गुरुवार, 26 अक्टूबर 2017

‘अमूर्त श्रम’ और ‘मूर्त श्रम’

कार्ल मार्क्स ने अपनी रचना ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना’ में अमूर्त श्रम और मूर्त श्रम के सम्बन्ध में अपनी राय रखी है. उन्होंने यहीं पर दोनों में अंतर भी स्पष्ट किया है। उनके हिसाब से अमूर्त श्रम आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण सामान्य श्रम-काल से सम्बन्ध रखता है और मूर्त श्रम किसी ख़ास कार्रवाई के रूप में ‘मानव श्रम’ से सम्बन्ध रखता है, ‘मानव श्रम’ ऐसी कार्रवाई होनी चाहिए जिसका विशेष उपयोगी प्रभाव होता हो।
आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण श्रम-काल के रूप में, मानव श्रम’ उत्पादों या परिसंपत्तियों की मूल्य वृद्धि में खर्च किया जाता है (जिससे उत्पादों के पूँजीगत मूल्य को संरक्षित किया जाता है और/या लागत से पैदावार तक मूल्य का हस्तांतरण होता है)। इस अर्थ में, श्रम एक ऐसी गतिविधि है जो आर्थिक मूल्य को शुद्ध और सरल रूप में उत्पन्न करती है या कायम करती है, जिसकी पैसे के रूप में वसूली तभी सम्भव है जब उस उत्पाद की बिक्री होती है और उसे कोई खरीदार हासिल कर लेता है। श्रम की मूल्य-निर्माण क्षमता को सबसे स्पष्ट रूप से दिखलाने का तरीका है-- सभी श्रम को बंद कर देना। अगर सभी श्रम रोक दिया जाए, तो जिस पूँजीगत संपत्ति के साथ काम किया जाता है उसका मूल्य आम तौर पर ख़तम हो जायेगा और अंत में, अगर श्रम को स्थायी रूप से रोक दिया जाए, तो शहर भुतहा खंडहर में बदल जाएगा।
अब हमें ‘मानव श्रम’ के बारे में इस तरह विचार करना चाहिए, जैसे वह एक विशेष प्रकार की उपयोगी गतिविधि हो. जैसे—‘मानव श्रम’ का इस्तेमाल इस तरह करना होगा कि वह कोई ख़ास उत्पाद पैदा करने के काम आये, जिसका उपयोग दूसरे लोगों या खुद उत्पादकों द्वारा किया जा सके. वह उत्पाद वास्तविक होना चाहिए, न कि काल्पनिक. इस अर्थ में, श्रम एक ऐसी गतिविधि है जो उपयोग-मूल्य उत्पन्न करती है, यानी वास्तविक उत्पाद में ऐसा परिणाम या प्रभाव पैदा करती है जो इस्तेमाल किये जाने लायक हो या उपभोग में लाये जाने लायक हो। उपयोग-मूल्य के सृजन का महत्त्व तब उभरकर सामने आ जाता है, जब खराब गुणवत्ता की वस्तुओं और सेवाओं का निर्माण होता है या जिनकी समय पर आपूर्ति नहीं होती है और जो उपभोक्ता के लिए किसी काम के नहीं होते है। श्रम का इस्तेमाल उपयोगी उत्पादों का निर्माण करने के लिए होना चाहिए, भले ही उनको किसी भी कीमत पर बेचा जाये, नहीं तो उनका कोई उपयोग-मूल्य नहीं होगा. अगर श्रम से बेकार उत्पाद या नतीजे सामने आते हैं, तो यह महज श्रम-काल की बर्बादी है।
इसलिए, मार्क्स का तर्क है कि इन्सान की मेहनत (1) एक ऐसी गतिविधि है, जो अपने उपयोगी प्रभाव के जरिये खास तरह के उत्पादों को पैदा करने में मदद करती है और (2) आर्थिक मायने में यह एक मूल्य-निर्माण की गतिविधि भी है, जिसे यदि उत्पादक कार्रवाई के रूप में लिया जाए, तो शुरूआती लागत सामग्री की तुलना में अधिक मूल्य निर्माण करने में सहायक हो सकती है। यदि कोई नियोक्ता श्रम को भाड़े पर रखता है, तो वह इन दो बातों पर गौर करता ही है— पहला, उसके व्यापार में क्या उस श्रम के द्वारा मूल्य योगदान हो सकता है और दूसरा, श्रम सेवा उसके व्यापार परिचालन के लिए कितनी उपयोगी होगी? यानी, न केवल सही तरह के काम का पूरा होना जरूरी है, बल्कि उसका इस तरीके से पूरा होना जरूरी है जिससे वह नियोक्ता को पैसा बनाने में मदद करे। यदि श्रम कोई मूल्य योगदान नहीं करता है, तो नियोक्ता इससे पैसा नहीं कमा सकता और तब श्रम केवल उसके लिए एक फ़ालतू का खर्चा होगा।
"एक तरफ सभी श्रम, यदि शारीरिक रूप से देखा जाये, तो मानव श्रम शक्ति खर्च है, और एकरूप अमूर्त मानव श्रम के अपने चरित्र की वजह से, यह माल के मूल्य को उत्पन्न और निर्मित करता है। दूसरी ओर, सभी तरह का श्रम एक विशेष रूप में और एक निश्चित उद्देश्य के साथ, मानव शक्ति का खर्च है और इसमें, मूर्त उपयोगी श्रम के अपने चरित्र के चलते, वह उपयोग मूल्य पैदा करता है। ...पहली नजर में कोई माल खुद को हमारे सामने दो चीजों की जटिलता के रूप में प्रस्तुत करता है-- उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य। बाद में, हमने यह भी देखा कि श्रम की भी वैसी ही दोहरी प्रकृति होती है; क्योंकि जहाँ तक इसके मूल्य में अभिव्यक्ति पाने की बात है, उसके पास केवल वही चारित्रिक विशेषता नहीं होती जो इसके उपयोग मूल्य उत्पन्न करने के साथ जुड़ी होती है। मैंने पहली बार मालों में निहित श्रम की इस दोहरी प्रकृति की ओर ध्यान आकर्षित किया और ­उसकी आलोचनात्मक जाँच-पड़ताल की।... यह मुद्दा एक ऐसी बुनियाद है जिस पर राजनीतिक अर्थशास्त्र की स्पष्ट समझ टिकी है।" – कार्ल मार्क्स