हमारा देश, समाज और मजदूर आंदोलन एक अभूतपूर्व परिस्थिति से गुजर रहा है.
वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण जैसे मनमोहक नारों की आड़ में देश की मेहनतकश
जनता पर गुलामी का शिकंजा लगातार कसता जा रहा है. हर तरफ अफरा-तफरी और बेचैनी का
आलम है. रही-सही श्रम सुरक्षा और वेतन-भत्तों में कटौती, बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और असुरक्षा के कारण देश की
बहुसंख्य जनता में असंतोष व्याप्त है. अच्छे दिन के सुनहरे सपने बदहाली के शिकार
मेहनतकश जनता को मुंह चिढ़ा रहे हैं.
पिछले दस वर्षो के दौरान मनमोहन सिंह की सरकार ने नवउदारवादी
नीतियों को जिस बेरहमी से लागू किया था, उसने एक तरफ जहाँ आम मेहनतकश जनता के
जीवन को नरक से भी बदतर हालात में धकेल दिया था वहीं दूसरी ओर उसने भ्रष्टाचार और घोटाले के नये-नये रेकॉर्ड भी
कायम किये थे. जनता के मन में कांग्रेस सरकार के प्रति नफरत और गुस्से का लाभ उठा
कर, बड़े-बड़े वादे और सपनों का मायालोक रच कर और जगह-जगह दंगे कराकर नरेंद्र मोदी
की अगुआई में भाजपा सरकार सत्ता में आयी. लेकिन सत्ता में आते ही इसने मनमोहन सिंह
को मात देते हुए खुलेआम कॉरपोरेट घरानों और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित
साधना शुरू किया. श्रम कानूनों में बदलाव लाकर मजदूरों को गुलामों से भी बदतर
स्थिति में पहुँचा देने की शुरूआत हुई. पिछली सरकार द्वारा जनान्दोलनों के दबाव
में भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव लाकर किसानों को कुछ राहत देने के प्रयास को
पलटने की तैयारी हो रही है. पर्यावरण को क्षति पहुँचाने वाली परियोजनाओं पर
कांग्रेस सरकार द्वारा लगायी गयी रोक हटाने और विनाश को निमंत्रण देने वाली
परियोजनाओं को क्लीन चिट दी जा रही है. आम जनता को दी जाने वाली सरकारी सब्सिडी
खत्म की जा रही है, जबकि पूँजीपतियों को टैक्स में तरह-तरह की छूट दी जा रही है. दवा
कंपनियों को जीवनरक्षक दवाओं की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी की इजाजत दे दी गयी
है. डीजल-पेट्रोल से सरकारी नियंत्रण हटा लिया गया है. ‘मेक इन इंडिया’ का नारा लगाते हुए विदेशी पूँजी को हर
कीमत पर अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में, यहाँ तक कि रक्षा क्षेत्र में भी
बुलावा दिया जा रहा है और उनकी लूट को आसान बनाने के लिए श्रम कानून, वन कानून, पर्यावरण कानून, टैक्स ढांचा, सामाजिक सुरक्षा हर तरह के नियम-कानून
को ताक पर रखा जा रहा है. इस सरकार का गुरु मंत्र है- हर कीमत पर विकास, मुट्ठी भर
लोगों का विकास और इस पर सवाल उठाने वाले देशद्रोही! कुल मिलाकर विकास के नाम पर
विनाश को निमंत्रण ही नयी सरकार का मूल मंत्र है.
1991 में, जब राव-मनमोहन की सरकार ने नयी आर्थिक नीति लागू करना शुरू किया था, तब आम जनता को इन नीतियों के घातक
परिणामों का अहसास नहीं था. आम जनता को अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं और संचार माध्यमों के
जरिये इन नीतियों के बारे में छिटपुट सूचनाएं ही मिलती थी. लेकिन, इसके आधार पर भविष्य की भयावहता का
अनुमान लगाना मुमकिन नहीं था. कुल मिला कर नयी आर्थिक नीति के प्रावधानों और उनके
भावी परिणामों की चर्चा समाज के थोड़े से लोगों के बीच ही सीमित थी. लेकिन, इन नीतियों के लागू होने के दो दशक
बीतने के बाद आज देश की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा मजदूर, किसान, छात्र, नौजवान, शिक्षक, कर्मचारी और अन्य मेहनतकश समुदाय इन
नीतियों का दुष्परिणाम झेल रहे हैं और इसे अपनी जिंदगी में महसूस कर रहे हैं.
बेरोजगारी, अर्ध-बेरोजगारी,
भूखमरी, कुपोषण, गरीबी और आत्महत्या आज भारतीय जीवन की आम सच्चई बन चुकी है.
कोलकाता, मुंबई, अहमदाबाद, दिल्ली और उसके आस-पास के औद्योगिक क्षेत्रों में बंद कारखानों की
ठठरी, उजड़े हुए उद्योगों के कंकाल नयी आर्थिक नीति के कारण होने वाली
तबाही की दास्तान सुना रहे हैं. वीरान और उजड़े हुए औद्योगिक नगरों को देख कर ऐसा
लगता है, जैसे किसी नादिरशाह,
किसी तैमूर-लंग की फौज अभी-अभी उस राह से गुजरी हो.
यह स्थिति अत्यंत
क्षोभकारी है. ऐसे में कोई भी संवेदनशील व्यक्ति भला चुप कैसे बैठा रह सकता है.
लोग सड़कों पर उतर रहे हैं. खासकर वे लोग जो सीधे-सीधे इन नीतियों के शिकार हो रहे
हैं. हर रोज देश के किसी-न-किसी कोने से किसी-न-किसी समुदाय के आंदोलन-हड़ताल की
खबरें आ रही हैं. हर रोज पुलिस प्रशासन द्वारा आंदोलनों के दमन-उत्पीड़न की खबरें
आ रही हैं. जहाँ दमन है, वहाँ प्रतिरोध भी है. लेकिन, दुर्भाग्यवश पूँजी के बर्बर हमलों को
देखते हुए हमारा प्रतिरोध बहुत प्रबल और प्रभावी नहीं रहा है.
आज मजदूर आंदोलन के समक्ष यह महत्वपूर्ण कार्यभार है कि इस
अभूतपूर्व परिस्थिति को गहराई से समझने का प्रयास किया जाय, तभी हम इस नयी चुनौती का सफलतापूर्वक
सामना कर पायेंगे. आज हमारी लड़ाई का मुद्दा महज वेतन, भत्ता या कार्यदशा में सुधार
नहीं है, बल्कि हमारे सामने आज अस्तित्व का सवाल आ खड़ा हुआ है. जाहिर है कि
लड़ाई के पुराने तौर-तरीकों से इस नयी परिस्थिति का मुकाबला संभव नहीं है. हमें
अपना ढंग-ढर्रा बदलना होगा, अपने रणकौशल में बुनियादी परिवर्तन लाना होगा, तभी हम कामयाब हो
पायेंगे. लेकिन, इसके लिए सबसे पहले हमें वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की पूरी परिघटना
को तथा दुनिया के पैमाने पर वर्ग शक्तियों के संतुलन में हुए महत्वपूर्ण बदलावों
को समझना होगा.
वैश्वीकरण किसी व्यक्ति विशेष की सनक या दिमाग की उपज नहीं है. यह
दुनिया भर में लगातार हो रहे वैज्ञानिक तकनीकी शोध और विकास तथा पूँजीपतियों
द्वारा मानवता के ज्ञान में हुए इजाफों पर अपना एकाधिकार कायम करके बेहिसाब मुनाफा
कमाने की हवस का नतीजा है. यह पूँजी और श्रम के बीच अनवरत जारी संघर्षो में पूँजी
की सामयिक जीत और श्रम की सामयिक पराजय का नतीजा है. वैश्वीकरण अलौकिक, परिहार्य या अपराजेय नहीं है, जैसा कि इसके धर्मावलंबी दुनिया भर की
जनता को बता रहे हैं. यह इतिहास की उपज है और इसे इतिहास के गर्त में चले जाना है.
लगभग 400 वर्ष पहले यूरोप के सौदागर अपने तैयार माल के लिए बाजार और अपने
उद्योगों के लिए कच्चे माल के स्रोतों की तलाश में दुनिया की खोज करने निकले थे.
औद्योगिक क्रांति के बाद यह प्रक्रिया और भी तेज हो गयी. उन्होंने छल-बल से एशिया, अफ्रीका और अमेरिका के देशों को एक-एक
करके गुलाम बनाया. वहाँ की जनता पर बर्बर अत्याचार किया और उन देशों की विपुल
प्राकृतिक संपदा को जमकर लूटा. लेकिन, यह लूट हमेशा जारी रहने वाली नहीं थी.
गुलाम देशों की जनता में इन साम्राज्यवादी लुटेरों के प्रति नफरत और आक्रोश बढ़ता
गया तथा उनमें राष्ट्रीय स्वाधीनता की चेतना बढ़ती गयी. साथ ही 20वीं सदी के प्रारंभ तक साम्राज्यवादी
लुटेरों- अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान इत्यादि के बीच अपने औद्योगिक माल की ब्रिक्री और पूँजी
निवेश के लिए उपनिवेशों (गुलाम देशों) को आपस में बांटने या उनपर कब्जा जमाने के
लिए होड़ तेज हो उठी. इस बंदरबांट के लिए दुनियाभर में दो बार वहशियाना लड़ाई हुई.
इन विश्वयुद्धों के दौरान गुलाम देशों की जनता का स्वाधीनता संग्राम पहले से कहीं
तीखे और निर्णायक दौर में पहुँच गया. जनता की बढ़ती साम्राज्यवाद विरोधी चेतना को
देखते हुए अब साम्राज्यवादियों के लिए उन देशों को सीधे-सीधे गुलाम बनाये रखना
संभव नहीं रह गया. पूरी दुनिया में राष्ट्रीय आजादी की एक नयी लहर चल पड़ी. जिस
ब्रिटेन का सूरज पूरी दुनिया में नहीं डूबता था, वह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अपनी खोल
में सिमट गया. साम्राज्यवादी ताकतों को विश्व जनगण के संघर्षो ने पीछे हटने पर
मजबूर कर दिया.
राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष की धारा के साथ-साथ 20वीं सदी में एक और महत्वपूर्ण धारा
इतिहास के दृश्य पटल पर अवतरित हुई - समाजवादी धारा. रूस, पूर्वी यूरोप और चीन सहित दुनिया के
कई देशों के मजदूरों ने अपने-अपने देशों में क्रांति करके शोषण और लूट की सत्ता को
समाप्त किया और उसकी जगह न्याय और समानता पर आधारित समाज व्यवस्था कायम करने की ओर
कदम बढ़ाया. इन देशों ने आसपी एकता, भाईचारा और परस्पर सहयोग के जरिये
साम्राज्यवादी-पूँजीवादी देशों की चुनौतियों का मुकाबला किया. आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक हर क्षेत्र में समाजवादी
खेमे के देशों ने नये-नये कीर्ति स्तम्भ खड़े किये और दुनिया भर की मेहनतकश जनता
के लिए नये आदर्श और नये सपनों को जन्म दिया. यह सपना था, शोषण-उत्पीड़न से मुक्त दुनिया का
सपना. एक ऐसी दुनिया का सपना,
जहाँ एक देश द्वारा दूसरे देश का और एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य
का शोषण न हो.
जिन देशों ने विदेशी लुटेरों के जुए से अपने-आपको आजाद कराया था, उनमें से कुछ देशों के नये शासकों ने
तो साम्राज्यवाद की छत्रछाया में,
उनके ही रहमोकरम पर देश को आगे बढ़ाने का रास्ता अपनाया. लेकिन, भारत सहित कई नव-स्वाधीन देशों ने
अपने देश की अर्थव्यवस्था को यथासंभव साम्राज्यवादी प्रभाव से बचाते हुए एक हद तक
आत्मनिर्भर विकास का रास्ता अपनाया. हालाँकि ऐतिहासिक कारणों से और खुद इन नये
शासकों की अपनी वर्गीय सीमाओं के चलते इस मार्ग में अनेक बाधाएँ थीं. इन नये
शासकों ने खुद अपने देश के पूँजीपतियों को जनता को लूटने और मुनाफा कमाने की खुली
छूट दी थी. हालाँकि इस पूरे दौर में इन देशों में विदेशी कर्ज, तकनीकी सहायता और असमान व्यापार के
जरिये साम्राज्यवादी पूँजी की लूट किसी-न-किसी रूप में जारी रही. लेकिन, स्वाधीनता के तत्काल बाद अपने देश में
विदेशी पूँजी को खुलेआम निमंत्रण देने का अर्थ यही होता कि गुलामी से जजर्र इन
देशों की अर्थव्यवस्था पर साम्राज्यवादी पूँजी का वर्चस्व कायम हो जाता. ऐसे में
उनकी आजादी का कोई अर्थ नहीं रह जाता.
इस सदी के उत्तरार्ध में समाजवादी देशों में एक ऐसी दुखद प्रक्रिया
शुरू हुई, जिसने विश्व पूँजीवाद की मानवद्रोही आकांक्षाओं को फिर से आक्रामक
रूख अपनाने का अवसर प्रदान किया. 1956 के रूस में ख्रुश्चेव ने अपने तीन
शांतिपूर्ण सिद्धांतों की आड़ में समाजवाद का परित्याग कर वहाँ नये सिरे से राजकीय
पूँजीवादी व्यवस्था कायम करना शुरू किया. पूर्वी यूरोप के शासकों ने भी आगे चल कर
अपने-अपने देश के मजदूर वर्ग के साथ विश्वासघात किया. 1977 के बाद चीन भी
विपथगामी हो गया. समाजवादी खेमे के विध्वंस के कारण क्या थे तथा उन देशों में
मजदूर वर्ग की जगह पूँजीपति वर्ग की सत्ता कैसे स्थापित हुई, यह जानना बहुत जरूरी है और हम
मेहनतकशों को इसे जरूर जानना चाहिए. हालाँकि समयाभाव के कारण इस मुद्दे पर यहाँ
विचार करना संभव नहीं है. आज दुनिया के इतिहास के नकारात्मक मोड़ देने वाली इस
घटना के कारणों पर विवाद हो सकता है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि
वैश्वीकरण-उदारीकरण के नाम पर लूट और शोषण की जो नयी पूँजीवादी व्यवस्था पूरी दुनिया
के मेहनतकशों पर नृशंस हमले कर रही है, उसके आगे बढ़ने में समाजवादी खेमे का
टूटना दुनिया भर के मेहनतकशों और उनके संघर्षो के लिए भारी नुकसानदेह साबित हुआ है, क्योंकि इसके चलते विश्व शक्ति संतुलन
मेहनतकशों के बजाये पूँजीपतियों के पक्ष में चला गया.
समाजवादी देशों और नव स्वाधीन देशों के बीच स्वाभाविक तौर पर आपसी
सहयोग की भावना थी और इन दोनों ही तरह के देशों में साम्राज्यवादी पूँजी के प्रति
घोर नफरत मौजूद थीं. इन दोनों ही तरह के देशों में साम्राज्यवाद की चुनौती का
सामना करने के लिए आपसी एकता का परिचय दिया. साम्राज्यवादी देशों के लिए यह
अस्तित्व की शर्त थी कि नव स्वाधीन देशों और समाजवादी देशों का दरवाजा भी उनकी लूट
और मुनाफाखोरी के लिए खुल जाये. यही कारण है कि शीतयुद्ध के काल में अमरीकी जासूसी
संगठन सीआइए और पश्चिमी प्रचार माध्यम रात-दिन इन देशों में बगावतें भड़काने और
सैनिक हस्तक्षेप के जरिये तख्ता पलट करवाने की कोशिशों में लगे रहते थे.
उधर, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद साम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्था में
जो तेजी दिखाई दे रही थी, वह ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रही. 1980 के बाद उनका विकास ठहर गया और कुछ
देशों की विकास दर तो ऋणात्मक हो गयी. इनका संकट यह था कि अपने अतिरिक्त माल को कहाँ
बेचें और लूट से जमा इफरात पूँजी को कहाँ लगाएं. दूसरी ओर नव स्वाधीन देश गुलामी
के लंबे दौर में तकनीकी विकास में पिछड़ गये थे. वहाँ के पूँजीपतियों को अपने देश
की जनता को लूटने और अधिकाधिक मुनाफा कमाने के लिए विदेशी पूँजी और नयी तकनीक की
जरूरत थी. समाजवादी देश भी भीतरी-बाहरी दबावों के कारण न्याय-समता के लक्ष्य को
त्याग देने के बाद आर्थिक संकट के पूँजीवादी रोग से ग्रस्त थे. 1990 तक उन्होंने राजकीय
पूँजीवाद को छुपाने वाले समाजवादी मुखौटे को त्याग दिया और नग्न पूँजीवादी रास्ता
अपनाते हुए साम्राज्यवाद के साथ गंठजोड़ में लग गये. इन सभी कारकों ने पूँजीवाद को
अपनी लूट, शोषण और लोभ-लाभ को दुनियाभर में फैलाने, उनका वैश्वीकरण करने का अनुकूल अवसर
प्रदान किया. अमेरिकी चौधराहट वाले साम्राज्यवादी देशों की वैश्विक लूट की
महत्वाकांक्षा को पूरा करने की परिस्थिति तैयार कर दी. सूचना टेक्नोलॉजी में हुए
अभूतपूर्व विकास ने उनके इस काम में काफी मदद पहुँचायी, क्योंकि इसने दुनिया को काफी करीब ला
दिया. इसके चलते पूँजी की आवाजाही काफी आसान हो गयी और इंटरनेट के जरिये दुनिया भर
की पूँजी पर नियंत्रण बनाये रखना आसान हो गया. मुद्राकोष, विश्व बैंक, गैट की तिकड़ी लंबे समय से दुनिया को
अपने साम्राज्यवादी मालिकों के मनोनुकूल ढालने के लिए प्रयासरत थी. 1990 के बाद इस
प्रक्रिया में अभूतपूर्व तेजी के साथ विस्तार शुरू हुआ.
इतिहास की इन घटनाओं पर नजर डालने से यह स्पष्ट है कि 1990 के आसपास दुनिया का
शक्ति संतुलन निर्णायक तौर पर पूँजी के पक्ष में झुक गया. आज दुनिया के पैमाने पर पूँजी
द्वारा श्रम पर जो कातिलाना हमला हो रहा है, उसके मूल में दुनिया के वर्ग शक्ति
संतुलन में होने वाला यही ऐतिहासिक परिवर्तन है. दुनिया भर के श्रमिक आंदोलनों की
कार्यसूची पर यही कार्यभार सबसे महत्वपूर्ण है कि विश्व शक्ति संतुलन को श्रम के
पक्ष में बदलने के लिए निर्णायक संघर्ष छेड़ा जाये. श्रम और पूँजी के बीच जारी विश्वव्यापी
संघर्ष का अंग बनकर ही भारतीय श्रमिक आंदोलन अपनी यह ऐतिहासिक भूमिका निभा सकता
है. 70-80 के दशक से ही भारत के शासकों ने साम्राज्यवाद के साथ सांठ-गांठ
शुरू किया था. राजीव राज में खुले दरवाजे की नीति लागू की गयी थी और बेतहाशा
विदेशी कर्ज लेना शुरू किया गया था. 1980 में हमारे देश पर 2000 करोड़ रुपये का
कर्ज था, जो 1990-91 में बढ़कर लगभग दो लाख करोड़ रुपया हो गया. इन कर्जों को देश के
आर्थिक विकास में लगाने के बजाय नेताओं, नौकरशाहों और उनके पिछलग्गू
बुद्धिजीवियों की अय्यासी के लिए,
विदेशी उपभोक्ता वस्तुओं के आयात और पूँजीपतियों के मुनाफे की हवस
के लिए विदेशी गंठजोड़ पर खर्च किया गया. चंद्रशेखर के शासनकाल तक आते-आते
देसी-विदेशी कर्ज के जाल में उलझ गया और भुगतान संतुलन का संकट पैदा हो गया.
आप्रवासी भारतीयों ने भारतीय बैंकों में जमा विदेशी मुद्रा वापस लेना शुरू किया.
परिणामस्वरूप देश दिवालियेपन के कगार पर पहुँच गया और विदेशी मुद्रा भंडार की
पूर्ति के लिए 40 टन सोना बैंक ऑफ इंग्लैंड में गिरवी रखना पड़ा. 1991 में राव मनमोहन की
सरकार ने देश को संकट से निकालने के नाम पर आत्मनिर्भर आर्थिक विकास की आकांक्षा
और राजनीतिक संप्रभुता का परित्याग कर विश्व बैंक-मुद्राकोष-गैट की तिकड़ी के आगे
आत्मसमर्पण कर दिया. उन्होंने देशी-विदेशी पूँजी के गंठजोड़ से देश को एक नयी
आर्थिक गुलामी में जकड़ने वाली नयी आर्थिक नीतिकार दस्तावेज संसद में स्वीकार
किया. तब से आज तक जितनी भी सरकारें केंद्र या राज्यों में सत्तासीन रही, सबने इन नीतियों को लागू किया. आज देश
की सभी संसदीय पार्टियों में इन नीतियों के बारे में आम सहमति है. विडंबना तो यह
है कि जिन पार्टियों ने इन नीतियों का विरोध किया और इन नीतियों के प्रति भारतीय
जनता में व्याप्त आक्रोश को भुनाते हुए चुनाव जीता, उन्होंने कहीं बढ़-चढ़ कर इन नीतियों
को लागू किया. आज सभी पार्टियों के नेताओं में विदेशी पूँजीपतियों को रिझाने की
होड़ लगी है.
दुनियाभर के सौदागर और उनकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां आज वैश्वीकरण के
नाम पर दुनिया की जनता द्वारा पैदा की गयी विपुल संपदा को अपनी निजी संपत्ति में
बदलने को आमादा हैं. पहले ही उन्होंने दुनिया की लूट से इफरात धन अजिर्त किया है.
साथ ही सोने को कागज और कागज को सोने में बदलने की जादूगरी के जरिये उन्होंने
स्थायी मुद्रा का धोखा खड़ा किया है. उसी डॉलर, येन, यूरो के बल पर वे तीसरी दुनिया के
देशों के प्राकृतिक संसाधन, कल-कारखाने, दूरसंचार, ऊर्जा, बंदरगाह, हवाईपट्टी, जमीन-जायदाद,
पेड़-पौधे, प्रयोगशाला, उच्च शिक्षण संस्थान, शोध संस्थान, सेवा क्षेत्र और यहाँ तक कि इन देशों
के शासकों की आत्मा और प्रतिभाशाली लोगों के दिमाग तक को खरीद लेना चाहते हैं.
विश्व बैंक, मुद्राकोष और विश्व व्यापार संगठन की गुलाम बनाने वाली नीतियों के
जरिये वे पूरी दुनिया को एक विराट मुक्त क्षेत्र में तब्दील कर देना चाहते हैं. एक
ऐसा मुक्त क्षेत्र, जहाँ उन पर कोई टैक्स न हो, नियम-कानूनों का कोई बंधन न हो, कोई प्रतिबंध न हो कोई श्रम कानून न
हो, मजदूरों के लिए न्यूतम मजदूरी तक की गारंटी न हो और जहाँ न केवल
उन्हें बेरोक-टोक मनमाना मुनाफा कमाने की छूट हो, बल्कि उनकी पूँजी की सुरक्षा और
मुनाफे की पूरी गारंटी हो. इन देशों के सस्ते श्रम का शोषण और कच्चे माल का दोहन करने, वहाँ के पर्यावरण को तहस-नहस करने और
सांस्कृतिक सामाजिक संरचना को रौंदने पर कोई रोक न हो.
तीसरी दुनिया के जिन शासकों ने आज से कुछ दशक पहले राष्ट्रीय
मुक्ति आंदोलन के दौर में इन साम्राज्यवादी लुटेरों का विरोध किया था, वे अपनी जनता से गद्दारी करके उनके स्तुतिगान
में लगे हुए है. यहाँ की मीडिया उनकी प्रशंसा के गीत गा रहा है. यहाँ के बिके हुए
विचारक इन नीतियों की झूठी प्रशंसा में पोथियां लिख रहे हैं. तीसरी दुनिया के शासक
पूँजीपतियों ने साम्राज्यवाद के साथ अपवित्र गंठबंधन कायम कर लिया है. इनके
सहयोग के बिना वैश्वीकरण का अश्वमेध यज्ञ सफल नहीं हो सकता था. इन देशों के पूँजीपति
विदेशी पूँजी निवेश और विदेशी तकनीक के लिए इतने लालायित हैं कि अपनी आजादी और
आत्मसम्मान को कम-से-कम कीमत पर अपने विदेशी आकाओं को बेचने के लिए उनमें होड़ लगी
हुई है. विदेशी पूँजी को रिझाने के लिए वे उन्हें हर तरह के टैक्स से मुक्त कर रहे
हैं और उसकी भरपाई के लिए जनता पर नये-नये टैक्स लगा रहे हैं.
हमारे देश की वर्तमान भाजपा सरकार भी सुधारों को तीव्र गति से लागू
करके और विदेशी पूँजी निवेश को बढ़ावा देकर यही दिखाना चाहती है कि वही डॉलर
महाप्रभु की सबसे बड़ी भक्त है. अपनी भक्ति को प्रमाणित करने के लिए और जनता को
वैश्वीकरण की बलि का बकरा बनाने के लिए वे शिक्षा, चिकित्सा और अन्य सामाजिक सेवाओं तथा आवश्यक
वस्तुओं को दिनोंदिन महँगा कर रहे हैं और समाज के निर्बल वर्गो को दी जाने वाली
सरकारी सहूलियतों में लगातार कटौती कर रहे हैं. वे देश की बहुसंख्य जनता को अपने ही
देश में दोयम दर्जे का नागरिक और शरणार्थी बना रहे हैं.
वैश्वीकरण-उदारीकरण और निजीकरण का मेहनतकशों के लिए एक ही अर्थ है
-देशी-विदेशी पूँजी की नृशंस गुलामी. गुलामी के इस नये दौर में साम्राज्यवादियों
ने अपनी रणनीति बदल ली है. उपनिवेशवादी गुलामी के दौर में उन्हें गुलाम देशों की
जनता का निर्मम और नृशंस नरसंहार खुद करना पड़ता था. अपनी प्रत्यक्ष उपस्थिति के
कारण गुलाम देशों की जनता का कोपभाजन बनना पड़ता था. फौज-फाटा और अफसर रखना पड़ता
था. आज इसकी कोई जरूरत नहीं है. न ही उन्हें नव उपनिवेशिक दौर की तरह अपनी कठपुतली
सरकार बनाने और समय-समय पर फौजी तख्ता पलट करवाने की जरूरत है. आज उनके वैश्वीकरण
के प्रबल समर्थक और तीसरी दुनिया में उनकी लूट के संरक्षक उन्हीं देशों के शासक
हैं, जो उनके वफादार सेवक है. वे उनकी नीतियों को यह कहकर जनता पर थोपते
हैं कि यही हमारे देश के हित में है कि वैश्वीकरण-उदारीकरण और निजीकरण के अलावा अब
और कोई रास्ता नहीं है. अपने शासकों और विदेशी साम्राज्यवादियों की सांठ-गांठ के
जरिये लादी जा रही गुलामी, पुरानी प्रत्यक्ष औपनिवेशिक गुलामी से ज्यादा जघन्य है, ज्यादा बर्बर है, लेकिन फिर भी लोगों में यह ज्यादा
स्वीकार्य है. पिछले 10 वर्षो से हम इसी नये किस्म की गुलामी के साये में जी रहे हैं.
वैश्वीकरण की गुलामी के इस दौर में साम्राज्यवाद के साथ सांठ-गांठ करके अदानी, अंबानी, प्रेमजी, टाटा, बिरला, वाडिया, नारायणमूर्ति जैसे मुट्ठी भर पूँजीपतियों
ने इन नीतियों से भरपुर मुनाफा कमाया है. शेयर बाजार के मात्र पांच लाख सट्टेबाजों
ने एक साल में चार लाख करोड़ रुपये का मुनाफा कमाया, जो खेती में लगी 67 करोड़ जनता की कुल आय से भी ज्यादा
है. पूँजीपतियों के अलावा देश के नौकरशाह, नेता, डीलर, डिस्ट्रीब्यूटर, एजेंट, माफिया, काले धंधे में लगे लोग, बिके हुए बुद्धिजीवी, मीडिया के शीर्षस्थ लोगों का एक तबका, मल्टीनेशनल के टुकड़खोर और
टीवी-सिनेमा के व्यवसायी, कुल मिलाकर देश की आबादी का एक छोटा-सा हिस्सा विदेशी थैलीशाहों का
पैरोकार और चाटुकार बन गया है. मध्य वर्ग का ऊपरी तबका भी साम्राज्यवादियों की
जूठन चाट कर अपने को धन्य-धन्य समझता है. देश की शेष 80-90 प्रतिशत आबादी
मजदूर, किसान, छात्र-नौजवान,
छोटे कर्मचारी और छोटे-छोटे धंधों में लगे असंगठित क्षेत्र के
मेहनतकश लोग आज इन नीतियों की मार से त्रस्त और बदहाल हैं.
साथियों, वैश्वीकरण हमारे देश की बहुसंख्यक जनता के लिए एक राष्ट्रीय
महाविपत्ति है. एक नये तरह की गुलामी है जो चतुराई और धूर्तता के साथ लायी जा रही
है. अखबार, टीवी चैनल, पत्र-पत्रिकाओं और छोटे-बड़े नेता सभी इस साजिश में एक हैं. यह
राष्ट्रीय महाविपत्ति है क्योंकि यह न केवल मजदूरों के लिए, बल्कि देश की 80 प्रतिशत जनता के लिए तबाही लेकर आयी
है. इस महाविपत्ति का सामना करने के लिए देश की 80 प्रतिशत जनता को संगठित होना होगा.
देशी-विदेशी पूँजी के इस कातिलाना हमले का मुकाबला हम अकेले-अकेले लड़कर नहीं कर
सकते. पिछले 10 वर्षो के दौरान देश की जनता में इस महाविपत्ति का अहसास बढ़ा है.
लोगों ने इसका विरोध भी किया है. आंदोलन भी हुए है और आज भी जनता के अलग-अलग तबके
इसके खिलाफ लगातार संघर्षरत हैं. लेकिन, अपने मुश्तरका दुश्मन के खिलाफ एकजुट
होकर लड़ने के बजाय अब तक हम छिटपुट, स्थानीय, विभागीय और बिखरी-बिखरी लड़ाइयां
ही लड़ते रहे हैं. देशव्यापी एकजुट संघर्ष अभी नहीं हो पाया है. यही कारण है
कि प्रतिरोध संघर्षो के अनवरत सिलसिले के बावजूद देशी-विदेशी पूँजी का आक्रमण थमने
के बजाय लगातार तेज होता जा रहा है. पिछले 20 वर्षो के दौरान बैंक, बीमा, सार्वजनिक निगम, बिजली, गोदी और बंदरगाह, कोयला खदान, परिवहन और विभिन्न सरकारी विभागों की
यूनियनों ने जुझारू आंदोलन किये. देश के विभिन्न हिस्सों में उदारीकरण, निजीकरण और विदेशीकरण के खिलाफ
जन-पक्षधर संगठनों तथा मजदूरों,
किसानों, आदिवासियों,
छात्र-नौजवानों,
मछुआरों, चाय बागान के मजदूरों, प्राइवेट कारखानों, देशी-विदेशी पूँजीपतियों के उद्योगों
के कामगारों और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों ने अपने-अपने क्षेत्र में दृढ़तापूर्वक
संघर्ष चलाया. कुछ मामलों में उन्हें आंशिक सफलता भी मिली, लेकिन आमतौर पर इन संघर्षो का
निर्णायक नतीजा सामने नहीं आया है. इन आंदोलन को कुचलने के लिए देश के शासकों ने
एस्मा, राष्ट्रीय सुरक्षा कानून और टाडा जैसे काले कानूनों तथा बर्बर
पुलिस दमन का सहारा लिया है. किसी-किसी मामले में तो उन्होंने अपने पूर्ववर्ती
शासक अंग्रेजों को भी पीछे छोड़ दिया है. दूसरे चरण के सुधार के महत्वपूर्ण अंग के
रूप में सरकार नया श्रम कानून लाने की तैयारी कर रही है. विदेशी साम्राज्यवादियों
के साथ षडयंत्र करके सरकार एक ऐसा श्रम कानून तैयार कर रही है जिसके जरिये देश में
मजदूरों-कर्मचारियों द्वारा लंबे संघर्षो के बाद प्राप्त जनवादी अधिकार उनसे छीन
लिये जायेंगे. श्रम सुधार की प्रक्रिया में मजदूर संगठनों का कोई प्रतिनिधि शामिल
नहीं किया गया है जबकि देश के पूँजीपतियों को लेकर सरकार ने अनेकानेक सलाहकार
समितियों का गठन किया है. देशी-विदेशी पूँजीपतियों द्वारा श्रम कानूनों में बदलाव
के लिए लगातार दबाव डाला जा रहा है. भाजपा की नयी सरकार उनके अरमानों को पूरा करने
जा रही है.
वैसे तो हमारे देश की सरकार मजदूर आंदोलनों का दमन करने के लिए
किसी भी जनवादी अधिकार की परवाह नहीं करती. वह यूनियन पर भले ही प्रतिबंध न लगा
पाये, लेकिन आये दिन हड़तालों पर रोक के लिए एस्मा और राष्ट्रीय सुरक्षा
कानून का इस्तेमाल करती है. साथ ही यूनियनों को तोड़ने, नेताओं को डराने, धमकाने, फर्जी मुकदमों में फँसाने और
प्रलोभन देने तथा अपने प्रचार माध्यमों के जरिये यूनियनों के खिलाफ जनता को
भड़काने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देती. इस नयी गुलामी के खिलाफ उठने वाले भावी
तूफानों का सरकार को पूरी तरह आभास है और ये सारी तैयारियाँ भावी झंझावातों से
बचाव के लिए ही हो रही हैं.
साथियों, आज हमारा देश और हमारा आंदोलन एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहाँ से आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता
है मेहनतकशों की व्यापक, सुदृढ़ और जुझारू एकता. आज दुनिया भर के मजदूरों के हितों पर
कुठाराघात करने के लिए दुनियाभर के पूँजीपति आपस में गंठजोड़ कर रहे हैं. दूसरी ओर
राजनीतिक पार्टियाँ मेहनतकश जनता को जाति-धर्म और क्षेत्र के झगड़ों में उलझा कर उनकी
एकता को खंडित कर रही है. पूँजी के समवेत आक्रमण का मुकाबला हम भला अकेले कर
पायेंगे? हमें न सिर्फ अपनी एकता के मार्ग में आनेवाली बाधाओं को हटा कर
अपनी एकता को मजबूत बनाना है,
बल्कि हमें अपने साथ जनता के उन सभी तबकों को भी एकजुट करना है, जो इस राष्ट्रीय महाविपत्ति से व्यग्र
और बेचैन हैं. कुछएक आनुष्ठानिक हड़तालों, आंदोलनों और छिटपुट संघर्षो के बल पर
हम वर्तमान चुनौतियों का सामना नहीं कर सकते. पिछले 10 वर्षो का अनुभव हमें यही सिखाता है.
इसलिए हमें देश के सभी मेहनतकशों की एकता कायम करने और इस संघर्ष को देश भर में
फैलाने का प्रयास करना होगा. हमे पूरी क्षमता और संकल्प के साथ इस काम में लग जाना
होगा, बिना यह परवाह किये कि हमारी ताकत कम है और आंदोलन कमजोर. जब काम
शुरू होगा तभी वह पूरा भी होगा. यह समय किसी मसीहा, किसी चमत्कारी नेता के इंतजार का नहीं
है. यह समय अपनी ताकत और अपनी एकजुटता पर भरोसा करने का है. इस राष्ट्रीय विपदा की
घड़ी में देश को नेतृत्व देने के लिए हमें ही आगे आना होगा. इस नयी गुलामी के
खिलाफ लड़ाई में अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद हम अगली कतारों में रहे हैं और आगे
भी हमें अपने ऐतिहासिक दायित्व का निर्वाह करना होगा. निश्चय ही यह एक कठिन चुनौती
है. यह काम असंभवप्राय लग सकता है, लेकिन हमारे देश और दुनिया का इतिहास
हमें बताता है कि क्रांतिकारी आंदोलन छिटपुट झड़पों और छोटी-छोटी कार्यवाहियों से
शुरू होकर देशव्यापी रूप ग्रहण करते हैं और निर्णायक मोड़ तक पहुँचते हैं. इसके
लिए हमें :-
* मजदूर आंदोलन में इंकलाबी जोश भरने के
लिए उसे अर्थवाद, कानूनवाद और राजनीतिक पार्टियों के पिछलग्गूपने से बाहर निकालना
होगा.
* गुटबंदी, विभागवाद और फूटपरस्ती की बेड़ियों को
तोड़कर मेहनकशों की नयी और व्यापक एकजुटता कायम करनी होगी.
* असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को संगठित
करने पर विशेष जोर देना होगा.
* मजदूरों-कर्मचारियों और सभी मेहनतकश
तबकों की क्रांतिकारी एकता स्थापित करनी होगी.
* निजीकरण के नाम पर विदेशीकरण, विकास के नाम पर विनाश को न्योता देने
और देश को गुलामी में जकड़नेवाली नव उदारवादी सामा्रज्यवादी आर्थिक नीतियों के
खिलाफ निर्णायक संघर्ष की तैयारी करनी होगी.
-आल इंडिया
वर्कर्स काउन्सिल के लखनऊ सम्मेलन (6-7-8 नवम्बर 2014) में दिगम्बर द्वारा
प्रस्तुत
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