आज के इस दौर में जिस तरह
से आईटी क्षेत्र मुनाफ़े के हवस की भेट चढ़ रहा है और लाखो-लाख इंजिनियर बेरोजगार हो
रहे है, यह अपने आप में एक बहुत बड़ी समस्या बनती जा रही है| आईटी क्षेत्र को कभी नौजवान
रोजगार का सबसे सुनहरा अवसर समझते थे अब वही उनका रोजगार मुनाफ़े की भेट चढ़ता जा
रहा है| जहाँ एक ओर संयुक्त राष्ट्र लेबर रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2017-18 में
बेरोजगारी बढ़ने की आशंका जताई जा रही है, वही लाखो लोगो को दो वक़्त की रोटी का डर
भी अब सताने लगा है| बैंग्लोर, नोएडा, पुणे जैसे शहरों को आईटी क्षेत्र का गढ़ माना
जाता रहा है, वहां दिन-प्रतिदिन आत्महत्याओं की दरे बढ़ती ही जा रही है| इन सबके के पीछे कही न कही
स्थाई रोजगार एक बड़ा कारण है. आईटी कंपनियां मुनाफा कमाने के उद्देश्य से मूल्यांकन
प्रक्रिया में ‘खराब परफॉरमेंस’ का बहाना बनाकर
कर्मचारियों की छटनी कर रही हैं| इन समस्याओं का सामना करने के लिए आईटी क्षेत्र के
कर्मचारीयो ने पहली बार अपनी यूनियन बनाई है| इस यूनियन का नाम ‘फोरम फॉर इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एम्प्लॉइज़
(एफआईटीई) है| उसका कहना है कि इस तरह
नौकरियों में कटौती करने का यह फैसला लंबे समय में इंडस्ट्री के लिए ही नुकसानदायक
साबित होगा.
जैसा कि ‘इंडस्ट्रियल
डिस्प्यूट्स एक्ट के मुताबिक बताया जाता रहा है कि आईटी कंपनियां अगर मुनाफा कमा
रही हैं तो उन्हें अपने कर्मचारियों को निकालने का कोई अधिकार नहीं है| सामान्य तौर पर छंटनी तब की जाती है जब
कंपनी नुकसान में हो, लेकिन इस एक्ट के अनुसार जैसे ही कंपनी आर्थिक
रूप से मज़बूत हो और मुनाफा कमाने लगे तब छंटनी किए गए कर्मचारियों को ही वापस
नौकरी पर रखने में प्राथमिकता दी जाए|
इंडस्ट्री के
जानकारों का कहना की कंपनियां चाहती है की कर्मचारियों के बीच की श्रृंखला को कम
से कम कर दिया जाये| जिस श्रृंखला को कंपनी कम या ख़त्म करना चाह रही है उसमे वे अनुभवी
कर्मचारी हैं, जिनका इंडस्ट्री में 8-12 साल का अनुभव है और इनकी सैलरी 10-15 लाख सालाना
है तथा इनकी उम्र 30-35 साल है| सोचने वाली बात यह है कि ये वही कर्मचारी है
जिन्होंने कभी इन आईटी कम्पनियों को फर्श से अर्श तक पहुचाया था| कभी इन
कर्मचारियों ने छोटी-छोटी सोशल नेटवर्किंग एप्प बनाने में अपनी पूरी सोशल जिंदगी
भी दाव पर लगा दी थी तथा एक कंप्यूटर और उनकी कम्पनी को अपनी आधी से ज्यादा
जिन्दगी दे दी थी और अब जब इन बड़ी-बड़ी कम्पनियों का मुनाफा बढ़ाने में ये कर्मचारी
काम नही आ रहे तो उनको निकाल देना ही ये मुनाफाखोर कंपनियां मुनासिबी समझ रही है,
वे यह भूल जा रही है कि उनकी बुनियाद को बनाने वाले यही अनुभवी कर्मचारी थे| समस्या
यहाँ यह भी है कि इनमे से अधिकाँश कर्मचारियों के घर, कार आदि लोन पर ही होते है
और इनको हर महीने लों की किस्त चुकानी ही पड़ती है| हम जानते हैं कि कम्पनियाँ अनुभवी
कर्मचारीयों की जगह नये कर्मचारीयों की भर्ती क्यों करती हैं? नये कर्मचारियों को वेतन
कम देना पड़ेगा और उनसे ज्यादा से ज्यादा काम कराया जा सकेगा और यही उनके मुनाफ़े
बढाने की शर्त है|
एग्जीक्यूटिव
सर्च फर्म हेड हंटर्स इंडिया का कहना है कि आने वाले तीन सालों में नई तकनीकें
अपनाने के चलते आईटी क्षेत्र में सालाना 1.75 लाख से लेकर 2 लाख तक नौकरियां
जाएंगी. वहीं मैक्निंसे एंड कंपनी की रिपोर्ट का कहना है कि अगले 3-4 सालों में
आईटी कंपनियों का आधे से ज़्यादा कार्यबल ख़त्म हो जाएगा. मैक्निंसे इंडिया के प्रबंध
निदेशक ने भी कहा कि तकनीक में आने वाले बड़े बदलावों के चलते 50-60 फीसदी कार्यबल
को दोबारा प्रशिक्षण देना एक चुनौती भरा काम होगा. आईटी इंडस्ट्री में तकरीबन 39
लाख लोग काम करते हैं, जिनमें से अधिकांश को दोबारा ट्रेनिंग देने की
ज़रूरत होगी, इसके बाद भी इनकी नौकरी बचे रहने की कोई गारंटी नहीं है| आईटी क्षेत्र का ही
ऐसा हाल नही है बल्कि हर क्षेत्र में स्वचालन और छंटनी जारी है| स्वचालन से न
सिर्फ आईटी और बीपीओ क्षेत्र की वर्तमान नौकरियों पर गहरा असर पड़ा है, बल्कि ये ऑटोमोबाइल
और इंजीनियरिंग जैसे कई मैन्युफैक्चरिंग सेक्टरों की नौकरियों को भी निगलता जा रहा
है जिससे उद्योग एक रोजगार रहित औद्योगिक
जगत के रूप में तब्दील होता जा रहा है.
2009-11 में जब भारत की
जीडीपी 8.5 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रही थी, तब संगठित क्षेत्र में हर साल 9.5 लाख नई नौकरियां पैदा हो रही थीं. हमें इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि
इसके बावजूद इसे को रोजगारविहीन विकास कहा गया. अगर बेरोजगारी की बात करे तो, यह आंकड़ा संगठित
क्षेत्र में नौकरियों की तेज गिरावट की कहानी बयान करने के लिए काफी है. पिछले दो सालों में
रोज़गार सृजन की दर
गिरकर 2 लाख नौकरियां सालाना तक पहुँच गयी. ऐसे में यह सवाल पूछा जाना लाज़िमी है
कि आखिर कपड़ा, धातु, चमड़े, रत्न एवं आभूषण, आईटी एवं बीपीओ, ट्रांसपोर्ट, ऑटोमोबाइल्स और हथकरघा जैसे संगठित क्षेत्रों में रोज़गार सृजन
में तेज
गिरावट की वजह क्या है? इससे
भी बड़ा सवाल यह है कि आखिर इन क्षेत्रों में गड़बड़ी कहां हो रही है, जबकि माना यह जाता है कि वैश्विक
स्तर पर भारत को इन क्षेत्रों में बढ़त हासिल है? 2015 में इन आठ क्षेत्रों में नए रोज़गार का सृजन गिरकर अब तक के
सबसे निचले स्तर, 1.5 लाख पर आ गया है.
केंद्र
सरकार अपने कार्यकाल का तीसरा साल पूरा कर रही है. 2014 के चुनावी भाषणों में प्रधनमंत्री
ने नौजवानों को रोज़गार दिलाने का वादा किया था. तीन साल बाद भी यह सरकार अपनी नाकामी
के बारे में गंभीरता से चिंतन नहीं कर रही है. तब प्रधानमंत्री ने कहा था, ‘मैं
पचास साल वालों के लिए तो ज्यादा कुछ नहीं कर सकता, मगर
मैं नए रोज़गार की तलाश कर रहे बीस साल के नौजवानों के जीवन को बदलना चाहता हूं’. लेकिन तथ्य इससे एकदम उलटी बात कहते हैं. श्रम
मंत्रालय द्वारा मुहैया कराए गए सरकारी आंकड़े भी सरकार की नाकामी की ओर संकेत करते
हैं.
रोजगार का सिकुड़ता
हुआ बाज़ार, आज देश के नौजवानों के लिए भयानक संकट का रूप लेता जा रहा है. जहाँ एक
ओर आईटी क्षेत्र की कंपनियां अपना शोषणकरी पूजीवादी चरित्र दिखा रही है, वही सरकार
उनके मुनाफ़े की लूट में हिस्सेदारी के चलते मूकदर्शक बनी बैठी है. यही वजह है की
अरबो का मुनाफा कमाने के बावजूद आईटी कंपनियां अपने कर्मचरियों की छंटनी करने पर आमादा
हैं.
कलमघिस्सू
बुद्धिजीवी और सरकारें दिन-रात इस बात का प्रचार करती रहती हैं कि सबको नौकरी नहीं
दी जा सकती है. जबकि सच्चाई इसकी उलटी है. हमारा देश इतना संसाधन सम्पन्न हैं कि
सबको सरकारी नौकरी दी जा सकती है. इसके लिए कई ठोस कदम उठाने होंगे. जैसे- मुनाफे
की लूट का चारगाह बन चुके निजी क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाय. पूंजीपतियों
की टैक्समाफ़ी खत्म करके, उनके ऊपर बकाया कर्जों की वसूली करके और भ्रष्ट
अधिकारियों तथा नेताओं की सम्पत्ति जब्त करके जो कई अरबों का कोष तैयार होगा, उसे
रोजगार सृजन के उद्यमों में लगाया जाए. जैसे—नहरों, तालाबों, नदियों और अन्य
प्राकृतिक स्थलों की साफ़-सफाई, सडक तथा रेल परिवहन और अन्य मूलभूत ढांचें में
सुधार, कपड़ा, दवा और अन्य रोजमर्रा की जरूरतों के उद्योग को बढावा, निर्माण उद्योग
को नये सिरे से खड़ा करना और देश में रिसर्च को बढ़ावा देना आदि. लेकिन क्या मौजूदा
सरकारों से हम ऐसी उम्मीद कर सकते हैं जो इसका ठीक उलटा कर रही हो. सरकारें
औने-पौने दामों पर सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को निजी हाथों में बेचती जा रही
हैं. मौजूदा केंद्र सरकार पीपीपी मॉडल के तहत पहले चरण में देश के 23 स्टेशनों को
निजी हाथों में सौंप देगी. कानपुर को 200 और अलहाबाद को 150 करोड़ में बेचा जाएगा.
यह बहुत घिनौना है, लेकिन इस सरकार से इससे अलग कुछ करने की उम्मीद भी नहीं की जा
सकती. इसलिए सबको रोजगार मुहैया कराने वाली सरकार और समाज व्यवस्था का निर्माण
संघर्षों के रास्ते पर ही सम्भव है. इसलिए वैश्वीकरण के मौजूदा लुटेरे दौर में जनता
के सच्चा संगठन और दीर्घकालीन संघर्ष ही रोजगारविहीन विकास पर लगाम लगा सकता है.
इस शोषणकारी समाज व्यवस्था को बदल कर समतामूलक समाज के सृजन से ही इस समस्या का
स्थायी समाधान होगा.
--दिनेश मौर्या
--दिनेश मौर्या
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