इन्कलाब जिंदाबाद साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!
अमर शहीदों का पैगाम जारी रखना है संग्राम!!
साथियो,
शहीद–ए–आजम
भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को हुआ था जब
हमारा देश अंग्रेजों का गुलाम था। गुलामी के दौर में अपने हक–हकूक
और आजादी की बात करने वालों को देशद्रोही और आतंकवादी कहा जाता था। भगत सिंह बचपन
से ही आजादी की भावना से ओत–प्रोत थे और आजादी की लड़ाई के सच्चे
सिपाही थे। इसलिए भगत सिंह न केवल गोरी सरकार से आजादी चाहते थे बल्कि लूट–शोषण,
छूआ–छूत,
साम्प्रदायिक
दंगों और बेरोजगारी–गरीबी से भी आजादी चाहते थे। वह बहुत ही दूर–द्रष्टा
थे। उनके पास देश को आजाद कराने का सही रास्ता और तरीका था। उन्होंने कहा था कि “क्रान्ति
सिर्फ बम और पिस्तौल से नहीं आती, क्रान्ति की तलवार हमेशा विचारों की
शान पर तेज होती है।” उनका सपना एक ऐसे समाज का सपना था जिसके नागरिक
तार्किक हों, वैज्ञानिक हों, अन्धविश्वासी न
हों, जाति–धर्म से ऊपर हों, जिनमें सच्ची
एकता और भाईचारा हो, वर्गीय चेतना हो तभी सच्ची आजादी कायम हो
पायेगी। इसी सपने को पूरा करने के लिए शहीद–ए–आजम
भगत सिंह और उनके साथियों ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। लेकिन क्या उनका यह
सपना आजादी के 71 साल बाद भी पूरा हुआ ? दुर्भाग्यवश देश
की मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए इस सवाल का जवाब हमें नहीं में ही मिलेगा।
आजादी के बाद सरकार ने जनता को मूलभूत
सुविधाएँ देने का वायदा किया था–– रोटी, कपड़ा, मकान,
शिक्षा
और चिकित्सा। लेकिन हमारे देश के शासक अपने इस वायदे से मुकर गये। आज शिक्षा देने
के काम को मुनाफाखोर निजी शिक्षण–संस्थानों के भरोसे छोड़ दिया गया है।
निजी स्कूलों–कॉलेजों की हालत यह है कि देश की 70
फीसदी आबादी के बच्चे प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक की भारी फीस नहीं चुका सकते।
आज शिक्षा का बाजारीकरण करके इसे खरीद–फरोख्त की वस्तु बना दिया गया है।
बाजार में आये दिन शिक्षा बेचने वालों की दुकानें खुल रही हैं। जिसके पास जितने
रुपये हों वह वैसी ही शिक्षा खरीद सकता है। ऐसी बिकाऊ शिक्षा हमारे समाज में
संवेदनशीलता और मानवीय गुण पैदा करने में असफल है। फीसें इतनी महँगी हैं कि वह
गरीब जनता की क्षमता से बाहर है। शिक्षा के निजीकरण से यह तय हो गया है कि गरीब
किसान–मजदूरों के बच्चे कभी भी डॉक्टर, इंजीनियर,
वैज्ञानिक
नहीं बन सकते। मेरठ के एक प्राइवेट मेडीकल कॉलेज में एमबीबीएस कोर्स में एक साल की
फीस लगभग 32 लाख रुपये है, इसका मतलब पूरे
पाँच साल के कोर्स की फीस 1 करोड़ 60 लाख रुपये है।
आज देशभर में महँगी फीस के चलते छात्र आत्महत्या कर रहे हैं। इण्डिया स्पेंड की एक
रिपोर्ट के अनुसार 2015 में देश भर में 8,934 छात्रों ने
आत्महत्याएँ कीं।
महँगी फीस के बावजूद नौजवान जैसे–तैसे
शिक्षा हासिल कर भी लें तो उन्हें आज कोई सम्मानजनक रोजगार की गारंटी नहीं है। आज
बेरोजगारी इस हद तक पहुँच चुकी है कि हाल ही में उत्तर प्रदेश में चपरासी की 62
पदों के लिए, जिसकी योग्यता सिर्फ 5वीं पास है,
93,000 आवेदन आये। जिसमें 3700 पीएचडी, 28,000 पोस्ट ग्रेजुएट,
50,000 ग्रेजुएट हैं। इस एक उदाहरण से हम अंदाजा लगा सकते हैं कि देश में
रोजगार की क्या स्थिति है ? योग्यता के जो भी मापदण्ड दिये जाते
हैं उससे ज्यादा योग्यता वाले हजारों–लाखों की संख्या में नौजवान आवेदन करते
हैं। फिर भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का कहना है कि उत्तर प्रदेश में सरकारी
नौकरियों की कमी नहीं है, बल्कि योग्य नौजवानों की कमी है। यह
बयान नौजवानों की योग्यता का अपमान है। अगर 5वीं पास योग्यता
के लिए पीएचडी, एमटेक, एमए, बीटेक, बीएससी
जैसी योग्यता वाले नौजवानों को भी योग्य नहीं समझा जाता तो यह सरकार की काबलियत पर
ही सवालिया–निशान है ?
दूसरी तरफ रोजगार न मिलने के लिए खुद
नौजवानों को ही जिम्मेदार बताया जा रहा है। जिससे कि नौजवानों के आत्मविश्वास और
मनोबल को तोड़ा जा सके ताकि नौजवान कभी भी सरकार पर सवाल न उठा सकें। जबकि देश में
ऐसा कोई भी सरकारी विभाग नहीं जहाँ हजारों–लाखों की संख्या में पद खाली न हों।
फिर भी हर जगह ठेका भर्ती की जा रही है। सवाल यह है कि स्थायी भर्ती क्यों नहीं है
? अगर सरकार कोई स्थायी भर्ती निकालती भी है तो पेपर लीक, भर्ती
में धाँधली के नाम पर उसे रद्द कर दिया जाता है या भर्ती पर कोर्ट का स्टे आ जाता
है। जैसे हाल ही में एसएससी में भ्रष्टाचार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भर्ती
पर स्टे लगा दिया है। अगर कोई भर्ती पूरी हो भी जाती है तो नौजवानों को
नियुक्तियाँ देने के बजाय सरकार उन पर लाठीचार्ज करवाती है, जैसे हाल ही में
लखनऊ में अपनी नियुक्तियों के लिए आन्दोलन कर रहे शिक्षकों पर लाठीचार्ज किया।
गुलाम भारत में जब जनता अपने हकों की
माँग करती थी, तब अंग्रेज सरकार भी ऐसे ही लाठी–गोली
चलवाती थी। तो क्या उस गोरी सरकार और आज की काली सरकार में कोई अन्तर है ? आज
की सरकार भी अंग्रेजों की तरह जनविरोधी कार्य कर रही है। क्या ऐसी सरकार को हम
जनता की सरकार कह सकते हैं ?
आज देश में छात्र–नौजवानों
की तरह किसानों की हालत भी बद–से–बदतर होती जा
रही है। जिस तरह अंग्रेज सरकार किसानों की फसल औने–पौने दामों में
खरीदती थी, प्राकृतिक आपदा आने पर किसी तरह की कोई राहत
देने के बजाय उलटा किसानों से और ज्यादा टैक्स वसूलती थी। आज एक तरफ बिजली,
डीजल,
खाद–बीज,
डाई–यूरिया
और कीटनाशक दवाइयों के महँगे होने के चलते लागत लगातार बढ़ती जा रही है। वहीं फसलों
के तैयार होने के बाद उनका वाजिब दाम न मिलने के चलते लाखों किसान कर्ज के जाल में
फँसकर आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। आज कोई भी राज्य किसानों की
आत्महत्याओं से अछूता नहीं है। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी ने
अपने भाषण में गन्ना किसानों को, गन्ना न बोने की और अन्य फसलें जैसे
साग–सब्जियाँ बोने की नसीहत दी और कहा कि गन्ना उगाने से शुगर की बीमारी
फैलती है, जबकि केन्द्र सरकार ने मई 2018 तक पाकिस्तान
से 19,080 क्विंटल चीनी खरीदी है। क्या पाकिस्तान की चीनी से शुगर की बीमारी
नहीं होती ? हकीकत यह है कि केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के
गन्ना किसानों का चीनी मिलों पर 10 हजार करोड़ रुपये का भुगतान बकाया है।
दूसरी तरफ सब्जियाँ उगाने वाले किसानों की स्थिति यह है कि महाराष्ट्र में किसानों
के टमाटर का मंडी भाव 1 रुपया/किलो से भी कम है। यानी उनकी उपज की
लागत निकलना तो दूर उन्हें खेत से मंडी तक का भाड़ा भी नहीं मिल पा रहा है।
देश में खेती–किसानी की हकीकत
यह है कि ऐसी कोई फसल नहीं है जिसे बोने वाले किसान आत्महत्या न कर रहे हों और यह
सिलसिला थमने के बजाय लगातार बढ़ता ही जा रहा है। किसानों की इतनी दुर्दशा के
बावजूद सरकार द्वारा किसानों को बिना बताये फसल बीमा के नाम पर उनके खातों से पैसा
काट लेना, आपदा आने पर मुआवजा न देना, कर्जमाफी के नाम पर उलटा किसानों को
लूट लेना, इस लूट के खिलाफ आंदोलन करने वाले किसानों का दमन करना जिसका ताजा
उदाहरण मध्य प्रदेश के मंदसौर के किसानों का है जिसमें 6 किसानों की
पुलिस द्वारा गोली मारकर हत्या की गयी और सैंकड़ों किसानों को घायल किया गया,
इस
तथाकथित देशभक्त काली सरकार का असली रूप यही है।
सरकार की जिन नीतियों के चलते छात्र–नौजवान,
किसान
तबाह और बर्बाद हैं, उन्हीं नीतियों के चलते देश में मजदूर भी बदहाल
हैं। खेत मजदूर, भट्टा मजदूर या गरीब किसानों के बेटे काम न
मिलने के चलते गाँव से उजड़ कर शहरों में जाने को मजबूर हैं। जबकि दूसरी तरफ इन्हीं
दमनकारी नीतियों के चलते शहरों में मजदूरों की छँटनी की जा रही है या उनसे कम से
कम वेतन पर ज्यादा से ज्यादा समय तक काम लिया जाता है। पूँजीपतियों के मुनाफे को
सुरक्षित करने के लिए ऐसे कानून बनाये जा रहे हैं जिनके चलते सैंकड़ों मजदूरों को
एकसाथ फैक्ट्री से बाहर किया जा सके।
ऐसी स्थिति में भगत सिंह ने छात्र–नौजवान,
मजदूर
और किसानों को साफ सन्देश देते हुए कहा था कि “गरीब मेहनतकशों
व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं,
इसलिए
तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए।
संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग,
धर्म,
या
राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि
तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट
हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा
नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और
तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी।”
साथियों, हमें शहीद–ए–आजम
भगत सिंह के विचारों से प्रेरणा लेते हुए संकल्पबद्ध होकर ऐसे समाज के निर्माण में
लगना होगा जिसका मकसद मुनाफा न होकर मानवता होगा। तभी सच्चे अर्थों में आजादी
आयेगी, तभी भगत सिंह के अधूरे सपने को पूरा किया जायेगा। हम सभी जिन्दादिल
लोगों से आह्वान करते हैं कि वे गोष्ठी में ज्यादा से ज्यादा संख्या में पहुँचे और
महान क्रान्तिकारी भगत सिंह के विचारों के हमराही बनें।
इन्कलाब जिन्दाबाद!