किसी समुदाय के रीति-रिवाज, खान-पान, पहनावा, सामुहिक आदतें, संस्कार, मनोरंजन के साधन और किसी हद तक शिक्षा पद्धति भी संस्कृति के अंतर्गत आते हैं। संक्षेप में सभ्यता के दौर में इंसान के समग्र अनुभवों का खजाना ही संस्कृति है। बन्दर से आधुनिक मनुष्य बनने तक अर्थात पुराने कबिलाई समाज, राजाओं-सामन्तों के शासन, अँग्रजों की गुलामी और उसके खिलाफ संघर्ष से लेकर आजादी के बाद आज तक हमारे देश के विविध इलाके के लोगों का समस्त अनुभव ही वहाँ की संस्कृति है। मनुष्य जिन्दा रहने की न्यूनतम जरूरत पूरा करने के पहले और बाद जो चीजें करता है वह संस्कृति है। जैसे पुराने समाज में शिकार के बाद, वह सामुहिक रूप से उसकी नकल (अनुकृति) करता था, यहीं से नाटक पैदा हुआ। कोयल के कूकने, बादल के गरजने और हवाओं के चलने की नकल करके इंसान ने संगीत सीखा। सामंती समाज में धौकनी-फुकनी और जाते-मूसल के साथ का संगीत आया। औरतें जाते से पिसाई करती थीं। मेहनत को हल्का करने के लिए गाना गाती थीं। जाते-मूसल के उतार-चढ़ाव के अनुसार लय में उतार-चढाव होता था। संगीत मुख्यतः मनोरंजन के लिए और श्रम को आसान करने के लिए था। आज पूँजीवादी व्यवस्था ने इन सबको एक ही झटके में खत्म कर दिया। इनके स्थान पर इसने आज केवल एक संस्कृति लागू कर दी है उपभोक्तावादी संस्कृति।
संक्षेप में उत्पादन प्रणाली के अनुरूप ही संस्कृति और विचार बनते हैं। उत्पादन प्रणाली के अंतर्गत तकनीक, मशीन, औजार, उत्पादन में उपयोगी कच्चा माल और उत्पादन के समय व्यक्तियों के बीच बने सम्बन्ध आते हैं। जिसमें मजदूर-मालिक का सम्बन्ध प्रमुख है। आज की उत्पादन प्रणाली पूँजीवादी है जिसमें बड़ी-बड़ी मशीनों से मजदूर के सामुहिक क्रिया-कलाप के द्वारा उत्पादन को प्राथमिकता प्राप्त है। उत्पादन के दौरान बने सम्बन्धो में मालिकाने का सम्बन्ध अर्थात पूँजीपति और मजदूर का सम्बन्ध ही महत्त्वपूर्ण होता है और यही सम्बन्ध आज पूरे समाज की दिशा तय करता है जैसे मजदूरों को कम मजदूरी देकर पूँजीपति खूब मुनाफा कमाता है। जिससे उसके पास निजी सम्पत्ति का पहाड़ खड़ा हो जाता है। इस सम्पत्ति के बल-बूते वह राजनीति, प्रशासन और मीडिया पर अपनी पकड़ मजबूत करता है ताकि पूरे समाज में उसकी मर्जी से काम हो। इस तरह पूरे समाज की बड़ी ताकत पूँजीपति की सेवा करने और मुनाफा बढ़ाने में झोंक दी जाती है। दूसरी ओर अपने शोषण और उत्पीड़न से तंग आकर मजदूर विद्रोह करने लगते हैं। यही आज की उत्पादन प्रणाली है जिसे पूँजीवादी आधार कहते हैं। इसी आर्थिक आधार पर समाज टिका हुआ है। उत्पादन के तौर-तरीके बदलते रहते हैं। आज चूल्हे-चक्की अजायबघर की चीज बनते जा रहे हैं। मनावता का इतिहास कई उत्पादन प्रणालियों का गवाह है। जैसे कबीलाई, दास, सामंती, पूँजीवादी और समाजवादी उत्पादन प्रणाली। सामंती समाज में सामंतो के अधीन भूदास (जमीन से बँधे किसान) होते थे जो राजा और सामंतो की जमीन पर हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी मुश्किल से भरपेट खाना पाते थे। क्या सामंती समाज में यही सब था ? सच पूछिए तो यह सब हम कम सुनते हैं। कवियों, अय्यासी के अड्डों, वैभव-विलासिता के सामान, गहने ,हीरे-मोती की बात हम सुनते हैं और
उस समय के रीति-रिवाज के बारे में हम सुनते हैं, यही सब सामंती संस्कृति है।
उस समय के रीति-रिवाज के बारे में हम सुनते हैं, यही सब सामंती संस्कृति है।
संस्कृति अधिरचना का अंग है। अधिरचना के दूसरे पक्ष जैसे कानून, धर्म, दर्शन आदि भी हैं। जैसे- सामंती दर्शन में पुनर्जन्म की बातें, स्वर्ग-नरक, स्त्रियों की गुलामी, जातिवाद आदि विचार आते हैं जो सामंती उत्पादन प्रणाली को बनाये रखने और उसे मजबूत करने के साधन हैं। इसी तरह पूँजीवादी दर्शन में व्यक्तिवाद, भौतिक प्रोत्साहन (विशिष्ट काम के बदले इनाम), करोड़पति कैसे बनें, अन्धी प्रतियोगिता, कैरियरवाद, अलगाव आदि इसके अंतर्गत आते हैं। ये विचार अपने आप पैदा नहीं होते। कोई भी उत्पादन प्रणाली हो, वह किसी न किसी वर्ग के स्वार्थों का प्रतिनिधित्व करती है। प्रभावी दर्शन और विचार हमेशा उत्पादन प्रणाली में मालिक वर्ग अर्थात सत्ता में बैठे शासक वर्ग की सेवा करती है। इसलिए सत्तासीन वर्ग अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए ऐसे दर्शन को गढ़ते हैं।
कुछ समय पहले उत्तर-आधुनिकतावाद आया। यह एक पूँजीवादी विचारधारा है। पूँजीवाद के खिलाफ लड़ने वाले मार्क्सवादियों में से बहुत सारे ढीले-ढाले लोगों को यह अपनी तरफ बहा ले गया। हमारे पूरे आन्दोलन को ही यह बहा ले गया। उत्तर-आधुनिकतावादी समाज में समस्याओं को वर्गेतर मानते हैं। नारीमुक्ति, जातिवाद, पर्यावरण आदि समस्याओं को ही प्रमुख बताते हैं। जबकि पूरी मानवता की मुक्ति की लड़ाई के ही ये सब विभिन्न अंग है। जब से साम्राज्यवाद दुबारा भारत में आया है और इसने देश के माथे पर गुलामी के नये कलंक लगाये हैं तब से सभी सामाजिक-सांस्कृतिक अन्तर्विरोध है जैसे- जाति, धर्म, क्षेत्र, आदमी-औरत आदि के झगड़े और तीखे हो गये हैं। बिहार-महाराष्ट्र की क्षेत्रीय विषमता बढ़ गयी है। औरतों की स्थिति और खराब हो गयी है। उन पर यौन शोषण और पैदा होने से लेकर बुढ़ापे तक हिंसा बढ़ गयी है। निजीकरण के कारण परोक्षतः जातियों का आरक्षण खत्म होने से उनके बीच कलह बढ़ गयी है। क्या इन समस्याओं का समाधान अलग-अलग सम्भव है? इन लड़ाइयों को एक सूत्र में पिरोकर मजदूरों के नेतृत्व में वर्ग संघर्ष द्वारा पूरी मानवता की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। लेकिन उत्तर-आधुनिकतावादियों ने इन समस्याओं को अलग-अलग पेश करके शोषित वर्गों के बीच फूट डाल दिया और आंदोलन को भटका दिया।
राजाओं, जमींदारों और सामंतो के राज्य को बनाये रखने के लिए मनुस्मृति के जरिये शूद्रों को गुलाम बनाया गया। यह सब आज हिंदू दर्शन के नाम से महामंडित होता है। जबकि बाल ठाकरे के पिता ने कहा था ”हिंदू संस्कृति एक ऐसा गन्दा नाला है जिसमें चवन्नी उठाने के लिए हाथ गन्दा करने की जरूरत नहीं“। आज बाल ठाकरे उनके नाम पर कालिख पोत रहे हैं। इस धर्म में मूँछ काटने पर पाबन्दी है। जो चाहे जैसा रखे यह उसकी स्वतंत्रता है। यह संस्कृति हजारों तरह की मनोविकृतियों का श्रोत है। लोग सामने कुछ और बात कहेंगे, पीठ पीछे कुछ और। जितनी पुरानी संस्कृति होगी, उतनी ही उस देश में क्रांति मुश्किल होगी और विपर्यय की ज्यादा सम्भावना होगी।
16वीं सदी में सामंती साहित्यकारों ने राजाओं की गद्दियाँ बचाने के लिए घटिया से घटिया और अश्लील नैतिकता वाले साहित्य गढ़े। लेकिन वे इसे बचा न सके। आज का साम्राज्यवाद कुछ अलग तरीके से ऐसी ही नैतिकता गढ़ रहा है। फिल्में, इन्टरनेट और समाचार पत्र, पत्रिकाओं के जरिये अन्धी-प्रतियोगिता, नंगापन और अश्लीलता परोसी जा रही है ताकि युवाओं को गुमराह किया जा सके। इसको उन्होंने धंधा बना लिया है और इससे अकूत मुनाफा कमा रहे हैं।
राजनीति भी अधिरचना के अंतर्गत आती है। राजनीति के जरिये शासक वर्ग अर्थव्यवस्था, समाज और लोगों के विचारों को नियंत्रित करता है। आज पूरी शासन व्यवस्था और राजनीति भ्रष्ट हो चुकी है । जनता के लिए बनायी गयी कोई भी योजना पूरी नहीं होती। लेकिन यही राजकीय मशीनरी- पुलिस, प्रशासन और नेता पूँजीपतियों का हुक्म बजाने में जरा भी कोताही नहीं बरतते। राजनीति स्पष्ट तौर से वर्गीय होती है। सभी चुनावी पार्टियाँ पूँजीपतियों के चन्दे से संचालित होती हैं। चुनावी पार्टियों के नेता, पूँजीपति, ठेकेदार, माफिया और बिल्डर एक वर्ग के रूप में संगठित होकर मेहनतकश जनता को लूटते हैं। इसके साथ वे मीडिया के जरिये हमारे विचारों को दूषित करते हैं ताकि हम उनके विरूद्ध संघर्ष का प्रभावी बिगुल न बजा सके। अपने फायदे के लिए इन्होंने क्षेत्रीय बंटवारा उभरा। 1992 के चुनाव में सांप्रदायिक लोग उभरे, पहले उन्हें बहुत घटिया माना जाता था, अब ऐसे लोग देश में केंद्र सरकार बनाने का सपना देख रहे हैं।
अधिरचना की अंग संस्कृति पूरे समाज पर व्यापक प्रभाव डालती है। संस्कृति का एक अंग कला है। वस्तुओं और प्रक्रियाओं को खास तरह से सचेतन व्यवस्थित करना कला है। यह हमारे विवेक और भावनाओं को प्रभावित करती है। जब हम नौकरी, खेती, अध्ययन या दूसरे श्रमसाध्य काम करके थक जाते हैं या तनावग्रस्त हो जाते हैं तो दिल बहलाने के लिए मनोरंजन का सहारा लेते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रम मनोरंजन के साधन हैं। इसमें विविध तरह की क्रियाए जैसे- संगीत, साहित्य, फिल्म, पेंटिंग, मूर्तिकला, वस्त्रों की डिजाइन, बात-व्यवहार के तरीके, नाटक, सिनेमा आदि कला के अंतर्गत आते हैं। लिखित सौन्दर्य को साहित्य कहते हैं। रंगों और छाया-प्रकाश के विशिष्ट संयोजन को चित्रकला, दुनिया भर की विविध वस्तुओं के त्रिविम डिजाइन को मूर्तिकला, स्वर लहरियों के उतार-चढ़ाव को गीत-संगीत, अभिनेताओं द्वारा पात्रों के क्रियाकलापों को पर्दे पर जीवन्त करने को सिनेमा कहते है।
कला देश, समाज, काल परिस्थिति के हिसाब से बदलती रहती है। पाषाण काल से अब तक तकनीक, उत्पादन, इंसान का दिमाग और कला का विकास उत्तरोत्तर सामान्य से जटिल और उथलेपन से गहराई की ओर बढ़ा है। इनका विकास एक-दूसरे को प्रभावित करता हुआ एक-दूसरे में अंतर्गुम्फित रहता है। जैसे कबिलाई समाज में चिकने पत्थर, दास समाज में तीर-धनुष, सामन्ती समाज के आखिरी दौर और पूँजीवाद की शुरुआत में बन्दूक-तोप और आज अति उन्नत पूँजीवाद में टैंक-मिसाइल की खोज हुई। इसी तरह घरों का विकास गुफा, फूस की झोपड़ी, खपरैल के कच्चे मकान से होते हुए आज के बहुमंजिली इमारत तक हुआ और उत्पादन के दूसरे क्षेत्रों जैसे- भोजन, कपड़ा, कागज-कलम का भी विकास इसी तरह हुआ। श्रम के इन विविध रूपों के विकास के साथ मानव मस्तिष्क के विभिन्न भागों का तदानुरुप विकास हुआ। इनका विकास यहीं तक रुकने वाला नहीं। सामाजिक परिवर्तन के साथ इनका विकास उत्तरोत्तर उन्नत अवस्था में होता रहेगा। तो क्या कला के मानदंड भी बदलते रहते हैं? 1970 में एक पत्रिका ने अर्धनग्न स्त्री का फोटो छापा था। पूरे देश में इस पर बहस चली। लेकिन आज बिना अश्लील फोटो के कोई पत्रिका, फिल्म, और कहानी पूरी नहीं होती। ऐसा क्यों हुआ?
वैश्वीकरण के जरिये पूँजीपतियों ने दुनिया की मेहनतकश जनता का शोषण और उत्पीड़न बढ़ा दिया। इस साम्राज्यवादी लूट के खिलाफ जनता जागरूक होकर एकजुट न हो जाए, इसके लिए नग्नता को खुलकर दिखाने की छूट दी गयी। आज नौजवान अपनी जिंदगी के सुनहरे पल ही इसमें नहीं गँवा रहे हैं बल्कि अपना भविष्य भी इसमें बर्बाद कर रहे हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति में दिखावा और रुतबा ज्यादा अहम हो गया है। पहले यह सामंतों के घर होता था। अब मध्यमवर्गीय घर-घर में होने लगा है। जैसे ही अर्थव्यवस्था बदलती है, संस्कृति भी बदल जाती है, अपने आप नहीं। निहित स्वारथों वाले समूह अपने पक्ष में नयी संस्कृति रचते हैं या पुरानी संस्कृति का पुनारुद्धार करते हैं। अभिव्यक्ति की छूट के तहत संस्कृति मंत्रालय जान-बूझकर बुराई को प्रचारित कर रहा है। जबकि कोई भी सकारात्मक कार्यवाही को यह मंत्रालय बर्दाश्त नहीं कर सकता जो जनता के पक्ष में हो।
सामूहिकता धर्म की सकारात्मक चीज थी जिसे पूँजीवाद ने खत्म कर दिया। आज इतनी आत्महत्याएँ क्यों हो रही है? व्यक्तिवाद और अलगाव पूँजीवाद की देन है। आदमी समाज से कटकर खुद में घुलता और निराश होता रहता है। अकेले रहने पर आत्महत्या का विचार प्रबल हो जाता है। पूँजीवाद लोगों को चरम व्यक्तिवादी-कैरियारवादी बनाकर ही अपनी मौत को टाल सकता है। कई मार्केटिंग कम्पनियों ने नायाब नुस्खा ईजाद किया है। वे पाँच-सितारा होटल में मीटिंग क्यों करती हैं? वे अपने सेल्समैन को सपना दिखती हैं और वे अपने सेल्समैन को भुक्खड़ समझकर उन्हें पाँच-सितारा होटल में दावत देते हैं। उनकी भूख बढ़ाकर कहती हैं, ”पहले हम भी तुम जैसे भिखारी थे, अब हमारे पास गाड़ी है, बंगला है। तुम भी इसे पा सकते हो अगर तुम किसी का गला काटने से नहीं घबराते।"
इस तरह वे लोगों को चरम व्यक्तिवादी बनाते हैं। पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली को पूँजीवादी संस्कृति टीकाऊ बनाये रखती है। पूँजीवादी संस्कृति आदतों के रूप में मन की अटल गहराई में धंस जाती जाती है और जल्दी जाती नहीं। जैसे रूस में समाजवाद को चलाने वालों के अंदर पूँजीवादी मानसिकता के बीज थे, जो सही आबोहवा मिलते ही वृक्ष बन गए। अतः पूँजीवादी पुनर्स्थापना से बचने के लिए सांस्कृतिक क्रान्ति करनी होगी। एक देश में समाजवाद लागू करने की मजबूरी के चलते रूस में दिक्कते थी। पूँजीवादी देश समाजवादी रूस का गला घोंट देने के लिए लालायित थे। अर्थव्यवस्था के तेज विकास के जरिये इनसे लड़ने के लिए मजदूरों को भौतिक प्रोत्साहन दिया जाता था। यह पूँजीवाद का बीज था जो लोगों में रह गया। दूसरे अंतर्विरोध भी थे जैसे-शारीरिक श्रम के खिलाफ मानसिक श्रम पर जोर, गाँवों की अपेक्षा शहरों का तीव्र आर्थिक विकास पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ थीं। इनको दूर करने के लिए सांस्कृतिक क्रांति काम आएगी। इस मामले में चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति की उपलब्धियाँ बहुत शानदार हैं।
पुरानी संस्कृति की चीजों को रूपांतरित करके ही अपनाया जा सकता है। फिल्म दिल्ली-6 का गाना ”सास गाली देवे/ननद चुटकी लेवे/ससुराल गेंदा फूल।” बहुत प्रचलित हुआ। सब बुराई सहते हुए बहू गाती है ”ससुराल गेंदा फूल।” यह एक पित्रसत्तात्मक सामंती गाना है जो यथास्थिति बनाये रखना के लिए है। इसकी धुन (रूप) अच्छी है लेकिन अंतर्वस्तु पिछड़ी। हमें सोचना चाहिए, क्या विरह गीत, दर्द भरे नगमें क्रांति में सहायक होंगे। गीत-संगीत में भाव, अनुभाव, संचारी भाव का कितना ध्यान रखा जाय कि उसकी अंतर्वस्तु मर न जाए। किसी भी कला में रूप को अंतर्वस्तु के अनुरूप होना चाहिए तभी वह सफल रचना होगी। ”बाजार” फिल्म में पैर का नाप लेते समय अपनी अरेन्ज मैरिज का विरोध करती हुई लड़की रो-रोकर कहती है। ”नहीं, अम्मा नहीं” जो दिल को झकझोर कर अरेन्ज मैरिज के औचित्य पर सवाल खड़े कर देती है। इस तरह करुणा नैसर्गिक भाव है लेकिन टिकाऊ होने के लिए व्यवस्था विरोधी और क्रान्तिकारी होना जरूरी है।
पूँजीवादी कलाओं का रूप लुभावना होता है, लेकिन अंतर्वस्तु प्रतिक्रियावादी-यथास्थितिवादी होती है। ”विषरस भरे कनक घाट जैसे“ । आज सभी फिल्में पूँजीवादी मानसिकता ही तैयार करती है। तथाकथित सुधारवादी लगने वाली फिल्मंे जैसे तारे जमीन पर, स्वदेश, रंग दे बसंती, थ्री इडीयट, मुन्नाभाई आदि फिल्में कही सूक्ष्मता में जाकर पूँजीवादी सोच पैदा करती है। यहाँ तक कि ”हजारों खाव्हिशे ऐसी“ और ”हजारों चौरासी की माँ“ जैसी क्रांतिकारी लगने वाली फिल्में भी प्रतिक्रांतिकारियों का काम आसान बनाती है। वे अपना प्रचार भौड़े रूप में नहीं करते बल्कि हमें कन्फ्यूज करके, क्रांतिकारियों की नकारात्मक छवि परोसते हैं। तो क्या हमें हिन्दी फिल्में ही नहीं देखनी चाहिए? इस तरह तो हमें पूँजीवादी समाज में जीना भी नहीं चाहिए। ऐसा नहीं है। आलोचना की कसौटी पर परखकर ही किसी चीज के पूर्ण या अंश को स्वीकार या अस्वीकार करना चाहिए। इतना विवेक हमारे पास होना चाहिए।
सममितता में खूबसूरती है। प्रकृति में ज्यादातर चीजंे सममित हैं। सममित का अभिप्राय पैटर्न से है। जैसे- इंसान के शरीर का दाया भाग बांये भाग के समान/सममित है। अगर दायीं आँख बायीं से छोटी हो जाय तो क्या सुन्दर लगेगी? इसी तरह सममित डिजाइन बनाते समय जैसे- खेत की मेड़, कमल के फूल आदि बनाने में रंग सयोजन, दूरी, गाढ़ापन का ख्याल रखना होता है। सूर्य के प्रकाश का सतरंगी पैटर्न, प्राकृतिक रंग संयोजन का बेहतरीन उदाहरण है। आमतौर पर बैक ग्राउण्ड के लिए धूसर रंग दिया जाता है ताकि बाकी चीजंे उभरकर आयें। अमूर्त कला समझना सबके बस की बात नहीं है। आज अमूर्त कला का प्रचलन बढ़ गया है। अमूर्त का अभिप्राय किसी चीज को खुले सूत्रों-संक्षेपो में व्यक्त करना है। साहित्य में इसे पल्लवन कहते हैं। मॉडर्न आर्ट जैसी अमूर्त कलाएँ उच्च शिक्षित और धनी वर्ग की पहुँच के अन्दर है वे ही इसे खरीद और समझ सकते हैं। इन्हें समझना मेहनतकश वर्ग के बस की बात नहीं।
मुक्तिबोध की कविताएँ अमूर्तन के कारण दुरूह हो गयी है। लेकिन मनोवैज्ञानिक विश्लेषण में अमूर्तन की ज्यादा जरूरत होती है। शिव जी की तस्वीर द्विविमीय (2डी) चित्रकला का एक उदाहरण है। सामंती समाज में चित्रकला भी एक खास मानसिकता में कैद थी। जिसके कारण लोग त्रिविमीय (3डी) चित्र की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। पुनर्जागरण के बाद ही त्रिविमीय चित्र व्यवहार में आये। लियो नाडो डा विन्सी की प्रतिभा त्रिविमीय चित्र बनाने में थी और यह सोचने वाली बात है कि यूरोप में पुनर्जागरण के समय ही ऐसा क्यों हुआ। आज डिजिटल कैमरे से कला में सूक्ष्मता आ गयी है। आज कोई आदमी कई घण्टे कैनवास के सामने बैठकर ऐसा चित्र बनवाना पसंद नहीं कर सकता जो कुछ सालों बाद वह खुद भी न पहचान सके। डिजिटल कैमरे से जीवंत तस्वीरें खींची जा सकती हैं। जिसने कला की एक नई दुनिया का रास्ता ही खोल दिया है। लुप्त हो चुके डायनासोर की जीवन्त फिल्में बन रही हैं। क्या यह पहले के युग में कभी संभव था? आज हमारे समाज में कूपमण्डूक और दिखावा करने वाले लोगों की संख्या कम नहीं है जो पुरानी कला को बेहतर बताते हैं। जबकि अब यह स्पस्ट हो चुका है कि उत्पादन के उच्चतर विकास ने कला को भी उच्च धरातल पर पहुँचाया है।
सामंतवादी उत्पादन प्रणाली ने निठल्लेपन और पुरुष प्रधानता को बढावा दिया। वहाँ लैला-मजनू को प्यार करने की मंजूरी नहीं थी। क्योंकि दो स्वतंत्र व्यक्ति ही प्रेम कर सकते हैं। स्पार्टकस फिल्म में दिखाया गया है कि वारिनिया आजादी का संघर्ष करने वाले गुलाम विद्रोही स्पार्टकस से प्यार करती है। वह माँस व्यापारी से प्रेम नहीं करती जबकि उसके साथ उसका भविष्य ज्यादा सुखमय होता। दो गुलाम इंसानों के बीच प्रेम नहीं हो सकता। आज मध्यम्वर्गीय परिवारों में प्रेम विवाहों के टूटने का यही कारण है। दो आजाद इंसानों के बीच ही प्रेम हो सकता है। आज के समाज में क्रान्तिकारियों के बीच सही प्रेम हो सकता है, क्योंकि व्यवस्था के खिलाफ परिवर्तन की लड़ाई लड़ते समय वे अपने विचारों और कार्यों में पूँजीवाद की दासता का जुआ उतार फेंकते हैं। हम स्पार्टकस वारिनिया की विरासत को मानते हैं। परम्परा और विरासत अलग-अलग वर्ग अलग-अलग ढोता है। जैसे-मनमोहन सिंह वी एस नायपाल को तलवार भेंट करते हैं जो राजा के दैवीय अधिकारों का प्रतीक है और हमारे लिए अपमानजनक है।
स्पार्टकस, कबीर, दादू, नानक-हमारी विरासत हैं। उस दौर के तुलसी, सूर, रामचन्द्र शुक्ल आदि हमारी विरासत नहीं हो सकते। यहाँ तक कि बुद्ध, अम्बेडकर और हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियों के अंतर को हमें समझना चाहिए। क्या नगर बधुएँ, औरतों की गुलामी, निषाद के पैर धोकर पीने को हमें गौरवान्वित करना चाहिए। ये हमारी परम्परा नहीं। पाँव पुजवाना गलत है। किसी ने लिखा है- सबसे आगे हम पाँव दुखाने में/सबसे पीछे पाँव पुजाने में। क्या हम तो पाँव पुजाने के ही विरोधी हैं। लेकिन रट्टू तोते की तरह \यह उचित है हमारे मानस में ये बातें बिठा दी गयी हैं जिनपर हम कभी उँगली नहीं उठाते। क्या आपने साधु और रट्टू तोते की कहानी सुनी है? ज्ञान ऐसी सम्पत्ति है जिसे चोर चुरा नहीं सकता। यह बात शास्न्नों में लिखी है। क्या ज्ञान निजी सम्पत्ति है। क्योंकि निजी सम्पत्ति ही तो चुराई जा सकती है। हम तो ज्ञान को निजी सम्पत्ति बनाये जाने के खिलाफ हैं। हम इसीलिए पेटेन्ट कानून का विरोध करते हैं।
दो राजस्थानी पेन्टिंग एक में घोड़े पर चढ़ा राजकुमार और दूसरे में पानी भरती औरतों को दिखाया गया है। एक पेन्टिंग किसी शाशक के घमण्ड, अय्यासी और ठाट-बाट को दिखाता है तो दूसरा श्रम की गरिमा स्थापित करता है। कौन सी पेन्टिंग हमारे लिए उपयोगी है? भगतसिंह, आजाद सही थे या उन्हें पकड़वाने वाले। देश की आजादी के बाद तो क्रान्तिकारियों के उत्तराधिकारियों को जेल में डाला गया जबकि अँग्रेजों के पिट्ठूओं को जागीरों से नवाजा गया। इतिहासकार आज भी अँग्रेज गवर्नरों को ”लार्ड” कहकर बुलाते हैं। यह किस मानसिकता का परिचायक है? क्या वे लार्ड थे या ”क्रूर, मक्कार और धूर्त” शासक थे जो हमारे देश को लूटने आये थे।
राग-रागिनी लोक संस्कृति से जुड़ी चीजें हैं जो आज रूपान्तरित हो रही हैं। हाल में आया एक गाना ”तेरी दो-दो साली/एक गोरी एक काली/मेरा ब्याह करा दे”। इस इलाके में शादी न होने वाले नौजवानों के दर्द का गीत है। राग-रागनियों के कारण लोगों में कुछ ताजगी है। आज शासक वर्ग द्वारा समर्थित अश्लील फिल्मी संगीत इन सबको खत्म कर रहे हैं। इसके साथ वे लगातार जनता की चेतना कुन्द कर रहे हैं। लोक संस्कृति को हमेशा शासक वर्ग की संस्कृति कुचलती रही है। तानसेन शासक वर्ग के पक्षधर गायक थे, आज भीमसेन जोशी और अन्य इसी तरह के गायक व संगीतकार भी शासकों की संस्कृति के प्रचारक हैं। हम इनको क्यों पसंद करते हैं। गोर्की ने कहा है ”मानव श्रम से निर्मित हर चीज सुन्दर होती है”। शासक वर्ग के गाने भी श्रम की उपज हैं, उन्हें पैदा करने में श्रम लगा है, इसीलिए पसन्द आती हैं।
आज पूँजीवाद और भ्रष्ट सरकार के खिलाफ बने गाने, संगीत ही ज्यादा सकारात्मक हो सकते हैं। पाकिस्तान के शासक जिआ उल हक ने गाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, इसके खिलाफ इकबाल बानो ने गाया-”हम देखेंगे, लाजिम है हम भी देखेंगे...”। वही इकबाल बानो ठुमरी आदि गीत गाती हैं वे भी उत्कृष्ट कला के नमूने हैं लेकिन एक गाने ने उन्हें कहाँ पहुँचा दिया। आजादी की उष्मा ने एक से बढ़कर एक संस्कृतिकर्मी पैदा किया। उस दौर में फैज, साहिर, शंकर शैलेन्द्र ने कई उत्कृष्ट क्रान्तिकारी गाने दिये। आज कई कलाकार वामपंथी संगठनों से गीत-संगीत और साहित्य सीखकर फिल्मों में भाग जाते हैं। यही कंगाल अब स्वांत सुखाय गा और लिख रहे हैं। जनता के संघर्षों से जुड़े हुए नहीं हैं और दिन रात रोते हैं कि कोई सुनता-देखता नहीं और अच्द्दी चीजें लोग पसंद नहीं करते।
पूँजीवादी कला खुद की ही दुश्मन होती है। उत्तर-पूर्वी राज्यों में सामूहिक नाच-गाना होता है, लेकिन हमारे यहाँ कला में व्यक्तिवादी प्रतिस्पर्धा है। जो आगे निकल गया उसने बाकी लोगों का पत्ता काट दिया। क्या लता की प्रतिभा ने कई उभरते कलाकारों के कैरियर का गला घोंट नहीं दिया? नदीम ने गुलशन कुमार को मरवाया। यहाँ कला की कद्र नहीं। ये लोग पैसे और नाम के लिए लिखते हैं। सिनेमा के आने के बाद दर्शक और अभिनेता की न केवल भौतिक दूरियाँ बढ़ गयी बल्कि इनकी भूमिकाएँ निभाने वाले दो शख्सों के व्यक्तित्व में अलगाव भी अपने चरम पर पहुँच गया। जैसा पुराने समय में थियेटर के युग में नहीं था। जनता की जिन्दगी से कटे, परदे पर नाटक करने वाले ऐसे कलाकार का जन्म हुआ जो इंसानियत और अपनी आत्मा के प्रति कर्तव्यों की तिलांजली देकर चन्द सिक्कों के लिए बहुराष्ट्रीय निगमों का चाकर बनना पसंद करता है। अभिभूत कर देने वाले अभिनय को देखकर अब दर्शक शायद ही उपहार में अभिनेता को फूलों की माला भेंट करते हैं। इसलिए अभिनेता दर्शकों के पसंद-नापसंद का ख्याल किये बिना ही अपने निजी स्वार्थ और चरम व्यक्तिवाद से संचालित होकर फ़िल्में बनाने लगा। इस तरह वह जनता का आदर्श होने के बजाय मसखरा बन कर रह गया। कला भी अपने उच्च धरातल से गिरकर चाकरी का साधन बन गयी। इसने न केवल कलाकार के अन्दर विकृतिओं को जन्म दिया बल्कि इससे दर्शक की भी बाणी जाती रही। अब वह मूक भीड़ से ज्यादा कुछ नहीं और न ही उसमें इतनी सामर्थ्य है कि वह सिनेमा को प्रभावित कर सके। जिसका अवश्यम्भावी परिणाम हुआ कि कलाकार और दर्शक दोनों की समाज बदलने में भूमिका नगण्य हो गयी। अब दर्शकों में से ही नये कलाकार का जन्म होना चाहिए जो कला निर्माण के समय न केवल दर्शकों के साथ रहे बल्कि खुद भी एक अच्छा दर्शक बनकर दूसरों की कला को सराहे और उसका रसास्वादन करे।
आज पूँजीवादी कला का कितने लोगों को फायदा मिलता है? श्रोता और पाठक से घुल-मिलकर ही एक कलाकार अच्छे साहित्य का निर्माण कर सकता है। फिल्मों में भी नीचे से उठकर जाने वाले जनता से जुड़े 2-4 लोग छा जाते हैं। जिस दिन जनता का एक समानान्तर सांस्कृतिक आन्दोलन उठान पर होगा। सोचिये उस दिन कला-साहित्य का स्तर क्या होगा। आज लेखक पैसे और नाम के लालच में लाखों-टन कचरा साहित्य पैदा कर रहे हैं। अब तो अमरीका का कचरा साहित्य जहाजों में भरकर भारत में डम्प होता है। जिससे पढ़ा-लिखा मध्यम्वर्ग अपना दिमाग सड़ा रहा है।
अन्तरराष्ट्रीय मजदूरों और किसानों के गायक पेट्स सिंगर को दुनिया की मेहनतकश जनता पसंद करती है। अमरीका के पाल रॉब्सन ने ”हम होंगे कामयाब” गीत दिया। उनके गीतों पर जब प्रतिबन्ध लगाया गया तो पूरी दुनिया के कलाकारों ने विरोध किया। आज सभी कला-साहित्य को जनता की कसौटी पर परखा जाएगा। जैसे रूसो ने कहा था, ”अगर ईश्वर हैं तो उन्हें आकर जनता की अदालत में गवाही देनी पङेगी तभी उनके अस्तित्व को माना जाएगा।” कला साहित्य के निर्माण में अभ्यास, अनुभव और समझदारी जरूरी है लेकिन इससे ज्यादा जरूरी है, लोगों के दर्द को महसूस करना। गालिब ने कहा है, ”दर्द को दिल में जगह कर गालिब/इल्म से शायरी नहीं आती”। एक मास वर्कर, जनता की कमजोरियों से संघर्ष करेगा, लेकिन जनता की सेवा भी करेगा। लोगों को चार बातें बताएगा। गठिया, बुखार आदि की दवा देगा, उनकी सहायता करेगा। लोगों पर ”भाषण मारकर चेतना बदल देने” वाली सोच गलत है। जनता के बीच काम करना कला है। कला और विज्ञान में क्या सम्बन्ध है?
जनता सभी रचनाओं का श्रोत है। जनता से सीखो और जनता को सिखाओ। आतंकवाद से जनता में काम नहीं बढ़ सकता है, मास वर्क से ही कामों का विस्तार होगा। समाज को बदलने के लिए विचारों पर पकड़ बनानी होगी। ये सभी चीजें विज्ञान हैं। मास वर्क के लिए कविताओं और कहानियों को याद रखना पड़ेगा। लेकिन लोगों से दिली लगाव रखते हुए उन्हें शिक्षित करना है। मजदूरों को मुक्तिबोध की कविता सुनाकर भयभीत और अपमानित नहीं करेंगे। विज्ञान और कला का गहरा-रिश्ता है। बिना विज्ञान के कला जीवित नहीं रह सकती। गोरख पाण्डेय की कविता “कला कला के लिए हो/जीवन को ख़ूबसूरत बनाने के लिए/न हो/रोटी रोटी के लिए हो/खाने के लिए न हो” इस हिसाब से कला के सही उद्देश्य को व्यंग्य में बताती है। लेकिन कला में अच्छे से अच्छा संदेश हो, लेकिन उसमें यदि मनोरंजन न हो तो जनता उसे रिजेक्ट कर देती है। कला में सर्वप्रथम मनोरंजन होना चाहिए, इसके साथ ही अच्छे संदेश होने चाहिए। इस तरह कला के रूप और अन्तर्वस्तु में एक अनुनाश्रय सम्बन्ध है। हमें कोई कर्ण-कटु गाना सुनाये तो हम खुद को भागने से रोक नहीं सकते। विचारों के नाम पर खराब गाने और साहित्य से हमें किसी को परेशान नहीं करना चाहिए।
हमारी जानकारी बहुत सीमित है। बहुत चीजें हम जानते ही नहीं, जैसे स्थापत्य कला, भरत नाट्यम और अन्य कलाएँ। हमें इनके बारे में जानने की जिज्ञासा रखनी चाहिए। मानसिक क्षितिज बढ़ाना भी एक राजनीतिज्ञ का काम है, यह बढ़ना चाहिए अन्यथा खास तरह के लोगों में काम करके हमारा दायरा सिकुड़ जायेगा। अलग परिवेश में जाने पर भौचक रह जायेंगे। मानसिक क्षितिज ज्यादा विस्तृत होने से ऐसे चैलेन्ज का जवाब दे सकते हैं। अन्यथा एक बाध्यता के साथ राजनीतिक काम करते रहेंगे। आज यहाँ सामान्य ज्ञान बढ़ाने का काम हम नहीं कर सकते। समय सीमित है। भरत नाट्यम पर तीन साल का कोर्स है, यहाँ कैसे बता सकते हैं? हमारी पक्षधरता राजनीति और काम के प्रति है। दुनिया ज्ञान का अथाह सागर है। हमें समाज बदलने वाले ज्ञान को प्राथमिकता देनी चाहिए। अन्यथा जिन्दगी ऊल-जलूल बातों में निकल जायेगी।
कलाकार अपनी भावनाओं को कला के माध्यम से व्यक्त करता है। कला का मनुष्य की जिन्दगी से अलग कोई अस्तित्व नहीं। साहित्य व कला का जन्म और विकास उत्पादन की अवस्था पर निर्भर करता है। किसान खेतों में हल चलाते हैं। बैलों के गले से घण्टी की आवाज आती हैं “बैलों के गले में जब घुँघरू...।” एक लय है। फैक्ट्री की रफ्तार पकड़ती मशीन और कन्वेयर बेल्ट पर काम करता हुआ मजदूर मशीन का पुर्जा बन जाता है। क्या यह पुर्जा मधुर संगीत पसन्द करेगा? टेªन के इन्जन के पीछे टैक्टर-ट्राली जोड़ने का क्या हश्र होगा? फैक्ट्री की धूम-धड़ाका और जिन्दगी की भाग-दौड़ व अराजकता से मैच करता हुआ आज वैसा ही संगीत व डांस लोकप्रिय हो रहा है जो मशीन के पुर्जे की तरह एकांगी और भावनाशून्य होता है। औद्योगिक क्रान्ति के बाद मजदूर समग्रता में उत्पादन प्रणाली से कट गया। इससे विकृति और विक्षोभ पैदा हुआ। समाजवाद के सर्वांगीण विकास के माहौल में ही उसका अलगाव टूट सकता है।
आज पूँजीवादी समाज में कोई सृजनशीलता नहीं, डीजे पर तेज डांस करो, लड़कियों से चैटिंग करो, उनके साथ रात गुजारो। जल्दी ही इन चीजों का आकर्षण खत्म हो जाता है। सामने आ जाती है जिन्दगी की क्रूर सच्चाई, अकेलापन, भावनात्मक विखराव आदि। ये चीजें आदमी को पागल बना देती हैं। ऐसे में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति हावी होने लगती है। आज एक ही रचनाशीलता हो सकती है। इस सड़-गल रही व्यवस्था का भण्डाफोड़ किया जाये। इस तरह के साहित्य को यथार्थवादी साहित्य कहते हैं। इतने तक सीमित न होकर, एक नये समाज के निर्माण करने वाले लोगों का गुणगान किया जाये। नयी व्यवस्था की आधारशिला रखी जाय। गोर्की का उपन्यास “माँ” इसी रचनाशीलता को दिखाता है। कुछ शराब-पीने वाले नौजवान रूपान्तरित होकर क्रान्तिकारी बन जाते हैं और संघर्षों में जनता के साथ मिलकर लड़ते हैं। वे नये समाज का आदर्श बन जाते हैं, इनके प्रभाव से ही एक क्रान्तिकारी की माँ को अपनी जिन्दगी का सही मायने पता चलता है, वह भी इन संघर्षों का हिस्सा बन जाती है। आज क्रांतिकारी साहित्य का निर्माण ही सही सृजनशीलता हो सकती है।
जमींदार होते हुए भी टोलस्टोय ने “अन्ना कारेनिना” और “पुनरूत्थान” की रचना की जो रूसी समाज का दर्पण थी। लेनिन ने बताया कि इन रचनाओं ने क्रांति का पूर्वाधार तैयार किया। कहानी के अन्त में समाधान धार्मिक होता है। यह एक कमजोरी है। टोलस्टोय क्रान्ति विरोधी नहीं थे। हालाँकि कमजोरी उनके अन्दर भी थी। वे यथार्थवादी थे। उनकी रचनाओं से लोगों को समाज को जानने-समझने में मदद मिली। पूँजीवाद के पराभव के दौर में, साहित्य में इसकी आलोचना होगी। अन्त में गोर्की के उपन्यासों की तरह समाधान देना होगा। लोग समस्याओं को जानते हैं। उन्हें समाधान चाहिए। समाजवादी यथार्थवाद समाधान है।
भारत में जब पूँजीवादी उत्पादन शुरू हुआ तो उसके साथ उसकी संस्कृति भी आयी। “साठोत्तरी पीढ़ी” के रचनाकारों के अन्दर कुछ नयी बातें जैसे परिवार का टूटना, अलगाव, आत्मिक विखराव इसी का संकेत देती हैं। इन कथाकारों में कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मन्नू भण्डारी, मोहन राकेश आदि प्रमुख हैं। आज जो भी संयुक्त परिवार बचे हैं वे केवल रूप में ही एक हैं। क्या परिवार के अन्दर सभी एक ही अर्थव्यवस्था के अन्दर संचालित होते हैं? रूप और अन्तर्वस्तु में एकता और टकराव दोनों है। जितने अश्लील गाने हैं, उन पर भक्ति संगीत बनते हैं। अन्तर्वस्तु अश्लील और रूप भक्ति का सबके सामने भक्ति संगीत के नाम पर अश्लीलता परोसी जाती है। “जबकि धर्म-भजन तो दुखिया की आह है...” जब हम पूँजीवाद का मजाक बनाते हैं तो हल्के फुल्के तरीके इस्तेमाल करते हैं जैसे- ”मौज है पैसे वालों की/मुश्किल है कंगालो की/दम-दम ऊपर बोली लगती/दिल्ली में दलालों की।” क्या इसी धुन में क्रांति का आह्वान किया जा सकता है? जोशीली और गर्वीली आवाज में आह्वान करेंगे।
इंसान के अन्दर 14 सहजात गुण होते हैं और हर गुण का विरोधी जोड़ा (द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध) होता है। जैसे- सामूहिकता-अकेलापन, प्रेम-क्रोध, दया-निर्दयता, डरपोक-निडर... आदि। अलग-अलग समय पर अलग-अलग भाव हम पर हावी होते हैं। प्रगतिशील कला का काम है सही प्रवृत्तियों को उभारना और गलत प्रवृत्तियों को दबाना। आज समाज में सकारात्मक गुणों को उभारना ही सही सृजनशीलता है।
हमारी सांस्कृतिक विरासत
सामंती समाज में दो तरह की संस्कृतियाँ एक दूसरे के विरुद्ध खड़ी थी। जिसमें पहली शासक वर्ग की अभिजनवादी संस्कृति थी तो दूसरी आम जनता की लोक संस्कृति। अभिजनवादी संस्कृति तकनीकी और बौद्धिक तौर पर श्रेष्ठ होने के बावजूद मुठ्ठी भर घरानों तक सीमित थी। जिसके अंतर्गत राजदरबार के शास्त्रीय संगीतकार, चित्रकार, कवि और साहित्यकार आते थे। जिस तरह उच्च वर्ग आर्थिक साधनों पर अपना कब्जा रखता है। उसी तरह सांस्कृतिक संसाधनों पर भी उसका वर्चस्व होता है। लेकिन वह अपनी आर्थिक सम्पन्नता से ज्यादा अपनी संस्कृति पर घमण्ड करता है। वह निम्न वर्ग के लोगों को असंस्कृत, गन्दा, असभ्य और अभद्र समझकर घृणा करता है। मेहनतकश वर्ग को उपद्रवी भीड़ मानता है। इसी तर्क से वह निम्न वर्ग के शोषण को जयाज ठहरता है और मानता है कि इनके ऊपर शासन करने का उसे अधिकार प्राप्त है। उसकी अभिजनवादी संस्कृति मन बहलाव और उसके अपराध बोध को कम करने का साधन है। इसीलिए व्यक्तिगत रूप से लाभ उठाता हुआ वह कला की सामाजिक भूमिका से इनकार करता है और कला की अंतर्वस्तु के बजाये रूप चमत्कार पर ज्यादा जोर देता है। जबकि रूप चमत्कार का जो सौंदर्य उसमें होता है, जिसपर हमारे कुछ साथी फिदा हो जाते हैं, उसकी लाक्षणिक विशेषता है। उसकी अंतर्वस्तु तो वास्तव में कुलीन (सामंती या पूँजीवादी) होती है।
कोई भी कलाकार मानव समाज से स्वतंत्र रहकर साहित्य नहीं रच सकता। कोई भी रचना विचार शून्य नहीं होती। अगर वह नींद से जगाने वाली नहीं है तो लोगों को सुलाने वाली जरूर होगी। शासक वर्ग की संस्कृति लोगों को समाज बदलाव से विमुख कर देती है। निम्न वर्ग के बजाय यह उच्च वर्ग की सेवा करती है। शासक वर्ग की अभिजनवादी संस्कृति की नकल करके मेहनतकश वर्ग खुद को उपहास का पात्र बनाता है। क्योंकि अपनी आर्थिक स्थिति से तंग, वह कला के इन महंगे साधनों की सस्ती और भोड़ी नकल ही कर सकता है।
बहुसंख्यक जनता से जुड़ी लोक संस्कृति सहज, सरल और अपनी जमीन से पैदा हुई थी। जिसे ढाई सौ साल के औपनिवेशिक शासन ने कुचल कर रख दिया। अंग्रेजों की गुलामी ने एक ओर जहाँ देश को आर्थिक रूप से निचोड़कर कंगाल बना दिया। वहीं दूसरी ओर इसने हमारे देश की बहुरंगी लोक संस्कृति को विकसित होने से रोक दिया। इसने हमारी सांस्कृतिक जड़ें ही काट दी। इस तरह हम अपनी सांस्कृतिक विरासत जैसे- सामंती कला-कौशल, परम्परा, प्रतिष्ठा, मानवीय मूल्य और बौद्धिक उन्नति के सकारात्मक और प्रगतिशील पहलुओं से कट गये। जबकि अंग्रेजों ने गुलामी को बरकरार रखने के लिए सामंती संस्कृति के नकारात्मक पहलुओं जैसे- अज्ञानता, अन्धविश्वास, चापलूसी, श्रम से घृणा और नकलचीपन की प्रवृत्ति जैसे प्रतिक्रियावादी विचारों को बढ़ावा दिया। आजादी के बाद सड़ी-गली संस्कृति हमें विरासत में मिली। इसमें ऐसे विचार मौजूद थे, जो इंसान -इंसान के बीच दीवार खड़ी करते हैं जैसे- जातिवाद, क्षेत्रवाद, स्त्री-पुरुष असमानता और धार्मिक भेदभाव। आजादी के बाद पूँजीवादी शासन व्यवस्था ने सड़े-गले सांस्कृतिक कचरे को साफ नहीं किया बल्कि इसमें इजाफा ही किया। व्यक्तिवादी चरम स्वार्थपरता और योरोपीय संस्कृति की नकल भी इसमें शामिल कर लिया गया। इस कचरे से सकारात्मक और प्रगतिशील तत्वों को छाँट निकालना मुश्किल काम था, जिसे जनवादी संस्कृति के प्रचार-प्रसार से पूरा किया जा सकता था। जातिवादी सोच, स्त्री-पुरुष भेदभाव और सांप्रदायिक विचारों के खिलाफ संघर्ष करके मेहनतकश जनता में वैज्ञानिक नजरिया और श्रम की गरिमा विकसित करना इसका लक्ष्य था। इसके साथ अंग्रेजों के षड्यन्त्रों का पर्दाफाश करना और जनता में नये स्वप्न और आकांक्षाएँ जगाना इसका प्रमुख अंग था। इसका उद्देश्य बताते हुए प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के समय प्रेमचंद ने कहा था, ‘‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो- जो हममें गति, संघर्ष, बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’’
सशक्त राष्ट्रीय आन्दोलन ने जनवादी संस्कृति के निर्माण में एक नया कदम बढ़ाया। प्रगतिशील आन्दोलन इसी की देन था। कवि सम्मलेन, गीत, नाटक, पत्रिका गोष्ठी, सभा सम्मलेन आदि के जरिये जनता तक पहुँच बनाया गया और उनके दुखों, कमजोरियों और संघर्षों को जनवादी साहित्य का मुख्य विषय बनाया गया। इसने कई गौरवपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल की। लेकिन बिना खड्ग-बिना ढाल वाली आधी अधूरी आजादी की लड़ाई के बाद हमारे देश के शासकों ने घिनौने-सड़ियल सामंती शक्तियों से समझौता कर लिया। जिससे एक नयी सांस्कृतिक समस्या पैदा हुई। इसके बावजूद व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयासों से आजादी के दो-तीन दशकों बाद तक सकारात्मक कला-संस्कृति की रचना चलती रही। लेकिन ये प्रयास पूरे समाज के चेतना में अमूल-चूल परिवर्तन करने में नाकाफी साबित हुए और जनवादी संस्कृति के निर्माण का काम आज भी अधूरा है। समाज बदलने वाली शक्तियों को इस अधूरे कार्यभार को पूरा करना है।
1991 में देश के शासक वर्गों द्वारा विदेशी पूँजी के आगे आत्मसमर्पण का नतीजा आज हम साम्राज्यवादी सांस्कृतिक हमले के रूप में झेल रहे हैं। इसने एक और हिंसा, लम्पटता, अश्लीलता का गुणगान करने वाली दूषित फिल्में, पुस्तकें, पत्रिकाएँ, संगीत, नृत्य और फैशनपरस्ती की भरमार कर दी है। वहीं दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हमारे देश की सभी मूल्य मान्यताओं पर उपभोक्तावादी संस्कृति लाद रही हैं ताकि उनका माल ज्यादा से ज्यादा बिके। इस काम को वे विज्ञापनों के जरिये अंजाम दे रही हैं।
वैसे तो भरसक कोशिश की गयी कि सरल भाषा में समझाया जाए पर विपर्यय की जगह उलटाव हो सकता था। संगीत के संबंध में कुछेक शब्द नहीं समझ पाया। उत्तर आधुनिकता की सरल सटीक परिभाषा। गीत-संगीत में भाव, अनुभाव, संचारी भाव का (समझ में नहीं आया)। बेहद जटिल विषय पर सरल-सुबोध प्रस्तुति। साधुवाद।
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