गुरुवार, 28 मार्च 2013

मोहक विज्ञापन- चेतना को कैद और कुंद करने की साजिश


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विक्रम प्रताप

विज्ञापन सभी जगह है। रात के अँधेरे में बहुमंजिली इमारतों पर चमकते विशालकाय बोर्ड मेंसुन्दर पोशाकों पर छपेहमारे तन से लिपटेअखबारों के पन्नों पर पटे-पड़ेटीवी में कार्यक्रमों के दौरान खीर में कंकड़ की तरह हर निवाले मेंकम्पनियों के विज्ञापन कहीं भीकभी भी हमें मुँह चिढ़ाते रहते हैं। हमारी जिंदगी के हर मोड़ पर इनकी दखलंदाजी होती है। मीडिया की गिद्ध  दृष्टि हमेशा हमारा पीछा करती है। ताज्जुब यह है कि हम पर पकड़ बनाने वाली कम्पनियों के विज्ञापन हमें अपना सा लगती हैं। हम अपने पसंदीदा ब्राण्ड की तौहीन बर्दाश्त नहीं कर पाते। कई बार यह दोस्तों के बीच तू-तूमैं-मैं का कारण बन जाता है। आज पूरी दुनिया एक बाजार में बदल चुकी है। इसकी मार से बचना आज हमारे लिए असम्भव-सा हो गया है। किसी कम्पनी के माल का ग्राहक मात्र बन जाने से खुद को बचा पाना आज बहुत ही कठिन हो गया है। यही तो विज्ञापन का कमाल है।
हम अपने विचारों के प्रति हमेशा चौकन्ने रहते हैं। उनके खिलाफ कुछ गलत टिप्पणी कर दे तो हम उस व्यक्ति  का जबड़ा तोड़ने पर आमादा हो जाते हैं। लेकिन टीवी के विज्ञापन हमारे घर में घुसकर हमारे भा-बहनमाँ-बाप और बच्चों को लगातार अपने विचारों की तरफ मोड़ते हैंवे उनमें मीठा जहर भरते रहते हैंफिर भी हम खामोश रहते हैं। लोगों को अपनी निजी जिंदगी में अपने दोस्तों का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहींलेकिन लगातार बिना उनकी इजाजत के निजी जिंदगी में हस्तक्षेप करते विज्ञापनों और टीवी कार्यक्रमों को भला वे रोक पायेंगेविज्ञापन हर समय हमें परेशान करते हैं और हम उन्हें बर्दाश्त करते हैं। आखिर क्योंविज्ञापनकर्ताओं को हमारे साथ ऐसा मनमाना व्यवहार करने का अधिकार किसने दियामनमाने तरीके से विज्ञापनों में निहित मूल्य ठूँसने के लिए हमने कब अपने दिमाग का एक कोना उन्हें मुफ्त में सौंप दिया। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मीडिया जो जनता का हितैषी होने का दावा करता हैआखिर क्यों बिना हमारी अनुमति के कम्पनियों के माल खरीदने के लिए हमें प्रभावित करता रहता है?
विज्ञापन काफी मोहक होते हैंइसलिए इनका प्रभाव काफी गहरा होता है। मीठा जहर ज्यादा खतरनाक होता है। अपने खाली वक्त का उपयोग हम पहाड़ों की सैर करकेकिसी सामाजिक काम में लगकर या सगे-सम्बनियों और दोस्तों के साथ भेंट-मुलाकात में कर सकते हैं। लेकिन लोग अपना ज्यादातर समय टीवी के सामने गुजार देते हैं। टीवी के कार्यक्रम हमें मनोरंजन के नाम पर एक मायालोक में विचरण कराने के सिवा कुछ नहीं देते। लेकिन इन्सान उसके आगे एक ऐसे आकर्षण में फँस जाता है कि अपनी सु-बु खो बैठता है। इसी सम्मोहन का फायदा उठाकर विज्ञापनदाता हमारे मन में अपने माल के प्रति मोह जगाते हैं। यह हमारी निजता का कितना बड़ा उल्लंघन है। कई बार इनके प्रभाव में आकर परिवार में कलह-विग्रह बढ़ जाता है। ये आपसी सम्बन्धों में दरार डाल देते हैं।
टीवी पर को कार्यक्रम देखते समय अचानक किसी माल का विज्ञापन शुरू हो जाता है। अपने लोकतांत्रिक अधिकार चेतना पर बार-बार होने वाले इन हमलों के बावजूद लोग केवल कुढ़ते-खीझते हैं और चैनल बदल देते हैं। यह केवल कार्यक्रमों में खलल ही नहींबलिक अचेतन रूप में हमारे मसितष्क को प्रभावित करने और हमारे विचारों और अभिरुचियों को प्रदूषित करने की साजिश है। एक बार दूषित विचारों की चपेट में इंसान  जाये तो वह उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इन्टरनेट के बढ़ते प्रभाव के बावजूद विज्ञापन प्रसारित करने का सबसे बड़ा सा टीवी है। दरअसल कम्पनियों ने टीवी चैनलों को अपनी उपभोक्ता वस्तुओं के लिए ग्राहकों की भीड़ जुटाने की जिम्मेदारी दे रखी है। इन्होंने इस जिम्मेदारी को बहुत ही बढ़-चढ़ कर निभाया है। वे इतने आकर्षक और विवितापूर्ण कार्यक्रम प्रसारित करते हैं कि लोग अपना कीमती समय टीवी के सामने गुजारते रहते हैं। अमरीका में हर व्यक्ति प्रतिदिन औसतन चार घण्टे से अधिक समय टीवी देखता है। हमारे देश के शहरों की भी यही हालत है। गाँव में बिजली की आपूर्ति कम होने के कारण शायद यह औसत कुछ कम होलेकिन वहाँ भी लोगों ने बैट्री-इन्वर्टर की व्यवस्था कर ली है। इस तरह अपने मालों के प्रचार-प्रसार के लिए पूँजीपतियों को टीवी के रूप में बहुत ही आसानतीव्रगामी और आकर्षक माध्यम हासिल हुआ है। जो कार्यक्रम भीड़ नहीं जुटा पातेटेलीविजन रेटिंग प्वाइन्ट (टीआरपीनहीं बढ़ा पातेवे चाहें जितने बेहतरीन होंउन्हें हटा दिया जाता है। कार्यक्रम निर्माता भीड़ जुटाने के लिए नैतिकतासामाजिक जिम्मेदारी और संवैधानिक  दायित्त्व को अपने जूते की नोक पर रखते हैं। वे खुलकर अश्लीलता परोसते हैं और एक ब्रह्रावाक्य में कि "लोग ऐसा ही पसन्द करते हैं।अपने कुकर्मों को छुपाते हैं। इसी शब्दाडम्बर का सहारा लेकर वे तमाम कूड़ा-कचरा और गंदगी परोसते हैं और नौजवान पीढ़ी को गुमराह करते हैं। सेंसर बोर्ड और संविधान ने अपनी आँखों पर पटटी बाँ ली है। आलम यह है कि खुद निर्माता-निर्देशक के नंगा नाचने पर भी अगर भीड़ जुटे तो वे इससे भी बाज नहीं आएँ। 
टीवी कार्यक्रम साहित्य या संगीत की तरह अमूर्त और गम्भीर नहीं होते। मूर्त रूप में दिखने वाली घूमती-फिरती छवियाँ ज्यादा असरदार होती हैं। इन्हें देखकर लोग चिन्तन-मनन नहीं करते हैं। जिंदगी के किसी यथार्थ चित्र की तरह ये दृश्य हमारे दिमाग में ज्यों के त्यों रच-बस जाते हैंभले ही वे पूरी तरह काल्पनिक क्यों  हो। श्रव्य-दृश्य माध्यम की यही ताकत है। वरना हम अपने हमदर्द मित्रों से भी ज्यादा कैटरीना कैफ और शाहिद कपूर को अपना करीबी कैसे मान लेतेजिनसे  को बातचीत होती है मुलाकात हु हो और  ही हमारी किसी कठिन घड़ी में उनका को सहयोग मिला हो। फिर कैसे वे हमारी जिन्दगी के नायक-नायिका हो जाते हैंक्यों हम उनके फैन हो जाते हैं। सच तो यह है कि टीवी के माध्यम से उनकी छवि चाहे-अनचाहे हमारे दिमाग में घुसेड़ दी जाती है। कार्यक्रम निर्माता भी इस माया जाल के नकारात्मक पहलुओं का आभास भी नहीं होने देते। सबकुछ सहज और सामान्य लगेयही उनकी कलाकारी है। 
तेजी से गुजरते दृश्य के बारे में को दर्शक  तो ठहर कर सोच सकता है और  ही गलत महसूस होने पर उसका प्रतिकार कर सकता है। बेहुदे और बेसिर-पैर के कार्यक्रमों की तो बात ही क्याडिस्कवरी जैसे चैनल भी गैर महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे हैं। ये कार्यक्रम हमें सामाजिक समस्याओं से दूर करके इनके खिलाफ हमारे आक्रोश और संघर्ष को कमजोर करते हैं। इस तरह से हमें सामाजिक रूप से निषिक्रय और तटस्थ बनाते हैं। घण्टों टीवी के सामने बैठे रहने का नतीजा होता है सबकुछ बर्दाश्त करते चले जाना। मुर्दा शानित से भर जाना। ऐसी गफलत फैलायी गयी कि टीवी के निषिक्रय माध्यम के बजाय मोबाइल और इन्टरनेट दोतरफा माध्यम है इसीलिए इन माध्यमों का इस्तेमाल ज्यादा होने लगा है जिनके जरिये हम अपनी प्रतिक्रिया भी भेज सकते हैं। लेकिन तकनीकी तौर पर अधिक उन्नत होने के बावजूद इन्टरनेट और मोबाइल टीवी की लोकप्रियता के मुकाबले बहुत पीछे हैं।
विज्ञापन का असली उददेश्य यही है कि इसके जरिये उत्पादों की गुणवत्तामूल्य और इस्तेमाल के तरीकों की जानकारी दी जाय। लेकिन टीवी के जरिये प्रसारित विज्ञापन ऐसा कुछ भी नहीं करते। इसके बदले वे मालों की नुमाइश आकर्षक कलाकारों के जरिये कराते हैं। जैसे खेलते समय प्यास लगने पर खिलाड़ी कोल्ड डि्रंक की तरफ लपकते हैं। इसे प्यास बुझाने के सर्वश्रेष्ठ सानों के रूप में दिखाया जाता है। लेकिन कोल्ड डि्रंक में कितना कीटनाशक मिला हुआ है और वह कितना हानिकारक हैइसके बारे में जानकारी देना विज्ञापनकर्ता की जिम्मेदारी नहीं होती। विज्ञापनदाता अपने खर्च का पा-पा वसूल लेना चाहता है। वह लोगों को अपनी शर्तों पर सामान खरीदने के लिये तैयार करता है और उनके सामने केवल दो ही विकल्प छोड़ता हैवे हाँ करें या ना। को तीसरा विकल्प नहीं होता और दिन में सैकड़ों बार हमें अलग-अलग सामानों के लिए अपनी राय देनी होती है कि हम फलाँ माल खरीदना चाहते हैं या नहीं। 
प्रसारण कम्पनियोंसमाचार पत्रों और मीडिया को सरकार सार्वजनिक जमीन और अन्य संसा कौडि़यों के मोल सौंप देती है। लेकिन मीडिया संस्थानों के मालिक जनता की सेवा करने के बजाय इन सुविधाओं का निजी फायदा उठाते हैं। वे विज्ञापन के जरिये अरबों की सम्पत्ति बटोरते हैं। सच तो यह है कि लोगों को विज्ञापन की को जरूरत है ही नहीं। उन्हें जिस सामान की जरूरत होगीवे उसे खुद ही ढूँढकर खरीद लेगें। फिर विज्ञापन के मद में इतनी अधिक बिजलीपानीपेड़-पौधों और अन्य संसानों की बर्बादी कहाँ तक उचित है?
सास-बहू के किस्से पर धारित धारावाहिकजासूसी नाटकराजनीतिक उठा-पटकखेल समाचाररियलटी शो और धार्मिक कार्यक्रमों के जरिये टीवी के सामने भीड़ जुटा जाती है और दर्शकों की उस जमात को विज्ञापन कम्पनियों के हाथों बेच दिया जाता है। जितने अधिक दर्शकउतना महँगा विज्ञापन। यही उनकी मोटी कमा का जरिया है। लेकिन ऐसा नहीं कि टीवी का हर दर्शक विज्ञापन देखकर तुरन्त उसके प्रभाव में  जाता है और  ही विज्ञापन उन्हें बाध्य करता है कि वे तुरन्त विज्ञापित माल खरीदने दौड़ पड़ें। फिर भीकरोड़ों दर्शकों में से अगर सिर्फ 1 या 2 प्रतिशत लोग भी उनके द्वारा विज्ञापित माल खरीदें तो यह संख्या लाखों में होती है और इस तरह उनका उददेश्य पूरा हो जाता है। एक ही विज्ञापन को बार-बार प्रदर्शित करने से उससे प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जाती है। और बार-बार देखने पर वह दर्शकों के अवचेतन में बस जाती है। वे दुकान पर जाते ही किसी खास ब्राण्ड का सामान माँगते हैं। कम्पनियाँ यूँ ही इन पर अरबों रुपये पानी की तरह नहीं बहा रही हैं। हमारे पसंदीदा कलाकार जिन उत्पादों पर खुद विश्वास नहीं करते और अपने जीवन में एक बार भी इस्तेमाल नहीं करतेउन्हीं सामानों का चन्द खनकते सिक्कों के लोभ में झूठ बोलकर हमारे सामने प्रचार करते हैं और मजेदार बात यह कि ये मक्कार लोग हमारे आदर्श या नायक भी बन जाते हैं।
कुछ टीवी चैनल बच्चों को लक्ष्य करके फिल्मेंकार्टून और विज्ञापन प्रसारित करते हैं। इन कार्यक्रमों के जरिये वे बच्चों की चेतना अपने मनचाहे साँचे में ढालते हैं। बच्चे असली दुनिया से कट जाते हैं। इसी उम्र में वे प्रकृति और जिंदगी के रहस्य को अपने निजी अनुभव से जानते-समझते हैं। अपने हमउम्र बच्चों के साथ खेल-कूद और लड़ा झगड़े से दोस्ती-दुश्मनी के मायने समझते हैं। कठिन परिश्रम करने से उनके मन में श्रम की गरिमा स्थापित होती है। लेकिन टीवी का कमाल देखिए कि उनका बचपन हैरी पार्टर और काटर्ूनों की नकली दुनिया में गुम हो जाता है। बड़े होने पर ऐसे पप्पुओं को सामान्य व्यवहारिक ज्ञान  होने के चलते हर जगह हँसी का पात्र बनना पड़ता है। इससे इनमें समूह से अलग-थलग रहने की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है। उन्हें इस नरक की ओर केलने में उनके माँ-बाप का भी हाथ होता हैजो सोचते हैं कि "बच्चा जितनी देर टीवी देखेगाउतनी देर शैतानी नहीं करेगा।यही सोचकर वे चैन की साँस लेते हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि शैतानी करके ही बच्चा सीखता है। सामानों को उठाने और फेंकने से ही उसे हल्की और भारी चीजों का अन्तर पता चलता है। दीवार पर आड़ी-तिरझी रेखाएँ खींचने पर चित्र और पृष्ठभूमि के अन्तरसंबंधों की उसकी समझ साफ होती है। ऐसी  जाने कितनी शरारतें बच्चों को जिन्दगी की सीख देने वाले छोटे-छोटे प्रयोग होते हैंजिससे वह प्रत्यक्ष ज्ञान हासिल करता है। इससे काटकर बच्चे को टीवी के सामने झोंक कर उनसे राहत पाना आसान भले ही हैलेकिन इससे बच्चे का व्यक्तित्व कुंठित हो जाता है और उसकी जिन्दगी नरक हो जाती है। बाल मनोविज्ञान की इन बुनियादी बातों को अच्छी तरह जानते हुए भी विज्ञापन कम्पनियाँ बच्चों को अपना शिकार बनाती हैं। बलिक अपने इस ज्ञान का इस्तेमाल वे विज्ञापन की कारगर रणनीति बनाने के लिए करती हैं। अबो बच्चों के प्रति इस आपराधिक कुकृत्य में चाहे अनचाहे उनके अभिभावक भी शामिल होते हैं।
एक अध्ययन के अनुसार अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के दौरान अमरीका में एक बच्चा टीवी पर औसतन 8000 हत्यायें देखता है और 18 साल की उम्र तक वह दो लाख हिंसक घटनाओं का चश्मदीद होता है। टीवी के 69 प्रतिशत कार्यक्रम हिंसक होते हैं। बच्चे इन हिंसक दृश्यों के इतने आदी हो जाते हैं कि जघन्यता के प्रति उनका बो और संवेदना बहुत ही कम हो जाता है। अमरीका में बच्चों द्वारा जरा सी बात पर अपने प्रियजनों और सहपाठियों की हत्या कर देने की घटनाओं की बाढ़ सी  गयी है। अगर टीवी पर दिखायी जाने वाली हिंसा इसी तरह बनी रही तो क्या अमरीकी समाज इस मानसिक रुग्णता से उबर पायेगादुनिया भर में वह किन विचारों का वाहक हैलोगों ने जब वहाँ ऐसे कार्यक्रमों का विरो किया और इन्हें बंद करने की माँग उठायी तो मीडिया ने इसे अपनी "अभिव्यक्ति की आजादीका हनन बताया। सड़े-गले विचारों को प्रचारित करने में इस संविधा प्रदत्त अधिकार का वे हमेशा ही गलत इस्तेमाल करते हैं। पिछले कुछ वर्षों से कमोबेश यही हालत हमारे देश में भी है।
विज्ञापन का एक ओर खतरनाक पहलू श्रम की गरिमा का नाश करके हमारी नयी पीढ़ी को पथ भ्रष्ट करना है। यह तीन-तिकड़मचोरी और सीनाजोरी के जरिये अपनी मनपसंद चीजें हासिल करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है। समझदार माँ-बाप बच्चों में शुरू से मेहनत के प्रति लगाव पैदा करने की कोशिश करते हैं। बच्चों को कपड़े और घर की सफा करना सिखाते हैं। वे बताते हैं कि बिना श्रम के कुछ भी हासिल करना चोरी है। हमें कठिन परिश्रम से नहीं घबराना चाहिए। लेकिन विज्ञापन के जरिये ऐसे सकारात्मक मूल्यों को रौंदा जा रहा है। वे उपभोक्ता वस्तुओं के प्रति लोगों की भूख बढ़ाते हैं। अक्सर वे उसे हासिल करने का सही तरीका नहीं बताते और कभी-कभी तो वे उन तरीकों को बढ़ावा देते हैं जो इन्सान को गलत रास्ते की ओर ले जाते हैंजैसेरात में दुकानें बंद हैंउसी समय हमारे कलाकार को प्यास लगती है और वह दुकान का शटर तोड़कर किसी खास ब्राण्ड की कोल्ड डि्रंक से अपनी प्यास बुझा लेता है। इसी तरह उपभोक्ता माल हासिल करना जिन्दगी का लक्ष्य बना दिया जाता है। लोगों के मन में माल ऊँची जगह बना लेते हैं। उन्हें पाने के लिए सभी इन्सानी रिश्तों के बन् तोड़ दिये जाते हैं। ये नये युग के देवता हैं। उन्हें भक्ति के जरिये नहींचोरीघूसदहेज और परिचित लोगों को धोखा देकर हासिल किया जाता है। इसी तरह हासिल की गयी सम्पत्ति से अपने पुरातन देवताओं को खुश करने के लिए लडडू चढ़ाये जाते हैंदान-र्म का काम किया जाता है। इसीलिए अपरा और र्म दोनों साथ-साथ उन्नति कर रहे हैं।
 हमारे देश में समोसाकचौरीदही-बड़ाइडलीडोसाजलेबी और लजीज खानों की अनगिनत किस्में है। लेकिन विज्ञापन के जरिये सबसे स्वादिष्ट खाने के तौर पर पिज्जा को स्थापित किया जा रहा है। भारतीय विवितापूर्ण खाने और पिज्जा के बीच सीधी प्रतियोगिता के बजाय लाखों डालर खर्च करके उग्र विज्ञापन के जरिये जनमानस में पिज्जा को थोपा जा रहा है। इन दोनों तरह के व्यंजनों के बीच सच्ची प्रतियोगिता तभी सम्भव हैजब दोनों के विज्ञापन में बराबरी हो। लेकिन किसी नुक्कड़ पर जलेबी की दुकान खोलने वाला हलवाई क्या कई-कई देशों में व्यापार करने वाली पिज्जा की कम्पनी मैक्डोनाल्ड को विज्ञापन की होड़ में पछाड़ सकता है। गलत प्रतियोगिता और संसानों की बर्बादी को देखते हुए न्यायोचित यही है कि विज्ञापन को पूरी तरह बंद कर दिया जाय। सभी को यह छूट हो कि वे अपना सामान सस्तास्वादिष्टस्वास्थ्यवर् और उच्च गुणवत्ता के  पर बेचें। उपभोक्ता खुद निर्णय कर लेगा कि उसे क्या खरीदना है। लेकिन आज की परिसिथतियों में यह असम्भव हैक्योंकि हमारे देश के शासकों ने विदेशी पूँजी से साँठ-गाँठ कर ली है। विदेष्शी कम्पनियाँ अच्छे उत्पाद के जरिये प्रतियोगिता करने के बजाय उग्र विज्ञापन का सहारा लेती हैं और हर तरह की प्रतियोगिता का गला घोंटकर पूरी तरह बाजार पर कब्जा जमा लेती हैं।
इतना ही नहींविज्ञापन के माध्यम से देशी पूँजी के मालिक सड़ी-गली मूल्य-मान्यताएँ हमारे ऊपर थोप देते हैं। पिज्जा श्रेष्ठ संस्कृति का प्रतीक बन जाता हैसमोसा पिछड़ी संस्कृति का। इस तरह शिक्षित और सम्पन्न लोगों में विदेशी संस्कृति के अंधानुकरण की भावना पैदा होती है। इससे उनमें श्रेष्ठता का मिथ्याबो जन्म लेता है। किसी खास ब्राण्ड का टीवीफ्रिजकूलर और कार रखने वाला इंसान श्रेष्ठ हैचाहे वह भ्रष्टाचारी और नैतिक रूप से पतित ही क्यों  हो। नैतिक और सदाचारी व्यक्ति अगर गरीब है तो उसकी समाज मे को हैसियत नहीं। हैसियत और सम्मान पाने के लिए किसी आदमी का नैतिक और मानदार बने रहना जरूरी नहीं। पैसे की ताकत ही सब कुछ है। देशी पूँजी के साथ मिलकर विदेशी पूँजी विज्ञापन के जरिये समाज को नये साँचे में ढाल रही है। वे एक ऐसा माहौल तैयार कर रहे हैंजिसमें हमारी चेतना उनकी गिरफ्त में आती जा रही है। हमारे खाने-पहनने का तरीकाहमारी नैतिकता और जिन्दगी जीने का तरीका सात समुन्दर पार बैठे विदेशी पूँजी के मालिक तय करते हैं।
पुरुष द्वारा डियोड्रेन्ट छिड़कने पर अद्र्धनग्न लड़कियाँ उसकी ओर खिंचती चली आती है। ऐसे कामुक विज्ञापनों के जरिये औरत की गरिमा को रौंदा जा रहा है। यह व्यवस्था सैक्स के प्रति बहसी और पाशविक रवैया अपनाने वाले लम्पटों की जमात पैदा कर रही है। ऐसे नौजवान ही पूँजी के हाथ की कठपुतली बन सकते हैंजो किसी स्त्री को इन्सान समझने के बजाय उपभोग की वस्तु समझने लगे हैं। सांस्कृतिक  पतन को लेकर हाय तौबा मचाने वालों की तलवारें इस पतन के लिए जिम्मेदार पूँजी के खिलाफ क्यों नहीं उठती। वे यह देखने से क्यों इन्कार कर देते हैं कि विज्ञापनों द्वारा प्रचारित-प्रसारित पशिचमी संस्कृति और कुछ नहींपूँजी की संस्कृति है। 
यह तर्क दिया जाता है कि गन्दे कार्यक्रमों और विज्ञापनों को देखते हुए भी इनकी बुरायों से बचा जा सकता है। इसका मतलब तो यह हुआ कि जहर खाने के बावजूद उसके प्रभाव से बचा जा सकता है।
जब को चित्र या फिल्म या विचार कई बार हमारी नजरों के सामने से गुजरता है तो वह हमारे दिमाग पर छा जाता है। भले ही वह हमारी समझ के परे या बेतुका ही क्यों  हो। ऐसे चित्र हमारे दिमाग में विचरण करते हुए अपने लिए को स्थायी ठिकाना ढूँढ निकालते हैं। ऐसा हम बहुत सचेत होकर नहीं करतेबलिक हमारी गैर-जानकारी में हमारा अवचेतन दिमाग खुद--खुद ऐसा कर लेता है। यही कारण है कि कई बार किसी बात को सचेतन तौर पर गलत मानने के बावजूद हम उसके प्रभाव में  जाते हैं। किसी विचार को पूरी तरह नकारने के लिए हमें उसके हर रूप के खिलाफ सचेतन संघर्ष करना होता है।  केवल खुद को दुष्प्रभाव से बचाना होता है बलिक अपनी मित्र-मण्डली और समाज को भी उससे मुक्त करने के लिए बहस और विवाद करना पड़ता है। हम चाहे कितने भी बुद्धिमान क्यों  होअगर ऐसा नहीं करते तो खुद को जल्द ही ऐसे विचारों की गिरफ्त में पायेंगे और यही वह बात है जो इन विज्ञापनों के निर्माता जानते हैं। जनसाधारण ही नहींसमाज के अगुआ तबके भी टीवी की क्षमता और प्रकृति से पूरी तरह परिचित नहीं हैं। नाचतेकूदतेदौड़ते और बोलते दृश्य कितने प्रभावपूर्ण हैंइसका अंदाजा हम लगा नहीं पाते। टीवी के माध्यम बड़े ही मनोरंजक तरीके से कार्यक्रमों और विज्ञापनों का प्रसारण करने वाले अपने विचारों को करोड़ों दिमागों में भर देते हैं। हम बस यही सोचते रह जाते हैं कि यह हमारे मन बहलाव का सा है। 
करीब सवा दो सौ साल पहले दुनिया में लोकतांत्रिक क्रानितयों का दौर शुरू हुआ था। उस समय विचारों पर मीडिया का नियंत्रण नहीं था। मीडिया पर मुठठीभर पूँजीपति कुण्डली मारकर नहीं बैठे थे। उस दौर मे आन्दोलन का प्रचार-प्रसार पर्चों और पुसितकाओं के माध्यम से हाथों-हाथ होता था। लोग उनकों गुनते-धुनते थे। अगर उनमें निहित विचार सच्चा के अनुरूप नहीं होते थेया लोगों को कायल बनाने वाले नहीं होते थे तो लोगों पर उनका प्रभाव नहीं पड़ता थावे लोगों में उद्वेलन नहीं पैदा कर पाते थे। लोग ऐसे आन्दोलन के प्रचार में उत्साह से भाग नहीं लेते थे। ऐसे आन्दोलन बहुत ही शुरूआती दौर में ही असफल हो जाते थे। इसके विपरीतजिस आन्दोलन की जड़ें जनता में धंसी होती थीवहाँ से शकित संचित करती थीवह जंगल की आग की तरह पूरे समाज को अपनी चपेट में ले लेता था। उसका दमन किसी भी आतता शासक के वश की बात नहीं होती थी। ऐसे थे उस दौर के आन्दोलन और क्रानितयाँ। उनका प्रचार-प्रसार करने और उन्हें खड़ा करने में पर्चे-पुसितकाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान होता था। लेकिन आज मीडिया के शीर्ष पर बैठे मुटठीभर लोग आपस में साँठ-गाँठ करके अपने फायदे के लिए जड़विहीन फर्जी आन्दोलनों को पैदा करते हैंउसे प्रचारित-प्रसारित करके उनके पक्ष में रातोंरात हवा बनाते हैं। जब सभी मीडिया संस्थान एक सुर में किसी आन्दोलन की तारीफ करते हुए गला फाड़ते हैं तो लोगों में उसके प्रति अचानक ही दिलचस्पी पैदा हो जाती है और वे उनके प्रति आकर्षित हो जाते हैं। हालाँकि अन्दर की ऊर्जा  होने के कारण पुआल की आग की तरह वे जल्दी ही बुझ जाती हैं। ऐसे भ्रामक और क्षणजीवी आन्दोलनों का सबसे अच्छा शिकार अपनी जड़ों से कटा हुआ èयम वर्ग ही होता है। हमारे देश के शासकमीडियाकर्मी और इनके लगुए-भगुए ऐसे भ्रामक आन्दोलनों में èयमवर्गीय शिक्षित नौजवानों को जोतकर खुद सत्ता सुख भोग रहे हैं और अगर कभी ये आन्दोलन उनकी परिधि से बाहर जाने की कोशिश करता है तो वे उसकी नकेल खींच लेते हैं।
जाहिर है कि विज्ञापन का दायरा केवल उपभोक्ता वस्तुओं तक सीमित नहीं है। चुनावों के दौरान राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपने पक्ष में हवा बनाने के लिए विज्ञापन पर खुलकर पैसा बहाया जाता है। अपनी उपलबियों को बढ़ा-चढ़ाकर बतानाविरोधी का चरित्र हनन करना और झूठे आश्वासनों की झड़ी लगा देना। राजनीतिक पार्टियों के नेता अपने विचारों को सामने रखकर लोगों का मत हासिल नहीं करते। इसके विपरीत वे जातिवादक्षेत्रवाद और साम्प्रदायिकता जैसे घातक विचारों का प्रसार करके लोगों में फूट डालते हैं। ताकि किसी खास समुदाय का वोट उनकी पार्टी को मिल जाये। हमारे देश का कानून भी उन्हें खुलकर झूठ बोलने और लोगों को गुमराह करने से नहीं रोक पाता है। इसी कीचड़ में हमारे देश का लोकतंत्र पनाह लेता है। कई बार सरकारी विज्ञापनों में बोला गया झूठ इतना निर्णायक होता है कि वह लोगों के दिमाग में व्यक्ति या संस्था की झूठी छवि बैठा देता है। सरकार द्वारा देशभर में जनआन्दोलनों को आतंकवादी करार दिया जाना और जनता के हक में लड़ने वाले नेताओं को जेल में डाल देना इसी का प्रमाण है।
पूरी दुनिया में पूँजी की ताकत ने कुत्सा प्रचार का बवंडर खड़ा कर दिया है। अब तो वे आइन्स्टीन और डार्विन के सिद्धांतों तक को गलत बता रहे हैं। वे दुनियाभर के महान दार्शनिकोंसामाजिक कार्यकर्ताओं और क्रानितकारियों पर कीचड़ उछाल रहे हैं। पतन के इस दौर में आदर्शों को स्थापित करने के बजाय  केवल वे इतिहास पुरूषों पर कीचड़ उछाल रहे हैंबलिक झूठ-फरेब के सहारे लोगों को गुमराह कर रहे हैं। तकनीकि प्रगति के कारण आज सबके लिए ज्ञान के दरवाजे खुल चुके हैं। लेकिन ज्ञान के सानों पर मुनाफे के भेडि़यों का कब्जा है। वे लोगों की गलत प्रवृत्तियो को भड़का रहे हैं। ताकि उनका मुनाफे का खेल जारी रहे।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया में इंग्लैण्ड-फ्राँस जैसी पुरानी उपनिवेशवादी ताकतों की पराजय हु ऐसी नाजुक सिथति का फायदा उठाते हुए अमरीका ने  केवल आर्थिक रूप से अपना प्रभुत्व बढ़ाना शुरू कियाबलिक दुनियाभर में टीवी और समाचार पत्रों के माध्यम से लोगों के विचारों पर भी वर्चस्व स्थापित करने लगा। टीवी पर दिखाये जाने वाले विज्ञापनों ने रेडियो को बहुत पीछे छोड़ दिया। इसे उसने एक रणनीति के तौर पर इस्तेमाल किया। यही वजह है कि 1940 में वह विज्ञापन पर मात्र 3 अरब डालर खर्च करता था जिसे बढ़ाकर आज वह इस पर हर साल 150 अरब डालर खर्च करने लगा। जैसे-जैसे उनकी व्यवस्था संकट ग्रस्त होती जा रही हैइस पर पर्दा डालने और सुधारने की जरूरत भी बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि मंदी के इस दौर में अमरीका में टीवी विज्ञापनों के मद में 9 प्रतिशत की तेज वृद्धि हु है। दुनिया की 80 प्रतिशत जनता की पहुँच टीवी तक है। यह इन्टरनेटसमाचार पत्र और फिल्मों से भी ज्यादा शकितशाली माध्यम है। मानव इतिहास में पहली बार ऐसा सम्भव हुआ कि बिना सीधे सम्पर्क किये लोगों की चेतना को वश में किया जा सकता है और अमरीका यही कर रहा है।
"अभिव्यक्ति की आजादीका झण्डाबरदार अमरीका बिना फौज-फाटे के केवल टीवी के कार्यक्रम के माध्यम से अपने उग्र विज्ञापनों के जरिये हमारी आजादी छीन रहा है। अब वह बोलता है लोग सुनते हैं। अपने मालों के जरिये वह भारत सहित तीसरी दुनिया के तमाम असभ्य लोगों को सभ्य बनाता है और अपना विरो करने वाले देश इराकलीबिया और अफगानिस्तान पर बम गिराकर वहाँ के लोगों को आजादी और लोकतंत्र का पाठ पढ़ाता है। उसका राजनीतिक प्रचार भी एक तरह का विज्ञापन ही है जो उससे कम घातक नहीं है। वह उग्र प्रचार के जरिये आतंकवाद को दुनिया की सबसे बड़ी समस्या के रूप में स्थापित करने की कोशिश करता है। वह कहता है कि "आतंक की लड़ा के खिलाफ या तो आप हमारे साथ हैं या हमारे दुश्मन आतंकवादियों के साथ।विज्ञापन की यही खासियत है कि वह हमारे सामने केवल दो विकल्प छोड़ता हैहाँ या ना। आपको अपनी जुदा राय व्यक्त करने की को जरूरत नहीं। क्रूर और नग्न सच्चा विज्ञापन के मायावी प्रभाव के चलते आँख से ओझल हो जाती है। इराकअफगानिस्तान पर बम गिराने वालालाखों बेगुनाह बच्चों का कातिल अमरीका हमें आतंकवादी नहीं दिखता। अपने देश की तरक्की के लिए परमाणु ऊर्जा के ऊपर शो करने वाला देश रान विश्व शानित के लिए खतरा नजर आता हैजबकि सिर से पाँव तक हथियारों से लैसदुनिया में परमाणु बम का सबसे बड़ा जखीरा रखने वाला देशों में अपने सैनिक अडडे स्थापित करने वाला और  देशों को अपने हमले से तबाह करने वाला देश अमरीका विश्व शानित का अग्रदूत बना बैठा है। वह लोकतंत्र का स्वयंभू मसीहा है। हमारे समाचार पत्र और न्यूज चैनल उसकी भाषा बोलते हैं। दुनिया के हर देश की शोषणकारी सरकारें अमरीका द्वारा उछाले गये "आतंकवादके हव्वे को आँख मूँदकर दुहराती हैं। इसके जरिये असली समस्याओं से अपने देश की जनता का ध्यान हटाने में वे काफी हद तक सफल हु हैं। इस तरह टीवी विज्ञापन ने  केवल अमरीकी कम्पनियों के मालों को दुनियाभर में लोकप्रिय बनायाबलिक राजनीतिक रूप से दुनिया पर उसका प्रभुत्व स्थापित करने में भी मदद की। इसी के माध्यम से वह दुनियाभर की स्थानीय संस्कृति को कुचलकर अपनी साम्राज्यवादी संस्कृति लोगों पर थोप रहा है। 
हम जिस मीडिया से प्राप्त सूचनाओं के धा पर जिन्दगीसमाज और राजनीतिक व्यवस्था की तस्वीर बनाते हैं। वह पूरी तरह पूँजी की गिरफ्त में है। इसके अलावा दुनिया को जानने-समझने का हमारे पास को दूसरा सा नहीं है। क्या हमें जनहित में अपनी समानान्तर मीडिया के निर्माण की जरूरत नहींजो जनता की समस्याओं और उनकी आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करे।

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