सुयश
सुप्रभ
August
17
कब
तक पत्रकार केवल दूसरों के आंदोलनों के लिए जंतर मंतर जाएँगे? कभी-कभार अपने लिए भी
जंतर मंतर जाना चाहिए। छँटनी के मसले पर बड़े संपादकों की चुप्पी पर भी बात होनी चाहिए।
यह तो हम सभी जानते हैं कि हिंदी में अनियतकालीन पत्रिकाओं का पुराना इतिहास रहा है
लेकिन अवैतनिक पत्रकारों वाले समाज में न पत्रकारिता बचेगी न सामाजिक मूल्य। पत्रकारिता
के वैकल्पिक मॉडल को लेकर जागरूकता पैदा करने का काम पत्रकारों को ही करना पड़ेगा।
मुद्दे बहुत-से हैं, लेकिन तमाम मुद्दों पर केवल माउस हिलाने से कुछ नहीं होगा। हाथ-पैर
हिलाकर मंज़िल की तरफ़ बढ़ना होगा।
सुयश
सुप्रभ
August
18
क्या
पत्रकारिता की बड़ी हस्तियाँ पत्रकारों की समस्याओं से हमेशा मुँह मोड़ती रहेंगी?
Vikas Kumar ने बहुत ज़रूरी सवाल उठाए हैं। मैं आपकी सुविधा के लिए उनकी बात देवनागरी
लिपि में साझा कर रहा हूँ :
"कहाँ
हैं बड़े संपादक... जो बात-बेबात पर लिखने की क्रिया करते रहते हैं... कोई आत्मकथा
लिख रहा है... कोई अखबार में सरकार की कमियाँ गिना रहा है... कोई हिंदी के प्रयोग की
अलख लगा रहा है... कोई एक खास समुदाय को ऊपर उठाने की बात कर रहा है... कहाँ हैं सब
लोग। बड़े आदर से आपसे गुज़ारिश है... आगे आइए... उनके लिए नहीं जिनकी एक झटके में
नौकरी गई... बल्कि अपने लिए अपनी बड़ियत की रक्षा के लिए... आगे आइए... कुछ तो बोलिए...
यही कह दीजिए कि आप नहीं बोल सकते... ये चुप्पी क्यों। मैं इस पोस्ट में तमाम बड़े
पत्रकारों को टैग करने जा रहा हूँ.. जिन्हें बुरा लगे माफ़ कर दें... क्या हम सब अपने
साथियों के लिए, अपने कल के लिए कुछ बोल नहीं सकते... क्या हम सड़क पर तभी निकलेंगे
किसी की रैली कवर करनी होगी... आएँ न सर... हम बाहर निकलें... कानून का भी इस्तेमाल
करें... आप लोग मार्गदर्शन तो कीजिए... हम बाहर निकलेंगे।"
Saroj
Kumar
"भारी
पैमाने पर हुई छंटनी के शिकार पत्रकारों में केवल दो-तीन से ही मेरी बात होती है. छंटनी
ग्रस्त पत्रकारों की ओर से किसी प्रकार के विरोध या किसी योजना का पता नहीं चला है
और इसके कारणों को शायद समझा भी जा सकता है. लेकिन उनकी ओर से ऐसी कोई योजना न सही
लेकिन सांकेतिक रूप से विरोध जताने या बातचीत करने तो हम जुट ही सकते हैं. आज रात कुछ
दोस्तों ने इस मामले पर बातचीत के लिए जुटने का प्रस्ताव रखा है-कल रविवार(18 अगस्त)
दोपहर 2 बजे जंतर-मंतर. मैं कल पहुंच रहा हूं. आप भी आइए...रविवार दोपहर 2 बजे जंतर-मंतर..."
Ujjwal
Agrain
मीडिया
में काम करने वालों पर तरस आता है... नाम तो सुना ही होगा- लोकत्ंत्र का चौथा स्तंभ..
पर अगर मीडिया वालों की जिंदगी देंखें तो बाकी तीनों स्तंभ के ड्राइवर भी शर्मा जाए।
करियर
की शुरूआत से ही बात करते हैं... सामान्य तौर पर अगर आप दिल्ली के बड़े संस्थान के
छात्र नहीं हैं तो दो साल किसी मीडिया हाउस में बंधुआ मजदूर बनकर खटिए। इसके लिए आपको
पैसे नहीं मिलेंगे और आप इंटर्न कहलाएंगे। फिर बड़े मीडिया हाउस के रिपोर्टर बन जाएंगे
पर पैसों के नाम पर मिलेंगे ... तीन हजार रुपए। आपसे कोई पूछेगा कि जिंदगी से और क्या
चाहते हैं तो जवाब मिलेगा... पर्मानेंट हो जाएं, बस। थोड़ा और समय बीतेगा तो दस साल
काम कर चुके रहेंगे... पत्रकारिता की उत्साह खत्म हो जाएगी और बजाएंगे सुबह 10 से रात
10 की ड्यूटी। सैलेरी मिलेगी...15 हजार रुपए। (सरकारी ड्राइवर को इससे भी ज्यादा मिलता
है) अगर अब पूछेंगे कि क्या करना है तो जवाब मिलेगा... बस इस बार कंपनी का प्रॉफिट
टाग्रेट पूरा हो जाए तो इनक्रीमेंट मिल जायेगा... और जब आप रिटायर होइएगा तो पास होगी
दो लाख से कम की पीएफ और झाल बजाएं। (ड्राइवर का पीएफ आपसे ज्यादा होगा, मान लीजिए)
- यह तो रूटीन जिंदगी।
अब
अगर कभी ऐसा हुआ कि आपके मालिक का मूड खराब हो गया... असली मसाला तो अब आएगा। अगले
दिन नोटिस मिलेगा... कल से न आएं... हमारी जरूरत पूरी हो गई है। फिर तो रूटीन के काबिल
नहीं... न बच्चों की फीस भर पाऐंगे और न ही अरमानों से ली डिस्कवर गाड़ी की इएमआई...
फिर
सोचेंगे... साला ड्राइवर की तो नौकरी भी पर्मानेंट होती है...
(ड्राइवर
मात्र एक संबोधन है... माना जाता है ड्राइवर बड़े लोगों के छोटे काम के लिए रखते हैं...
मीडिया पर्सन की तो उनसे बुरी हालत है।)
Vikas
Kumar
अगर
आधी रात के बाद कार्यक्रम की घोषणा करने के बाद अगले दिन दोपहर दो बजे तक 32 लोग जंतर
मंतर पर न केवल जुट जाएँ बल्कि लगभग पाँच घंटे तक मिल-जुलकर आगे की रणनीति तय करें
तो इसका मतलब है कि मुद्दे में सचमुच दम है। मुद्दा है सीएनएन-आईबीएन के लगभग 350 मीडियाकर्मियों
को रातों-रात नौकरी से निकाल दिए जाने का। मुद्दा है उन गर्भवती महिलाओं के अधिकारों
की रक्षा का जिन्हें अचानक नौकरी चले जाने के बाद स्वास्थ्य से लेकर गृहस्थी तक के
तमाम मोर्चों पर संघर्ष करना है। मुद्दा उन लोगों के श्रम की गरिमा की रक्षा का है
जिन्हें अनुबंध की तमाम अटपटी शर्तों को आँख मूँदकर स्वीकार करके अपना पेट पालना पड़ता
है। मुद्दा तो जनता को गूँगा बनाने की साज़िश के विरोध का भी है जिसके तहत ऐसे लोगों
को चुन-चुनकर नौकरी से निकाला जाता है जो जनवादी पत्रकारिता की हत्या में शामिल होने
से इनकार करने की हिम्मत दिखा सकते हैं। अगर आप ऐसे मौकों पर चुप बैठे रहते हैं तो
कल आपके लिए भी शायद ही कोई आवाज़ उठाएगा।
इस
बैठक में ही हमारे मंच का नाम तय किया गया। अभी 'पत्रकार एकजुटता मंच (Journalist
Solidarity Forum)' नाम पर सहमति बनी है। यह भी तय किया गया कि हमारा संघर्ष केवल छँटनी
के मसले तक सीमित नहीं रहेगा। हमें अनुबंध में मनचाही शर्तें डालकर नौकरी पर रखने की
व्यवस्था का भी विरोध करना है। हालाँकि अभी हमें अपना ध्यान छँटनी के मुद्दे पर ही
केंद्रित रखना है। उम्मीद है कि आप 21 अगस्त को दोपहर दो बजे नोएडा सेक्टर-16 में
CNN IBNसीएनएन-आईबीएन और IBN7आईबीएन-7 के ऑफ़िस के सामने विरोध-प्रदर्शन में शामिल
होने के बाद 31 अगस्त की जनसभा में भी मौजूद रहेंगे।
Vikas
Kumar
"अचानक
से कार्यक्रम बना. आनन-फानन में लोगों को मैसेज भेजे गए. फोन से संपर्क किया गया. और
इसके बाद आज दिन की बैठक में 32 के करीब पत्रकार साथी जंतर मंतर पर इकट्ठा हुए. लगभग
4-5 घंटे की बातचीत के बाद ये तय हुआ कि हमारा अगला हमला सीधे सीएनएन आईबीएन और आईबीएन
7 के नोएडा स्थित ऑफिस के बाहर 21 अगस्त दिन बुधवार दोपहर 2 बजे होगा. हम उस दिन ऑफिस
के बाहर इकट्ठा होंगे और संस्था के इस दमनकारी और अमानवीय एकतरफे फैसले (टीवी 18 से
एक झटके में तमाम मानवीय एवं कानूनी पहलुओं का मजाक बनाते हुए 350 लोगों को नौकरी से
बाहर कर दिया गया) के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराएंगे.आप लोगों तक इस आंदोलन से संबंधित
सभी जरुरी जानकारियों को पहुंचाने के लिए ये फेसबुक इवेंट पेज बनाया गया है.आंदोलन
से संबंधित इस इवेंट पेज को शेयर करके अधिक से अधिक लोगों (खासकर के पत्रकार साथियों)
तक पहुंचाएं.."
एक
बात फ़ेसबुक पर बड़ी-बड़ी हाँकने वाले मीडियापुत्रों के लिए। जनता आपकी चुप्पी की अनदेखी
नहीं कर रही है। पूँजी के साथ गलबहियाँ करके और नैन मटकाकर आप प्रगतिशीलता की माँग
में सिंदूर भरने का जो नाटक कर रहे हैं उसके दर्शक बेवकूफ़ नहीं हैं। अगर एक ही मुद्दे
पर आपका रिकॉर्ड रुक गया है तो हमारे कानों ने भी कोई कसम नहीं खाई है कि ये आपकी बातें
पूरे सम्मान के साथ शरीर के अंदर ले जाएँगे। आपका सेठ आपको लाख रुपये की सैलरी कहीं
इसलिए तो नहीं दे रहा है कि आप जनता को तमाम मुद्दों पर बाँटकर रखें और उसकी ऊर्जा
को कभी हमले की शक्ल न लेने दें। मीडिया मे आपके सामने काम शुरू करने वाले बच्चे अभी
नौकरी की तलाश में भटक रहे हैं और आप फ़ेसबुक पर व्याकरण, संगीत और संस्कृति का पाठ
पढ़ा रहे हैं। आपसे अच्छे तो आपके मालिक हैं जिनका एजेंडा एकदम साफ़ है। उदाहरण तो
कई हैं लेकिन मर्यादा को ध्यान में रखते हुए अभी यही शाकाहारी उदाहरण दे रहा हूँ।
सुयश
सुप्रभ
August
19
जेएनयू
के छात्रों से एक अपील करना चाहूँगा। मुझे मालूम है कि अभी आप अपनी छात्रवृत्ति बढ़ाने
के लिए भूख हड़ताल पर बैठे हैं, लेकिन आपसे इतनी उम्मीद ज़रूर है कि आप सीएनएन-आईबीएन
के 300 से अधिक मीडियाकर्मियों को रातो-रात नौकरी से निकाल दिए जाने की घटना को व्यापक
संदर्भ में देखते हुए इस मामले में विरोध की अपनी भूमिका ज़रूर निभाएँगे। बहुत-से लोग
इस मुद्दे को केवल एक कंपनी तक सीमित करके देख रहे हैं, लेकिन यह नवउदारवादी नीतियों
के कारण श्रम से जुड़े नियमों के लगातार कमज़ोर होते जाने का ही उदाहरण है। जिस समाज
में ठेके पर काम देने वाली कंपनियों को मनमानी करने की छू दे दी जाती है, उसका अधिक
समय तक सुरक्षित रह पाना संभव नहीं होता है। कुछ साथी पेड मीडिया की बात करके इस मुद्दे
से अलग रहने की बात कर रहे हैं। कंपनी में नियम तय करने वाले मालिकों और उन्हें मजबूरी
में लागू करने वाले लोगों के अंतर को नहीं समझने के कारण इस मामले की ऐसी गलत व्याख्या
की जा रही है।
सुयश
सुप्रभ
August
19
जंतर
मंतर पर पुलिस को खदेड़कर आगे बढ़ने वाली जनता भी इसी देश में मौजूद है। समस्या यह
है कि यह जनता खुद को क्षत्रिय मानती है और जोधा बाई नाम का सीरियल बंद करने के लिए
न केवल पिट सकती है बल्कि दूसरों को पीट भी सकती है। दूसरी समस्या यह है कि इसी दिन
जंतर मंतर पर छँटनी का विरोध करने वाले मीडियाकर्मी इस समूह की ताकत को देखकर बस इस
बात का अफ़सोस करके रह जाते हैं कि ऐसी एकता मीडिया में क्यों नहीं दिखती है। यही सच
है हमारे समाज का। मुद्दे की बात पर लोगों को साँप सूँघ जाता है और फ़ालतू की बातों
के लिए दुनिया भर का उत्साह पैदा हो जाता है।
सुयश
सुप्रभ
August
20
अगर
आपने पत्रकारों को पूँजी के दबाव से मुक्त करने के मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया
तो भविष्य में अपनी हर चीख के बेआवाज़ होने के खतरे का सामना करने के लिए तैयार रहिए।
कल दोपहर दो बजे नोएडा में आयोजित विरोध-प्रदर्शन में अलग-अलग संस्थानों के पत्रकार
तमाम मतभेदों को भुलाकर अपने क्षेत्र की गरिमा को बचाने का हौसला लेकर जुटने वाले हैं।
इस मंच का नाम 'पत्रकार एकजुटता मंच' रखा गया है और इस नाम से ही आपको इस बात का अंदाज़ा
हो जाएगा कि यह आंदोलन किसी एक मुद्दे या संस्थान तक सीमित नहीं है। अगर आप कल नोएडा
नहीं आ सकते हैं तो कम से कम इस फ़ोटो को साझा करके अपनी आवाज़ को बुलंद बनाने की कोशिश
ज़रूर करें। बहुत-से युवा साथी आपकी ओर उम्मीद भरी नज़रों से देख रहे हैं। उन्हें निराश
न करें।
सुयश
सुप्रभ
August
20
हमें
बेहतर समाज के लिए बेहतर मीडिया चाहिए। जनवादी मीडिया के लिए इसे पूँजी के दबाव से
यथासंभव मुक्त रखने की कोशिश होनी चाहिए। लेकिन समस्या यह है कि समाज यह मानकर मीडियाकर्मियों
की समस्याओं पर ध्यान नहीं देता कि सब पैसा खाकर खबर छापते हैं। मालिकों की नीतियों
को मजबूरी में लागू करते हुए न जाने कितनी परेशानियों का सामना करके जनता के हितों
की रक्षा करने वाली खबरें छापने वाले कलमवीरों की परेशानी कोई नहीं समझना चाहता। किसी
बड़े लेखक ने कहा है कि हमारा मूल्यांकन हमारे वर्तमान से नहीं बल्कि हमारे इरादों
के आधार पर होना चाहिए। 'सबकी नीयत में खोट है' की मानसकिता से हम अपने जीवन में तमाम
कुकर्म करने की छूट पाना चाहते हैं। ऐसी सोच से समाज पीछे ही जाता है। कल नोएडा में
श्रम की गरिमा का मज़ाक उड़ाने वाले लोगों के विरोध में आपकी आवाज़ भी शामिल होनी चाहिए।
कहीं न कहीं से शुरुआत तो होनी ही चाहिए। मीडियाकर्मियों के पास अभी खोने के लिए केवल
अनुबंध बचा है जिसकी शर्तें उन्हें न चैन से जीने देती हैं न मरने। यही शर्तें रूप
बदलकर आपके जीवन में भी अँधेरा पैदा करती हैं।
सुयश
सुप्रभ
August
20
पत्रकारों
को मजीथिया बोर्ड के मसले पर भी संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा। जब इस बोर्ड ने पत्रकारों
को समुचित वेतन देने की बात कही तो मिड डे ने संघर्ष की बात कर रहे दिल्ली ब्यूरो के
तमाम पत्रकारों को रातों-रात नौकरी से निकाल दिया। मुंबई ब्यूरो के पत्रकारों को कहा
गया कि वे सरकार से यह कह दें कि सभी पत्रकार अपने वेतन से संतुष्ट हैं। पूँजी की इस
तानाशाही में आप पत्रकारों से यह उम्मीद कर रहे हैं कि वे प्रगतिशीलता की मशाल जलाकर
आपके घर को रोशन करेंगे तो आप सचमुच बहुत नादान हैं। अपने पत्रकार साथियों की मजबूरी
समझिए और उनका साथ दीजिए। कल या तो नोएडा पहुँचिए या फ़ेसबुक, ट्विटर जैसी वेबसाइटों
के माध्यम से उनके संघर्ष को मज़बूत बनाइए। हम और आप द्वीप पर नहीं रहते हैं। स्वार्थी
बनने की सीख देने वाले लोगों की राजनीति समझिए। रोटी की लड़ाई मिल-जुलकर ही लड़ी जा
सकती है।
सुयश
सुप्रभ
August
21
सबसे
आसान होता है / पालतू बन जाना / सेठ का दिया काम / चुपचाप करना / और डपटकर / दूसरों
से कराना / जो होता आया है / उसे सिर झुकाकर / मान लेना / और जो हो सकता है / उससे
दूर हट जाना / डगर कठिन होती है / तो आज़ादी की / जिसमें न तो / उधार के दिमाग से
/ काम चलता है / न उधार के विचार से / अपने विचारों के अँधेरे / से गुज़रकर / तिलिस्म
खोलने का एहसास / मन को रोशनी से / भर देता है / लेकिन आदतन खुशामद / करने वाला मन
/ पालतू बनकर ही / खुश रहता है
सुयश
सुप्रभ
August
21
एक
गाँव में आग लगी। कुछ लोग पानी लाने दौड़े, लेकिन एक औरत इस ज़िद पर अड़ी रही कि उसे
गहना चाहिए। उसका यह मानना था कि जब तक उसे गहना नहीं मिल जाता तब तक गाँव की किसी
और समस्या के बारे में वह न कुछ बोलेगी न सोचेगी। इसे वह अपना लोकतांत्रिक अधिकार भी
मानती थी। कुछ लोग ऐसे भी निकले जो तुरंत दूसरे गाँव में पहुँचकर आग से बचने के तरीकों
के बारे में लोगों को ज्ञान देने लगे। कुछ लोग बरसों से आग बुझाने पर शोध कर रहे थे।
जब आग लगी तो वे इस तरह गायब हुए कि गाँववाले आज तक उन्हें नहीं खोज पाए हैं। ताज़ा
खबर यह है कि उस गाँव में अब भी आग लगी हुई है। मीडिया पत्रकार शोषण
सुयश
सुप्रभ
August
21
पहले
तो नोएडा में आज के विरोध-प्रदर्शन से जुड़ी कुछ गलत धारणाओं के बारे में बात करूँगा।
आज कड़ी धूप में जो साथी भव्य होटल जैसी बिल्डिंग के सामने नारे लगा रहे थे वे केवल
1-2 लाख की सैलरी पाने वाले मीडियाकर्मियों के लिए वहाँ नहीं जुटे थे। वे तमाम काम
छोड़कर वहाँ पहुँचे थे क्योंकि उन्हें उन लोगों की चिंता है जिन्हें दो या तीन हज़ार
रुपये का वेतन देकर जानवर की तरह खटाया जाता है। वे उन पत्रकारों के लिए भी वहाँ जुटे
थे जो सरोकारी पत्रकारिता के लिए हर कीमत चुकाने को तैयार हैं। वे कुछ पत्रकारों को
लाख-दो लाख की सैलरी देकर बाकी लोगों को न्यूनतम से भी कम सैलरी देकर दलाल संस्कृति
को बढ़ावा देने का विरोध करने के लिए भी वहाँ जुटे थे। आज नारों में दम था, आवाज़ बुलंद
थी और हौसला आसमान छू रहा था। आने वाले दिन दिलचस्प और चुनौतीपूर्ण बनने वाले हैं।
इस आंदोलन से समस्या केवल उन लोगों को होगी जिनकी नाभि सत्ताधारी वर्ग से जुड़ी हुई
है।
सुयश
सुप्रभ
August
21
हर
सवर्ण शोषक होता है। हर गोरा आदिवासियों और अश्वेतों का दुश्मन होता है। पूँजी की
आग में जाति जैसी गंदगी जल जाती है। मीडियाकर्मियों की लड़ाई सवर्णों की लड़ाई है,
इसलिए हम उनका साथ नहीं देंगे। सारे मीडियाकर्मी पैसा खाकर खबर बेचते हैं। सूची लंबी
है। बहुत-से लोग इन सरलीकरणों से अपना घर चला रहे हैं क्योंकि ऐसी बातें लिखने से वे
सत्ताधारियों की आँखों के तारे और नाक के बाल (बचपन में रटा मुहावरा बरसों से किसी
काम नहीं आ रहा था) बन जाते हैं। इस सुविधावादी प्रगतिशीलता के खतरों को समझिए और आज
दो बजे या तो नोएडा पहुँचिए या ट्विटर, फ़ेसबुक आदि वेबसाइटों के माध्यम से मीडियाकर्मियों
के आंदोलन को मज़बूत बनाइए। अगर आप ट्विटर पर हैं तो हर ट्वीट में jsf लगाकर इस आंदोलन
से जुड़ी खबरों पर नज़र रख सकते हैं।
सुयश
सुप्रभ
August
22
JSF
पत्रकार एकजुटता मंच के साथी जब नोएडा में नारे लगा रहे थे तब मॉलनुमा ऑफ़िसों में
दबी ज़ुबान से इस आंदोलन के समर्थन में बातें हो रही थीं। हम सभी साथियों को इस बात
का एहसास हो रहा था कि जड़ता के कारण पैदा होने वाली चुप्पी के टूटने का असर इस औद्योगिक
नगरी में देर तक रहेगा। पत्रकारिता की गरिमा की रक्षा का मतलब ऐसा माहौल बनाना भी होता
है जिसमें कोई जैन या अंबानी खबरों को उत्पाद की तरह बेचने की हिम्मत नहीं कर सके।
पत्रकारिता और धंधे में जो अंतर होता है उसे कायम रखे बिना न तो पत्रकारों के अधिकार
सुरक्षित हैं न समाज के मूल्य। समाज को भी पत्रकारिता के कॉरपोरेट मॉडल का विकल्प खड़ा
करने की कोशिश करनी चाहिए। अगर आप चाहते हैं कि आपके सामने खबर की शक्ल में विज्ञापन
नहीं परोसा जाए तो आपको पत्रकारों के आर्थिक शोषण का विरोध करना होगा। व्यापारियों
को तमाम सहूलियतें देने के कारण आपकी थाली में ज़हरीली सब्ज़ी ने अपनी जगह बना ली है।
कहीं ऐसा न हो कि आने वाले समय में विचार में भी इतना ज़हर घुल जाए कि आप अच्छे विचार
की केवल कल्पना करते रह जाएँ।
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