शनिवार, 6 जून 2015
दूसरे चरण के सुधार अधिक घातक होंगे।
19
मई 2015 को द हिन्दू
न्यूज पेपर के सम्पादकीय लेख में पूर्व वाणिज्य मंत्री
सुब्रमन्यन स्वामी ने अर्थव्यवस्था की स्थिति के बारे में जायजा लिया है। उन्होंने
स्पष्ट शब्दों में बताया कि पिछले साल जब भाजपा सरकार ने शपथ ग्रहण किया था]
उस समय वित्त मन्त्रालय ने वृद्धि दर को 10
प्रतिशत से ऊपर बनाये रखने के लिए लैस्पेयर्स इण्डेक्स के बजाय पाश्चेय इण्डेक्स
के आधार पर वृद्धि दर की गणना करने की योजना बनायी थी। वित्त मन्त्रालय ने यह कदम
इसीलिए उठाया था जिससे मुद्रास्फीति की स्थिति में भी वृद्धि दर को बनावटी तौर पर
उँचे स्तर पर बनाये रखा जाय।
उन्होंने यह भी कहा कि
इतना सब होने के बाद भी प्रत्यावर्ती मार्कर के आधार पर अगर अर्थव्यवस्था की
स्थिति का पूर्वानुमान लगाया जाये तो बहुत दयनीय तस्वीर उभर कर सामने आती है और
अगर सुधार के आवश्यक कदम नहीं उठाये गये तो भारतीय अर्थव्यवस्था अनियन्त्रित होकर
मन्दी के गर्त में गिर जायेगी। पिछली सरकार का ऐसे हालात लाने में काफी योगदान है
लेकिन भाजपा की सरकार के एक साल पूरे होने पर उसके लिए यह कोई बहाने बाजी की बात
नहीं रह गयी है।
यह मानना पड़ेगा कि पूर्व
वाणिज्य मंत्री ने अर्थव्यवस्था की काफी हद तक ठीक तस्वीर पेश की है। अर्थव्यवस्था
जिस संकट से गुजर रही है] उसकी
एक झलक देते हुए उन्होंने लिखा कि इस साल के वित्तीय वर्ष में पब्लिक सेक्टर बैंक
को 51 प्रतिशत शेयर बनाये रखने के लिए 1]21]000
करोड़ रूपये की जरूरत पड़ेगी लेकिन 2015-16
में सरकार मात्र 11]200 करोड़ रूपये ही जुटा
पायेगी। 1997-98
में पूर्वी एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था भयावह विध्वंश का शिकार हुई थी। उसी के
तर्ज पर बैंकों की नॉन परर्फोमिंग एसेट बढ़ने से हमारा बैंकिंग क्षेत्र तबाह होने
के कगार पर पहुँच गया है। नॉन परर्फोमिंग एसेट या गैर निष्पादनीय परिसंपतियाँ ऐसे
ऋण हैं जो अमीरों या पूँजीपतियों को दिये जाते हैं। लेकिन न तो उनका ब्याज मिलता
है और न ही मूल धन। सामान्य तौर पर किसी वित्तीय वर्ष में अगर ऋण के मूलधन का
भुगतान 180 दिन और ब्याज का भुगतान 365
दिनों के लिए रोक दिया जाय तो ऐसे ऋण को भी नॉन परर्फोमिंग एसेट कहते हैं।
रूपये का अवमूल्यन हो रहा
है क्योंकि विदेशी निवेशकों ने जिन भारतीय कम्पनियों के शेयर खरीदे थे]
उनकी हालत खस्ता देख अपने शेयर बेचकर भाग रहे हैं। प्रत्यक्ष
विदेशी निवेश करने वाली कई कम्पनियाँ भी अपने शेयर बेच कर भाग रही हैं। रूपये के
अवमूल्यन में पिछले तीन महीने में कमी आयी है क्योंकि पार्टीसिपेटरी नोट और दूसरे
अन्य डेरिवेटिव्स के जरिये हमारे शेयर बाजार में पूँजी लगायी गयी। लेकिन
पार्टीसिपेटरी नोट को हॉट मनी डेरिवेटिव कहा जाता है जिसे कभी भी किसी बहाने से
खींच लिया जायेगा और रूपये का भारी अवमूल्यन होगा।
वाणिज्य मंत्री ने यह भी
चिन्ता जतायी है कि भारत के 10
बड़े कार्पोरेट घरानों का मुनाफा और कर्ज उस स्तर पर पहुँच गया है जहाँ वे मुनाफे
से अपना सालाना कर्ज नहीं पाट सकते हालाँकि कार्पोरेट घरानों की इस जुगाड़बाजी को
हम सभी जानते हैे कि वे टैक्स चोरी करने के लिए कैसे अपने ऊपर मुनाफे से अधिक कर्ज
दिखाते हैं।
इस लेख में वाणिज्य
मंत्री किसानों की खराब हालात पर चिन्तित दिखे। उन्होंने कहा कि कृषि क्षेत्र में 62
प्रतिशत श्रम शक्ति को काम मिला है लेकिन किसान कर्ज न अदा करने के चलते अपनी
जिंदगी खत्म कर रहे हैं। लगभग 50
प्रतिशत बच्चे 5वीं क्लास से अधिक नहीं
पढ़ पाते। 30 करोड़ लोग निरक्षर हैं और
25 करोड़ लोग भयावह गरीबी में जी रहे हैं।
भारत का मूलभूत ढाँचा
दयनीय हालत में है। बार-बार बिजली की कटौती] पीने
के पानी का खतरनाक स्तर तक प्रदूषित होना और भारतीय सड़कों की खराब हालत इसके
ज्वलंत उदाहरण हैं। शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिऐ जीडीपी का 6
प्रतिशत हिस्सा खर्च करने की जरूरत है जबकि सरकार 2.8
प्रतिशत ही खर्च करती है।
उन्होंने इन सभी समस्याओं
को गिनाते हुए यह भी बताया कि घबराने की जरूरत नहीं है क्योंकि भारत जवान राष्ट्र
है। यहाँ जवान लोगों की औसत उम्र 28
साल है जबकि जापान में यह 49
साल है। हालाँकि इसमें खुश होने लायक कोई बात नहीं है। इस आँकड़े से यह लग सकता है
कि भारत के अधिकांश लोग जवान हैं। लेकिन यह भ्रामक है। जापान की औसत आयु अधिक होने
के पीछे वहाँ लोगों का अधिक उम्र तक जीवित रहना है। इसीलिए वहाँ बुजुर्गां की
संख्या ज्यादा है जबकि भारत में लोग बीमारी] दुर्घटना
और अन्य कारणों से कम उम्र में ही मर जाते हैं। इसीलिए यहाँ औसत उम्र कम है। औसत
उम्र 28 साल होने से वही व्यक्ति खुश हो सकता है
जो देश के नागरिकों को इंसान के रूप में नहीं बल्कि पूँजीपतियों का मुनाफा बढ़ाने
के साधन के रूप में देखता है। यह सच भी है नहीं तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय
होने का क्या औचित्य है?
समस्याएँ गिनाने के
बावजूद पूर्व वाणिज्य मंत्री इन समस्याओं के पीछे के कारणों की चर्चा तक नहीं करते
और समाधान ऐसा पेश करते हैं जो समस्या को और ज्यादा बढ़ा देगा। वह आर्थिक सुधारों
के दूसरे चरण को लागू करने पर जोर देते हैं जबकि यह बात लोगों को अच्छी तरह मालूम
है कि पहले दौर के सुधार ने ही देश का बेड़ा गर्क किया है।
सुधारों के नाम पर 25
सालों से जारी वैश्वीकरण] निजीकरण]
उदारीकरण की नीतियों ने ही बेरोजगारी]
महँगाई] गरीबी
और अपराध में बेतहासा बढ़ोत्तरी की है। सुधारों पर अंकुश लगाये बिना कोई भी समाधान
कारगर नहीं होगा।
&विक्रम
प्रताप
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