बुधवार, 17 अक्टूबर 2018

बहनो, अपने सम्मान के लिए, अपनी आजादी के लिए और अपनी जिंदगी के लिए संगठित हो !!!

हम सभी बिहार के मुजफ्फरपुर की ‘बालिका गृह’ की घटना के बारे में जानते हैं। पूरे समाज को शर्मसार कर देनेवाली इस घटना ने हम सभी को सोचने पर मजबूर कर दिया कि हम कैसे समाज में रहते हैं? आज हमारा समाज कितना सड़-गल गया है। महिलाओं के ऊपर हो रहे अत्याचार से अखबार पटे हुए हैं। भारत महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देशों में पहले पायदान पर पहुँच गया है। दहेज़ हत्या, ऑनर किलिंग, भ्रूण-हत्या, छेड़छाड़ और बलात्कार की अनेकों दुखद घटनाएँ हमारे चारों तरफ घट रही हैं। हम महिलायें इन घुटनभरी खतरनाक स्थितियों में जिंदगी जीने को मजबूर हैं। हालत इतनी बिगड़ चुकी है कि छोटी-छोटी बच्चियों को भी यौन हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है।

इसी साल, अगस्त के महीने में एक ऐसा ही रोंगटे खड़े कर देनेवाला वाकया सामने आया। सरकारी धन से चलाये जा रहे मुजफ्फरपुर के ‘बालिका गृह’ में 34 नाबालिग बच्चियों से बलात्कार किया गया। बिहार सरकार की नाक के नीचे बच्चियों के ऊपर हिंसा, तरह-तरह की यातना और बलात्कार के मामले सालों से जारी थे। यह मामला तब खुलकर सामने आया, जब समाज कल्याण विभाग के प्रधान सचिव ने ‘टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस’ को बिहार के करीब 100 बाल और बालिका गृहों का सामाजिक ऑडिट करने का निर्देश दिया। जब इन बच्चियों का बयान पॉक्सो कोर्ट के मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज किया गया तो इन बच्चियों की आप बीती सुन पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गयी। बच्चियों ने बताया कि उन्हें रोज पीटा जाता था, नशीली दवाइयाँ दी जाती थीं और उनसे बलात्कार किया जाता था।
इस बालिका गृह को चलानेवाले एनजीओ के मालिक ब्रजेश ठाकुर को ‘हंटरवाला अंकल’ कहा जाता था। वह जब कमरे में आता था तो बच्चियाँ डर के मारे सहम जाती थीं। इस घिनौने काम में ब्रजेश ठाकुर के साथ वहाँ की महिला कर्मचारी भी शामिल थीं। उन्होंने भी चंद खनकते सिक्कों की लालच में अपनी आत्माएँ शैतान के हाथ गिरवी रख दी थीं। वे रोज रात बच्चियों को तैयार कर बाहर भेजती थीं और सुबह फिर उन्हें वापस बुला लेती थीं। इसमें शामिल बच्चियों की उम्र 7 से 15 वर्ष के बीच है। कुछ बच्चियों का गर्भपात भी बालिका गृह के एक कमरे में कराया गया था। 2013 में इसी बालिका गृह से 6 बच्चियाँ गायब हो गयी थीं। अक्टूबर 2018 में सीबीआई की देख-रेख में जब पास के श्मसान की खुदाई कराई गयी तो मौके पर हाथ-पैर की हड्डियाँ और खोपड़ी मिली।
इस पूरे मामले में ब्रजेश ठाकुर अकेला गुनहगार नहीं था, बल्कि सरकार में ऊपर से नीचे तक के लोग इसमें शामिल थे, यहाँ तक कि सरकार के बड़े नुमाइंदे भी इसमें लिप्त थे, जिन्हें बचा लिया गया। यानी अपराधी, प्रशासन और नेताओं की गन्दी सांठ-गांठ थी। सरकार खुद इस मामले में लीपापोती कर रही है और जांच को बंद कराने का दबाव बना रही है। यह वही सरकार और प्रशासन है जिनसे जनता को न्याय की उम्मीद होती है। जब रक्षक ही भक्षक बन गए हैं तो वे जनता की रक्षा क्या करेंगे? ऐसी ही घटनाएँ उत्तर प्रदेश के देवरिया, हरदोई, नोएडा और प्रतापगढ़ इलाके के बालिका गृहों से भी सामने आयी हैं। देवरिया के बालिका गृह से 18 बच्चियाँ लापता हैं। इन सभी मामलों में प्रशासन और सरकार में अपनी पहुँच के चलते आरोपी या अपराधी आसानी से जेल की सलाखों से बच गये।
मुजफ्फरपुर की घटना को बीते अधिक दिन नहीं हुए थे कि बिहार के ही सुपौल जिले के एक गाँव के ही युवाओं ने 34 नाबालिग लड़कियों को पीटा। उन्हें तब पीटा गया जब वे अपने साथ हो रहे छेड़छाड़ का विरोध कर रही थीं। यह घटना साफ़ दिखाती है कि पुरुषों की नौजवान पीढ़ी किस तरह अपने रास्ते से भटक गयी है और अनैतिकता के गड्ढे में गिर गयी है। जिन नौजवानों के ऊपर देश और समाज को आगे बढाने की जिम्मेदारी है, वही ऐसी ओछी हरकत कर रहे हैं। ऐसे लम्पट लड़के राह चलती किसी महिला को अपने छेड़छाड़ का शिकार बनाते हैं। दरअसल, शिक्षा और व्यवस्था के पतन के चलते समाज में ऐसे लम्पटों की भरमार हो गयी है।
आगरा के नारी संरक्षण गृह की पूर्व अधीक्षिका ‘गीता राकेश’ को बालिका गृह में गलत काम करने के उम्रकैद की सजा हो चुकी है। वह मानव तस्करी, देह व्यापार, अपहरण, आपराधिक साजिश और लैंगिक अपराध में लिप्त थी। कई अन्य मामलों में अपराधियों को सजायें हो चुकी हैं लेकिन क़ानून का डर भी अपराधियों के हौसले पस्त करने में नाकाम रहा है। इससे यह बात साफ हो जाती है कि कठोर क़ानून इन सभी समस्याओं को जड़ से मिटाने में नाकाफी है। समाज के रग-रग में घुस चुकी महिला विरोधी सोच ही इन सबके लिए जिम्मेदार है। हमें लोगों की सोच बदलनी होगी।

हम जिस घिनौने समाज में रहते हैं, उसमें हम महिलाओं को ‘उपभोग की वस्तु’ माना जाता है। हमें हर तरह के अधिकार से वंचित रखा जाता है। परिवार में, समाज में और नौकरी करते समय हम कहीं भी सिर उठाकर जी नहीं सकतीं। यह सड़ता हुआ समाज हमारे अरमानों का कातिल है। इसलिए महिलाओं को सम्मानजनक जिन्दगी तभी मिल सकती है जब इस समाज में आमूल-चूल बदलाव हो यानी जड़ से लेकर सिर तक पूरे का पूरा समाज बदलने की जरूरत है। यह काम महिलाओं को ही करना है। कोई अवतार नहीं होने वाला। कोई और हमारी लड़ाई नहीं लड़ेगा। हमें खुद आगे बढ़कर संघर्ष के परचम को थामना होगा। हमें संगठन बनाना होगा। बिना संगठन के हम असहाय और कमजोर बनी रहेंगी। बहनो, अपने सम्मान के लिए, अपनी आजादी के लिए और अपनी जिंदगी के लिए, आओ संगठित हो जायें।
तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन

तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था।

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

शहीद–ए–आजम भगत सिंह की 111वीं जयन्ती पर

इन्कलाब जिंदाबाद                                                                                            साम्राज्यवाद मुर्दाबाद! 
अमर शहीदों का पैगाम                                                                                     जारी रखना है संग्राम!! 

साथियो,

शहीदआजम भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को हुआ था जब हमारा देश अंग्रेजों का गुलाम था। गुलामी के दौर में अपने हकहकूक और आजादी की बात करने वालों को देशद्रोही और आतंकवादी कहा जाता था। भगत सिंह बचपन से ही आजादी की भावना से ओतप्रोत थे और आजादी की लड़ाई के सच्चे सिपाही थे। इसलिए भगत सिंह न केवल गोरी सरकार से आजादी चाहते थे बल्कि लूटशोषण, छूआछूत, साम्प्रदायिक दंगों और बेरोजगारीगरीबी से भी आजादी चाहते थे। वह बहुत ही दूरद्रष्टा थे। उनके पास देश को आजाद कराने का सही रास्ता और तरीका था। उन्होंने कहा था कि क्रान्ति सिर्फ बम और पिस्तौल से नहीं आती, क्रान्ति की तलवार हमेशा विचारों की शान पर तेज होती है।उनका सपना एक ऐसे समाज का सपना था जिसके नागरिक तार्किक हों, वैज्ञानिक हों, अन्धविश्वासी न हों, जातिधर्म से ऊपर हों, जिनमें सच्ची एकता और भाईचारा हो, वर्गीय चेतना हो तभी सच्ची आजादी कायम हो पायेगी। इसी सपने को पूरा करने के लिए शहीदआजम भगत सिंह और उनके साथियों ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। लेकिन क्या उनका यह सपना आजादी के 71 साल बाद भी पूरा हुआ ? दुर्भाग्यवश देश की मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए इस सवाल का जवाब हमें नहीं में ही मिलेगा।

आजादी के बाद सरकार ने जनता को मूलभूत सुविधाएँ देने का वायदा किया था–– रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और चिकित्सा। लेकिन हमारे देश के शासक अपने इस वायदे से मुकर गये। आज शिक्षा देने के काम को मुनाफाखोर निजी शिक्षणसंस्थानों के भरोसे छोड़ दिया गया है। निजी स्कूलोंकॉलेजों की हालत यह है कि देश की 70 फीसदी आबादी के बच्चे प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक की भारी फीस नहीं चुका सकते। आज शिक्षा का बाजारीकरण करके इसे खरीदफरोख्त की वस्तु बना दिया गया है। बाजार में आये दिन शिक्षा बेचने वालों की दुकानें खुल रही हैं। जिसके पास जितने रुपये हों वह वैसी ही शिक्षा खरीद सकता है। ऐसी बिकाऊ शिक्षा हमारे समाज में संवेदनशीलता और मानवीय गुण पैदा करने में असफल है। फीसें इतनी महँगी हैं कि वह गरीब जनता की क्षमता से बाहर है। शिक्षा के निजीकरण से यह तय हो गया है कि गरीब किसानमजदूरों के बच्चे कभी भी डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक नहीं बन सकते। मेरठ के एक प्राइवेट मेडीकल कॉलेज में एमबीबीएस कोर्स में एक साल की फीस लगभग 32 लाख रुपये है, इसका मतलब पूरे पाँच साल के कोर्स की फीस 1 करोड़ 60 लाख रुपये है। आज देशभर में महँगी फीस के चलते छात्र आत्महत्या कर रहे हैं। इण्डिया स्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार 2015 में देश भर में 8,934 छात्रों ने आत्महत्याएँ कीं।

महँगी फीस के बावजूद नौजवान जैसेतैसे शिक्षा हासिल कर भी लें तो उन्हें आज कोई सम्मानजनक रोजगार की गारंटी नहीं है। आज बेरोजगारी इस हद तक पहुँच चुकी है कि हाल ही में उत्तर प्रदेश में चपरासी की 62 पदों के लिए, जिसकी योग्यता सिर्फ 5वीं पास है, 93,000 आवेदन आये। जिसमें 3700 पीएचडी, 28,000 पोस्ट ग्रेजुएट, 50,000 ग्रेजुएट हैं। इस एक उदाहरण से हम अंदाजा लगा सकते हैं कि देश में रोजगार की क्या स्थिति है ? योग्यता के जो भी मापदण्ड दिये जाते हैं उससे ज्यादा योग्यता वाले हजारोंलाखों की संख्या में नौजवान आवेदन करते हैं। फिर भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का कहना है कि उत्तर प्रदेश में सरकारी नौकरियों की कमी नहीं है, बल्कि योग्य नौजवानों की कमी है। यह बयान नौजवानों की योग्यता का अपमान है। अगर 5वीं पास योग्यता के लिए पीएचडी, एमटेक, एमए, बीटेक, बीएससी जैसी योग्यता वाले नौजवानों को भी योग्य नहीं समझा जाता तो यह सरकार की काबलियत पर ही सवालियानिशान है ?

दूसरी तरफ रोजगार न मिलने के लिए खुद नौजवानों को ही जिम्मेदार बताया जा रहा है। जिससे कि नौजवानों के आत्मविश्वास और मनोबल को तोड़ा जा सके ताकि नौजवान कभी भी सरकार पर सवाल न उठा सकें। जबकि देश में ऐसा कोई भी सरकारी विभाग नहीं जहाँ हजारोंलाखों की संख्या में पद खाली न हों। फिर भी हर जगह ठेका भर्ती की जा रही है। सवाल यह है कि स्थायी भर्ती क्यों नहीं है ? अगर सरकार कोई स्थायी भर्ती निकालती भी है तो पेपर लीक, भर्ती में धाँधली के नाम पर उसे रद्द कर दिया जाता है या भर्ती पर कोर्ट का स्टे आ जाता है। जैसे हाल ही में एसएससी में भ्रष्टाचार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भर्ती पर स्टे लगा दिया है। अगर कोई भर्ती पूरी हो भी जाती है तो नौजवानों को नियुक्तियाँ देने के बजाय सरकार उन पर लाठीचार्ज करवाती है, जैसे हाल ही में लखनऊ में अपनी नियुक्तियों के लिए आन्दोलन कर रहे शिक्षकों पर लाठीचार्ज किया।

गुलाम भारत में जब जनता अपने हकों की माँग करती थी, तब अंग्रेज सरकार भी ऐसे ही लाठीगोली चलवाती थी। तो क्या उस गोरी सरकार और आज की काली सरकार में कोई अन्तर है ? आज की सरकार भी अंग्रेजों की तरह जनविरोधी कार्य कर रही है। क्या ऐसी सरकार को हम जनता की सरकार कह सकते हैं ?

आज देश में छात्रनौजवानों की तरह किसानों की हालत भी बदसेबदतर होती जा रही है। जिस तरह अंग्रेज सरकार किसानों की फसल औनेपौने दामों में खरीदती थी, प्राकृतिक आपदा आने पर किसी तरह की कोई राहत देने के बजाय उलटा किसानों से और ज्यादा टैक्स वसूलती थी। आज एक तरफ बिजली, डीजल, खादबीज, डाईयूरिया और कीटनाशक दवाइयों के महँगे होने के चलते लागत लगातार बढ़ती जा रही है। वहीं फसलों के तैयार होने के बाद उनका वाजिब दाम न मिलने के चलते लाखों किसान कर्ज के जाल में फँसकर आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। आज कोई भी राज्य किसानों की आत्महत्याओं से अछूता नहीं है। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी ने अपने भाषण में गन्ना किसानों को, गन्ना न बोने की और अन्य फसलें जैसे सागसब्जियाँ बोने की नसीहत दी और कहा कि गन्ना उगाने से शुगर की बीमारी फैलती है, जबकि केन्द्र सरकार ने मई 2018 तक पाकिस्तान से 19,080 क्विंटल चीनी खरीदी है। क्या पाकिस्तान की चीनी से शुगर की बीमारी नहीं होती ? हकीकत यह है कि केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों का चीनी मिलों पर 10 हजार करोड़ रुपये का भुगतान बकाया है। दूसरी तरफ सब्जियाँ उगाने वाले किसानों की स्थिति यह है कि महाराष्ट्र में किसानों के टमाटर का मंडी भाव 1 रुपया/किलो से भी कम है। यानी उनकी उपज की लागत निकलना तो दूर उन्हें खेत से मंडी तक का भाड़ा भी नहीं मिल पा रहा है।

देश में खेतीकिसानी की हकीकत यह है कि ऐसी कोई फसल नहीं है जिसे बोने वाले किसान आत्महत्या न कर रहे हों और यह सिलसिला थमने के बजाय लगातार बढ़ता ही जा रहा है। किसानों की इतनी दुर्दशा के बावजूद सरकार द्वारा किसानों को बिना बताये फसल बीमा के नाम पर उनके खातों से पैसा काट लेना, आपदा आने पर मुआवजा न देना, कर्जमाफी के नाम पर उलटा किसानों को लूट लेना, इस लूट के खिलाफ आंदोलन करने वाले किसानों का दमन करना जिसका ताजा उदाहरण मध्य प्रदेश के मंदसौर के किसानों का है जिसमें 6 किसानों की पुलिस द्वारा गोली मारकर हत्या की गयी और सैंकड़ों किसानों को घायल किया गया, इस तथाकथित देशभक्त काली सरकार का असली रूप यही है।

सरकार की जिन नीतियों के चलते छात्रनौजवान, किसान तबाह और बर्बाद हैं, उन्हीं नीतियों के चलते देश में मजदूर भी बदहाल हैं। खेत मजदूर, भट्टा मजदूर या गरीब किसानों के बेटे काम न मिलने के चलते गाँव से उजड़ कर शहरों में जाने को मजबूर हैं। जबकि दूसरी तरफ इन्हीं दमनकारी नीतियों के चलते शहरों में मजदूरों की छँटनी की जा रही है या उनसे कम से कम वेतन पर ज्यादा से ज्यादा समय तक काम लिया जाता है। पूँजीपतियों के मुनाफे को सुरक्षित करने के लिए ऐसे कानून बनाये जा रहे हैं जिनके चलते सैंकड़ों मजदूरों को एकसाथ फैक्ट्री से बाहर किया जा सके।

ऐसी स्थिति में भगत सिंह ने छात्रनौजवान, मजदूर और किसानों को साफ सन्देश देते हुए कहा था कि गरीब मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म, या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी।

साथियों, हमें शहीदआजम भगत सिंह के विचारों से प्रेरणा लेते हुए संकल्पबद्ध होकर ऐसे समाज के निर्माण में लगना होगा जिसका मकसद मुनाफा न होकर मानवता होगा। तभी सच्चे अर्थों में आजादी आयेगी, तभी भगत सिंह के अधूरे सपने को पूरा किया जायेगा। हम सभी जिन्दादिल लोगों से आह्वान करते हैं कि वे गोष्ठी में ज्यादा से ज्यादा संख्या में पहुँचे और महान क्रान्तिकारी भगत सिंह के विचारों के हमराही बनें।    

इन्कलाब जिन्दाबाद!

मंगलवार, 24 जुलाई 2018

देश विदेश-28


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इस अंक के महत्त्वपूर्ण लेख निम्नलिखित हैं--
1. कठुआ उन्नाव बलात्कार काण्ड: ये कहाँ आ गये-- सम्पादकीय
2. भारत में गहराता आर्थिक संकट-- अनुराग
3. पीएनबी बैंक घोटाला-- मुकेश त्यागी
4. करोडपति कैसे होते हैं-- मक्सिम गोर्की
5. शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण और बेरोजगारी-- राजेश कुमार
6. एससी/एसती एक्ट : क्या इमानदारी से जांच सम्भव है-- संतोष कुमार
7. स्टीफ़न होकिंग का जाना-- कविन्द्र कबीर
8. नेपाल की नयी सरकार का भारत से सम्बन्ध-- आनन्द स्वरूप वर्मा
9. विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता या निजीकरण-- राजकमल
10. कोयला आवंटन घोटाला जारी है-- अमरपाल
11. राहुल सांकृत्यायन की 125 वर्षगाँठ पर-- कर्ण सिंह चौहान

देश विदेश-27

शनिवार, 26 मई 2018

पश्चिम एशिया में निर्णायक मोड़

--राकेश सूद
अरब स्प्रिंग के बाद, आंतरिक और बाह्य क्षेत्रों में नए काले बादलों ने पश्चिमी एशिया के लम्बे फिलिस्तीनी-इज़राइली संघर्ष को ढंक लिया है। इराक से शुरू हुए, इस्लामी राज्य और उसकी उपशाखाओं के खिलाफ लड़ाई; सीरिया संघर्ष जो अमरीका, रूस, ईरान और तुर्की के बीच चल रहा है; गोलान हाइट्स में इज़राइल और ईरान के बीच ताजा मुठभेड़ और यमन में गृह युद्ध जहां सऊदी अरब और ईरान की भागीदारी ने पुराने क्षेत्रीय दोषपूर्ण सीमारेखा को उजागर करते हुए तनाव बढ़ाया है। व्यापक संघर्ष की तेज होती हुई दुदुम्भी प्रथम विश्व युद्ध के बाद खींची गई सीमाओं को पलटने का खतरा पैदा कर सकती है।
अमरीका की वापसी
इस अस्थिर परिस्थिति में, 8 मई को नई अनिश्चिततायें जुड़ गयीं जब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने घोषणा की कि अमरीका जॉइंट कॉम्प्रेहेंसिव प्लान ऑफ़ एक्शन (जेसीपीओए) से बाहर निकल रहा है। ईरानी विदेश मंत्री जावेद जारिफ के बीजिंग, मॉस्को और ब्रसेल्स का दौरा करने के बाद राजनयिक गतिविधि में हलचल मच गयी। ब्रसेल्स में, वह ई -3 (फ्रांस, जर्मनी और यूके) के विदेश मंत्रियों और यूरोपीय संघ (ईयू) के उच्च प्रतिनिधि फेडेरिया मोगिरीनी से मिले, वह इस सम्भाव्ना का पता लगाने के लिए मिले कि समझौते को कैसे बचाया जा सकता है। इसके बाद मई में सोफिया में एक शिखर सम्मेलन हुआ जहां यूरोपीय संघ के नेताओं ने यूरोपीय आयोग को निर्देश दिया कि वह अवरोधक अधिनियम (ब्लॉकिंग स्टेच्युट) को लागू करे जो यूरोपीय कंपनियों को अमरीकी प्रतिबंधों के अतिरिक्त-क्षेत्रीय प्रभावों का पालन करने से रोकता है। इसने यूरोपीय निवेश बैंक से एक विशेष प्रयोजन साधन को स्थापित करने की सिफारिश की जो ईरान में यूरोपीय कंपनियों के निवेश की रक्षा करे
     1996 में संकलित, अवरोधक अधिनियम अमरीका के उस कानून के विरोध में लाया गया था जो क्यूबा से जुड़ी कंपनियों पर अतिरिक्त क्षेत्रीय प्रतिबंध लगाता था। इसने यूरोपीय संघ को यह अधिकार दिया कि वह यूरोप में अमरीकी कंपनियों की उतनी संपत्तियों को जब्त कर ले जितनी यूरोपीय कंपनियों पर जुर्माने के बराबर लगायी जाती हैं। आखिरकार, छूट का प्रस्ताव देकर गतिरोध का समाधान किया गया। अंतर यह है कि 1996 में, क्लिंटन प्रशासन यूरोपीय संघ की अवस्थिति के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाता था लेकिन 2018 में, अमरीकी कांग्रेस की तुलना में ट्रम्प प्रशासन कडा रुख अपनाने के लिए तैयार बैठा है!
21 मई को हेरिटेज फाउंडेशन में अमरीकी विदेश मंत्री माइक पोम्पे के भाषण से यह स्पष्ट है जिसमें यूरेनियम संवर्द्धन का स्थायी खात्मा, निरीक्षकों के लिए बेरोकटोक आवाजाही, मिसाइल प्रसार का खात्मा, हिज़बुल्लाह, हमास, हुथी विद्रोहियों (यमन), शिया मिलिशिया (इराक) तथा तालिबान और सीरिया से पूरी वापसी का समर्थन समाप्त करने सहित ईरान के लिए एक दर्जन शर्तों का खुलासा किया गया। यह कोई प्लान बी नहीं है बल्कि एक चेतावनी है, जिसमें संवाद या कूटनीति के लिए कोई जगह नहीं है।
ईरान समझौते का तर्क
इसके अलावा, यह न केवल ईरान बल्कि अपने यूरोपीय साझीदारों के लिए भी लोहे का दस्ताना है। कई यूरोपीय लोगों ने ईरान के मिसाइल प्रसार और परीक्षण पर रोक तथा जेसीपीओए द्वारा निर्धारित 15 साल के समय सीमा से परे परमाणु संवर्द्धन प्रतिबंधों को बढ़ाने के लिए एक रास्ता निकालने का समर्थन किया है। हालांकि, दूर हटने के बजाए ईरान द्वारा अपने दायित्वों का पूरा पालन करने की स्थिति में, ई-3 और यूरोपीय संघ जेसीपीओए को संरक्षित करना और उस पर आगे बढना चाहते हैं। दूसरी तरफ, ट्रम्प प्रशासन जेसीपीओए समझौते को टुकड़े-टुकड़े करना चाहता है और मजबूत प्रतिबंधों के दबाव में एक नए सौदे पर बातचीत के लिए ईरान को झुकाना चाहता है।
जेसीपीओए की ताकीद ओबामा प्रशासन के इस एहसास के साथ आया था कि 200 9 में स्टक्सनेट हमले के चलते मंदी के बाद ईरान ने अपने यूरेनियम संवर्द्धन कार्यक्रम को सफलतापूर्वक बढ़ा दिया था। नवंबर 2013 तक जब बातचीत शुरू हुई और ईरान अपने कार्यक्रम को रोकने पर सहमत हो गया, वह इस स्थिति में आ गया था कि तीन महीनों के भीतर एक परमाणु बम बनाने के लिए पर्याप्त समृद्ध यूरेनियम (25 किलो) का उत्पादन कर सके।
लीबिया, इराक और अफगानिस्तान के बाद, गतिशील विकल्प तालिका से बाहर हो गये थे और शासन परिवर्तन की अब कोई भूख नहीं रह गयी थी। अरब स्प्रिंग के बाद, बराक ओबामा ने महसूस किया कि अमरीका की पश्चिमी एशिया के नियन्त्रण की दोहरी नीति ने इजरायल और सऊदी हितों की सेवा की लेकिन इस क्षेत्र में अमरीकी विकल्पों को प्रतिबंधित कर दिया। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि जेसीपीओए अपने कड़े सत्यापन प्रावधानों के साथ ईरान के परमाणु कार्यक्रम को धीमा कर देगा, 15 वर्षों तक इसे रोक देगा, प्रतिबंधों के साथ राष्ट्रपति हसन रूहानी के नेतृत्व में ईरान के मध्यम तत्वों को मजबूत करेगा और इसके परिणामस्वरूप अमरीकी राजनयिक विकल्पों में वृद्धि होगी।
ट्रम्प प्रशासन में, रक्षा सचिव जिम मैटिस, जॉइंट चीफ ऑफ स्टाफ के अध्यक्ष जोसेफ डनफोर्ड, राज्य के पूर्व सचिव रेक्स टिलरसन और पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एचआर मैकमास्टर ने जेसीपीओए को बनाए रखने के लिए दबाव डाला था लेकिन प्रशासन में सचिव पोम्पे और वर्तमान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन को शामिल करने के साथ, अमरीकी दृष्टिकोण में बदलाव स्पष्ट है।
स्वीकृति का गठबंधन
श्री पोम्पेयो का भाषण 1979 की ईरानी क्रांति की उपलब्धियों पर सवाल उठाता है और यह शासन परिवर्तन के लिए मुश्किल से छिपा हुआ सुझाव है। उनका भाषण अगस्त 2002 में तत्कालीन अमरीकी उपराष्ट्रपति डिक चेनी के भाषण की याद दिलाता है जब उन्होंने इराक के खिलाफ पूर्व-निर्णायक हमले की योजना बनायी क्योंकि सद्दाम हुसैन आतंकवाद का एक प्रमुख प्रायोजक था, उसने अपने परमाणु कार्यक्रम के बारे में झूठ बोला और धोखा दिया था, अपनी जनता का उत्पीडन किया था जो गरिमा और स्वतंत्रता के जीवन के लायक थे और क्षेत्रीय प्रभुत्व की तलाश में गुंडों की तरह व्यवहार कर रहे थे। अगले वर्ष मार्च में, अमरीका ने इराक पर हमला किया। (नोट: अमरीका ने ईराक पर हमले के लिए इन आरोपों को बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया था। आज पूरी दुनिया जानती है कि सद्दाम हुसैन की सरकार के ऊपर अमरीका द्वारा लगाये गये ये आरोप झूठें थे।—अनुवादक)
उस समय सऊदी अरब और इज़राइल ने चेनी के भाषण की सराहना की थी और आज इन्होंने ट्रम्प के जेसीपीओए को खत्म करने के फैसले का समर्थन किया। दोनों देशों के लिए, दोहरे नियंत्रण (ईरान और इराक) की अमरीकी नीति एक सुरक्षा बोनस थी। उन्होंने ईरान के अलगाव को खत्म करने की दिशा में जेसीपीओए को उठाया कदम समझा और इजरायल के प्रधान मंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और सऊदी के शाही राजकुमार मोहम्मद बिन सलमान श्री ट्रम्प के वास्तविक प्रशंसक हैं।
2015 से, सऊदी अरब यमन में एक महंगे दुस्साहसिक काम में लगा हुआ है जो ईरान के साथ तनाव बढ़ाने वाला है। ईरान ने सीरिया में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है, उसने सीरियाई सेना के सहयोग के लिए शिया मिलिशिया और इस्लामी क्रांतिकारी गार्ड कोर के सलाहकारों को वहां भेजा है, जिससे इजरायल के साथ तनाव बढ़ रहे हैं। इससे पहले, इज़राइली सेनाएं सीरिया में हथियारों के उन अड्डों या काफिले पर हमला करेंगी जो हिज़बुल्ला को मजबूत करने के उद्देश्य के लिए हैं। फरवरी से, गोलन हाइट्स के करीब बुनियादी ढांचे का निर्माण करने के ईरानी प्रयासों को निशाना बनाने में तेजी आयी है। अमरीका के जेसीपीओए से हटने के फैसले की घोषणा के बाद, ईरान ने गोलान हाइट्स पर रॉकेट बैराज के साथ प्रतिशोध किया जिसके परिणामस्वरूप इजरायल ने भारी प्रतिक्रिया करते हुए सीरिया के अंदर 70 से अधिक ईरानी लक्ष्यों को निशाना बनाया।
एक निर्णायक बिंदु
अब तक ईरान की प्रतिक्रिया उदारवादी रही है लेकिन श्री रूहानी के पास घुसपैठ के लिए बहुत कम जगह है क्योंकि ईरान में इस समझौते के आलोचक कट्टरपंथी तत्व जमीन हासिल कर रहे हैं। वह यह देखने का इंतजार कर रहा है कि रूस और चीन के साथ यूरोपीय संघ, जेसीपीओए को बचा सकता है जिसने 2015 में तेल निर्यात को 10 लाख बैरल से बढ़कर 26 लाख कर दिया है और तेल अन्वेषण, विमानन इत्यादि जैसे क्षेत्रों में पश्चिमी वस्तुओं और प्रौद्योगिकियों को पहुंचने की अनुमति दी है। ईरानी अधिकारियों के एक संबोधन में, सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह खमेनी ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि ई-3 के लिए ईरान के मिसाइल परीक्षण और क्षेत्रीय व्यवहार की आलोचना को रोकने और ठोस आर्थिक गारंटी को सुनिश्चित करने लिए ई-3, रूस और चीन यूएन सुरक्षा परिषद में इस मामले को उठायेंगे।
हालांकि, संकेत आशाजनक नहीं हैं क्योंकि बड़ी यूरोपीय कंपनियां अमरीकी प्रतिबंधों को बर्दाश्त नहीं कर सकती हैं; टोटल एंड एयरबस पहले से ही अपने कई अरब डॉलर सौदों से बाहर खींच रहे हैं। ईरान जेसीपीओए की हत्या का आरोप अपने ऊपर नहीं लेना चाहता है लेकिन जल्द ही इसे तय करने की आवश्यकता होगी कि यह उसके गहन निरीक्षण की पद्धति का पालन कब तक जारी रखेगा। इस इलाके में जिस दिन वह इज़राइल और सऊदी अरब की ओर अपनी प्रतिक्रियाओं की चेतावनी देगा, तो यह बड़े बदलावों की शुरुआत हो सकता है। जैसा कि जेसीपीओए के बढ़ते सत्यापन प्रावधानों के बिना, ईरान द्वारा परमाणु अप्रसार संधि के पूर्ण अनुपालन को सत्यापित करना अधिक कठिन है, लेकिन जब ईरान जेसीपीओए का पूरी तरह पालन कर रहा है तो ईरान के ऊपर हमले को उचित ठहराना मुश्किल है। अमरीकी निर्णय संतुलन को बिगाड़ सकता है।
 राकेश सूद एक पूर्व राजनयिक और वर्तमान में आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में प्रतिष्ठित अध्येता हैं। E-mail: rakeshsood2001@yahoo.com
(द हिन्दू से साभार)
अनुवाद-- विक्रम प्रताप