मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

गुजरात- गरीबी के पारावार में विकास की मीनार

झूठ के सिर-पैर नहीं 
2014 में लोकसभा चुनाव होना है। इसकी तैयारी जोरों पर है। ऐसा लग रहा है जैसे चुनावी दंगल में भाजपा के पहलवान के मुकाबले कांग्रेस का पिद्दी खड़ा है। धुँआधार प्रचार का कमाल है कि आज नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व नौजवानों को खूब लुभा रहा है। वे गुजराती और हिन्दी में अच्छा भाषण दे लेते हैं। 2011 में अपने ‘वाइब्रेंट गुजरात’ सम्मलेन में उन्होंने अपनी सरकार की उपलब्धियाँ गिनाते हुए कहा था कि विकास के मामले में गुजरात कितना आगे है, इसका प्रमाण यह है कि यूरोप में भिन्डी की आपूर्ति गुजरात से होती है, सिंगापुर में दूध गुजरात से जाता है, 6 लाख जल संचय के उपाय किये गये हैं, पूरे देश में जल स्तर नीचे जा रहा है जबकि अकेले गुजरात में ऊपर जा रहा है। लेकिन लगता है सच्चाई देवी उनसे खफा है क्योंकि देश में भिन्डी के उत्पादन और निर्यात के मामले में गुजरात नहीं, बल्कि आँध्रप्रदेश अग्रणी है। दूध के उत्पादन में उत्तर प्रदेश पहले स्थान पर है जबकि गुजरात चैथे स्थान पर है। पिछले साल गुजरात का “कपास का टोकरा” राजकोट जब भयंकर सूखे से जूझ रहा था, तो सिंचाई के वैकल्पिक साधन की व्यवस्था नहीं की गयी। लिज्जत पापड़ की शुरुआत कुछ महिलाओं ने 1959 में की थी और उनकी संस्था ‘सेवा’ मोदी की आँखों में चुभती रही है। लेकिन अब मोदी खुद ही उनकी उपलब्धियों का श्रेय लेकर अपनी पीठ थपथपाते फिर रहे हैं। बेरोजगारी का आलम यह है कि (एनएसएसओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार ‘पिछले 12 सालों में यहाँ रोजगार वृद्धि दर शून्य के करीब पहुँच चुकी है। एक सवाल सहज ही जेहन में आता है कि अगर वहाँ बेरोजगारी की समस्या हल कर ली गयी है, तो देश से बेरोजगारों का बहाव गुजरात की ओर क्यों नहीं हो रहा है?

पूँजीपतियों के चहेते
सच्चाई यह है कि गुजरात निजी कम्पनियों का अभयारण्य बना हुआ है। टाटा ने पश्चिम बंगाल के सिंगूर से खदेड़े जाने के बाद नैनो कार का अपना प्लांट गुजरात स्थानान्तरित कर लिया। टाटा ने वहाँ 2200 करोड़ का निवेश किया, जबकि 5970 करोड़ का कर्ज गुजरात सरकार ने 0.1 फीसदी ब्याज पर दिया। 10000 रुपये वर्ग मीटर की जमीन 900 रुपये के भाव में दी और वह भी कृषि विश्वविदयालय की जमीन हड़प कर। इसके अलावा बिजली, पानी, सड़क सब कुछ सस्ते दरों पर मुहैया किया गया। मोदी की कृपा बरसने के बाद अब टाटा कम्पनी बड़ी संख्या में कारों के उत्पादन में लगी हुई है। इसी तरह गौतम अदानी की कम्पनी, अमरीकी गैस कम्पनी, जियो और अन्य कम्पनियाँ भले ही गुजरात में फल–फूल रही हैं, लेकिन विकास की इस तेज आँधी का असर जनता की जिन्दगी पर दिखायी नहीं देता।

गरीब बच्चों की शिक्षा में फिसड्डी 
गुजरात सरकार ने गरीब छात्रों को शिक्षा देने से हाथ खड़े कर दिये हैं। उसने मई 2012 में उच्च न्यायालय को कहा कि सामाजिक–आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के छात्रों की प्राथमिक शिक्षा के लिए उसके पास पर्याप्त पैसा नहीं है। गुजरात सरकार का 2013–14 का बजट 1.14 लाख करोड़ का है, लेकिन उसके पास गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए पैसा नहीं है। दूसरी ओर 2011 के एक आदेश में सरकार ने निजी शिक्षा संस्थानों को प्रवेश प्रक्रिया और मनमानी फीस वसूलने की खुली छूट दे दी है। गुजरात के सरकारी स्कूलों की जर्जर हालत का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1999–2000 में सरकारी स्कूलों में 81.34 लाख बच्चे पढ़ते थे। 2011–12 में उनकी संख्या घटकर 60.32 लाख रह गयी। बाकी गरीब बच्चों को पढ़ाई छोड़ने या मध्यवर्ग के बच्चों को निजी स्कूलों में प्रवेश के लिए बाध्य कर दिया गया, जहाँ उनके अभिभावकों को ऊँची फीस भरनी पड़ती है। 2003 में 16.80 लाख बच्चों ने पहली कक्षा में प्रवेश लिया था जबकि 2013 तक दसवीं कक्षा में मात्र 10.30 लाख बच्चे रह गये। इस तरह बच्चों को स्कूल में रोके रखने की दर के मामले में देशभर में गुजरात का 18वाँ स्थान है। प्राथमिक विद्यालयों की उपेक्षा का आलम यह है कि जहाँ 2005–06 में अहमदाबाद नगर निगम के पास 541 प्राथमिक विद्यालय थे, वहाँ 2011–12 में घटकर 464 रह गये। शिक्षकों की कमी और खराब होता ढाँचा सरकारी विद्यालयों की पहचान बन गयी है । ये आँकड़े खुद गुजरात सरकार ने दिये हैं। निजी शिक्षा इतनी महँगी हो गयी है कि आम आदमी के बच्चे उसमें पढ़ नहीं सकते।
गुजरात के बच्चे सिर्फ शिक्षा से वंचित हैं, इतना ही नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि वे पोष्टिक भोजन पा रहे हैं और उनका स्वास्थ्य ठीक है। आँकड़े बताते है कि गुजरात में खून की कमी (अनीमिया) से पीड़ित बच्चों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है । 1998–99 में यह अनुपात 74.5 प्रतिशत था जो 2005–06 में 80.1 प्रतिशत हो गया। इसी अवधि में एनीमिया से पीड़ित गर्भवती महिलाओं की संख्या 47.4 प्रतिशत से बढ़कर 60.6 प्रतिशत हो गयी। बाल विकास सेवा योजना के बारे में कैग की रिपोर्ट में दी गयी जानकारी चैंकाने वाली है। जिन आठ राज्यों में एक लाख से अधिक बच्चे गम्भीर कुपोषण के शिकार हैं, उनमें गुजरात भी शामिल है। बच्चों में मृत्युदर के मामले में भी गुजरात अगली कतार में है। वहाँ 2005–06 में 51,300 लोगों पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र था, लेकिन 2011–12 में घटकर 56,100 लोगों पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र रह गये हैं।

महिलायें हाशिए पर 
हिन्दू संस्कृति में महिलाओं को देवी के समान माना गया है। भाजपा ने बार–बार महिलाओं की दशा सुधारने का आश्वासन भी दिया। लेकिन वहाँ की हकीकत उनके इरादों की चुगली कर ही देती है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक 2006–07 में दो लाख से अधिक महिलाओं को राष्ट्रीय मातृत्व लाभ योजना का फायदा मिलना था, लेकिन उनमें से केवल 42,373 महिलाओं को ही यह लाभ दिया गया जो केवल 20 प्रतिशत है। इस मामले में देश भर में गुजरात का 17वाँ स्थान है। ग्यारवीं पंचवर्षीय योजना में अनुसूचित जाति के बच्चों और छात्रों के विकास के लिए 29 परियोजनाओं को लागू किया जाना था, लेकिन 18 परियोजनाओं में अनुमान से बहुत कम खर्च किया गया। हमारे देश में बुजुर्गों की सेवा करना धर्म माना जाता है, लेकिन गुजरात इस मामले में भी फिसड्डी साबित हुआ। 2006–07 में 3.29 लाख लोगों को राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना का लाभ मिलना चाहिए था लेकिन गुजरात सरकार ने केवल 40,117 बुजुर्गों को ही पेंशन दी, जो कुल संख्या का सिर्फ 12.2 प्रतिशत है, यानी 87.8 प्रतिशत बुजुर्गों को इससे वंचित रखा गया।

किसानों की दुर्दशा 
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ 65 प्रतिशत से अधिक आबादी खेती पर निर्भर है। केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने अपनी नीतियों के जरिये देश भर के किसानों को बरबादी के कगार पर ला दिया है, लेकिन गुजरात भी इसमें पीछे नहीं है। सन 2000 – 06 के दौरान सिंचाई परियोजनाओं के लिए 10,158 हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण किया गया, जिसके चलते 15,731 किसान परिवार प्रभावित हुए और उन्हें प्रति एकड़ 22,611 रुपये मुआवजा दिया गया। इसी समय उद्योग के लिए किसानों की 3006 हेक्टयेर भूमि का अधिग्रहण किया गया, जिससे 424 परिवार प्रभावित हुए और उन्हें प्रति एकड़ 15,873 रुपये मुआवजा मिला। यह 1991–2000 के दौरान मिले मुआवजे से बहुत कम है क्योंकि उस समय उद्योग के लिए जिस 5,626 हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण करके 2888 परिवारों को विस्थापित किया गया था, लेकिन उन्हें साधे तीन गुना से भी अधिक प्रति एकड़ 59,294 रुपये मुआवजा दिया गया था। अपनी खेती से उजड़ चुके किसान बेरोजगार होकर इधर–उधर भटकने पर मजबूर हैं। आखिर मुआवजे में मिला 2 या 3 लाख रुपये से कितने दिन घर चलाते?
इतना ही नहीं, जूनागढ़ के जैतपुर–बेरवाल के बीच बन रहे हाइवे के लिए किसानों की 720 एकड़ जमीन छीन ली गयी। इसके खिलाफ जब किसानों ने आन्दोलन किया, तो पुलिस ने आन्दोलन का दमन करने के लिए किसानों पर बर्बरतापूर्वक लाठी चलायी। सरकार ने 289 किसानों को गिरफ्तार कर लिया, ताकि किसान आन्दोलन को तोड़ा जा सके। लेकिन फिर भी किसान आन्दोलन उग्र रूप लेता जा रहा है। अब किसान किसी भी कीमत पर जमीन देने के लिए तैयार नहीं है। एक नाटकीय घटना में किसानों की स्त्रियों ने मदद के लिए मोदी को खून से लिखा खत भेजा। क्योंकि मोदी ने प्रचार के दौरान अपने जोशीले अंदाज में कहा था कि “हे, मेरी गुजरात की बहनों, आपको कोई समस्या हो तो मुझे 50 पैसे के एक पोस्टकार्ड पर चिट्ठी लिख भेजना, मैं आपकी सभी समस्याओं को दूर कर दूँगा ।” लेकिन न तो किसी ने किसानों की बात सुनी और न ही उनकी स्त्रियों द्वारा खून से लिखी चिट्ठी ही काम आयी।

न्यूनतम मजदूरी 
एनएसएसओ (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान) के अनुसार, गुजरात के शहरी इलाकों में दिहाड़ी मजदूरी की दर 106 रुपये है, जबकि केरल में यह 218 रुपये है। गुजरात के ग्रामीण इलाकों में यह 83 रुपये है। दिहाड़ी मजदूरी के मामले में देश भर में गुजरात 12वें स्थान पर है। पहले स्थान पर पंजाब है जहाँ गावों में दिहाड़ी 152 रुपये है। मोदी ने ‘वाइब्रेंट गुजरात सम्मलेन’ में कहा कि “गुजरात में मजदूरी की कोई समस्या नहीं है।” सूरत में इसके एक हफ्ते बाद 30 हजार पावरलूम मजदूरों ने कम मजदूरी का विरोध करते हुए चक्का जाम कर दिया और पुलिस के हिंसक दमन के बाद उग्र होकर कई गाड़ियों में आग लगा दी। सन 2011 में मारूति–सुजुकी कम्पनी के दमन–उत्पीड़न के खिलाफ मजदूरों ने हड़ताल कर दी, तो सुजुकी कम्पनी को लुभाने के लिए मोदी जापान पहुँच गये और कम्पनी को हरियाणा में अपना प्लांट बंद करके गुजरात आने का निमंत्रण दे डाला। दरअसल गुजरात में निवेश का माहौल बनाने के लिए किसानों की जमीनों पर कब्जा करके उसे औने–पौने दामों में उद्योगपतियों को बेचा जा रहा है। उन्हें सस्ते दर पर कर्ज, बिजली और अन्य साधन मुहैया किया जा रहा है। दूसरी ओर, मजदूर यूनियनों का दमन करके उन्हें नख–दन्त विहीन बना दिया गया है। यही कारण है कि अम्बानी, अदानी, टाटा और दूसरे औद्योगिक घराने मोदी के नेतृत्व का गुणगान करते नहीं अघाते।
मोदी के विकास के दावे और हकीकत के बीच कितना अन्तर है, इसे भी देख लेते हैं। उन्होंने दावा किया कि गुजरात ने सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों के संचालन के लिए उच्चस्तरीय पेशेवर संस्कृति विकसित की है। इनकी कार्यक्षमता में गजब का सुधार आया है। लेकिन मार्च 2013 में सार्वजनिक कम्पनियों पर कैग ने एक रिपोर्ट बनायी है, जिसमें गुजरात सरकार के दावे की कलई खुल जाती है। यह रिपोर्ट बताती है कि कुछ ही सार्वजनिक कम्पनियाँ मुनाफा कमा रही हैं, लेकिन अधिकतर कम्पनियों के वित्तीय प्रबन्धन, योजना और उन्हें लागू करवाने में भारी कमियाँ हैं। इनका कुल घाटा 4052 करोड़ रुपये है। गुजरात में 2012 के विधानसभा चुनाव के समय मोदी ने प्रत्येक जिले में एक दिन उपवास रखकर अपना सद्भावना मिशन पूरा किया। उन्होंने प्रत्येक जिले में विकास कार्यों के लिए बड़ी वित्तीय राशि जारी करने का वचन दिया। सभी जिलों को मिलाकर यह राशि 39,769 करोड़ रुपये बैठती है। अमरेली और दाहोद के जिलाधिकारियों ने इस बात से इन्कार किया कि अब तक विकास कार्यों के लिए कोई बड़ी राशि प्रदेश सरकार की तरफ से उन्हें मिली है। गुजरात के राजकीय वित्त विभाग और प्रशासन विभाग ने इस बारे में कोई जानकारी देने से इन्कार किया है। जबकि सद्भावना मिशन में जनता के टैक्स का 160 करोड़ रुपया पानी में बहा दिया गया। क्या यह वादा खिलाफी की हद नहीं है?

विकास की हवा
दरअसल गुजरात सरकार इस मामले में भाजपा की पुरानी परम्परा को ही निभा रही है। 1997–98 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने अयोध्या में राम मन्दिर बनाने, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करके स्वदेशी अपनाने का वादा किया था। केन्द्र में सरकार बनाते ही वह सभी वादों को भूल गयी। राम मन्दिर का क्या हुआ, यह सभी जानते हैं। अब तक भाजपा के दो अध्यक्ष और कई बड़े नेता भ्रष्टाचार में लिप्त पाये गये। अपने शासनकाल में भाजपा ने सैकड़ों विदेशी वस्तुओं के आयात से प्रतिबंध हटाकर उनको मँगाये जाने का रास्ता साफ किया। नतीजा, उत्तरप्रदेश के सबसे बड़े गढ़ से भाजपा का बुरी तरह सफाया हो गया। उस सरकार के मुखिया, अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व के आगे नरेंद्र मोदी तो कहीं ठहरते भी नहीं।

छवि चमकाने पर विशेष ध्यान 
मोदी की छवि और गुजरात सरकार की उपलब्धियों को चमकाने का ठेका एक अमरीकी कम्पनी एप्को को दिया गया है। वे इस काम के लिए हर महीने 17 लाख रुपये देते हैं। मोदी की तरह नाइजीरिया के पूर्व तानाशाह सानी अबाचा, कजाखिस्तान के राष्ट्रपति नूर सुलतान नजरबायेव और माफिया मिखाइल खोदोरसकी से जुड़े रूसी नेता भी इस कम्पनी के ग्राहक हैं। युद्ध भड़काने के लिए जनता को तैयार करना, तानाशाहों का बचाव करना, नेताओं को चुनाव जीतने के तिकड़म सिखाना और बड़ी कम्पनियों को मुनाफे की तरकीब सिखाना इस कम्पनी का खास धंधा है। इसने ईराक पर युद्ध थोपने के लिए पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री टोनी ब्लेयर के पक्ष में हवा बनायी थी। मोदी के पक्ष में झूठ को सच और सच को झूठ बनाने की कला के पीछे एप्को का ही हाथ है। एप्को ही मोदी के भाषण लिखवाता है, उनके पक्ष में हवा बनाता और फेसबुक और ट्वीटर जैसी सोशल मीडीया को चलाता है। एप्को की कृपा से ही गुजरात सरकार की नैनो घोटाले की खबर अखबार के किसी कोने में नहीं छपती है। टाइम्स नाऊ और एनडीटीवी पर महाराष्ट्र के किसानों की दुर्दशा की खबरें तो आती हैं, लेकिन गुजरात के किसानों की आत्महत्या या उनके आन्दोलनों की कोई खबर नहीं दिखती। 2009 से पहले गुजरात सरकार सिर्फ 840, 1200 या 9000 अरब रुपये विकास पर खर्च करने के वादे करती थी। लेकिन एप्को की कृपा से उसका वादा अब 30,000 अरब रुपये के पार चला गया है, लेकिन इस कथनी को करनी में बदलने की दर गिरकर डेढ़ प्रतिशत तक पहुँच गयी है। हद तो तब हो गयी जब दो दिन के अन्दर 15,000 गुजरातियों को उत्तराखंड के आपदाग्रस्त दुर्गम इलाके से निकालकर उनके घर का धपोर शंख बजाया गया। इतनी ऊँची डींग हाँकने के कारण उनकी देशभर में बहुत किरकिरी हुई। आखिर झूठ बोलने की भी कोई सीमा होती है।
दो साल से एप्को द्वारा गुजरात सरकार की छवि सुधारने की कोशिश रंग ला रही है। मोदी के अंधभक्तों की संख्या बढ़ती जा रही है। ये लोग सच्चाई से कोसों दूर हैं और गुजरात के विकास की असलियत से मुँह चुराते हैं। इनका मानना है की कांग्रेस पार्टी गुजरात सरकार को बदनाम करने के लिए ऐसी खबरें उड़ा रही है। लेकिन कैग और एनएसएसओ जैसी संस्थाओं ने कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार का भी पर्दाफाश किया है। इन्होंने ही गुजरात सरकार की असलियत को भी उजागर किया है। जिन पाँच एजेंसियों और संस्थाओं के आँकड़े यहाँ दिये गये हैं, वे पूरी तरह संविधान के दायरे में काम करती हैं और सर्वेक्षण और जाँच के मामले में इनकी तकनीक सबसे बेहतर और विश्वसनीय मानी जाती है।

भ्रष्टाचार प्रेम
गुजरात सरकार के भ्रष्टाचार प्रेम के बारे में भी जान लेना रोचक होगा। सूचना अधिकार से मिली जानकारी के अनुसार गुजरात सरकार ने टाटा को नैनो कार की एक परियोजना के लिए 9570 करोड़ का कर्ज दिया, जबकि उस परियोजना की कुल लागत इससे बहुत कम 2900 करोड़ रुपये है। कमाल की बात यह है कि टाटा को यह कर्ज 20 साल बाद लौटाना है जिस पर ब्याज की दर 0.1 प्रतिशत है। टाटा और गुजरात सरकार के बीच लॉबिंग (दलाली) का काम नीरा राडिया ने किया, जो टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले में लॉबिंग के आरोप से घिरी थीं और टाटा के साथ फोन पर गैरकानूनी तरीके से काम कराने से सम्बन्धित उनकी बातचीत का पर्दाफाश हो चुका है। नैनो घोटाले में कुल एक लाख करोड़ की अनियमितता पायी गयी है। एक साल पहले इशाक मराडीया ने गुजरात के मत्स्य पालन मंत्री पुरुषोत्तम सोलंकी के खिलाफ 400 करोड़ के मत्स्य घोटाले की पुलिस जाँच की माँग की थी। इसे संज्ञान में लेते हुए गुजरात उच्च न्यायालय ने प्रदेश सरकार को नोटिस जारी किया। जून 2011 में 2 लाख करोड़ के कांडला बंदरगाह भूमि घोटाले का खुलासा हुआ। गुजरात सरकार ने कांडला बंदरगाह की लगभग 16 हजार एकड़ जमीन मात्र 144 रुपये प्रति एकड़ की दर से किराये पर नमक बनाने वाली कम्पनी को दे दी, जो बाजार भाव से बहुत ही कम है। गुजरात सरकार के आँकड़ों पर यकीन करें तो पता चलता है कि गौतम अदानी के पावर प्लांट, बंदरगाह और विशेष आर्थिक क्षेत्र सेज के लिए गुजरात सरकार ने 131 हजार करोड़ रुपये दिये, कई अन्य घोटालों में भी अदानी का नाम शामिल है। इतना ही नहीं अदानी की कम्पनियाँ मुन्द्रा बन्दरगाह और सेज के इलाकों में पानी के बहाव को रोककर सदाबहार वर्षा वनों का नाश कर रही हैं और मोदी पर्यावरण संरक्षण पर भाषण देते फिर रहे हैं। महुआ और भावनगर के 25 हजार किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, क्योंकि सरकार ने वहाँ 268 हेक्टेयर जमीन निरमा कम्पनी को सीमेंट का प्लांट बनाने के लिए दी है। इसमें से 222 हेक्टेयर जमीन पर एक खूबसूरत झील मौजूद है, जिसे भर कर कम्पनी उसका नामोनिशान मिटा देगी।
गुजरात हाईकोर्ट ने अप्रैल 2013 में एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए गुजरात स्टेट पेट्रोलियम कारपोरेशन (जीएसपीसी) को नोटिस भेजा और सीबीआई को के जी बेसिन गैस और तेल घोटाले की जाँच का आदेश दिया। आन्ध्र प्रदेश के कृष्णा–गोदावरी की घाटी में 64,000 अरब क्यूबिक फीट गैस मिली है। कच्चे अनुमान के हिसाब से इसकी कुल कीमत लगभग 50 लाख करोड़ है। यह गैस का इतना बड़ा भण्डार है कि अगर देशवासियों को मुफ्त में गैस सिलेंडर दिया जाये तो वह 60 साल के लिए पर्याप्त होगी। गैस के इस पूरे भण्डार पर रिलायन्स कम्पनी, विदेशी गैस और तेल कम्पनी जीओ, गुजरात स्टेट पेट्रोलियम कारपोरेशन और ओएनजीसी का कब्जा है। सैकड़ों निजी कम्पनियों के मालिकों और मैनेजरों, सरकारी अफसरों और भाजपा–कांग्रेस के नेताओं ने मिल–बाँटकर यह खिचड़ी पकायी और भर–भर पेट खा गये। बेहयाई का आलम यह है कि गैस के मुफ्त भण्डार पर कब्जा करने के बावजूद भी उन्हें संतोष नहीं हुआ तो उन्होंने गैस सिलेंडर का न केवल दाम बढ़ा दिया, बल्कि एक परिवार को सालाना मिलने वाले सिलेंडरों की संख्या भी सीमित कर दी और लोगों को गुमराह करने के लिए इस पर तरह–तरह की राजनीति करने लगे। यहाँ गुजरात सरकार से सम्बन्धित कुछ एक घोटालों की झलक दी गयी, लेकिन घोटालों की यह सूची बहुत लम्बी है।

“फूट डालो और राज करो”
मोदी के अन्धभक्तों का कहना है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में हार–जीत का फैसला मोदी के विकास मॉडल पर ही होगा। इसीलिए भाजपा के भीतर काफी उठापटक के बाद मोदी को प्रधानमंत्री पद का भावी उम्मीदवार भी घोषित कर दिया गया। लेकिन देश के लोकतंत्र और चुनाव के बारे में मामूली ज्ञान रखने वाला इंसान भी जानता है कि यहाँ चुनाव जीतने के लिए धर्म और जाति के आधार पर उम्मीदवार खड़े करना, चुनाव के समय झूठे वादे करना, साम्प्रदायिक दंगे भड़काकर हिन्दू–मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण करना, वोट खरीदना, शराब पिलाना, बूथ कब्जाना और तरह–तरह के आपराधिक हथकंडे ही जीत–हार का फैसला करते हैं। यह भी तर्क दिया जाता है कि उम्मीदवार यदि ईमानदार है तो गलत तरीके से चुनाव जीत कर भी काम करेगा। लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि गलत उपाय भी तो गलत उम्मीदवार ही अपनाता है। दूसरे ताजा और अच्छा सेब भी सड़े सेब की टोकरी में रखने पर सड़ जाता है। फिर राजनीतिक पार्टियों में ईमानदार उम्मीदवार गुलर के फूल हो गये हैं। चुनावी बारिश आते ही नेता मेढक की तरह टर्राकर अपने विकास का राग अलापने लगते हैं जबकि देश में कुकरमुत्ते की तरह उग आये उनके एजेन्ट जनता को लगातार गुमराह करने की कोशिश करते रहते हैं। “फूट डालो और राज करो” नारे से रोम के गुलाम मालिकों से लेकर अंग्रेज हुक्मरानों तक ने सैकड़ों सालों तक लोगों को गुलाम बनाकर राज किया। लेकिन इतिहास में कई मिसालें हैं जब गुलामों ने आपसी भेद भुलाकर शासक वर्ग को कड़ी चुनौती दी। 1857 का स्वतंत्रता संग्राम हमारी आजादी की लड़ाई में एक ऐसी ही शानदार मिसाल है। उस दौरान हिन्दू–मुस्लिम की एकजुट ताकत ने यूनियन जैक का झण्डा झुका दिया था। इंग्लैण्ड की सरकार भय से काँप उठी थी। इससे सबक लेते हुए अंग्रेजों ने हिन्दू–मुस्लिम के बीच दंगे भड़काये और भारत–पाक का बँटवारा करके न केवल देश को लूटा और कमजोर बना दिया, बल्कि राष्ट्र की आत्मा को भी रौंद दिया। आजादी के बाद कांग्रेस और भाजपा समेत सभी राजनीतिक दलों ने ‘फूट डालो और राज करो’ के इस नारे को हाथों–हाथ लिया। उन्होंने जिन्दगी के हर क्षेत्र में इसे लागू करके मेहनतकश जनता की एकता को छिन्न–भिन्न कर दिया। सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने के लिए वे आज भी जातिवाद, साम्प्रदायिकता और क्षेत्रवाद के आधार पर जनता में नफरत फैला रहे हैं। समय–समय पर वे इसमें विकास का तड़का भी लगा देते हैं। इसी रास्ते पर चलते हुए नरेन्द्र मोदी ने अपने शासन के दौरान 2002 में मुसलमानों का नरसंहार करवाया और बहुसंख्य हिंदुओं की सहानुभूति हासिल करके गुजरात की सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत की। आज वे गुजरात के बहुसंख्य लोगों, किसानों, मजदूरों और बेरोजगार नौजवानों की छाती पर मूँग दलते हुए “गरीबों की लूट और अमीरों को छूट” की कांग्रेसी नीति का अनुसरण ही कर रहे हैं। वे गुजरात में पूँजीपतियों को हर तरह की सुविधा देते हुए गरीबी के पारावार में पूँजीवादी विकास की मीनार खड़ी कर रहे हैं।

कांग्रेस की नीतियों के उत्तराधिकारी 
दरअसल 1991 में देश में लागू हुई वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों पर सभी राजनीतिक दलों में आम सहमति है। गरीबों को लूटकर अमीरों की तिजोरी भरने का ही नतीजा है कि जहाँ एक ओर दुनिया के कुल भुखमरी के शिकार बच्चों में से आधे भारत में है और 80 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं तो दूसरी ओर देश में अरबपतियों की संख्या 6000 से ऊपर पहुँच गयी है, जबकि अमरीका और पूरे यूरोप को मिलाकर यह संख्या 3000 है। यही वजह है कि देश में 8200 धनी परिवारों के पास देश की 70 प्रतिशत से अधिक सम्पत्ति है और बाकी 120 करोड़ के पास 30 प्रतिशत। इन्होंने देश को लूटकर कंगाल बना दिया है। इस लूट में पूँजीपति, नेता, अफसर, माफिया और ठेकेदार अपने धार्मिक और जातिवादी भेदभाव भुलाकर लिप्त हो गये हैं। एक ही परिवार के कुछ लोग भाजपा में हैं तो कुछ कांग्रेस में। ये दोनों हाथों से मलाई मार रहे हैं। एक–दूसरे के खिलाफ बयानबाजी तो हमारी आँखों में धूल झोंकने के लिए है। लेकिन अब वह दिन दूर नहीं जब लोग इनके षड्यंत्रों को समझेंगे और जनता के बीच एक सच्ची एकता स्थापित होगी।

 शौचालय बनाना जरूरी 
गुजरात का एक विकास मॉडल यह भी दिल्ली में एक सभा को सम्बोधित करते हुए नरेन्द्र मोदी ने कहा कि मंदिर से पहले शौचालय बनाना जरूरी है। मजेदार बात यह कि कुछ समय पहले जब यही बात जयराम रमेश ने कही थी, तो संघ परिवार के लोगों ने उसे भारतीय संस्कृति का अपमान बताते हुए जयराम रमेश के आवास के सामने सामूहिक रूप से पेशाब करके विरोध जताया था। जाहिर है कि प्रधानमन्त्री पद के दावेदार मोदी के इस बयान के पीछे विवाद में बने रहकर लोकप्रियता हासिल करना ही है।
लेकिन इसी बहाने हम देखें कि गुजरात में शौचालयों की दशा कैसी है। गुजरात के सबसे समृद्ध शहर अहमदाबाद में शौचालयों की हालत पर हाल ही में मानव गरिमा संस्था ने एक सर्वे रिपोर्ट प्रकाशित की है। रिपोर्ट के मुताबिक अहमदाबाद शहर में हाथ से पाखाना उठाने की घिनौनी प्रथा आज भी जारी है, जिससे वहाँ का शासन–प्रशासन बार–बार इन्कार करता है। सर्वे के दौरान वहाँ 188 उठाऊ पाखाने पाये गये, जबकि अहमदाबाद नगरपालिका क्षेत्र में 126 जगहों पर हाथ से पाखाना साफ करने का चलन देखा गया। 1993 में हाथ से मैला साफ करने वाले लोगों को काम पर रखने और उठाऊ शौचालय बनाने के खिलाफ कानून बना था। इस कानून में यह प्रावधान है कि जो भी ऐसा करेगा, उसे एक साल तक की सजा और 2000 रुपये तक का जुर्माना देना होगा। इस कानून का सही ढंग से पालन न होने की कई शिकायतें सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित हैं। कानून बने 10 साल हो गये, लेकिन यह प्रथा अभी तक जारी है। 1993 में कानून बनाकर हाथ से मैला साफ करने पर रोक लगाये जाने के बावजूद अहमदाबाद नगरपालिका ने सफाई कर्मचारियों को कोई उपकरण मुहैया नहीं किया। अधिकांश कर्मचारी केवल झाडू और लोहे की पट्टी से पाखाना साफ करते हैं। इन कर्मचारियों में भारी संख्या में अस्थायी कर्मचारी हैं जो वहाँ पिछले 10 सालों से काम कर रहे हैं। वे ठेकेदारी प्रथा के अधीन काम पर रखे गये हैं जिन्हें 90 रुपये रोज की दिहाड़ी मिलती है। उनकी न तो कोई सेवा शर्त है और न ही जीवन बीमा या स्वास्थ्य बीमा। झुग्गी–झोपडी के आसपास जो सार्वजनिक शौचालय हैं, उनकी हालत खस्ता है, वहाँ न दरवाजे हैं, न पानी की टोंटी और न ही रोशनी इन्तजाम। आबादी के हिसाब से इन शौचालयों की संख्या भी बहुत कम है। गरीब माँ–बाप बच्चों के शौचालय जाने का खर्चा नहीं उठा पाते, इसीलिए ज्यादातर बच्चे खुले में ही शौच करते हैं। गुजरात सरकार ने गत 21 जून से 26 जून के बीच सभी बड़े शहरों और 195 नगरों में हाथ से मैला सफाई पर सर्वेक्षण करने की अधिसूचना जारी की थी लेकिन ऐसा कोई सर्वेक्षण नहीं किया गया। निजी ठेकेदारों और नगरपालिका अधिकारियों के डर से कि कहीं वे नौकरी से निकाल दिये जायें, कोई भी सफाईकर्मी हाथ से मैला साफ करने से मना नहीं कर पाता। इस अमानुषिक और घृणित प्रथा के बारे में नरेन्द्र मोदी के विचार को देखते हुए गुजरात में इस प्रथा के बने रहना कोई अजूबा नहीं है।
अपनी पुस्तक ‘कर्मयोगी’ में उन्होंने लिखा था– “मैं नहीं समझता कि वे यह काम (हाथ से मैला उठाना) केवल अपनी आजीविका कमाने के लिए कर रहे हैं । अगर ऐसा होता, तो वे पीढ़ी–दर–पीढ़ी इस तरह के काम को लगातार न करते ।–किसी विशेष समय पर, किसी को ज्ञानोदय प्राप्त हुआ होगा कि यह उनका (वाल्मीकि समुदाय का) कर्तव्य है कि वे पूरे समाज और प्रभुओं की खुशी के लिए यह काम करें कि उन्हें यह काम (हाथ से मैला उठाने का काम) इसलिए करना है कि भगवान ने उन्हें यह काम एक आंतरिक आध्यात्मिक साधना की तरह सदियों तक चलाते रहने के लिए सौंपा है ।” क्या नरेन्द्र मोदी यही विकास मॉडल और ऐसे ही विचार पूरे देश पर थोपने का ख्वाब देख और दिखा रहे हैं ?

--विक्रम प्रताप