अगर सरकार की आर्थिक नीतियों के बारे में बताना हो तो एक मुहावरे की तर्ज पर कहा जा सकता है, ‘खोदा पहाड़, निकला स्टार्ट अप इंडिया’. 2015 की शुरुआत को भारतीय स्टार्ट अप का स्वर्णकाल माना जा सकता है. खाद्य तकनीक, कृषि उद्योग, स्वास्थ्य तकनीक, मोबाइल फोन और अन्य तकनीकी उद्यमों में पैसा पानी की तरह बह रहा था. उत्पादन से जुड़े उद्योगों से निराश हो चुके निवेशकों के लिए यह एक सुनहरा मौक़ा था. जो इस मौके से चूक जाते वे पिछड़ जाने वाले थे. स्टार्ट अप इंडिया ने माहौल को गरमा दिया था. यह योजना उस सरकार की मानस पुत्री थी, जो देश के आर्थिक संकटों से लड़ने के लिए कृतसंकल्प थी. कुल मिलाकर स्टार्ट अप इंडिया मंदी की मार से जूझते भारतीय अर्थ जगत में उम्मीद की एक किरण जैसी थी. उस समय कोई दावा नहीं कर सकता था कि थोड़े ही समय बाद यह योजना अर्श से फर्श पर आ जायेगी.
2008 में आयी मंदी समय के साथ जैसे-जैसे गहराती गयी, इसने पूंजीपतियों के खेमे में चरम निराशा पैदा की. उत्पादक उद्योग में कोई पूँजी लगाने के लिए तैयार नहीं था. पूँजी निवेशक उद्योगों में पूँजी निवेश करने से डर रहे थे क्योंकि उन्हें मुनाफा वापसी की कोई संभावना नहीं दिख रही थी. अर्थव्यवस्था में पूँजी का प्रवाह थम सा गया था. 2014 में सरकार बदली, पूंजीपतियों के अच्छे दिन आ गए. उन्हें उम्मीद की रौशनी दिखाई देने लगी. ऐसे समय मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया और स्टैंड अप इंडिया जैसे नारे आये.
स्टार्ट अप इंडिया यानी टुटपूंजियों को बढ़ावा
15 अगस्त २०१५ को प्रधानमन्त्री मोदी ने लाल किले से स्टार्ट अप इंडिया अभियान की घोषणा की. लेकिन यह कोई मौलिक खोज नहीं. मंदी से बचने के लिए इसे दुनिया भर में पहले से ही आजमाया जा रहा है . स्टार्ट अप इंडिया एक विश्वव्यापी रणनीति पर आधारित है, जिसके तहत बैंकों को नए उद्यमों में पैसा निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. यह उद्योगों के मामले में राज्य के हस्तक्षेप को सीमित करता है. यह लाइसेंस राज या इंस्पेक्टर राज से मुक्ति, जमीन का बेरोकटोक अधिग्रहण, विदेशी निवेश के प्रस्ताव और पर्यावरण मानकों में छूट जैसी मांगों पर आधारित है. २५ करोड़ से कम सालाना आय वाले उद्यम ही इसके अंतर्गत आते हैं. इसकी कई विशेषताएं हैं. इसमें हाथो-हाथ प्रोजेक्ट को पास कराना, मुनाफे पर टैक्स से 3 साल की छूट, नौकरशाही के हस्तक्षेप का खात्मा, दिवालिया या बर्बादी की स्थिति में मदद के लिए विशेष कोष का गठन, औचक निरिक्षण से 3 साल के लिए छुटकारा आदि लुभावनी नीतियाँ शामिल हैं. पेटेंट रजिस्ट्रेशन फीस में 80 प्रतिशत तक की कटौती की गयी है. 10 हजार करोड़ रूपये का विशेष कोष बनाना जो दिवालिया होने वाले उद्यमियों को सहारा दे. इसे कोषों का कोष कहा गया है. इस तरह कुल मिलाकर टुटपूंजिया यानी छोटे पूंजीपतियों को अपनी आर्थिक गतिविधियाँ चलाने और उन्हें आगे बढाने के लिए सरकार की ओर से भारी छूट दी गयी है. यह बेवजह नहीं है कि मीडिया स्टार्ट अप इंडिया का गुणगान गा रहा है. सम्पन्न मध्यमवर्ग के चेहरे का नूर लौट आया है. देशभर में कुल ४२०० स्टार्ट अप शुरू किये गये हैं. भारत इस मामले में दुनियाभर में तीसरे स्थान पर है .
देश की डूबती अर्थव्यवस्था को तिनके के सहारे बचाने की इस कोशिश का नाम ही स्टार्ट अप इंडिया है. हालांकि यह व्यवस्था को बर्बादी से बचा पायेगी, इसमें संदेह है. स्टार्ट अप इंडिया कार्यक्रम में अनेकों कमियाँ हैं, उनकी सैद्धांतिक व्याख्या के बजाय एक स्टार्ट अप की बर्बादी के बारे में जानना कहीं अधिक ज्ञानवर्धक होगा.
टाइनीआउल की दास्तान-ए-बर्बादी
2016 की शुरुआत से फ़ूड टेक स्टार्टअप कम्पनी टाइनीआउल की हालत पतली होती जा रही थी. हर महीने २.5 करोड़ रूपये उड़ाने वाली कम्पनी दिवालियेपन के कगार पर पहुँच गयी थी. उसके पास केवल १८ करोड़ रूपये शेष थे. पिछले १८-20 महीनों में कम्पनी ने जबरदस्त वृद्धी करते हुए १52 करोड़ जुटाए थे. लेकिन धीरे-धीरे निवेशक साथ छोड़ते गये और कम्पनी के सारे रास्ते बंद हो गये. स्टार्टअप की दुनिया का यह चमकता सितारा गर्दिश में पहुँच गया. सितम्बर में कम्पनी ने ३०० कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया. कम्पनी से निकाली गयी ३० साल की एक महिला कर्मचारी ने टाइनीआउल के मुख्य संस्थापक और कार्यकारी अधिकारी हर्षवर्धन मन्दाड से एक सवाल दागा, “मुझे नौकरी से निकालकर आपने कितनी रकम बचा ली है?” इस घटना ने कम्पनी के पतन पर जैसे मुहर लगा दी हो. आईआईटी मुम्बई से निकले मन्दाड ने ही उस महिला का साक्षात्कार लिया था और उनकी चमत्कारिक प्रतिभा भी कम्पनी को डूबने से नहीं बचा पायी. बल्कि यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि उनकी प्रतिभा ने कम्पनी को डुबोने में मदद की.
जुलाई २०१५ की बात है, जब संस्थापक के साथ पूरी टाइनीआउल कम्पनी जोश में थी. क्योंकि कम्पनी को प्रतिदिन २५०० से अधिक आर्डर मिल रहे थे. जबकि भारत की सबसे बड़ी फूड़टेक कम्पनी जोमैटो दिन में ३००0 आर्डर ही ले पाती थी. लेकिन कुछ समय बाद यह साफ़ हो गया कि इस गलाकाट प्रतियोगिता में टिके रहने के लिए ग्राहकों को लुभाना जरूरी है और यह काम कम्पनी के मुनाफे को भी दांव पर लगाकर किया गया. ग्राहकों को छूट देने में बड़ी धनराशी को झोक दिया गया. हर महीने 8-10 करोड़ रूपये का व्यय कम्पनी कब तक उठा सकती थी जबकि नवम्बर तक उसके पास महज 52 करोड़ रूपये बच गये थे. कम्पनी की आय लगातार गिरती जा रही थी. कम्पनी ने दुनियाभर के निवेशकों के सामने झोली फैला दी. नतीजा ढांक के तीन पात. हारकर संस्थापक ने कम्पनी का एक हिस्सा अपने प्रतिद्वंद्वियों को बेचने की गुहार लगाई. बर्बादी शुरू हो गयी थी. नवम्बर २०१५ में जब कम्पनी ने दिवाली के समय छंटनी शुरू की तो उसकी तबाही सतह पर आ गयी क्योंकि दिवाली के समय खाने के आर्डरों की भरमार रहती है. छंटनी के समय मालिक और कर्मचारियों के सम्बन्ध इतने बिगड़ गये कि कुछ कर्मचारियों को दफ्तर में ही कैद कर लिया गया. तू-तू, मैं-मैं, झगड़ा और मारपीट की नौबत आ गयी. इस घटना ने कम्पनी की रही सही इज्जत मिट्टी में मिला दी. छंटनी के बाद कम्पनी का मासिक खर्च घटकर 4 करोड़ रुपये तक आ गया. उसे मात्र १००० आर्डर मिल रहे थे. कम्पनी ने छूट बंद कर दी. बंगलुरु की कम्पनी स्विगी उससे आगे निकल गयी.
कम्पनी ने एक नया निर्णय लिया जिससे कम्पनी बंद होने के कगार पर पहुँच गयी. अब उसने दिन में केवल एक ही व्यंजन बेचना शुरू किया. इससे आर्डरों की संख्या घटकर दिन में महज तीन रह गयी. इतने बुरे दिन आयेंगे, किसी ने सोचा न था. लेकिन ठहरिये, अभी किस्सा बाकी है. कम्पनी के प्रबंधकों ने मुख्य तकनीकी अधिकारी को नौकरी पर रख लिया. जिसकी सालाना पगार १.5 करोड़ रूपये थी और जिन्हें कम्पनी में कदम रखते ही ५० लाख रूपये का बोनस दिया गया. इस फिजूल खर्ची से निवेशक कम्पनी से और दूर छिटक गये. इस नए अधिकारी के खर्च को संतुलित करने के लिए 10 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया गया. पिछले साल कम्पनी की तकनीकी टीम में २०० लोग थे, अब केवल 20 लोग बचे रह गये थे. जबकि ११०० कर्मचारियों में से मात्र २०० ही अब काम पर रह गये थे. कम्पनी के मालिकों ने कम्पनी को बेचने की योजना बनानी शुरू कर दी.
टाइनीआउल अकेली नहीं है
जोमैटो कम्पनी ने बिक्री लक्ष्य पूरा न होने के चलते अपने ३०० कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया है. बंगलौर की फूडटेक कम्पनी डैजो ने पूँजी की कमीं के कारण अपना कारोबार को बंद करने की घोषणा कर दी. स्पूनजॉय फूडटेक की हालत खराब चल रही है. शोध संस्था त्रैक्सन के एक सर्वे के अनुसार पिछले साल जनवरी से लेकर अब तक देशभर की फूडटेक स्टार्टअप कम्पनियों ने कुल ११३८.4 करोड़ रूपये निवेश के जरिये जुटाए. लेकिन सभी का अन्त बेहद दुखद रहा. मोबाइल पर विज्ञापन देने वाली स्टार्टअप कम्पनी इनमोबी भी गूगल और फेसबुक जैसी दिग्गज कम्पनियों से प्रतियोगिता में पिछड़ गयी है. छंटनी के चलते उसके १००० कर्मचारियों में से 100 कर्मचारी की नौकरी चली गयी. २०११ में इसने जापान के सॉफ्टबैंक वित्तीय संस्था से १३३० करोड़ का निवेश जुटाया था जिससे इसका बाजार पूंजीकरण ६६६१ करोड़ तक पहुँच गया. अब इसके निवेशक कम्पनी की लागत कम करने के लिए उसपर दबाव बना रहे हैं. अभी ई-कोमर्स की दिग्गज कम्पनियां जैसे फ्लिप्कार्ट और ओला वृद्धी कर रही हैं लेकिन बाजार के हालात से पता चलता है कि उनकी वृद्धी अधिक दिनों तक कायम नहीं रहने वाली है. एक अन्य ई-कोमर्स कम्पनी स्नैपडील ने अपने २०० कर्मचारियों को छंटनी का नोटिस पकड़ा दिया है. पिछले साल रीयल स्टेट पोर्टल कम्पनी हाउसिंग डॉट कॉम ने अपने २२५१ कर्मचारियों में से ६०० को निकाल दिया. स्टार्ट अप कम्पनियों ने भारतीय प्रबंधन संस्थान के छात्रों का बढ़-चढ़कर प्लेसमेंट किया था. छात्र नौकरी लगने पर बहुत खुश थे लेकिन अब ये कम्पनियां उन्हें नियुक्ति देने में देर कर रही हैं. कुछ कम्पनियों ने तो छात्रों को 6 महीने बाद आने के लिए कहा है. ये बातें स्टार्ट अप कार्यक्रमों के ढलान को दिखा रही हैं. यानी अब स्टार्ट अप अपने ‘द इंड’ की ओर बढ़ रहा है. जैसा कि अधिकतर व्यवसायों में होता है, इनमें से कुछ कम्पनियाँ प्रतियोगिता में टिकेंगी और बाकी ढेर सारी बर्बाद हो जायेंगी.
आज यह बात समझने की जरूरत है कि उद्योगों की नीति बनाने में राज्य या सरकार की भूमिका कम क्यों की जा रही है और पहले राज्य की भूमिका अधिक क्यों थी? किसी भी मुद्दे पर बहस करते समय यह बात याद रखनी चाहिए कि हम एक ऐसे देश में रहते हैं, जहाँ आधे से अधिक आबादी बेतहाशा गरीबी में जीवन जीती है. अगर सरकारी योजनाओं में उनके विकास के लिए धन आवंटित नहीं होगा तो उनकी स्थिति और अधिक खराब हो जायेगी. लाइसेंस राज या परमिट-कोटा आदि की व्यवस्था इसलिए की गयी थी कि सभी वर्गों में संतुलन कायम रहे, उद्योगपति मजदूरों का निर्मम शोषण न कर पाए, किसानों की जमीनों का जबरदस्ती अधिग्रहण न हो, उद्योग के नाम पर कोई काला धंधा न चला पाए, अधिक आय के लोग नियमित टैक्स चुकाते रहे और देश का पर्यावरण साफ़-सुथरा हो, इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हीमुनाफाखोरी पर से सरकारी नियंत्रण हटाकर इन्हें हर तरह की सहूलियत देने का अर्थ है- गरीब और शोषित वर्ग को क़ानून की सुरक्षा से भी बेदखल कर देना और उच्च वर्ग को लूट का स्थायी ठेका दे देना.
एक बात साफ़ हो गयी है कि अगर वयवस्था की जड़ में खराबी आ गयी है तो उसे उपरी सुधारों से ठीक नहीं किया जा सकता. बेरोजगारी, किसानों की बर्बादी और मुट्ठीभर अमीरजादों को छोडकर हर तबके की गिरती आय से पूरी जनता की क्रयशक्ति खत्म हो गयी है. अगर माल खरीदने के लिए जनता के पास धन नहीं है तो उद्योगों को ऊपर से कर्ज या सब्सिडी देकर या अन्य किसी तरीके से इस समस्या का इलाज नहीं किया जा सकता. इस समस्या ने बेहद भयावह रूप धारण कर लिया है. इसका अब मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया और स्टैंड अप इंडिया जैसा कोई नीम हकीमी इलाज सम्भव नहीं है. जनता की जिंदगी को बेहतर बनाये बिना, उद्योगों में नई जान फूंकना सम्भव नहीं. अगर शासक वर्ग इस व्यवस्था की लाइलाज बीमारी के लक्षणों का ही इलाज़ करते रहे तो यह रोग और अधिक विकराल रूप धारण करता चला जाएगा. वह दिन दूर नहीं जब जनता की दुःख-तकलीफों की चक्की में शासक वर्ग खुद पिस जाए. जनता उठ खड़ी हो और स्टार्ट अप इंडिया की जगह ‘रन अवे फ्रॉम इंडिया’ का नारा न दे दे.
-विक्रम प्रताप (शीघ्र प्रकाश्य देश विदेश 23 से)
-विक्रम प्रताप (शीघ्र प्रकाश्य देश विदेश 23 से)
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