शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

खुदरा व्यापार में एफडीआई का विरोध करें

साथियो,
देशभर के किराना दुकान, फड़, खोखा, ठेला, खोमचा, हाट और फेरी वालों के विरोध को दरकिनार करते हुए सरकार ने अंततः प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के जरिये खुदरा क्षेत्र को विदेशी पूँजी के हवाले कर दिया। एक ब्राण्ड की खुदरा दुकानों के क्षेत्र में 51 प्रतिशत विदेशी पूँजी निवेश को बढ़ाकर 100 प्रतिशत कर दिया और एक ही छत के नीचे कई ब्राण्ड के सामानों की दुकान (मल्टी ब्राण्ड) के क्षेत्र में 51 प्रतिशत पूँजी निवेश की इजाजत दे दी है। सरकार का दावा है कि खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी देने से देश में खुशहाली आयेगी, महँगाई कम होगी और प्रत्यक्ष उत्पादकों यानी किसान-मजदूर तथा मेहनतकश जनता को उसके उत्पाद का वाजिब दाम मिलेगा। नये रोजगारों का सृजन होगा जिससे बेरोजगारी की समस्या पर लगाम लगेगी।

देश की आम जनता को भरमाने के लिए सरकार चाहे कितने भी दावे कर ले लेकिन इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि विदेशी पूँजी किसी सदासयता के लिए नहीं बल्कि अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए यहाँ आ रही है। मेहनतकश जनता के खून से सनी पूँजी का यही इतिहास भी रहा है। देशी-विदेशी पूँजीपतियों की भूख शान्त करने के लिए देश की तमाम सार्वजनिक सम्पत्ति और यहाँ तक कि प्राकृतिक सम्पदा को भी परोसने के बाद अब सरकार ने उन्हें देश के खुदरा क्षेत्र को निगलने का निमंत्रण दिया है। खुदरा क्षेत्र में कारोबार करने के लिए लालायित विदेशी कम्पनियों का इतिहास देशों को बर्बाद करने का रहा है। ‘बेण्टोविले का दानव’ के नाम से कुख्यात अमरीकी कम्पनी वालमार्ट खुदरा बाजार को तबाह करने के जुर्म में कई अमरीकी शहरों में प्रतिबन्धित है।

सरकार के दावों से इतर वालमार्ट और ऐसी ही तमाम अन्य कम्पनियों की गिद्ध दृष्टि 22,40,000 करोड़ रुपये के भारतीय खुदरा बाजार पर है। इनके आने से 1.2 करोड़ ठेले-खोमचे वाले, छोटे दुकानदार और किराना व्यापारी और इस पर आश्रित 4.4 करोड़ लोग अपने पेशे से उजाड़ दिये जायेंगे।

इतने विस्तृत बाजार और रोजगार क्षेत्र को दाँव पर रखकर सरकार ने वालमार्ट को 53 स्टोर खोलने की मंजूरी दी है। सरकारी आँकड़ों के हिसाब से 15 देशों में स्थित वालमार्ट के 8500 स्टोर में महज 20.2 लाख लोगों को ही रोजगार मिलता है। यानी उसके प्रत्येक स्टोर से 247 लोग रोजगार पाते हैं। इस हिसाब से देश में खुलने वाले 53 स्टोर 13,100 लोगों को ही रोजगार दे सकते हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को मुनाफा पहुँचाने के लिए खुदरा क्षेत्र में लगी 4.4 करोड़ आबादी को बेरोजगार करके, उनकी जिन्दगी को तबाह करना कहाँ तक न्यायोचित है?

वालमार्ट की एक और खासियत है कि वह अपने सामानों की कीमत कम रखने के लिये आपूर्ति करने वालों से सस्ती दर पर सामान खरीदती है जिसकी भरपाई वे अपने मजदूरों का खून निचोड़ कर करते हैं। जबकि वालमार्ट भी अपने कर्मचारियों से कम मजदूरी और खराब सेवा शर्तों पर अधिक से अधिक काम लेने के लिये बदनाम है। अक्टूबर 2006 में इसके फ्लोरिडा शाखा के कर्मचारियों ने बगावत कर दी थी क्योंकि कम्पनी उन्हें 24 घण्टे शिफ्ट में काम करने को मजबूर करती थी। इन्हीं हरकतों के चलते न्यूयार्क और लॉस ऐंजिल्स के स्थानीय लोगों ने लगातार विरोध करके वहाँ इसकी कोई शाखा खुलने नहीं दी। इण्डोनेशिया में वालमार्ट के द्वारा उजाड़े गये दुकानदारों ने उसके मेगामार्ट पर हमला करके कम्पनी को वहाँ से खदेड़ दिया। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में हुए एक शोध के अनुसार वालमार्ट जहाँ भी जाती है वहाँ खुदरा व्यापार में रोजगार के अवसर कम हो जाते हैं और मजदूरों की आय में गिरावट आती है।

देश में पहले से ही मौजूद रिलायन्स, विशाल मेगामार्ट, सुभीक्षा, बिग बाजार, त्रिनेत्र, सुपर रिटेल जैसी बड़ी कम्पनियाँ अपनी पूँजी के बल पर एक ओर जहाँ किसानों को उनके उत्पाद का कम दाम देकर लूट रही हैं। तो दूसरी ओर बिजली, पानी, बीज और खाद पर मिलने वाली सब्सिडी खत्म होने के चलते कर्ज के जाल में फँसकर लाखों किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए हैं।

सामानों की बिक्री में तरह-तरह की छूट के जरिये शुरू में ये कम्पनियाँ ग्राहकों को लुभाती हैं और छोटे दुकानदारों को उजाड़कर बाजार पर कब्जा जमा लेती हैं। इसके बल-बूते आगे चलकर मन चाहे दामों पर अपना माल बेचकर उपभोक्ताओं से अकूत मुनाफा वसूलती हैं। इन स्वदेशी कम्पनियों ने जब खुदरा बाजार पर कब्जा करके इतनी बड़ी तबाही मचायी है तो वालमार्ट जैसी दैत्याकार विदेशी कम्पनियों के आने पर हमारे किसानों, छोटे दुकानदारों और उपभोक्ताओं की तबाही का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।

इसके बावजूद हमारे प्रधानमंत्री का कहना है कि इन बड़े खुदरा व्यापारियों के आने से कृषि क्षेत्र में उछाल आयेगा। जबकि हकीकत इसके ठीक उलट है और यहाँ तक कि खुद अमरीकी किसानों को भी इन बड़े कारोबारियों से कोई सहायता नहीं मिली है। सरकारी सहायता के दम पर ही वहाँ खेती-किसानी को बचाया जा रहा है। 2008 के एक कानून में अमरीकी सरकार ने अगले पाँच सालों के लिए अपने कृषि क्षेत्र में 16,855 अरब रुपये की सहायता दी है। अमरीका तो अपने किसानों को बचाने के लिए सरकारी सहायता दे रहा है लेकिन हमारे किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी खत्म कराने के लिए हमारे देश पर दबाव बना रहा है। देश की 65 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है लेकिन बजट का केवल 2 प्रतिशत ही खेती पर खर्च किया जाता है और धीरे-धीरे इसे और भी कम किया जा रहा है।

पेट्रोलियम कम्पनियों को फायदा पहुँचाने के लिए सरकार आये दिन डीजल और पेट्रोल का दाम बढ़ा देती है, जिससे सभी सामानों के दाम तेजी से बढ़ जाते हैं। इतना ही नहीं अपनी जनविरोधी नीतियों के तहत वह शिक्षा को निजी हाथों में सौंपकर नौजवानों को शिक्षा से वंचित रखने की साजिश रचती है। तमिलनाडु राज्य के कुडानकुलम में नाभिकीय संयंत्र लगाये जाने का विरोध करने वाली अपनी ही जनता का बर्बर दमन कर रही है। पर्यावरण विनाश की कीमत पर पास्को और वेदान्ता जैसी बदनाम कम्पनियों को कौड़ी के मोल देश की खनिज सम्पदा बेचती जा रही है। पहाड़ और जंगल से उजड़े आदिवासियों के विरोध का बेरहमी से दमन कर रही है।

भले ही आज अंग्रेजों का झंडा यूनियन जैक कहीं लहराता नजर नहीं आता लेकिन आज हमारे जल, जंगल, जमीन देशी-विदेशी थैलीशाहों के कब्जे में हैं। जनता की गाढ़ी कमाई से खड़े किये गये सार्वजनिक क्षेत्र को कौड़ियों के मोल बेचा जा रहा है। इस तरह देशी-विदेशी पूँजी से गठजोड़ करके हमारी सरकार आज देश पर एक नयी गुलामी थोप रही है।

देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले शहीदे-आजम भगत सिंह ने कहा था- ‘‘भारत साम्राज्यवाद के जुए के नीचे पिस रहा है। इसमें करोड़ों लोग आज अज्ञानता और गरीबी के शिकार हो रहे हैं। भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या जो मजदूरों और किसानों की है, उनको विदेशी दबाव एवं आर्थिक लूट ने पस्त कर दिया है। भारत के मेहनतकश वर्ग की हालत आज बहुत गम्भीर है। उसके सामने दोहरा खतरा है- विदेशी पूँजीवाद का एक तरफ से और भारतीय पूँजीवाद के धोखे भरे हमले का दूसरी तरफ से खतरा है। भारतीय पूँजीवाद विदेशी पूँजीवाद के साथ हर रोज बहुत से गठजोड़ कर रहा है।“

शहीदे-आजम भगत सिंह ने 82 साल पहले जो बातें कहीं थी वह आज की परिस्थितियों पर हूबहू लागू होती हैं। आज हम देशी पूँजीवाद के धोखे भरे हमले को साफ देख सकते हैं। साम्राज्यवाद और उसके सरगना अमरीका के आगे नतमस्तक होकर हमारे शासक वर्ग देश को बेच खाने का घिनौना षडयंत्र रच रहे हैं। अगर हम अब भी नहीं जागे तो देश नयी गुलामी की जंजीरों में जकड़ जायेगा। भगत सिंह ने कहा था कि ‘‘क्या हमें यह महसूस कराने के लिए कि हम गुलाम हैं और हमें आजाद होना चाहिए, किसी दैवी ज्ञान या आकाशवाणी की आवश्यकता है?“

हम तमाम आजादी पसंद नौजवानों का आह्नान करते हैं कि देश को नयी गुलामी की बेड़ियों से आजाद कराने के लिए आगे आयें। हम उन सभी लोगों का खुला आह्नान करते हैं जिनके दिल अभी जिन्दा हैं और जिन्हें गुलामी की जिन्दगी पसंद नहीं।

आइये ! हम शहीदे आजम भगत सिंह के जन्म दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में शामिल हों और उनके क्रान्तिकारी विचारों की रोशनी में आजादी का झण्डा बुलंद करें।

इंकलाब जिन्दाबाद!!

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

भारत के दूधिया वर्गीज कूरियन और डेयरी-क्षेत्र से इनकी विदाई

भारत के दुधिया, स्वप्नदर्शी जनोन्मुख सहकारी पुरुष वर्गीज कूरियन
(26 नवम्बर 1921 – 9 सितम्बर 2012)
कूरियन का पदार्पण डेयरी-क्षेत्र में एक युग का आरम्भ था। उनकी भावहीन कृतघ्न विदाई उस युग का अन्त है।
कोआपरेटिव आन्दोलन की शुरुआत से पहले एक उद्योग के रूप में भारत का डेयरी-क्षेत्र बहुत ही निम्न अवस्था में था। तब आणन्द-स्थित पेस्टनजी एडुल्जी की पोल्सन डेयरी का वहाँ के दूध के कारोबार पर एकाधिकार था। यह डेयरी छोटे-छोटे दूध-उत्पादकों के शोषण का पर्याय बनी हुई थी।

1946 में चकलासी गाँव के किसानों ने पोल्सन के एकाधिकार को चुनौती दी और गाँव-गाँव में कोआपरेटिव और मिल्क यूनियन बनाने की शुरुआत की। कुछ ही समय बाद डॉ वर्गीज कूरियन किसानों के इस आन्दोलन में शामिल हो गये।
  
कोआपरेटिव और यूनियनें शुरुआती दौर में छोटे-छोटे दूध-उत्पादकों का दूध इकट्ठा करके उसका शोधन और बिक्री करती थीं। साथ ही दुधारू पशुओं के नस्ल सुधरने जैसे काम भी इन कोआपरेटिवों द्वारा किया जाने लगा। इस तरह, छोटा से छोटा किसान भी कोआपरेटिव से लाभान्वित होता था और उसमें भागीदारी निभाता था।

छोटे-छोटे किसानों की भागीदारी और उनका आपसी सहयोग रंग लाया। चन्द गाँवों से शुरू हुआ यह आन्दोलन
पूरे देश में कोआपरेटिव आन्दोलन की सफलता का प्रतीक बन गया। इस काम में कूरियन की महती भूमिका रही। आणन्द मिल्क यूनियन लिमिटेड अमूल एक अत्यन्त लोकप्रिय ब्राण्ड बन गया, जिसने नेस्ले, डबरीज, ग्लैक्सो और लीवर जैसे बहुराष्ट्रीय निगमों से मुकाबला करते हुए अपने को स्थापित किया। आगे चलकर कूरियन ने राष्ट्रीय डेयरी विकास परिषद (NDDB) की स्थापना की और उसके संस्थापक चेयरमैन बने। परिषद के माध्यम से उन्होंने इस प्रयोग को पूरे देश में फैलाने का प्रयास किया।

वैसे तो देश के अन्य हिस्सों में भी सरकार ने कोआपरेटिव आन्दोलन को फैलाने का प्रयास किया लेकिन अधिकांश मामलों में उसे असफलता ही हाथ लगी। समाजवादी प्रयोगों की भोंड़ी नकल करके उन्हें नौकरशाहाना ढंग से जनता पर थोपने का यही हश्र हुआ कि कुछ को छोड़कर लगभग सभी कोआपरेटिव लूट-खसोट और भ्रष्टाचार के पर्याय बन गये। कूरियन और उनके सहयोगियों ने आजादी के तुरन्त बाद कोआपरेटिव को दिये जाने वाले प्रोत्साहन का लाभ उठाया। गुजरात के कोआपरेटिव आन्दोलन की सफलता का श्रेय निश्चय ही जनता के सहयोग तथा कूरियन की ईमानदारी, सूझबूझ ओर कर्मठता को जाता है।

1991 में नयी आर्थिक नीति लागू होने के बाद यह क्षेत्र रिलायन्स, कैडबरीज् और नेस्ले जैसे राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय निगमों के निशाने पर आ गया और उन्हीं के हित में इसका निजीकरण करने के लिए कदम उठाये जाने लगे। इस दिशा में पहला कदम है कोआपरेटिवों को धीरे-धीरे निजी कम्पनी में तब्दील कर देना। राष्ट्रीय डेयरी विकास परिषद निजी पूँजीपतियों को शामिल करते हुए एक संयुक्त उपक्रम बनाने की योजना पर काम कर रहा है जिसके अनुसार कोआपरेटिवों से विपणन का अधिकार छीनकर उसे संयुक्त उपक्रम को सौंप दिया जायेगा। बदले में कोआपरेटिवों को उसका 49% शेयर दे दिया जायेगा। इसप्रकार, दूध और दूध से बनने वाले सामानों के सभी प्रचलित और स्थापित ब्राण्ड, जिनपर प्रदेश के मिल्क फेडरेशनों और कोआपरेटिवों की मिल्कियत थी, अब संयुक्त उपक्रम के अधीन हो जायेंगे और वर्षों के अथक प्रयासों से तैयार किये गये बाजार पर उसका नियन्त्रण स्थापित हो जायेगा। चूँकि संयुक्त उपक्रम एक निगम होगा अतः शेयरों की खरीद के माध्यम से इसमें देशी-विदेशी पूँजी का प्रवेश और वर्चस्व सम्भव हो जायेगा। देशी-विदेशी थैलीशाहों की रुचि किसी नये क्षेत्र में पूँजीनिवेश करना और उत्पादन के आधरों का विस्तार करना नहीं है। जमे-जमाये उद्योगों को तीन-तिकड़म से हड़पने को ही वे आर्थिक सुधर और उदारीकरण का नाम देते हैं। डेयरी-क्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है।

राष्ट्रीय डेयरी विकास परिषद की इस योजना से कूरियन की न केवल असहमति थी, बल्कि वे उसे लागू न करने देने के लिए कटिबद्ध थे क्योंकि उनका मानना था कि इस माध्यम से कोआपरेटिवों का ‘‘पिछले दरवाजे से निजीकरण किया जा रहा है।’’ गुजरात कोआपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन (GCMMF) का खुलासा करते हुए उन्होनें कहा कि इसका ‘‘बोर्ड निजी स्वार्थ के एक बड़े खेल का मोहरा बन चुका है, जो कोआपरेटिव को हड़पना चाहता है।’’ स्पष्ट है कि यह ‘‘बड़ा खेल’’ देशी पूँजीपतियों के साथ मिलकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा खेला जा रहा है।

डॉ. वर्गीज कूरियन कोआपरेटिव को राष्ट्रीय डेयरी विकास परिषद के निगमीकरण और निजीकरण की योजना से बचाने की लगातार कोशिश करते रहे लेकिन इस कोशिश में वे लगातार अलगाव में पड़ते गये। बदली हुई परिस्थतियों में उनका आदर्श यहाँ के शासकों के मन-माफिक नहीं रहा। जब पूरे देश की बोली लग रही हो तो अमूल भला कब तक बचा रहता। अन्ततः स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी कि गुजरात कोआपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन के बोर्ड के 11 में से 10 सदस्यों ने इनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का निर्णय कर लिया। इसतरह, भारत के दूधिया ने मजबूर होकर 20 मार्च को फेडरेशन के चेयरमैन के पद से, जिस पर वे 33 वर्षों से विराजमान थे, इस्तीफा दे दिया।

डेयरी-क्षेत्र से कूरियन को इस तरह विदा किया जाना एकाधिकार के युग की पुनर्स्थापना है। जिस क्षेत्र के विकास में उन्होंने अपना जीवन लगा दिया था, एकाधिकारी पूँजी ने उसी क्षेत्र से उन्हें बेरुखी से निकाल बाहर कर दिया।

भारत के डेयरी-क्षेत्र पर एकाधिकार स्थापित हो जाने के बाद इस क्षेत्र से जुड़े कितने लोग हाशिये से भी बाहर फेंक दिये जायेंगे, कूरियन-प्रकरण ने उस ओर स्पष्ट संकेत दे दिया है।

डेयरी-क्षेत्र पर देशी-विदेशी निगमों का वर्चस्व स्थापित होते ही दूध और दूध से बने पदार्थों का, जो अभी ही एक बहुत बड़ी गरीब आबादी के लिए दुर्लभ हैं, मध्यवर्ग के एक बहुत बड़े हिस्से की पहुँच से भी बाहर हो जाना लाजिमी है। इस प्रक्रिया में छोटे दूध-उत्पादकों का पुराने जमाने की तरह निर्मम शोषण और तबाही भी अनिवार्य है।
-देश-विदेश (अंक-2), जून 2006

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

साहित्य, कला और संस्कृति



किसी समुदाय के रीति-रिवाजखान-पानपहनावासामुहिक आदतेंसंस्कारमनोरंजन के साधन और किसी हद तक शिक्षा पद्धति भी संस्कृति के अंतर्गत आते हैं। संक्षेप में सभ्यता के दौर में इंसान के समग्र अनुभवों का खजाना ही संस्कृति है। बन्दर से आधुनिक मनुष्य बनने तक अर्थात पुराने कबिलाई समाजराजाओं-सामन्तों के शासनअँग्रजों की गुलामी और उसके खिलाफ संघर्ष से लेकर आजादी के बाद आज तक हमारे देश के विविध इलाके के लोगों का समस्त अनुभव ही वहाँ की संस्कृति है। मनुष्य जिन्दा रहने की न्यूनतम जरूरत पूरा करने के पहले और बाद जो चीजें  करता है वह संस्कृति है। जैसे पुराने समाज में शिकार के बादवह सामुहिक रूप से उसकी नकल (अनुकृति) करता थायहीं से नाटक पैदा हुआ। कोयल के कूकनेबादल के गरजने और हवाओं के चलने की नकल करके इंसान ने संगीत सीखा। सामंती समाज में धौकनी-फुकनी और जाते-मूसल के साथ का संगीत आया। औरतें जाते से पिसाई करती थीं। मेहनत को हल्का करने के लिए गाना गाती थीं। जाते-मूसल के उतार-चढ़ाव के अनुसार लय  में उतार-चढाव होता था। संगीत मुख्यतः मनोरंजन के लिए और श्रम को आसान करने के लिए था। आज पूँजीवादी व्यवस्था ने इन सबको एक ही झटके में खत्म कर दिया। इनके स्थान पर इसने आज केवल एक संस्कृति लागू कर दी है उपभोक्तावादी संस्कृति।

सोमवार, 18 जून 2012

आर्थिक महाशक्ति बनाम भूख और गरीबी

हमारे देश के शासक वर्ग, उनके समर्थक अर्थशास्त्री और मीडिया अक्सर यह दावा करते हैं कि भारत 2020 तक आर्थिक महाशक्ति बन जायेगा। इसके लिए वे ऊँची आर्थिक विकास दर, भारी-भरकम विदेशी मुद्रा भण्डार और बढ़ते विदेशी निवेश का बखान करते हैं।
    जनता को आर्थिक महाशक्ति की अफीम पिलानेवाले इन कड़वी सच्चाइयों से मुँह चुराते हैं कि देश की लगभग 84 करोड़ जनता 20 रुपये रोज पर गुजारा करती है, पिछले 10 वर्षों में डेढ़ लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। हर साल 5 लाख लोग टी.बी. से मर जाते हैं और 46 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। जिस देश की 80 फीसदी जतना भूख, बीमारी और कंगाली के नरक में पड़ी हो, उसे महाशक्ति बनाने की बात करने का भला क्या मतलब है? महाशक्ति बनने की यह खुशफहमी उस साजिशाना और शातिराना रिपोर्ट पर आधारित है जिसे सी.आई.ए. की थिंक टैंक राष्ट्रीय गुप्तचर परिषद् ने गढ़ा है। दुनिया के भविष्य की योजनानामक इस रिपोर्ट के अनुसार 2020 तक भारत और चीन एक बड़ी वैश्विक ताकत के रूप में उभरेंगे। वे दुनिया के सामने चुनौती पेश करेंगे और अमरीका को भी उनकी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इसी रिपोर्ट के आधार पर भारतीय मीडिया जनता में सुखबोध जगाने, उन्हें झूठे सपने दिखाने और जन-मानस की सोच को प्रभावित करने का प्रयास कर रहा है। वास्तव में ऐसी रिपोर्टों का मकसद असली मुद्दों से जनता का ध्यान हटाना और उसमें भ्रम फैलाना होता है। लेकिन इनका मकसद इससे कहीं ज्यादा होता है। अमरीका ऐसी बातों को क्यों हवा देता है?

शनिवार, 9 जून 2012

किसानों तक सूचनाएँ कैसे पहुँचती है?

प्रयोगशाला से खेत तक सूचनाएँ देने का तन्त्र 1980 तक आते-आते लगभग खत्म-सा हो गया। हरित क्रान्ति के दौरान किसानों को सूचनाएँ देने में इस तन्त्र की एक बड़ी भूमिका रही है। इसके खत्म होने से सबसे बड़ी वजह यह मानी जाती है कि किसान के लिए ऊपर के स्तर पर जो ढांचा तैयार किया जाता था उसी से जुड़ी सूचनाएँ किसानों को दी जाती थीं। इसमें स्थानीय जरूरतों के मुताबिक सूचनाएँ नहीं होती थीं। स्थानीय जरूरतों के मुताबिक कैसी खादें डाली जाएँ, कहाँ से कौन-सा बीज लाया जाए, पानी का उपयोग कैसे किया जाए और किस तरह के कीटनाशक का इस्तेमाल हो इस तरह की सूचनाएँ देना लगभग बन्द हो गया। यह काम सरकारी बाबुओं के जिम्मे था, देश के विभिन्न राज्यों में 531 कृषि विज्ञान केन्द्र तो बने, लेकिन इनसे बाबुओं के परिवार के अलावा किसानों का कोई भला नहीं हुआ। पिछले तीन वर्षों (2003-2006) में इन केन्द्रों पर केन्द्र सरकार ने 487.58 करोड़ खर्च भी किए। सरकारी तन्त्र के विफल होने के कारण किसान खाद, बीज, कीटनाशक और अनाज व्यापारियों पर सूचनाओं के लिए निर्भर रहने लगा और इनके द्वारा सूचनाएँ अपने फायदे को ध्यान में रखकर दी जाती है। आम तौर पर यह स्थिति देखी गई कि किसी गाँव या इलाके में एक किसान इधर-उधर से खेती, पैदावार और अनाज की बिक्री के बारे में जो सुनता था उसी को सही सूचना मानकर ढेर सारे किसान काम चलाते रहे हैं, सरकारी तन्त्र में रेडियों और दूसरे माध्यम भी रस्मी तौर पर ही कार्यक्रम हासिल करने तक सीमित रहे। यदि सूचनाएँ हासिल करने में किसानों का कोई तबका आगे रहा तो वह बड़े किसान, बागवानी, फलों और सब्जी वाले किसान ही रहे हैं।

शनिवार, 12 मई 2012

समकालीन वामपंथी साहित्य के पतन पर लू शुन का लेख


हमें उन विषयों के बारे में बोलने की आवशकता नहीं जिनपर  दूसरे लोगों  ने पहले ही विस्तार से चर्चा की है. मेरी राय में, आज 'वामपंथी' लेखकों का 'दक्षिणपंथी' लेखकों में बदल जाना बहुत आसान है. सबसे पहले अगर आप लिखने या पढने के लिए खुद को शीशे की दीवारों के पीछे बंद कर लेते हैं, बजाय इसके कि वास्तविक सामाजिक टकराओं के संपर्क में रहने के, तो आपके लिए अत्यंत क्रांतिकारी या 'वामपंथी' बनना बहुत आसन है. लेकिन जिस क्षण  आपका सच्चाई से सामना होता है आपके सारे विचार छिन्न-भिन्न हो जाते हैं. बंद दरवाजे के पीछे क्रांतिकारी विचारों की फुहार छोड़ना बहुत आसान  है. लेकिन दक्षिणपंथी होना भी उतना आसान है. पश्चिम में इसे ही 'सैलून समाजवाद' कहते हैं. सैलून एक बैठक होता है जो बहुत  ही कलात्मक ढंग से सजा होता है और समाजवाद पर चर्चा करने के लिए काफी अनुकूल होता है- बिना उन विचारों को व्यवहार में लाये. सच तो ये है कि मुसोलिनी को छोड़कर जो साहित्यिक आदमी नहीं है, ऐसा लेखक या कलाकार ढूँढना काफी मुश्किल है जो किसी न किसी तरह के समाजवादी विचारों वाला न हो जो कहता हो कि मजदूर और किसान गुलाम बनाये जाने, मार दिए जाने या शोषण किये जाने के काबिल हैं (निश्चय ही मैं यह नहीं कहता कि ऐसे लोग है ही नहींइनके उदाहरण चीनी लेखकों के वर्धमान चन्द्र गुट और  मुसोलिनी के प्रिय लेखक द अनुन्जीयो के रूप में देखे जा सकते हैं)
दूसरे, अगर आप क्रांति की वास्तविक प्रकृति को नहीं समझते, तो भी "दक्षिणपंथी होना आसान है"  क्रांति एक कड़वी चीज है.

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

शान्तिवादी प्रवचन

19 वीं सदी में स्पेनिश कलाकार फ्रांसिस्को गोया लुसिएंतेस की नक्काशियाँ युद्ध की निरर्थकता का संदेश फैलाने में मदद करती हैं.
सौजन्य से: इंस्टिट्यूटो  सर्वंतेस, नई दिल्ली
"एस्त्रगोस डे ला गुएर्रा: युद्धस्थल पर मानव और पशुओं दोनों के शवों का ढेर लगा है. गोया की नक्काशियाँ वास्तविकता के बहुत करीब हैं.
असंख्य युद्धों और उसके द्वारा मानवता के ऊपर बरपाई गयी तबाही दुनिया के किसी भी ऐतिहासिक वृत्तांत में प्रमुख स्थान रखती हैं. जबकि एक तरफ युद्धों ने बड़े साम्राज्यों के स्वार्थों  को आगे बढ़ाने में मदद की, तो  दूसरी तरफ उसने लोगों को अकथनीय दुख पहुँचाया.
एक तरफ युद्ध क्षेत्रों में लोग भूख से मर गये या