॉन्गकॉन्ग आया। स्नोडन ने बताया कि अमरीका एन.एस.ए और सी.आई.ए जैसी  संस्थाओं के जरिये इंटरनेट और दूरसंचार विभाग के माध्यम से पूरे विश्व की गुप्त जानकारी हासिल कर रहा है। इन गुप्त जानकारियों में विभिन्न देशों के नेताओं और राजनयिकों के निजी जिंदगी के आपराधिक रिकोर्ड भी हैं ताकि वह मौका पड़ने पर इनकी बाहें मरोड़ सके और इनसे मनचाहे समझौते पर हस्ताक्षर करवा सके। इसके अलावा किसी देश के रक्षा सम्बन्धी दस्तावेज हासिल कर उसके खिलाफ कार्यवाई की रणनीति बनाना भी इसका एक हिस्सा है। इन हथकंडों से वह दुनिया पर प्रभुत्व स्थापित करने का सपना देख रहा है।
इसके साथ ही स्नोडन ने अमरीका द्वारा इराक़, अफ्गानिस्तान, लीबिया और सीरिया में सैन्य हस्तक्षेप के पीछे छिपी उसकी मंसा का भी भंडाफोड़ किया और यह बताया कि अमरीका कितनी चालाकी से यह सब विश्व शांति स्थापना की आड़ में करता है। सन् 2003 में इराक़ के खिलाफ युद्ध प्रशिक्षण के दौरान मिले अनुभवों से उसने बताया कि अमरीकी सैनिकों को अरब के लोगों की मदद करने की जगह उन्हें मारने के लिये प्रशिक्षण किया जाता है। यह अमरीका के साम्राज्यवादी मंसूबो को दर्शाता है जो वह इन देशों में लोकतंत्र बहाली के नाम पर कर रहा है। इन खुलासों से स्पस्ट है कि बुश की जासूसी करने वाली नीतियों को ओबामा ने हूबहू नक़ल किया है। सी.आई.ए के जरिये अमरीका दुनिया के ईमानदार नेताओं की जासूसी करने और उन्हें रिश्वत देने या उनकी हत्या करवाने का काम करता है। ऐसा संदेह है कि वेनेज़ुएला के सच्चे नेता ह्यूगो शावेज़ को इलाज़ के दौरान कैंसर की दवा देने का काम इसी संस्था द्वारा किया गया था। जिसके कारण उनकी मृत्यु हो गयी। दूसरी और एन.एस.ए दुनिया की सबसे गोपनीय संस्थाओ में शीर्ष पर कायम है। एक आँकड़े के अनुसार इसका एक केन्द्र एक दिन मे ईमैल या दूरसंचार विभाग से दुनिया की एक अरब गुप्त जानकारी हासिल करता है और इसके 20 ऐसे केन्द्र लगातार काम करते है।
एक अन्य घटना में अमरीका के अपराध का खुलासा करने के आरोप में मैनिंग को 35 साल की कैद की सजा दी गयी। वाह रे अमरीकी न्याय व्यवस्था!!! जबकि ईराक में युद्ध भड़काने और लाखों लोगों का कत्लेआम करने वाले अमरीकी अपराधी खुलेआम घूम रहे हैं। स्नोडन के कदम ने रातों-रात दुनिया क़ी नज़र में उन्हें नायक बना दिया। स्नोडन के खुलासे से बौखलाया अमरीका उन्हें गद्दार घोषित करके जेल की दीवारों के पीछे कैद करना चाहता है। लेकिन स्नोडन ने इस बात से इंकार किया है कि वो गद्दार है और कहा कि "वे 1945 मे घोषित नुरेमबर्ग सिद्धांत को मानते है। इस सिद्धांत के अनुसार सभी व्यक्तियों का अंतराष्ट्रीय कर्तव्य है कि वह विश्वशांति के लिये अपनी आज्ञाकारिता क़ी राष्ट्रीय जिम्मेदारी से ऊपर उठे और विश्वशांति के खिलाफ काम करने वाली अपनी सरकार के विरोध में आवाज उठाये । इस हिसाब से कोई व्यक्ति विश्वशांति और मानवता की रक्षा के लिए अपने देश मे अपराध रोकने के लिये बने घरेलू कानून का उल्लंघन कर सकता है।"
हद तो तब हो गयी जब अमरीका और इंग्लेंड ने अपने कुकर्मो को छुपाने के लिए गार्जियन समाचार पत्र पर दबाव डाला कि वह खुलासा की कंप्यूटर फाईलों को नष्ट कर दे। एक नाटकीय घटना में गार्जियन ने उसे नष्ट भी कर दिया लेकिन समाचारपत्र ने कहा कि संभव है स्नोडन ने अपने मित्रों के जरिये इसकी प्रतियाँ ब्राज़ील या अमरीका मे छिपा रखी हो। यह अमरीका और इंग्लेंड मे अभिव्यक्ति की आज़ादी की असलियत को दिखाता है। अमरीका की इन्हीं साजिशों से बचने के लिए स्नोडन को भूमिगत होना पड़ा। जब उन्होंने रूस में शरण लेनी चाही तो शुरू में रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने कहा कि "अगर स्नोडन अमरीका को नुकसान ना पहुँचाये तो उसे रूस में शरण दी जाएगी" इससे साफ जाहिर है कि रूस कितना अमरीका विरोधी है और स्नोदें के लिए यह एक कड़ी शर्त थी, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया। लेकिन रूस की जनता उनसे लगाव रखती है और वे उनकी तुलना परमाणु बम के कारण अमरीका की दादागिरी को खत्म करने के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले ऐथेल और रोजेनबेर्ग दम्पति और द्वितीय विश्व युद्ध में देश के लिए मर मिटे जासूसों से करते है। लेकिन अमरीका और यूरोप न तो मानवता और न ही किसी देश की सम्प्रभुता की कदर करते हैं क्योंकि जब बोलिविया के राष्ट्रपति एवो मोरालेस मास्को से अपने देश जा रहे थे, तो यूंरोप मे उनके हवाई जहाज को उतारकर तलाशी ली गयी, कि कही उसमें छिपकर स्नोडन ना भाग रहे हों। उनके हाथ कुछ भी नहीं लगा लेकिन इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमरीका की बहुत फजीहत हुई। तब इससे खार खाये अमरीका ने ऐसा करने वाले लातिन अमरीकी देशों को गम्भीर परिणाम भुगतने की चेतावनी दी। इसके विरोध में सभी लातिन अमरीकी देश एकजुट हो गये हैं और उन्होंने अमरीका को सख्त चतावनी दी है कि वह अपनी धूर्तताओं से बाज आये।
इससे साफ जाहिर है कि दुनिया हमेशा साम्राज्यवादियों के हिसाब से नहीं चलती। अफगानिस्तान, ईराक, और लेबनान में अमरीका और उसके नाटो सहयोगियों को भारी पराजय का मुँह देखना पड़ा है। आश्चर्य है कि अमरीका और उसके सहयोगी देशों द्वारा अपने सारे साधन लगाकर भी अफ़गानिस्तान पर अपना आधिपत्य कायम नहीं किया जा सका। दो साल पहले अमरीका में वाल स्ट्रीट आन्दोलन ने प्रशासन को हिला दिया था। आज पूरे विश्व में अमरीका द्वारा थोपी गयीं उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों का विरोध हो रहा है। चाहे अमरीका अपने साम्राज्यवादी मंसूबो को पूरा करने के लिए कितने ही हथकंडे अपना ले पर व़ह इंसानियत का दमन कर कभी अपने मंसूबो में कामयाब नहीं होगा। स्नोडन, मॅनिंग, विकिलीक्स के जासूसी कारनामें और अमरीकी अन्याय के खिलाफ दुनियाभर में जनांदोलन की लहरें इसी दिशा में संकेत कर रही है।

-मोहित पुंडीर