विश्व शांति सूचकांक द्वारा वर्ष 2013 में किये गये एक सर्वे के अनुसार भारत दुनिया के सबसे हिंसक देशों में एक है। ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीकी (ब्रिक) देशों की सूची में पड़ोसी देशों से अच्छे सम्बन्ध स्थापित करने में भारत का बेहद ख़राब स्थान है। व्यापार के लिए उम्दा माहौल बनाने में अंतिम स्थान है। छोटे स्तर के घोटाले करने में भारत सबसे आगे है। कार्यकुशल सरकार के मामले में भारत का 4था स्थान है।
किसी भी देश या समाज के जागरूक इंसान की कोशिश रहती है, कि देश में दंगे-फसाद या लड़ाइयाँ न हो। लेकिन इस सर्वे के अनुसार शांति बनाये रखने की 162 देशों की सूची में भारत का 141वाँ स्थान है। वर्ष 2012 में आन्तरिक हिंसा के कारण
799 लोगों को अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ा। हमारा देश शांति बनाये रखने में फिसड्डी साबित हुआ है।
इस सर्वे से यह बात भी सामने आयी कि भारत हिंसा से पीड़ित देशों जैसे इराक, अफगानिस्तान,पाकिस्तान और दक्षिण सूडान के रास्तों पर कदम-ताल कर रहा है। भारत में भयानक तरीके से हिंसा और साम्प्रदायिक हिंसा के मामलों में इजाफा हुआ है। औसतन एक दिन में दो या दो से अधिक जिन्दगियाँ दंगों द्वारा निगल ली जाती हैं। यह बेहद चिंता-जनक है। इतनी हिंसा के बावजूद देश के रहनुमाओं के कानों पर जूँ तक नही रेंगती है।
पिछले साल बस्तर और छत्तीसगड़ जैसे आदिवासी बहुल इलाकों में भयानक हिंसक घटनाओं में लोगों की जान चली गयी। देश में चुनाव के आते ही राजनीतिक पार्टियाँ साम्प्रदायिकता का जहर फैलाना शुरू कर देती हैं। भूख, महँगाई और बेरोजगारी से त्रस्त जनता को जाति-धर्म के झगड़ों में उलझाकर वोट बैंक के सौदागर अपनी कुर्सी पक्की करने के लिए दंगे-फसाद करवाते हैं और लाशों पर अपनी चुनावी रोटियाँ सेंकते हैं। गृह-मंत्रालय के मुताबिक 100 से ज्यादा साम्प्रदायिक दंगें सिर्फ जनवरी से अक्टूबर 2012
में हुए। जिनमें 34 लोगों की मौत हुई और 450 से ज्यादा लोग बुरी तरह से घायल हुए।
असम के कोकराझार और आसपास के जिलों में जुलाई-अगस्त में हिंसक घटनाओं में 97 लोगों की जान चली गयीं और 4 लाख 85 हजार लोग विस्थापित हुए। विश्व शांति सूचकांक ने किसानों की आत्महत्याओं को अपने आकड़ों में सम्मलित नहीं किया है। अन्यथा हमारे सामने देश की बहुत ही भयावह तस्वीर आयेगी।
1990 में आर्थिक नीतियों के जरिये किसानों के हितों पर हमला किया गया। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और देशी-विदेशी धन्ना सेठों के हितो में नई नीतियां लागू की गयीं। सरकार की किसान विरोधी नीतियों के कारण पिछले 20 सालों में औसतन 35 किसानों ने प्रति दिन आत्महत्याएँ की। जीवन गुजारने का विकल्प न होने पर ही कोई इंसान आत्म्हत्या करता है। क्या यह हमारे शासकों द्वारा गलत नीतियों के हथियारों से की गयीं हत्याएँ नहीं है?
इतना ही नहीं
पिछले साल प्रतिदिन औसतन 370 लोगों ने आत्महत्याएँ की। यह बात हर जिन्दा इंसान को शर्मसार कर देने के लिए काफी है कि उनके देशवासियों ने इतनी भारी संख्या में इस देश की व्यवस्था से पीड़ित होकर अपनी जिन्दगी ख़त्म कर ली।
जिन्हें इस
देश पर नाज
है वे लोग
कहाँ हैं?
-ललित कुमार
aaz ki sthiti ka sahi jayja hai...bahut hi shaandaar.
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