शनिवार, 20 जुलाई 2013

जाति के सवाल पर हमारा रुख स्पष्ट होना चाहिए।


मैं जाति के सवाल पर अंतिम निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पाया हूँ। लेकिन अध्धयन, चिंतन-मनन और अपने अनुभव से कुछ बातें समझ पाया हूँ। उसे आपके साथ शेयर करूंगा-

१. जाति व्यवस्था एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था है। जिसमें उच्च जातियां अपने से नीचे की जातियों को सामाजिक रूप से निचले पायदान पर मानती हैं और उन्हें सभी आर्थिक संसाधनों से वंचित रखतीहैं। इसी आधार पर वे नीचे की जातियों का शोषण और उत्पीडन करती हैं।

२. इसकी शुरुआत हजारों साल पहले श्रम-विभाजन से हुई, जो पेशों में बंटवारे के बाद पुस्तैनी हो गया और समय के साथ जातियों की संख्या और जटिलता में वृद्धि होती गयी। जमीनों के आसमान वितरण ने इसे सोपनिक क्रम दिया और यह शोषण का मुख्य आधार हो गयी।

३. वेद, उपनिषद, मनुस्मृति और ब्राह्मण ग्रंथों ने वर्ण और जाति व्यवस्था को एक संस्थाबद्ध और वैचारिक रूप दिया। इन ग्रंथों के जरिये यह विचारधारा लोगों के मानस में रोप दी गयी। अब यह परिवार के संस्कार के जरिये पीढी दर पीढी पहुंचाई जाती है और परिवार ही इस विचार की प्राथमिक पाठशाला है। 

४. देश में औद्योगिक प्रगति के बाद इसका भौतिक आधार कमजोर होने लगा है। लेकिन कुछ अन्य कारणों से यह आज भी बरकरार है जिनमें निम्नलिखित मुख्य कारण हैं-
(अ) आजादी के बाद जमीनों का बराबर बंटवारा न होना।
(ब) विवाह परम्परा का जातीय स्वरूप। 
(स) अपने स्वार्थपूर्ति के लिए नेताओं ने इसे बनाए रखा।
(द) पूंजीवाद ने इसे यथारूप आत्मसात कर लिया। 

५. यह देश की एकता और विकास में बाधक है। यह शोषक सत्ता के हाथ में बहुत बड़ा औजार है। भारत का पूंजीपति वर्ग इससे लाभ उठाता है। पूंजीवादी शोषण और व्यवस्था इसके जरिये मजबूत बनायी जाती है। भाजपा और कांग्रेस (राष्ट्रीय) पार्टियों और सपा, बसपा और अन्य क्षेत्रीय पार्टियों ने इसका समाधान करने की कभी कोशिश नहीं की। उन्होंने चुनावी फायदे के लिए हमेशा जाति को बनाए रखने पर जोर दिया। इसलिए चुनावी पार्टियां देश की एकता के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं।