मंगलवार, 18 सितंबर 2012

भारत के दूधिया वर्गीज कूरियन और डेयरी-क्षेत्र से इनकी विदाई

भारत के दुधिया, स्वप्नदर्शी जनोन्मुख सहकारी पुरुष वर्गीज कूरियन
(26 नवम्बर 1921 – 9 सितम्बर 2012)
कूरियन का पदार्पण डेयरी-क्षेत्र में एक युग का आरम्भ था। उनकी भावहीन कृतघ्न विदाई उस युग का अन्त है।
कोआपरेटिव आन्दोलन की शुरुआत से पहले एक उद्योग के रूप में भारत का डेयरी-क्षेत्र बहुत ही निम्न अवस्था में था। तब आणन्द-स्थित पेस्टनजी एडुल्जी की पोल्सन डेयरी का वहाँ के दूध के कारोबार पर एकाधिकार था। यह डेयरी छोटे-छोटे दूध-उत्पादकों के शोषण का पर्याय बनी हुई थी।

1946 में चकलासी गाँव के किसानों ने पोल्सन के एकाधिकार को चुनौती दी और गाँव-गाँव में कोआपरेटिव और मिल्क यूनियन बनाने की शुरुआत की। कुछ ही समय बाद डॉ वर्गीज कूरियन किसानों के इस आन्दोलन में शामिल हो गये।
  
कोआपरेटिव और यूनियनें शुरुआती दौर में छोटे-छोटे दूध-उत्पादकों का दूध इकट्ठा करके उसका शोधन और बिक्री करती थीं। साथ ही दुधारू पशुओं के नस्ल सुधरने जैसे काम भी इन कोआपरेटिवों द्वारा किया जाने लगा। इस तरह, छोटा से छोटा किसान भी कोआपरेटिव से लाभान्वित होता था और उसमें भागीदारी निभाता था।

छोटे-छोटे किसानों की भागीदारी और उनका आपसी सहयोग रंग लाया। चन्द गाँवों से शुरू हुआ यह आन्दोलन
पूरे देश में कोआपरेटिव आन्दोलन की सफलता का प्रतीक बन गया। इस काम में कूरियन की महती भूमिका रही। आणन्द मिल्क यूनियन लिमिटेड अमूल एक अत्यन्त लोकप्रिय ब्राण्ड बन गया, जिसने नेस्ले, डबरीज, ग्लैक्सो और लीवर जैसे बहुराष्ट्रीय निगमों से मुकाबला करते हुए अपने को स्थापित किया। आगे चलकर कूरियन ने राष्ट्रीय डेयरी विकास परिषद (NDDB) की स्थापना की और उसके संस्थापक चेयरमैन बने। परिषद के माध्यम से उन्होंने इस प्रयोग को पूरे देश में फैलाने का प्रयास किया।

वैसे तो देश के अन्य हिस्सों में भी सरकार ने कोआपरेटिव आन्दोलन को फैलाने का प्रयास किया लेकिन अधिकांश मामलों में उसे असफलता ही हाथ लगी। समाजवादी प्रयोगों की भोंड़ी नकल करके उन्हें नौकरशाहाना ढंग से जनता पर थोपने का यही हश्र हुआ कि कुछ को छोड़कर लगभग सभी कोआपरेटिव लूट-खसोट और भ्रष्टाचार के पर्याय बन गये। कूरियन और उनके सहयोगियों ने आजादी के तुरन्त बाद कोआपरेटिव को दिये जाने वाले प्रोत्साहन का लाभ उठाया। गुजरात के कोआपरेटिव आन्दोलन की सफलता का श्रेय निश्चय ही जनता के सहयोग तथा कूरियन की ईमानदारी, सूझबूझ ओर कर्मठता को जाता है।

1991 में नयी आर्थिक नीति लागू होने के बाद यह क्षेत्र रिलायन्स, कैडबरीज् और नेस्ले जैसे राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय निगमों के निशाने पर आ गया और उन्हीं के हित में इसका निजीकरण करने के लिए कदम उठाये जाने लगे। इस दिशा में पहला कदम है कोआपरेटिवों को धीरे-धीरे निजी कम्पनी में तब्दील कर देना। राष्ट्रीय डेयरी विकास परिषद निजी पूँजीपतियों को शामिल करते हुए एक संयुक्त उपक्रम बनाने की योजना पर काम कर रहा है जिसके अनुसार कोआपरेटिवों से विपणन का अधिकार छीनकर उसे संयुक्त उपक्रम को सौंप दिया जायेगा। बदले में कोआपरेटिवों को उसका 49% शेयर दे दिया जायेगा। इसप्रकार, दूध और दूध से बनने वाले सामानों के सभी प्रचलित और स्थापित ब्राण्ड, जिनपर प्रदेश के मिल्क फेडरेशनों और कोआपरेटिवों की मिल्कियत थी, अब संयुक्त उपक्रम के अधीन हो जायेंगे और वर्षों के अथक प्रयासों से तैयार किये गये बाजार पर उसका नियन्त्रण स्थापित हो जायेगा। चूँकि संयुक्त उपक्रम एक निगम होगा अतः शेयरों की खरीद के माध्यम से इसमें देशी-विदेशी पूँजी का प्रवेश और वर्चस्व सम्भव हो जायेगा। देशी-विदेशी थैलीशाहों की रुचि किसी नये क्षेत्र में पूँजीनिवेश करना और उत्पादन के आधरों का विस्तार करना नहीं है। जमे-जमाये उद्योगों को तीन-तिकड़म से हड़पने को ही वे आर्थिक सुधर और उदारीकरण का नाम देते हैं। डेयरी-क्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है।

राष्ट्रीय डेयरी विकास परिषद की इस योजना से कूरियन की न केवल असहमति थी, बल्कि वे उसे लागू न करने देने के लिए कटिबद्ध थे क्योंकि उनका मानना था कि इस माध्यम से कोआपरेटिवों का ‘‘पिछले दरवाजे से निजीकरण किया जा रहा है।’’ गुजरात कोआपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन (GCMMF) का खुलासा करते हुए उन्होनें कहा कि इसका ‘‘बोर्ड निजी स्वार्थ के एक बड़े खेल का मोहरा बन चुका है, जो कोआपरेटिव को हड़पना चाहता है।’’ स्पष्ट है कि यह ‘‘बड़ा खेल’’ देशी पूँजीपतियों के साथ मिलकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा खेला जा रहा है।

डॉ. वर्गीज कूरियन कोआपरेटिव को राष्ट्रीय डेयरी विकास परिषद के निगमीकरण और निजीकरण की योजना से बचाने की लगातार कोशिश करते रहे लेकिन इस कोशिश में वे लगातार अलगाव में पड़ते गये। बदली हुई परिस्थतियों में उनका आदर्श यहाँ के शासकों के मन-माफिक नहीं रहा। जब पूरे देश की बोली लग रही हो तो अमूल भला कब तक बचा रहता। अन्ततः स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी कि गुजरात कोआपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन के बोर्ड के 11 में से 10 सदस्यों ने इनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का निर्णय कर लिया। इसतरह, भारत के दूधिया ने मजबूर होकर 20 मार्च को फेडरेशन के चेयरमैन के पद से, जिस पर वे 33 वर्षों से विराजमान थे, इस्तीफा दे दिया।

डेयरी-क्षेत्र से कूरियन को इस तरह विदा किया जाना एकाधिकार के युग की पुनर्स्थापना है। जिस क्षेत्र के विकास में उन्होंने अपना जीवन लगा दिया था, एकाधिकारी पूँजी ने उसी क्षेत्र से उन्हें बेरुखी से निकाल बाहर कर दिया।

भारत के डेयरी-क्षेत्र पर एकाधिकार स्थापित हो जाने के बाद इस क्षेत्र से जुड़े कितने लोग हाशिये से भी बाहर फेंक दिये जायेंगे, कूरियन-प्रकरण ने उस ओर स्पष्ट संकेत दे दिया है।

डेयरी-क्षेत्र पर देशी-विदेशी निगमों का वर्चस्व स्थापित होते ही दूध और दूध से बने पदार्थों का, जो अभी ही एक बहुत बड़ी गरीब आबादी के लिए दुर्लभ हैं, मध्यवर्ग के एक बहुत बड़े हिस्से की पहुँच से भी बाहर हो जाना लाजिमी है। इस प्रक्रिया में छोटे दूध-उत्पादकों का पुराने जमाने की तरह निर्मम शोषण और तबाही भी अनिवार्य है।
-देश-विदेश (अंक-2), जून 2006

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