रविवार, 11 अगस्त 2013

अलगाव

आज प्रत्येक व्यक्ति अलगावग्रस्त है. लोगों की जिंदगी में घुटन और ऊब है. भीड़ में अकेलेपन के एहसास से वे बुरी तरह व्यथित हैं. जिसके कारण सामाजिक मूल्यों-संबंधों का नकार, बेचैनी, निराशा और आत्महत्या जैसी प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं. समाज से कटा इंसान खुद में घुटकर जीने को अभिशप्त है. एक इंसान का दूसरे इंसान के प्रति जो लगाव और जुड़ाव होना चाहिए, वह धीरे-धीरे ख़त्म होता जा रहा है. लोगों के आपसी दोस्ताना सम्बन्ध और माँ-बाप, भाई-बहन और पति-पत्नी के संवेदनशील रिश्ते निजी स्वार्थ की भेट चढ़ते जा रहे हैं. इस प्रकार की परिस्थितियाँ जब समाज में पैदा होती हैं तो मनुष्य ऊब और घुटन महसूस करने लगता है और यही अलगाव है. निर्जीव वस्तुओं और मालों के प्रति प्यार और अंधभक्ति रखने वाला इंसान अपने जैसे जीते-जागते इंसान के प्रति संवेदना रहित कैसे हो जाता है? पड़ोस में क्या हो रहा है, उसे इसकी जानकारी ही नहीं होती, यहाँ तक कि बड़े शहरों में लोग अपने पडोसी को पहचानते तक नहीं.



लोगों को आपस में जोड़ने के लिए विभिन्न धार्मिक संगठन और सत्संग बनाए गये लेकिन वे खुद ही अलगाव के शिकार हो गये. विविध तरह के धार्मिक संगठनों के बीच कभी न पात सकने वाली गहरी खाई है. ये संगठन जोड़ने का नहीं तोड़ने का काम करते हैं. अलगाव की बढ़ती प्रकृति को लेकर समाज में कोई सार्थक बहस और हलचल नहीं है. जिस रंगीन दुनिया में हम जी रहें हैं उसमें हम अजनबी होने के लिए क्यों अभिशप्त हैं? अलगाव को समग्रता में समझने के लिए व्यापक बहस-मुबाहिसे की जरूरत है. लेकिन संक्षेप में हम यह समझ सकते हैं कि इंसानी रिश्ते ऐसे होने चाहिए कि एक व्यक्ति की तकलीफ दूसरा भी महसूस करे. इस प्रकार के रिश्ते एक ऐसे समाज में ही पनप सकते हैं जिसकी बुनियाद स्वार्थ पर न टिकी हो.

पुराने समुदाय परस्पर बंधन और एकजुटता की भावना पर आधारित लोगों का समूह होते थे. जो स्वार्थपरता के बजाय परंपरागत मूल्यों-मान्यताओं द्वारा संचालित होते थे. पहले कुटुंब-कबीले में जो भाईचारे का रिश्ता था, उसे धीरे-धीरे नयी उपभोक्तावादी संस्कृति ख़त्म करती जा रही है. जबकि आज शहरी और पूंजीवादी ढांचे के भीतर से पैदा हुए क्लब, सामाजिक संस्थाएँ, पेशागत संस्थाएँ और सरकारी संस्थाएँ व्यक्तिगत उद्देश्यों और लक्ष्यों की पूर्ती का साधन होने के चलते बनाये और कायम रखे जाते हैं. इसमें लोगों का जुडाव सतही, एकांगी और स्वार्थपरक होता है. इसे बनाए रखने के लिए लोगों की इच्छा के बजाय पुलिस-प्रशासन और क़ानून जैसी दमनकारी संस्थाओं का सहारा लिया जाता है. इन संस्थाओं से जुड़े व्यक्ति एक-दूसरे से सम्पूर्णता में नहीं केवल एक पहलू से जुड़ते हैं जो उनके तात्कालिक स्वार्थ के सर्वथा अनूकुल है. इसलिए ये लोगों के अलगाव को दूर नहीं कर सकती.

परिवार टूट रहें हैं, लाखों की संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, करोड़ों नौजवान बेघर-बार नौकरी की तलाश में सड़कों पर धक्के खा रहे हैं. इतना सब होते हुए भी इन समस्याओं से लड़ने के लिए लोगों में एकजुटता क्यों नही है? आज हममें से ज्यादातर लोग उस सूअर से बेहतर जिन्दगी नहीं गुजार रहे हैं जो अपनी बगल में दूसरे सूअर को कटते-मरते देखने के बावजूद मस्त होकर खाता-पीता रहता है. वास्तव में इस पूंजीवादी समाज ने इंसानी संवेदना के धरातल से लोगों को इतना नीचे गिरा दिया है कि खाने-पीने और सेक्स जैसे पशुवत कामों में ही ज्यादातर लोग आनन्द महसूस करते हैं और जिन्दगी गुजार देते हैं. अपनापन, प्यार, त्याग और उच्च आदर्शों जैसे सच्चे मानवीय सार तत्व से वे उम्रभर अनजान रहते हैं.

अलगाव का शिकार बनाती इस व्यवस्था को क्या हमें यूं ही बर्दाश्त करते रहना चाहिए और खुद भी इस व्यवस्था में घुटकर गुमनाम मौत मर जाना चाहिए? नहीं. हम मिलकर हालात बदल सकते हैं. आइये चलें, कदम से कदम मिलाकर, एकजुट होकर, एक ऐसे समाज की नीव रखे, जहाँ सच्चा मानवीय रिश्ता पनप सके, जिस समाज में अजनबियत हावी न हो, जहाँ सब एक-दूसरे के साथ जियें, जहाँ मनुष्य के लिए जीने के सभी साधन उपलब्ध हों.

-धर्मपाल 


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