कवि सी.पी. कवाफी की एक कविता का शीर्षक है- बर्बरों का इन्तजार।
कविता रोम के आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक- सामरिक-सम्पूर्ण पतन के काल से सम्बन्धित है। कुलीन रोमनों के पास रोम को आगे ले जाने के लिए कोई कार्यसूची नहीं थी। उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। वे किंकर्त्तव्य विमूढ़ थे कि क्या करें? भोग-विलासिता, अकर्मण्यता, सब कुछ अपनी सीमा पार कर चुके थे। ऐसे ही एक समय का चित्रण करती है यह कविता।
कवि कवाफी लिखता है कि इस संकट के समाधान के लिए रोम के कुलीनतन्त्र के राजनीतिक रहनुमा यूरोप से बर्बरों के आने की मनोकामना कर रहे थे। रोम नगर की बाहरी प्राचीर के मुख्य द्वार पर उनका इन्तजार किया जा रहा था। जब काफी इन्तजार के बाद भी बर्बर नहीं आये तो उनके हाथ-पाँव पफूलने लगे कि अब क्या होगा, वे (बर्बर) नहीं आये।
जब कोई सामाजिक व्यवस्था अपनी ऊर्जा खो चुकी होती है, मृतप्राय हो जाती है और उसे आगे जाने का कोई रास्ता नहीं सूझता तो वह बर्बरों का इन्तजार करती है।
बर्बर आये
नीचे लिखी कहानी में बर्बर आये और समस्या का समाधान हो गया।
इस कहानी में एक देश के शासक वर्ग और राजनीतिक रहनुमा एक ऐसे मुकाम पर पहुँच जाते हैं कि उन्हें आगे जाने का कोई और रास्ता नहीं सूझता, उनके पास कोई कार्यसूची नहीं रह जाती।
अपने हाथ में सत्ता की बागडोर लेने और समाज का नेतृत्व करने के 38 सालों के भीतर उनके पास कोई कार्यसूची नहीं रह गयी, उनकी समाज-व्यवस्था आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-शैक्षणिक-सांस्कृतिक- सामरिक पतनशीलता के गर्त तक पहुँच गयी, वे कुछ भी कर पाने में असमर्थ हो गए और अपने ऊपर उन्हें बिल्कुल भी भरोसा नहीं रह गया।
हालत यहाँ तक बिगड़ चुकी थी कि वे अपने लिए और अपने लोगों के लिए पीने के पानी का भी प्रबन्ध नहीं कर सकते थे, और तो क्या करते। तब वे बर्बरों का इन्तजार करने लगे।
5 साल की प्रतीक्षा के बाद बर्बर आये और उनकी सारी समस्याओं का समाधान करने लगे। वे खुद समस्या के समाधान में उनके सहयोगी और चाकर की भूमिका निभाने लगे।
इस कहानी का खुलासा
15 अगस्त 1947 को भारत के शासक वर्गों और उनकी राजनीतिक पार्टियों ने दूसरे वर्गों को पीछे ढकेलकर राजसत्ता पर अपना नियन्त्रण कायम किया और उस समय की अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय परिस्थितियों (भारत की विशिष्ट परिस्थितियाँ) के मुताबिक भारत में पूँजीवादी विकास का रास्ता चुना जिसे नेहरू के समाजवाद के नाम से जाना जाता है। यह समाजवाद और कुछ नहीं था, उस समय की परिस्थिति के अनुरूप पूँजीवादी विकास का ही एक रास्ता था।
देश के मुकम्मिल पूँजीवादी विकास के लिए दो महत्वपूर्ण शर्तें थीं। प्रथम, एक सम्पूर्ण और मुकम्मिल भूमि-सुधार। दूसरी, जनता का लोकतन्त्र। हालाँकि ये दोनों एक-दूसरे के पूरक थे और एक के बगैर दूसरा सम्भव नहीं था लेकिन मुकम्मिल भूमि-सुधार जनता के लोकतन्त्र के लिए पहली शर्त थी। जनता का लोकतन्त्र उसके बाद ही स्थापित हो सकता था।
इससे जो क्रान्तिकारी ऊर्जा निकलती वह भारतीय समाज के हजारों साल के अस्वस्थकर, अप्रीतिकर और प्रतिगामी दर्शन व जीवन मूल्यों को जलाकर खाक कर देती। तब एक नये लोकतन्त्र का उदय होता। लेकिन भारतीय शासक वर्ग ने ऐसा नहीं किया। ऐसा करने की इनकी मंशा भी नहीं थी।
संविधान सभा के निर्माण से यह जाना जा सकता है। राजा-महाराजाओं, पूँजीपतियों तथा उनके उच्च पदस्थ बुद्धिजीवियों और नौकरशाहों को लेकर जो संविधान सभा बनायी गयी। उसमें जनता की कोई भागीदारी नहीं थी। वह लोकतन्त्र की वाहक नहीं हो सकती थी।
भूमि-सुधार का काम भी विरोधी वर्गों से समझौता और समर्पण करते हुए आधा-अधूरा ही किया गया। ब्रिटेन के पूँजीवादी लोकतन्त्र की संस्थाओं को बिना कलम किये ही यहाँ रोप दिया गया। ब्रिटेन में ये संस्थाएँ क्रान्तिकारी काल में एक खास दौर की आवश्यकता से पैदा हुई थीं और उनकी एक सकारात्मक भूमिका भी रही थी। लेकिन 20वीं सदी के प्रारम्भ में ही वहाँ इन संस्थाओं की अप्रासंगिकता सिद्ध हो चुकी थी।
हमारे देश में ये अस्वस्थ और रुग्ण संस्थाएँ लोकतन्त्र की वाहक नहीं बल्कि उसमें बाधक बन गयीं। भारत के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे पर जिन भी संस्थाओं का निर्माण हुआ, चाहे वे कृषि में सुधार के लिए कायम की गयी नाना प्रकार की सहकारी संस्थाएँ (को-आपरेटिव) हों, राजनीतिक संस्थाएँ हों, विश्वविद्यालय और तकनीकी शिक्षा संस्थान हों, सांस्कृतिक संस्थाएँ हों या मूलाधार और अधिरचना की कोई अन्य संस्था- वे सभी स्वस्थ और मुकम्मिल पूँजीवादी विकास और लोकतन्त्र में बाधाएँ बनी रहीं।
ये संस्थाएँ थोड़े से लोगों-शासक वर्गों और उनके सामाजिक आधारों के निहित स्वार्थों की वाहक बन गयीं जो कुल आबादी में बमुश्किल 10-15% थे। जो भी विकास हुआ, वह 25-30% लोगों तक सिमटकर रह गया, उन्हीं को इसका फायदा मिला।
इस व्यवस्था में संकट के लक्षण 1952 से ही दिखाई देने लगे थे। 1958-59 आते-आते शासक वर्गों की योजनाओं की असफलता सामने आने लगी। ’60 के दशक के मध्य तक आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक-सामरिक सभी क्षेत्रों में चौतरफा संकट शुरू हो गया।
पुराने रास्ते पर चलते हुए इस संकट का समाधान नहीं हो सकता था। इसके लिए क्रान्तिकारी समाधान की जरूरत थी जो वे कर नहीं सकते थे।
भारत का यह शासक वर्ग और उसकी राजनीतिक पार्टियाँ क्रान्ति की कोख से नहीं पैदा हुए थे। वे अपने जन्म से ही कायर, रुग्ण, मानसिक विकलांगता के शिकार और क्षुद्र स्वार्थों से ग्रस्त थे। उन्होंने बेरहमी से जनता को लूटा-पाटा और रोम के कुलीनों की तरह भोग और विलासितापूर्ण जीवन बिताने लगे।
लेकिन 1985 तक आते-आते उनका विकास अवरुद्ध हो गया, उन्हें आगे जाने का कोई रास्ता नहीं सूझा, वे किंकर्त्तव्य विमूढ़ हो गए, उनका आत्मविश्वास जाता रहा और हाथ-पाँव पफूल गये- तब इसके समाधान के लिए बर्बरों को बुलाना ही इन्हें एकमात्र रास्ता लगा।
और बर्बर आये
दो शब्द इन बर्बरों के बारे में।
भारत की जनता के लिए आज के इन बर्बरों को जानना मुश्किल नहीं है क्योंकि यहाँ के लोग उनके पुरखों को अच्छी तरह जानते हैं।
अपने पुरखों की तुलना में बर्बर ज्यादा क्रूर, ज्यादा धूर्त, झूठ-छल और प्रपंच में ज्यादा होशियार और हर घृणित कार्रवाई में उनको मात देने वाले हैं।
इनके झण्डे पर लिखा हैः
‘‘सब कुछ लाभ के लिए, सब कुछ पूँजी की वृद्धि के लिए,
सब कुछ बाजार के लिए और सब कुछ बाजारमय।’’
इनका कोई धर्म नहीं, कोई ईमान नहीं, अपना कोई विवेक नहीं।
अपनी पूँजी बढ़ाने और मुनाफा कमाने के लिए क्रूरतम और जघन्यतम अपराधों को अन्जाम देने से भी वे कभी नहीं हिचकते। पिछले 400 सालों का तीसरी दुनिया के देशों का इतिहास इनके नृशंसतापूर्ण अपराधों के खून के छींटों से भरा पड़ा है।
इनमें से एक अपराधी वारेन एण्डरसन को हिन्दुस्तान अभी भूला नहीं है। भोपाल के आस-पास आज भी लोगों की चीख और आहें सुनायी देती हैं। उस अपराधी को भारत सरकार ने अपने विशेष विमान से दिल्ली बुलाकर अमरीका भेजा था। अमरीका से लेकर भारत तक समूची न्याय प्रणाली और प्रशासन ने उसकी मदद की थी।
इन साम्राज्यवादी बर्बरों को आये अभी थोड़े ही दिन हुए हैं कि नोएडा, ओखला, गुड़गाँव, कलिंग नगर और ऐसी बहुत सारी जगहों पर लोगों पर लाठी-गोलियाँ बरसायी जाने लगी हैं ताकि बर्बरों का मुनाफा बढ़ाया जा सके, उनकी पूँजी में वृद्धि की जा सके और उनके उच्छिष्ट भोजन से यहाँ के शासक वर्ग और उसके राजनीतिक रहनुमाओं का पेट भर सके।
वाशिंगटन, टोकियो, बोन, बर्लिन, लन्दन, पेरिस... सभी जगहों से आने वाले बर्बरों का एक ही उद्देश्य है- ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाओ, ज्यादा से ज्यादा लूटो, अपनी पूँजी बढ़ाओ। सबके झण्डे पर एक ही नारा है। हालाँकि कौन कितना लूटे इसको लेकर इनमें झगड़े जरूर हैं।
भारत का शासक वर्ग और उसकी राजनीतिक पार्टियाँ जनता को समझाती हैं- ये हमारे लिए सड़कें बनायेंगे, कारें बनायेंगे, कपड़ा-जूता-छाता, सब कुछ बनायेंगे, अच्छी पैकिंग में सुस्वादु और स्वास्थ्यकर खाना खिलायेंगे, हमें अच्छी दवाएँ देंगे, स्वच्छ हवा और साफ पानी पिलायेंगे।
अलग-अलग रंगों वाले राजनीतिक रहनुमा भारतीय जनता को यह समझाने में लगे हैं कि हम सड़कें नहीं बना सकते, कारखानों में उत्पादन नहीं कर सकते, यहाँ तक कि हम अपने पीने के लिए साफ पानी का भी इन्तजाम नहीं कर सकते। हम कुछ भी नहीं कर सकते। सब कुछ बर्बर ही करेंगे।
हमारे प्रधानमन्त्री ने ब्रिटेन में पी.एच.डी. की मानद उपाधि ग्रहण करते समय भाषण में कहा कि ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने हमें अच्छा शासन करना सिखाया, हम तो कुछ भी नहीं जानते थे। इसलिए ये कृतज्ञ राजनीतिक पार्टियाँ उनकी लूट, मुनापफे और पूँजी की वृद्धि को अबाध जारी रखने के लिए उनके सिखाये गये तरीके से भारतीय जनता पर शासन करेंगी।
शासक वर्गों की राजनीतिक पार्टियों के छोटे-बड़े नेता, उनके अखबार, इलेक्ट्रानिक प्रचार माध्यम, उनके समूचे कार्यक्रम बर्बरों की प्रशंसा में गीत गाते रहते हैं, लोरी सुनाते रहते हैं ताकि भारतीय जनता उनको चुपचाप स्वीकार कर ले।
उनका कहना है कि ये बर्बर जितना भारतीय जनता का शोषण करेंगे, जितना ज्यादा हमें लूटेंगे, उतना ही देश तरक्की करेगा। हमें सिर झुकाकर उनकी गुलामी स्वीकार कर लेनी चाहिए, उन्हें लूटने देना चाहिए और ऐसा कोई भी काम नहीं करना चाहिए जिससे वे यहाँ से जाने के बारे में सोचें, वरना हम क्या करेंगे?
तरह-तरह के सि(ान्तों की रचना की जा रही है, नयी मनु-स्मृत्तियाँ गढ़ी जा रही हैं, सोने और चाँदी के वर्क लगाकर उन्हें जनता के सामने परोसा जा रहा है। लेकिन जीवन उतना सीधा और सपाट नहीं होता, जीवन की गति बहुत ही विचित्र और विडम्बनापूर्ण होती है।
विख्यात जर्मन कवि गेटे के प्रसिद्ध काव्य नाटक फाउस्ट में एक चरित्र मेफिस्टोफिलिस कहता हैः
‘‘मेरे मित्र सिद्धान्त भूरा और बदरंग होता है जबकि सदाबहार है जीवन का चिरन्तन वृक्ष।’’
भारत के लोगों को उपनिवेशवाद का 300 सालों का त्रासद अनुभव है, 1990 से 2006 तक नये आर्थिक उपनिवेशवाद का 15 सालों का अनुभव भी उनके पास है।
असली या नकली कोई भी सिद्धान्त अगर जीवन के यथार्थ से टकराते हैं तो जिन्दगी उन्हें कूड़ेदान में डाल देती है।
भारत की जनता भी यही करेगी।
-देश-विदेश-१
-देश-विदेश-१
nice
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