शनिवार, 30 अप्रैल 2016

मजदूर एकता जिन्दाबाद

दुनिया भर के मेहनतकशों के लिए 1 मई यानी मजदूर दिवस उनकी जीत का दिन है. उनके लिए एक त्यौहार जैसा है। यह हमें अमरीका के उस आन्दोलन की याद दिलाता है, जिसमें मजदूर वर्ग ने कई सालों के अपने जुझारू संघर्षों की जीत के रूप में आठ घंटे का कार्यदिवस हासिल किया था। आज संवैधानिक तौर पर आठ घंटे का कार्यदिवस पूरी दुनिया में लागू है. लेकिन आज यह किसी सपने की बात लगती है क्योंकि धीरे-धीरे मजदूर आन्दोलन की इन उपलब्धियों को छीन लिया गया है। अब मजदूरों को आठ घंटे से अधिक समय तक जबरन काम कराया जाता है, कई तीन-तिकड़म और साजिश करके उनके वेतन में कटौती की जाती है और विरोध करने पर नौकरी से निकाल दिया जाता है. बढ़ती बेरोजगारी और मजदूरों में फूटपरस्ती का फायदा उठाते हुए पूँजीपतियों ने मजदूर वर्ग पर चौतरफा हमला कर दिया है। आज मजदूरों का शोषण-उत्पीडन अपने चरम पर है। सबसे दुखद बात है कि आज मजदूर वर्ग इतिहास के अपने संघर्षों और उनकी उपलब्धियों को भूल चुका है. वह आत्म विस्मृति के भंवर में फंस चुका है. इस भंवर से निकलने का उसे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है.
मजदूर वर्ग की दशा और उनके बच्चों की हालत देखकर मन दुःख से भर जाता है. कई जगहों पर उन्हें सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक खटाने के बाद भी गृहस्थी चलाने के लिए पूरा वेतन नहीं दिया जाता है। इतने घण्टे काम करने के बावजूद उनकी सामाजिक स्थिति खराब बनी हुई है। मनोरंजन, कहानी, कविताएँ, सिनेमा और पार्क में अपने बच्चों के साथ समय बिताना उनके लिए किसी दूसरी दुनिया की बात लगती है। दूसरी तरफ उनके ठेकेदार या फैक्ट्रियों के मालिक दिनों-दिन मालामाल होते जा रहे हैं। संत-बाबा और पुजारी उनके मेहनत की कमाई पर अपनी गिद्ध दृष्टि टिकाये रहते हैं. मजदूरों को सच्चाई न बताकर उन्हें भरमाया जा रहा है. उनकी खराब हालत के लिए ईश्वर, भाग्य, भूतप्रेत या पूर्वजन्म को जिम्मेदार बताया जा रहा है। अंधविश्वास में पड़ा मजदूर अपनी खस्ता हालत के लिए इन्हें ही कोसता रहता है और अपने शोषण का विरोध नहीं करता।
मजदूर पति-पत्नी जब इतना नहीं कमा पाते कि अपने बच्चों का पालन पोषण कर सके तो मजबूर होकर उनके बच्चों को काम-धंधे में लगना पड़ता है. इन बच्चों का बचपन इन्हीं धंधों में खो जाता है. शिक्षा तो दूर की बात है, इन्हें स्वास्थ्य की सुविधा भी नहीं मिलती. पौष्टिक खाने के अभाव में वे कई बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं. इनमें से कुछ इन बीमारियों से जूझते-जूझते दम तोड़ देते हैं. उन्हें इलाज के लिए 100-200 रूपये की दवा भी नहीं मिलती. कई जगहों पर मजदूरों के बच्चों को जानलेवा पेशों में धकेला दिया गया है. पटाखे की कई फैक्ट्रियों में विस्फोट के चलते इन नन्हें-मुन्नों की जान जा चुकी है. इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है. इनके लिए कोई धर्म, दर्शन, राजनीति या विज्ञान नहीं है. यह देश मजदूरों के बच्चों के लिए नरक है. कई बच्चे ढाबे पर काम करके और कूड़े से पन्नी बीनकर अपनी जिंदगी चलाते हैं. आये दिन ये बच्चे अपने मालिकों के उत्पीडन या यौन हिंसा का शिकार होते हैं. यह व्यवस्था ऐसे ही चलती रही तो इन बच्चों का कोई भविष्य नहीं.
साथियो, ब्रिटिश काल से लेकर आज तक देश के अलग-अलग हिस्सों में पूंजीपति वर्ग और मेहनतकशों के बीच टकराव होते रहे हैं। मजदूर वर्ग की एकता पूंजीपतियों की हितैषी सरकारों के लिए हमेशा आँख की किरकिरी रही है। 1990 के बाद से सरकार ने मजदूर विरोधी नीतियाँ बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जिसके चलते हमारे देश में मेहनतकश वर्ग की हालत दिन ब दिन खराब होती गयी. आजादी के 70 साल बाद भी मेहनतकश वर्ग अपनी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति नहीं कर पा रहा है जबकि महज 8250 धनी परिवारों का देश की 75 फीसदी संपत्ति पर मालिकाना है और हर साल अरबपतियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है। सट्टेबाजी और कालाबाजारी करने वाले मौज उड़ा रहे हैं। भारत में लगभग 48.7 करोड़ मेहनतकश हैं। फिरभी उनकी स्थिति खराब है और उनमें एकता नहीं है. परिस्थितियाँ बदतर होती जा रही हैं.
मजदूर भाइयों, हमें यह बात समझ लेनी चाहिए, कि मजदूरों की मेहनत के दम पर ही फैक्ट्री में रोनक है, माल उत्पादन हो रहा है और हर तरह की सम्पदा पैदा हो रही है. उनकी मेहनत की बदौलत फैक्ट्री मालिक दिन-दुनी रात-चौगुनी तरक्की कर रहे हैं. पूँजीपतियों के असहनीय और अमानवीय शोषण से तंग आकर मजदूर अपनी जिंदगी खत्म कर रहे हैं. साथियों हमें हार नहीं माननी है. हमें निराश नहीं होना है. हमें मई दिवस आन्दोलन को याद करने की जरूरत है. आज से डेढ़ सौ साल पहले अमरीका में मजदूरों से 18-18 घंटे काम कराया जाता था. उनकी हालत बद से बदतर हो गयी थी. उसके बावजूद भी उनहोंने संघर्ष का दामन नहीं छोड़ा. अमरीका में मजदूर आन्दोलन का तूफ़ान उठा जिसका नारा था- आठ घण्टे काम, आठ घण्टे मनोरंजन और आठ घण्टे आराम। इस नारे से दुनियाभर के पूंजीपति काँप उठे। अमरीका से लेकर धरती के दूसरे छोर आस्ट्रेलिया में भी इस नारे की गूंज सुनाई दी और मजदूरों की एकता ने आठ घंटे के कार्यदिवस की जीत हासिल की। आज हमें उस संघर्ष को याद करना होगा. हमें समझना होगा कि जाति, धर्म, क्षेत्र, रंग-रूप और राष्ट्रीय सीमा का भेदभाव भुलाकर पूरी दुनिया के मजदूरों की एकता में ही हमारी भलाई है। पूंजीपति और सरकार मेहनतकश मजदूरों की एकता तोड़कर ही लूट का साम्राज्य कायम करते हैं। आठ घंटे का कार्यदिवस पूँजीपति वर्ग और सरकार ने उपहारस्वरूप या खैरात में नहीं दिया है बल्कि यह मजदूरों की एकता और संघर्षों का परिणाम है। आज हम मेहनतकश लोगों के सामने असली चुनौती है- संगठित होने की। जिस व्यवस्था ने नरक जैसी जिंदगी दी उसे समझने और बदलने की। अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी समझने की। साथियो, कोई मसीहा नहीं आने वाला है और न तो कोई अवतार होगा। देर-सवेर यह ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी हमें अपनी हाथ में लेनी ही होगी.